Thursday, 14 February 2013

गज़लों में सुनाई देती समकालीन दुनिया की धड़कनें


मंज़र लहू लहू/गज़ल संग्रह/लेखक-स्वाधीन/ प्रकाशक-गीता प्रकाशन, 4-2-771, रामकोठी चौराह, हैदराबाद-500001/ मूल्य-95 रुपये

गज़लों की दुनिया में स्वाधीन एक सुपरिचित नाम है। उनकी शायरी का स्वर धीमा है मगर वह देर तक हमारे दिलोदिमाग में अपनी अनुगूंज बरकरार रखता है। प्रतिबद्ध रचनाशीलता में उनका नाम ज़रूरी तौर पर लिया जाता है। समकालीन दुनिया की हर छोटी-बड़ी घटना पर उनकी पैनी नज़र है और वे उस पर अपनी प्रतिक्रिया देते समय बेहद चौकन्ने रहते हैं। हालांकि गज़लों में घटनाएं अपने वास्तविक रूप में नहीं आतीं, बस उसकी तासीर हमें महसूस होती है। घटनाएं पाश्र्व में चली जाती हैं। कोई पहली नजऱ में उनकी वामपंथी दृष्टि और जूझारूपन से परिचित नहीं हो पाता, क्योंकि वे अपनी बात कहने का हुनर जानते हैं। वे नारे और साहित्य का महीन फ़र्क समझते हैं। लेकिन जब हम उनकी बातों की तहें खोलते हैं तो उनकी दृष्टि की गहराई नजऱ आने लगती है। वे जल्दबाजी के हिमायती कभी नहीं रहे हैं और उनकी शायरी पर भी निर्णय लेने से पहले उसकी रूह तक पहुंचना जरूरी होगा। हालांकि उनकी गज़लें खुद हमारी रूह को छू छू जाती हैं। अपने ताज़ा गज़ल संग्रह 'मंज़र लहू लहू' के एक शेर में वे कहते हैं-'कागज की कश्ती पानी में भीगने दो कुछ देर अभी। दीया रोशन तेज हवा में इतनी जल्दी मत करना।'
देश और दुनिया में हो रहे राजनैतिक परिवर्तन पर उनकी प्रतिक्रिया है-'उसका वजूद बाज की सूरत में ढल गया। उड़ते ही मेरी छत से कबूतर बदल गया।' स्वाधीन सामाजिक जीवन को व्यक्तिगत जीवन से कम महत्व नहीं देते। लोगों के दुख-सुख से वे उसी तरह जुड़े हैं जितना अपने जीवन के सुख-दुख से। वे लिखते हैं-'कोई आवारा हवा का नहीं झोंका आया। अपने हाथों से बुझे हम ये सफर भी क्या है॥' वामपंथी राजनीति के पराभव और लगभग हताश होते जीवन मूल्यों के बर अक्स वे आशावान हैं। वे लिखते हैं-'मैं लिखूंगा शाम के रस्ते पे सूरज का पता। आस्मां में  तुम सहर होने का मंजर देखना।'
स्वाधीन की गजलों में प्रेम की गहराई भी जहां-तहां साफ दिखायी देती है-प्रेम पर उनकी कई गजलें उनके इस गज़ल संग्रह में है। एक ऐसा ही शेर देखें-'हम जैसे दिलवाले तो आंसू लेकर घर लौटे। दुख के बाजारों में सुख का कितना महंगा सोना है॥' स्वाधीन की शायरी से गुजरते हुए हमें यह पता नहीं चलता कि कहां हिन्दी खत्म होती है और कहां उर्दू शुरू होती है क्योंकि दोनों भाषाएं उनके यहां रची बसी हैं और दोनों के स्वतंत्र व्यक्तित्व को खारिज भी करती चलती हैं। -डॉ.अभिज्ञात

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