पुस्तक समीक्षा /डॉ.अभिज्ञातसड़क मोड़ घर और मैं/ निर्मला तोदी/वाणी प्रकाशन, 4695, 21 ए, दरियागंज,नयी दिल्ली-110002, मूल्य-295 रुपये |
निर्मला
तोदी की कविताओं को पढ़ना एक ऐसे काव्यात्मक संसार से गुज़रना है, जहां
इस बात का चौकन्नापन और सजगता मिलती है कि अमुक शै अमुक ज़गह पर होनी चाहिए थी, वह
वहां क्यों नहीं है। अगर वह अपनी ज़गह से हट रही है, हट चुकी है या हटेगी तो उसके कारक
क्या हैं। विस्थापन की ऐसी चिन्ताएं उनकी सोच को काव्यात्मक प्रतिबद्धता प्रदान करती
है। विस्थापन और खालीपन के दंश का सामना उनकी कविताओं में बार-बार होता है और इस क्रम
में हर बार कविता की एक नयी ज़मीन टूटती लगती है। उनकी काव्य- शैली इतनी सधी हुई है
कि कविता अपने होने को अलग से उजागर नहीं करती। साधारण घटनाओं के बीच चुपचाप बहती रहती
है। न तो उनकी कविताओं में टूटन की तीव्र आवाज़ें हैं और ना रूदन की तेजतर हिचकियां,
पर उदासी है और जहां-तहां पसरी पड़ी है-'बड़े मज़बूत हैं दीवारों
के कंधे/सिर रखकर रोया जा सकता है/अपनी
बात कही जा सकती है/ खूब धैर्य से सुनती हैं/बड़े सुन्दर हैं इसके कान/किसी और से कहती भी नहीं/मेरी बातें सिर्फ़ मुझसे करती हैं/मुझे अपने जैसी लगती
हैं।'
ये
कविताएं किसी के न होने में होने का आभास करातीं और होने की अर्थवत्ता को भी उजागर
करतीं हैं। और समय के चूक जाने के बाद होने के अर्थ को समझना स्थिति को कारुणिक भी
बनाता है। कभी पूरी न होने वाली एक क्षति का पता देता है और कई बार खालीपन से उपजी
उपलब्धियों से संतोष करना भी सिखाता है-'बड़ों का सिर पर हाथ हो/बहुत कुछ संभल जाता है/अपने आप/ बड़ों की खड़ाऊं/ संभाल लेती है राज-पाट।' मृत्यु पर लिखी गयी हिन्दी कविताओं के क्रम में निर्मला तोदी की कविता ‘उनके जाने के बाद’ एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है, यह कविता उन्होंने अपनी सास की मृत्यु पर लिखी है-'सुबह
नल की सबसे पहली आवाज़/शाम के कूकर की पहली सीटी/अब चुप है/वह जिस जिस आवाज़ में थी/यह भी मालूम हुआ/उनके जाने के बाद/रसोई से/उनका पानी का लोटा गुम है/तनी पर सूखते कपड़ों में/सफ़ेद रंग कम है/लगातार हाथ में घूमती माला/बैठी है चुपचाप/सब चीज़ें कहां थीं/मालूम हुईं उनके जाने के बाद।'
अभिव्यक्ति
की विकलता और अपने अंतरमन को पन्नों पर उकेरने की बेचैनी कि कविताएं हैं ‘सड़क
मोड़ घर और मैं’ काव्य संग्रह में। अच्छी, उत्कृष्ट समकालीन काव्यात्मक मुहावरों से कदमताल करने का कोई प्रयास नहीं दिखायी
देता और यही सादगी उनकी खूबी है। कई कविताएं शृंखलाबद्ध हैं। एक पूरा परिदृश्य उनकी
कई कविताओं को मिलाकर उपस्थित है। अर्थात् तीन-चार-पांच कविताएं एक ही ज़मीन पर लिखी
गयी हैं या फिर उन्हें मिला भी दिया जाये तो एक ही कविता का हिस्सा बन जाये, अर्थात्
एक भावभूमि पर शृंखला की एकाधिक कविताएं हैं। ऐसा हमारे समय के महत्त्वपूर्ण कवि केदारनाथ
सिंह में भी है। उन्होंने ‘सूर्य’ पर कई
कविताएं लिखी हैं, हालांकि उन्हें अब तक वैसे शृंखलाबद्ध नहीं
किया गया है जैसे ‘बाघ’ कविता का किया गया।
उनकी सूर्य सम्बंधी कविताओं को शृंखलाबद्ध करने पर एक नये विस्मयलोक और अर्थपूर्ण जगत
का उद्घाटन संभव है। केदारजी के पूर्ववर्ती कवि मुक्तिबोध में भी यह शृंखलाबद्धता दिखती
है, भावबोध की। मुक्तिबोध साथ तो यह भी हुआ कि उनकी लम्बी कविता के टुकड़े अलग-अलग कविता के तौर पर प्रकाशित हुए। निर्मला तोदी में शृंखलाबद्धता की प्रवृत्ति
इसलिए दिखायी देती है कि उनमें एक समूचा काव्य व्यक्तित्व है, जो एक बड़ी सम्भावना वाले रचनाकार में दिखायी देता है। रवीन्द्रनाथ टैगोर,
अज्ञेय, शमशेर आदि की तरह। सारी रचनाओं की कड़ियां
कोई सावधानी से मिलाये तो मिलेंगी। ‘उनके जाने के बाद’, ‘जिस समय सांस निकलती है’, ‘इस
तरह’, ‘जीवन चलता रहता है’, ‘बड़ों की खड़ाऊं’ एक ही भावभूमि की कविताएं हैं। उसी प्रकार ‘198 बी बी
गांगुली स्ट्रीट’, ‘अपनी गली की दुनिया’, ‘रैली में, होड़’ एक शृंखला की कविताएं
हैं जो उनके अपने व्यक्तित्व और उनके आसपास के परिवेश और मनोजगत की हलचलों का पता देंगी।
वैसे शमशेरित उनकी कविताओं में चित्रात्मकता के संदर्भ में है। उनकी कई कविताओं में
दृश्य ऐसे उपस्थित हैं, जैसे वे किसी पेंटिंग का विवरण हों। या फिर कोई चाहे तो उनकी
कविताओं को पढ़कर पेंटिंग बना ले।
उनकी
कविताओं में प्रकृति भी बड़ी गरिमा से उपस्थित है तथा उसकी छोटी- बड़ी हलचलों का जीवंत
समूचा दृश्य है,
खासतौर पर बारिश का अंतरबाह्य प्रभाव परिलक्षित है और उसका बारीक विवरण
भी। जीप की घरघराती आवाज़ से दरख़्तों की टूटती तन्मयता तक की फ़िक्र उन्हें है-'कौन सी साधना/ कैसी तन्मयता/ टूटती
है/जब घरघराती जीप गुज़रती है।' कई बार
तो वे मनुष्य तो वृक्षों से सीखने की नसीहत तक दे डालती हैं-'सभी पेड़ खड़े हैं/ साथ साथ/ पास
पास/ हम लोगों में/ ऐसा क्यों नहीं होता।'
उनकी
कविताओं में कई ज़रूरी सवाल और मुद्दे हैं, जिनमें शहर के आगे गांव की हैसियत, वर्तमान
समाज में स्त्री की स्थिति, परित्यक्त स्थलों की उदासी,
मृत्यु से उपजा सूनापन उल्लेखनीय है। स्त्री के सम्बंध में वे लिखती
हैं-'चांदनी फैली हो/ या हो अमावस्या की
रात /उसे क्या फ़र्क पड़ता है/ वह सोती
है/ रोज़ ही/ वाणों की शैया पर।' ध्यान पर भी उनकी कविताएं हैं, जो उनकी कविताओं में
आध्यात्मिक रुझान को पुष्ट करता है।
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