Friday, 26 April 2013

अभिज्ञात की कविताएं


दोस्तो,
आकाशवाणी, कोलकाता की कवि गोष्ठी में आज दिनांक26 अप्रैल 2013 को काव्य पाठ में आनंद आया। संचालन कर रहे थे वरिष्ठ पुलिस अधिकारी, कवि, गायक व मेघदूतम का अंग्रेज़ी व हिन्दी में काव्यानुवाद करने वाले श्री मृत्युंजय कुमार सिंह। मैंने जो कविताएं पढ़ीं उसे आपने यदि न सुनी हों तो पढ़कर आनंद लें और अपनी प्रतिक्रिया से भी वाकिफ करायें....
  • अगली सदी तक हम
स्पंदन बचा है अभी
कहीं, किन्हीं लुके-छुपे सम्बंधों में

अन्न बचा है
अनायास भी मिल जाती हैं दावतें

ऋण है बचा कि
बादलों को देखा नहीं तैरते-जी भर
बरस चुके कई-कई बार

क्षमा है कि बेटियां
चुरा ले जाती हैं बाप की जवानी
उनकी राजी-खुशी

जोश है बचा
कि रीढ़ सूर्य के सात-सात घोड़ों की उर्जा से
खींच रही है गृहस्थी

कहीं एक कोने में बचे हैं दुख
जो तकियों से पहले
लग जाते हैं सिरहाने
और नींद की अंधेरी घाटियों में
हांकते रहते हैं स्वप्नों की रेवड़

पृथ्वी पर इन सबके चलते
बची है होने को अभी दुर्घटना

प्रलय को न्योतते हुए
नहीं लजायेंगे अगली सदी तक हम।

  • जड़ों का वक्तव्य अगर लो
नंगी
ठेठ
ठोस
ज़मीन से जिनके प्राथमिक रिश्ते हैं
अचरज की उनके मन
जेठ की सिवान से अधिक दरके-दरके हैं

यह एक और बड़ा सच है
कि ज़मीन के जो ऊपर है
वह ज़मीन के बाहर नहीं है
बल्कि वही सचमुच ज़मीन में है
जड़ों का वक्तव्य अगर लो
भीतर होना ही
बाहर होने की एकमात्र विश्वस्त शर्त है
और शर्त का माने है दोस्तो
जोखिम!
हर शर्त जोख़िम से शुरू होकर
जुए तक पहुंचती है
और जुआ
बैल नहीं आदमी के कंधे पर
अक्सर होता है
प्रायः हर घड़ी

आदमी अपने कंधे पर
जुआ नधाए हुए
आदमी लगता है
एकदम आदमी
ज़मीन का वारिस
ज़मीन का हक़दार
ज़मीन के अंदर
अंदर का हिस्सेदार
इसलिए, ज़मीन के ऊपर की हिस्सेदारी
ज़मीन के अंदर की हिस्सेदारी से
कत्तई अलग नहीं है

कोई आये और गंगा को नील कह दे
मैं अपने हिमालय को
चीन की दीवार से बदलने को तैयार हूं

मैं अपने हिस्से के शब्दकोषों से
मातृभूमि
खारि़ज़ करने की कोशिश में हूं।

  • हक़ पर साझा
इस लम्बे शहर के पिछवाड़े
एक नाटा सा कमरा है मेरा

कमरा
जिसमें जाड़े के दिनों में
आसानी से महसूस कर सकते हैं आप
स्टोव की गरमाहट अपने रोओं पर

फिलहाल जबकि जाड़ा नहीं है
पूरा कमरा एक मुकम्मल तवा है
जिसे स्टोव गरमा रहा है धीरे-धीरे

इस शहर और इस कमरे में रहते-रहते
मैं इसका कायल होता जा रहा हूं
कि दुनिया की तमाम आक्सीजन पर
इस स्टोव का उतना ही हक़ है
जितना मेरे फेफड़ों का।

  • दूर नहीं है हिमांक
बड़ी तेज़ी से दुनिया
व्याकरण से बाहर हो रही है
दुनिया अपनी कोख में समा जायेगी
व्याकरण विहीन होकर
जबकि सब कुछ जल रहा है
यह जम रही
जम कर क्या रह जायेगी दुनिया?

इसका पिघलना
किस अक्षांश पर होगा
इसी फ़िक्र में
जम जाते हैं लोग

जबकि उनके पास पिघलने की एकमात्र चिन्ता होती है
वे ख़ुद जमने की ओर तेज़ी से अग्रसर होते हैं
बिना समझे कि
जमने और पिघलने के बीच
एक संतुलन का आस्वाद
उसकी आहट
उसे राहत दे सकती है, अगर वे सुनें
अगर यह हो पाये
अगर यह हो पाये तो दुनिया
एक साफ़ धुली हुई काली-कत्थई स्लेट तक हो सकती है
जिस पर आदमी
गुणनफल निकालने में व्यस्त हो सकता है
इसके बावज़ूद बचा रह सकता है
कुछ न कुछ शेष
शेष नहीं तो कुछ चाक
चाक के साबूत टुकड़े

स्लेट के लिए चाक का होना
दुनिया को जलकर जमने से बचाना है
व्याकरण के बाहर जाती हुई दुनिया के लिए
एक व्याकरण
जो हमारी धमनियों में है
हो सके तो मित्रो, उसे ढूंढो
और इस निरंतर जमती हुई दुनिया को
आग के बचाओ

आंधी आने से पहले
बुत जानी चाहिए
हर बोरसी की आग
अगर दो पत्थर कहीं पड़े हैं
तो आग को लेकर चिन्तित मत होओ
उसे बेझिझक बुता दो
पैदा हो सकती है ज़रूरत भर आग

फिलहाल
आग अगर कहीं शब्द है
तो उसके माने बदल दो
आखि़र दुनियाल को चाहिए ही चाहिए
एक व्याकरण
और व्याकरण को चाहिए
सही शब्द नहीं
सही नीयत
शब्द के बाहर भी हो सकते हैं-व्याकरण
बहुत दूर नहीं है हिमांक
ज़रा, जल्दी करो।

  • संवाद के लिए
यह समझकर
कि लगातार बोलना
अंदर चुप होते जाने की आहट है
मैं सहसा चुप हो जाना चाहता हूं

चुप हो जाना चाहता हूं
भीतर व्यापते सन्नाटे के विरुद्ध

मैं उलीच देना चाहता हूं
मने के भीतर का रत्ती-रत्ती सन्नाटा-बाहर

अंदर के संवाद को बचाये रखने के लिए
चुप होना पलायन नहीं है
जैसा कि है का अंदेसा होता है
अक्सर बोलते हुए लोगों को

मैं संवद को और तहों में
धमनियों के तहखाने तक ले जाना चाहता हूं

मैं अंदर के संवाद को
इशारे की शक्ल देना चाहता हूं

मैं इशारे को सही दिशा का संवाद चाहता हूं
चाहता हूं एकदम ठीक दिशा की ओर अंगुली उठाना
बस एक बार

अगर नहीं उठा पाऊं अंगुली
तो भी चाहता हूं
चाहता रहूं अंगुली उठाना

मैं एक सही इशारा होने की
कोशिश होना चाहता हूं

सचमुच मैं
चुप चुप चुप होना चाहता हूं।

  • वंशावली के लिए
मैंने आश्चर्य से देखा
पूरी पृथ्वी आश्चर्य से रिक्त हो चुकी है

कहीं भी, कुछ भी नहीं घटता आश्चर्य
घटना, आश्चर्य नहीं

इस भोथड़ी पृथ्वी का आश्चर्य रहित होना
और फिर भी उसका होना
आश्चर्य हो तो हो

पृथ्वी आठवें आश्चर्य की प्रतीक्षा में
चूक गयी है

इस पृथ्वी पर बोना पड़ेगा
नये सिरे से आश्चर्य
जैसे बोआ जाता है गन्ना
दूसरी फसल के बाद
नये सिरे से

कैसा हो
आश्चर्य बदल जाये सहसा
जौ के तैयार बेंगे में
कहीं भी छींट दो और उग आये
रातोंरात आश्चर्य
खेत का खेत।

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