Saturday, 10 March 2012

दोहरी भूमिकाओं से हुआ है मेरे व्यक्तित्व का विकास-मृत्युंजय कुमार सिंह


पश्चिम बंगाल के पुलिस महानिरीक्षक मृत्युंजय कुमार सिंह साहित्य और संस्कृति की दुनिया में एक जाने-पहचाने नाम हैं। गंभीर प्रशासनिक कार्यों के साथ-साथ कविता, गायन अनुवाद के क्षेत्र में उनके योगदान से जुड़ा उनका बहुआयामी व्यक्तित्व लोगों को प्रेरित और विस्मित करता है। प्रस्तुत है उनसे डॉ.अभिज्ञात से की गयी लम्बी बातचीत के अंश :

प्रश्न : आप पुलिस प्रशासनिकसेवा जैसे उलझन भरे और तनावपूर्ण दायित्व तथा साहित्य-संस्कृति जैसे कोमल विषय के बीच तालमेल कैसे बिठाते हैं? क्या दोनों के बीच कोई अंतर्विरोध नहीं महसूस होता?
उत्तर : नहीं। उल्टे मैं पुलिस सेवा से जुड़ी अपनी प्रशासनिक जिम्मेदारियों को और गंभीरता से ले पाता हूं। मेरे लिए किसी समस्या का निदान सिर्फ सरकारी ड्यूटी नहीं रह जाता, मैं उससे व्यक्तिगत तौर पर भी अपने को जुड़ा हुआ पाता हूं और संतोषजनक निदान की तलाश करता हूं। मैं अपने कामकाज में उस साहित्यिक संवेदना को छोड़ नहीं पाता, जो मेरे स्वभाव में रची-बसी है। उसका उल्टा भी सच है कि मैं यदि प्रशासनिक कार्यों से सीधे तौर पर करीब से जुड़ा न होता तो स्थितियों को उस तरह से देखने का अवसर नहीं मिलता, जैसा मैं देख और समझ पाता हूं। इससे मेरे अनुभव व संवेदन जगत का विस्तार हुआ है। कई बार ऐसे हालात सामने आये जिसने मुझे लिखने को प्रेरित किया। मेरी कई रचनाएं प्रशासनिक जिम्मेदारियों के निर्वाह के दौरान प्राप्त अनुभवों पर आधारित हैं या उनसे प्रेरित हैं। इस प्रकार मेरे व्यक्तित्व के दोनों पहलू मुझे एक दूसरे के पूरक लगते हैं और एक दूसरे को खुराक पहुंचाते रहते हैं। 12 देशों के बोरोबुदुर सम्मेलन में मैंने भारत का प्रतिनिधित्व किया था। उस आयोजन में मैंने कविता पढ़ी थी- 'बुद्ध हम तुम्हें बेचना चाहते हैं..' जो बेहद पसंद की गयी और इस प्रकार मेरी रचनात्मकता ने मुझे मेरे प्रशासनिक दायित्व के निर्वाह में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। जब मैं आरपीओ था, मेरे समक्ष एक तलाक का मुद्दा आया था। पति-पत्नी के बीच एक बच्चा था- कौस्तुभ। उस बच्चे के भविष्य को लेकर मैं चिंतित हो उठा था। मैंने कौस्तुभ पर कविता भी लिखी थी।
प्रश्न : इन दिनों कालिदास के 'मेघदूत' के आपके काव्यानुवाद की खासी चर्चा है। इसमें आपने किन बातों पर विशेष तौर पर ध्यान दिया?
उत्तर : मूल कृति में कालिदास की भाव-भव्यता और काव्य-सौंदर्य को किस प्रकार बचाये रख कर अनुवाद हो इस पर मैंने विशेष ध्यान दिया। मैंने इस बात को महसूस किया कि छंदों का गद्य में अनुवाद प्रभावी नहीं होगा, इसलिए मैंने उपयुक्त छंद की रचना की। लय के बिना कालिदास के भावों के बिखरे मोतियों के खो जाने की आशंका मुझे थी।
प्रश्न : अनुवाद को आपने प्रासंगिक किस तरह बनाया है और अपनी तरफ से उसमें क्या दिया है?
उत्तर : इस रचना को गुनते समय मुझे यह महसूस हुआ कि इसमें यक्षिणी के विरह पक्ष को उद्घाटित किया गया है, जबकि यक्ष की विरह-वेदना काव्य में अंत:सलिला की तरह बहती रहती है। मैंने इस कृति में यक्ष के विरह-बिंदुओं की खोज की है। अपनी ओर से मैंने मूल छंदों की तरह ही यक्ष के विरह को महत्व देने वाले छंदों को जोड़ा है। यक्ष का परिचय प्रथम पुरुष के रूप में दिया है। मुझे यह आवश्यक लगा था कि मैं कृति के नायक का परिचय पहले दे दूं ताकि मूल कथ्य से पाठक जुडऩे में सहज हो सके, जैसे नाटक के प्रारंभ में पात्र परिचय दिया जाता है। यह मामला कुछ उसी तरह का है। इसके अलावा मैंने पर्यावरण से जुड़े कई प्रश्नों को भी पूरी शिद्दत से इसमें उठाया है।
प्रश्न : कालिदास की कृति का अनुवाद करने की प्रेरणा कहां से मिली?
उत्तर : मेरे संगीतकार मित्र देवज्योति मिश्र ने मुझसे एक फिल्म के लिए मेघ पर छंद लिखने को कहा। वे चाहते थे कि मैं कालिदास के 'मेघदूत' जैसा कुछ लिखूं। इस संदर्भ में मैंने डॉ. उदयभानु सिंह से संपर्क किया। वे मेरी पत्नी के दादाजी तथा संस्कृत के उद्भट विद्वान थे, जो अब नहीं रहे। मेघदूत को समझने के लिए मैंने उनके साथ पढ़ा। मैंने उनसे गुजारिश की कि वे संस्कृत के सामासिक शब्दों को तोड़ दें ताकि मैं उसकी तहों में छिपे अर्थों की भी खोज कर सकूं। मैंने उन्हें कृति पर कोई टिप्पणी करने से मना कर दिया था ताकि उनकी टिप्पणियों और नजरिये का मुझ पर प्रभाव न पड़े और मैं उन अर्थों को स्वत: प्राप्त कर सकूं। इस प्रकार मेघदूत ने मुझे अपने आकर्षण में पूरी तरह से बांध लिया और अनुवाद के जरिये उसके पुनर्सृजन की इच्छा मुझमें जगी। मेघदूत के अनुवाद का कार्य अब पूरा हो चुका है। मैंने हिन्दी और अंग्रेजी, दोनों भाषाओं में यह कार्य किया है। हिन्दी रचना की भूमिका संस्कृत के साधक तथा ज्ञानपीठ सम्मान, पद्मश्री व पद्मभूषण से नवाजे गये डॉ. सत्यव्रत शास्त्री ने लिखी है। अंग्रेजी अनुवाद को ट्रेफर्ड पब्लिकेशंस, यूएसए प्रकाशित कर रहा है। उसके 40 छंदों का अनुवाद इंडोनेशियाई भाषा में आयु उतामी ने किया तथा उन्होंने अक्टूबर 2011 में हुए सालीहारा लिटरेरी फेस्टिवल में उसका पाठ भी किया था।
प्रश्न : जब आप अंग्रेजी हिन्दी दोनों भाषाएं समान रूप से जानते हैं तो फिर अंग्रेजी में क्यों नहीं लिखते? बतौर लेखक अंग्रेजी वालों में स्टारडम है। पैसा और शोहरत दोनों अधिक है।
उत्तर : स्वभावत: मैं अपने को हिन्दी के करीब पाता हूं। मैं जब हिन्दी में लिखने बैठता हूं तो भाव अपने आप शब्द लेकर आते हैं, जबकि अंग्रेजी में मैं अपनी बातों को शब्द पहनाता हूं। इस तरह जब हिन्दी ही मेरी स्वाभाविक रचनात्मक भाषा है तो फिर उसी में क्यों न लिखूं?
प्रश्न : भोजपुरी में भी तो आप लिखते हैं?
उत्तर : भोजपुरी मेरी बोली है जो मेरे उन भावों को भी व्यक्त करती है जिसका किसी और भाषा में अनुवाद करने की मुझे आवश्यकता महसूस नहीं हुई। मुझे भोजपुरी से प्रेम है और वह मेरी निजता की भाषा है। मुझे किसी को प्रदर्शित करने की आवश्यकता नहीं हुई कि मैं भोजपुरी बोलता हूं और अपनी गीतात्मकता को उसमें व्यक्त करता हूं। मैंने भोजपुरी में गीत लिखेे हैं और भोजपुरी गीत गाता भी हूं।
प्रश्न : इन दिनों क्या रच रहे हैं?
उत्तर : द्रोपदी पर लिखना शुरू किया है। यह एक खण्ड-काव्य होगा। इसके 15-20 छंद अब तक लिख चुका हूं। मैं द्रोपदी को आज की नारी की चुनौतियों के साथ जोड़कर देखता हूं और प्रयास कर रहा हूं कि मेरी कृति की द्रोपदी आज की नारी शक्ति का प्रतीक बने। मैंने द्रोपदी को उसके पौराणिक चरित्र से फ्लैश बैक में उठाया है। द्रोपदी के उस रूप को आदर्श के रूप में ग्रहण किया है जब उसकी मृत्यु के दिन करीब आते हैं और वह होमाग्नि में समर्पित होने जाती है। वहीं मैं उसके विश्वरूप को देखता हूं। मैंने कथा को वहीं से शुरू किया है और उसके आलोक में उसके पूर्ववर्ती रूपों को शब्द देना शुरू किया है।
प्रश्न : क्या महाभारत के प्रसंगों पर पहले भी कोई काम किया है?
उत्तर : हां, जब मैं इंडोनेशिया में सेवारत था, महाभारत के चरित्र शिखंडी पर संगीत-नाटक या डांस बैले लिखा था, जिसे नाम दिया था 'शिखंडिनी'। उसमें मेरे साथ दिदिक निनी थोवोक ने काम किया था। वे जावा नृत्य के शिरोमणि समझे जाते हैं, जो ट्रांसजेंडर हैं। उसमें जावनीज नृत्यकारों, कत्थक व छऊ डांसर्स ने मिलकर काम किया था। यह एक घंटे का कार्यक्रम था। इसमें मैंने शिखंडी के प्रारब्ध और नियति के अंतद्र्वंद्व को रेखांकित किया है। मैंने यह भी दिखाया है कि प्राकृतिक नियमों की उपेक्षा करने के कारण कैसे भीष्म जैसा शक्तिशाली चरित्र मानवीय दुर्बलता से उबर नहीं पाता। भारत-इंडोनेशिया के कूटनीतिक संबंधों की 60 वीं वर्षगांठ पर जो ऐेतिहासिक समारोह मनाया गया, उसके उद्घाटन कार्यक्रम का यह प्रमुख हिस्सा था। यहां यह उल्लेखनीय है कि शिखंडी को लेकर इंडोनेशिया और भारत की पौराणिक परंपरा एक ही है। वहां उन्हें श्रीकांडी कहा जाता है। वहां श्रीकांडी की पूजा होती है। शिखंडी ने अर्जुन की पत्नी के रूप में भी अपनी भूमिका निभाई थी और भीष्म पर विजय पाने में अर्जुन की मदद की थी। इंडोनेशिया में मेरी मित्र इबू इला हैं। इबू इला ने चित्रा बनर्जी दिवाकुरनी की पुस्तक 'पैलेस ऑफ इल्यूजन' का अनुवाद किया है। इस उपन्यास को पढऩे और इबू इला के साथ द्रोपदी के चरित्र और व्यक्तित्व पर चर्चा के दौरान यह प्रेरणा और भी बलवती हो उठी।
प्रश्न : आपने अपनी रचनाओं या अनुवाद में जो भी प्रसंग उठाये हैं वे हिन्दू पौराणिक चरित्रों से जुड़े हैं। क्या यह माना जाये कि आप हिंदुत्व के मुद्दों को तरजीह देते हैं?
उत्तर : नहीं। हिंदुत्व मेरा एजेंडा नहीं है। धर्म विशेष की बहुलता वाले संदर्भों का मतलब यह नहीं कि मैं उसे तरजीह देता हूं। यह मेरी सामाजिक पृष्ठभूमि की वजह से स्वाभाविक रूप से आया है। किसी भी रचनाकार के ज्ञान व संवेदना का संबंध अनिवार्यत: उसकी पृष्ठभूमि से होता है। मैंने फिल्म 'चतुरंग' के लिए सूफी गीत लिखे हैं। सूफी गीत या काव्य इस्लामिक परंपरा की रचनाएं हैं, जिनका सरोकार मेरे पालन-पोषण से उतना नहीं रहा जितना कि हिन्दू परंपराओं का। फिर भी अपने परिवेश और जगत में जीते हुए इन परंपराओं के बारे में जो मैंने जाना, वे सब मेरी रचनाओं में परिलक्षित होते हैं। चतुरंग फिल्म के दो सूफी गीत (जिन्हें देवज्योति मिश्र के संगीत निर्देशन में शफकत अमानत अली ने गाये हैं ) मेरे इसी पक्ष का उदाहरण हैं। मेरे प्रथम-काव्य संग्रह 'किरचें' में भी कुछ गजलें हैं, जिनमें उर्दू के ऐसे शब्द और बिंब प्रयुक्त हुए हैं, जो साधारणतया हिंदी लेखकों से अपेक्षित नहीं होते।

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