-डॉ.अभिज्ञात
पुस्तक –एक दिन अचानक
लेखक-जितेन्द्र
जितांशु
प्रकाशक-सदीनामा
प्रकाशन, एच-5. गवर्नमेंट क्वार्टर्स, बजबज, कोलकाता-700137
मूल्य-30 रुपये
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जितेन्द्र जितांशु
का दूसरा कविता संग्रह है एक दिन अचानक। पहला संग्रह कबूतर काफी अरसा पहले 1975 में
आया था। तब से उनकी कविता काफी आगे बढी है और उन्होंने विचार और संवेदना के नये धरातल
की लगातार तलाश की है। उनकी कविता में जहां एक ओर जूझारूपन है वहीं एक बेफिक्री और
मस्ती भी है, जो एक नये तरह का सम्मोहन रचती है। शब्दों और आशय की नयी गति और नयी लय
उनके नये संग्रह की विशेषता है। गंभीर बातें वे बड़ी आसानी से कह जाती हैं जिसमें कई
जगह तुक बैठती तो कहीं टूटती है..लेकिन यह टूटन, यह लापरवाही एक सौंदर्य की सृष्टि करती है। ‘ये प्यार क्या’ है कविता में वे लिखते हैं-
‘इंकार भी इकरार भी
धिक्कार भी तकरार
भी
किस्से कहानी
नज़्म कविता गीत
थिरकते चित्र, कितने रंग, कितने
संग, कितने गीत
कट के गिरा तो
पता चला धार क्या है
ये प्यार क्या
है
सुखी को सोने
न दे
दुखी को रोने
न दे
हर एक युग में
जीत
कैसा ज़िन्दगी
का गीत
कितनी सभ्यताएं, बनीं बिगड़ीं दौड़ते रथ
ज़िन्दगी के आख़िरी
क्षण तक खुला पथ
मोक्ष क्या है..धर्म
क्या संसार क्या है
ये प्यार क्या
है
सुखी को सोने
न दे
दुखी को रोने
न दे।‘
जितेन्द्र जितांशु
संवादधर्मी कवि हैं। वे हर समस्या का निदान संघर्ष से नहीं बल्कि संवाद से खोजने के
हिमायती रहे हैं। बिना संवाद के की गयी कोई भी कार्यवाही समस्या को जहां की तहां रखना
ही साबित होगा,
चाहे जिसनी पुरानी बात हो उसका समाधान
संवाद से ही सम्भव है..एक दिन अचानक शीर्षक कविता में वे कहते है-
‘आ ही गया प्रश्न
क्या तुम भी मानते
हो
क्या तुम जानते
हो
कितनी ज़रूरत
है सभ्यताओं के बीच संवाद की
एक दिन अचानक
कविता की धार
शब्दों की गूंज
तितली के पंख
पसीने की गंध
मिलेंगे म्यूज़ियम
में
हमारे इन्तजार
में।‘
इस संग्रह की
कविता में आज के मनुष्य की इच्छा, आकांक्षा, स्वप्न और उलाहने सब कुछ हैं। कवि के लिए तो उनकी कविताएं
उनके लिए उनका दर्शन और धर्म तक है। जीते
रहने के प्रमुख कारणों में से एक। इन संवादधर्मी कविताओं के बीच जहां तहां अभिव्यक्ति
का एक टटकापन है, जो हमें दुखद विस्मय में डाल देता है-
‘मौन होते जा रहे पुर्जे सृजन के
कौन सा बारूद
बरसेगा गगन से
इस सृजन की सार्वभौमिकता, सरलता नि:स्वार्थ
साथ रहना है समझ
के साथ।‘
कवि को सिर्फ
साथ नहीं चाहिए बल्कि समझ के साथ साथ चाहिए।
‘नववर्ष की शाम’ कविता में जितेन्द्र जितांशु ईदगाह कहानी को
नये संदर्भ में रचते हुए कहते हैं कि बच्चे हामिद को अपनी दादी के लिए अब मेले से चिमटा
नहीं खरीदना है, जिनसे वह रोटी सेंकते
हाथों को जलने से बचा सके बल्कि उसे अब एक जिस्ता काग़ज और कलम चाहिए, जिससे वह अपनी
दादी को हर मुश्किल से बचा सके।
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