Tuesday, 14 February 2012
शूटिंग के दौरान एक खलनायक से गपशप
बंगला फ़िल्मों के खलनायक अरुण मुखर्जी से बातचीत अच्छी रही। वे बांग्ला फिल्म 'एक्सपोर्टः मिथ्या किन्तु सत्य' में खलनायक की भूमिका निभा रहे हैं। और उसी की शूटिंग के लिए हम यहां उपस्थित थे। नाश्ता व मेकअप करके हम दोनों अपनी ओर से तैयार थे किन्तु शूटिंग शुरू होने में अभी देर थी। निर्देशक समीर बनर्जी तैयारियों में उलझे हुए थे। कोलकाता के नेचर पार्क में एक सूबसूरत जगह पर 23 फरवरी 2012, सोमवार की सुबह 10 बजे हम बैठे थे। हम दोनों किसी हद तक एक दूसरे से अपरिचित थे। उन्होंने औपचारिक तौर पर बातचीत शुरू की थी, जिसे मैंने थोड़ी गंभीर कर दी किन्तु उन्होंने उसे भी इंन्ज्वाय किया।
उन्होंने ही बताया ढाई दशक से अधिक हो गये उन्हें बाग्ला फिल्म इंडस्ट्री में। उन्होंने इस दौरान लगभग साठ फिल्मों और कुछ धारावाहिकों में अभिनय किया है। वे शुरू से खलनायक की भूमिका अदा करते चले आ रहे हैं। वे मानते हैं कि नायक की तुलना में खलनायक की भूमिका में अभिनय की गुंजाइश ज्यादा होती है। पहले की तुलना में खलयनाकों के चरित्र में अन्तर आया है। अब पहले के दौर जैसे बड़ी बड़ी मुछों वाले, भारी भरकम डील डौल वाले खलनायक नहीं होते। अब तो मासूम और एकदम भला आदमी दिखने वाले खलनायक अधिक होते हैं। उन्होंने मेरे प्रश्न के व्यंग्य को समझते हुए हंसते हुए कहा कि यह सही है कि वास्तविक जीवन में सभ्य, सुसंस्कृति लगने वाले खलनायकों की संख्या बढ़ी है। इस प्रकार अभिनेताओं को भी अपने तौर तरीकों में वक्त के हिसाब से बदलाव लाना पड़ता है।
बांग्ला फिल्मों के पहले वाले रोमांटिक व आदर्शवादी चरित्र वाले कथानकों में परिवर्तन को उन्होंने समाज के परिवर्तनों से जोड़ा और इस बात की स्वीकार किया कि भव्य हिन्दी फिल्मों की नकल पर जो बांग्ला कामर्शिलय फिल्में बन रही हैं उन पर हंसा जा सकता है, क्योंकि हिन्दी के बजट की तुलना बांग्ला फिल्मों के बजट से नहीं की जा सकती। उन्होंने बताया कि कम से कम चालीस लाख से लेकर दो-ढाई करोड़ के बजट वाली ज्यादातर फिल्में होती हैं। उन्होंने कहा कि हिन्दी नहीं, बल्कि इन दिनों तेलुगू फिल्मों से बांग्ला फिल्मों की थीम उड़ायी जाती है और किसी तेलुगू फिल्म को देखकर निर्माता कहते हैं कि वैसी बांग्ला फिल्म बना दी जाये। थोड़ी बहुत फेर बदल के साथ यह काम धड़ल्ले से हो रहा है। इस प्रकार मौलिक नहीं किसी हद तक पुनर्निमाण का कार्य जोर शोर से चल रहा है। हैरत तो यह है कि ऐसी फिल्में कमा भी रही हैं। कोई मौलिकता के चक्कर में नहीं पड़ना चाहता। लगभग बनी बनायी स्क्रिप्ट में थोड़ा बहुत स्थानीय टच देकर काम आसानी से हो जाता है।
थोड़ी देर में उसी जगह सेट तैयार था और समीर दा ने कलाकारों को उनके हिसाब से सीन समझा दिया और शुटिंग शुरू हो गयी। सबको अपने डॉयलाग तो मेकअप से पहले ही मिल गये थे।
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