Saturday, 10 March 2012

मेरे लिए जीवन आनंद की तलाश है कला साधना-होरीलाल साहू


चित्रकला को अपना पूरा जीवन समर्पित करने वाले होरीलाल साहू से डॉ.अभिज्ञात द्वारा की गयी बातचीत का एक अंश:
प्रश्न: कला के प्रति रुझान कैसे हुआ और आरंभिक कला शिक्षा के बारे में बतायें?
उत्तर: उन दिनों हमारा परिवार बनारस में रहता था। 16 साल की उम्र में मैंने सरस्वती की एक तस्वीर बनायी थी जिस पर मुझे खूब प्रशंसा मिली। हालांंकि मेरे परिवार में पेंटिंग के प्रति किसी की अभिरुचि नहीं थी फिर भी मुझे लगा कि कला जगत ही वह मुकाम है जिसमें मेरा भविष्य हो सकता है। मैं अपनी चित्रकला पर विशेष ध्यान देने लगा। 1955 में 18 साल की उम्र में मैं शिवराज श्रीवास्तव से बाकायदा पेंटिंग सीखने लगा। वे बैनर पेंटर थे। उनके अलावा मैंने बनारस के कार्टूनिस्ट कांजीलाल से भी कला की खूबियां सीखीं।
प्रश्न: यह तो अनौपचारिक कला शिक्षा थी। अकादमिक ढंग से सीखने का क्या उपक्रम किया?
उत्तर-आरम्भिक शिक्षा के बाद मैंने लखनऊ आट्र्स कॉलेज में दाखिला लिया। पांच साल के पाठ्यक्रम वाली इस शिक्षा से एक साल में ही तौबा कर ली क्योंकि वहां मुझे सीखने का वातावरण नहीं मिला। मुझे किसी ने सुझाव दिया कि मुझे कला की समझ विकसित करने के लिए मुंबई जाना चाहिए। और मैं सचमुच मुंबई चला गया। वहां जेजे स्कूल ऑफ आट्र्स के पांच वर्षीय पाठ्यक्रम में दाखिला मिल गया लेकिन वहां भी मन दो साल से अधिक नहीं रमा। मैंने कला की तालीम लेना छोड़ दिया और फिल्मिस्तान स्टूडियो में असिस्टेंट आर्ट डायरेक्टर बन गया। वहां उन दिनों आर्ट डायरेक्टर थे रामकुमार शर्मा।
प्रश्न: क्या कारण है कि आपने फिल्मी कैरियर को भी छोड़ा जबकि वहां ग्लैमर और पैसा दोनों है?
उत्तर: फिल्मिस्तान में मैं साढ़े तीन साल रहा लेकिन उन दिनों फिल्म जगत में काफी राजनीति थी जिसमें मैं अपने को फिट नहीं पा रहा था। मुझे फिल्म निर्देशक केदार शर्मा के यहां आर्ट डायरेक्टर का काम मिला। वे 'चित्रलेखा' फिल्म बना रहे थे जिसमें गुरुदत्त और वैजयंती माला ने अभिनय किया है। मुझ पर राजकुमार शर्मा लगातार दबाव दे रहे थे कि मैं चित्रलेखा में खराब काम करूं, जो मेरे लिए संभव नहीं था। आखिरकार मैंने मुंबई को अलविदा कहा और बनारस लौट गया।
प्रश्न: बनारस लौटकर आपने जो कुछ किया उसमें किन कार्यों को गिनाना चाहेंगे? और फिर बनारस से कोलकाता कैसे आना हुआ?
उत्तर: मुंबई से लौटकर मैंने अपना पेंटिंग स्टूडियो बनाया। हालांकि वह 9 माह तक ही कायम रहा। उन्हीं दिनों मेरी घनिष्ठता बीएचयू के आर्ट टीचर अमूल्य चंद्र मुखर्जी से हुई। उन्होंने मुझे समझाया कि कला का मुफीद माहौल और शिक्षा मुझे कोलकाता में ही मिल सकती है। मैं उनके प्रभाव में आ गया। मैंने कोलकाता के इंडियन आर्ट्स कॉलेज में पांच वर्षीय डिप्लोमा कोर्स में दाखिला ले लिया। और इस तरह मैं बनारस छोड़कर कोलकाता का हो गया। मेरे पिछले रिकार्ड को देखते हुए मुझे सीधे सेकेंड ईयर में एडमीशन मिला और आखिरकार मैंने पांच साल का कोर्स चार साल में करने में कामयाब हो गया। 1964 में मैं फस्र्ट क्लास फस्र्ट आया था। उसके बाद कोलकाता में ही अपना स्टूडियो बनाया। कोलकाता के ही इंडियन आर्ट कॉलेज में मुझ कला शिक्षक की नौकरी मिली। 1985 में मैं वहीं प्रिंसिपल हो गया, जहां से 1997 में रिटायर हुआ।
प्रश्न: बनारस वाले प्रसंग में आपने वहां के घाटों पर बनी पेंटिंग शंृखला का जिक्र नहीं किया?
उत्तर: हां, आपने ठीक याद दिलाया। मैंने बनारस के सभी घाटों पर 51 पेंटिंग्स की शंृखला बनायी थी। वे सभी विभिन्न माध्यमों से बनायी गयी थीं जिनमें तैल रंग, जल रंग व पेंसिल का काम शामिल है। उसी तरह का काम मैंने बंगाल पर भी किया है। टेम्पल्स ऑफ बंगाल पेंटिंग श्रृंखला में मैंने पश्चिम बंगाल के प्रमुख मंदिरों पर 40 पेंटिंग्स बनायी है।
प्रश्न: अपनी अन्य पेंटिंग्स में किसका उल्लेख करना पसंद करते हैं?
उत्तर: मैं 'कास्ट्यूम्स आफ इंडिया' का नाम लेना चाहूंगा। यह किताब डॉरिस फ्लिन ने लिखी है जिसमें मेरे इलेस्ट्रेशंस हैं। मेरी एक पेंटिंग है 'लास्ट मोंमेंट्स ऑफ जहांगीर' जो 1966 में बनायी गयी ऑयल पेंटिंग है। वह अब किसी के एक निजी कलेक्शन का हिस्सा है। मेरी कुछ पेंटिंग्स महाजाति सदन, शिक्षायतन आदि में लगी हैं तो कई विभिन्न कंपनियों के कलेक्शन में हैं। इंदिरा गांधी ने भी मेरी एक पेंटिंग मंगवाई थी।
प्रश्न: अपनी कला प्रदर्शनियों कला से जुड़े सम्मान के बारे में बतायें।
उत्तर: एकेडमी ऑफ फाइन आट्र्स, कोलकाता में 9, बीएचयू, बनारस में एक तथा भारतीय कला केन्द्र में मेरी पेंटिग्स की 2 एकल प्रदर्शनियां लगीं। उल्लेखनीय सम्मान है बनारस में मिला शिल्पीश्री सम्मान।
प्रश्न: आप अपने को कला गुरु मानते हैं या कलाकार? कला से आपने क्या पाया?
उत्तर: मेरे लिए दोनों एक है। कला की साधना और कला के हुनर को दूसरे में बांटना दोनों ही मुझे आनंदित करते हैं। कला की साधना हमें अकेला करती है तो तो कला सिखाना अपने एकांत में दूसरे को शामिल करना है। अपने जाने हुए को दूसरे से शेयर करना कम आनंददायक नहीं। सिखाना पुनर्सृजन है। मेरे कला जीवन की उपलब्धि कला के जरिये जीवन आनंद की तलाश है।

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