Friday, 27 May 2011

विवेकानंद के जीवन के कुछ और आयाम



तहलका ३० अप्रैल 2011
पुस्तक समीक्षा
विवेकानंदः जीवन के अनजाने सच/लेखक-शंकर/प्रकाशक-पेंगुइन बुक्स इंडिया, यात्रा बुक्स, 203 आशादीप, 9 हेली रोड, नयी दिल्ली-110001, मूल्य-199/-
स्वामी विवेकानन्द के जीवन के कई आयाम अब तक अनुद्घाटित हैं। उनके प्रकाशित पत्रों और सैकड़ों पुस्तकों से उनके दर्शन व जीवन को समझने में सहूलियत होती है फिर भी उनके जीवन के कई कोने ऐसे हैं जिन पर रोशनी नहीं पड़ी है और जिनके उजागर होने से उनको देखने समझने के हमारे नजरिये में परिवर्तन होता है। ख्यातिलब्ध बंगला साहित्यकार शंकर ने उन पर लम्बे अरसे तक शोध करने और लगभग दो सौ पुस्तकों से अपनी बात को पुष्ट करने का प्रमाण जुटाने के बाद 'विवेकानंद: जीवन के अनजाने सच’ पुस्तक लिखी है। इसमें उन्होंने विवेकानंद को जिस रूप में पेश किया है वह उन्हें बहुत करीब से समझने में हमारी मदद करता है। विवेकानंद के व्यक्तित्व के उस ताने-बाने को उन्होंने परखने की कोशिश की है जिनसे उनका व्यक्तित्व न सिर्फ बनता है बल्कि निखरता है। इस पुस्तक में उन्होंने उन्हें एक महामानव के जीवन संघर्ष की उन स्थितियों को ही नहीं उजागर किया है जो उनके विकास में सहायक हुआ है बल्कि उन विसंगतियों की भी चर्चा की है जो उनके संन्यासी जीवन के विकास में बाधक बनती दिखायी देती हैं।
शंकर ने विवेकानन्द के जीवन के ऐसे प्रसंगों को इसमें प्रस्तुत किया है जिनकी या तो चर्चा बहुत कम हुई है या फिर हुई भी है तो उसके पूरे मर्म को समझने में वह अपर्याप्त रही। यह अनायास नहीं है कि उन्होंने इस पुस्तक का नाम ही 'जीवन के अनजाने सच' इसलिए रखा क्योंकि वे उन्हीं प्रसंगों पर अधिक जोर दिया है और उस विषय पर उन्होंने गहन अध्ययन प्रस्तुत किया है जिनके आधार पर विवेकानन्द की बहुमुखी प्रतिभा पर भी प्रकाश पड़ा है। इस पुस्तक के बिना यह जानना मुश्किल था कि उन्होंने जितना वेदों का प्रचार किया उससे कम प्रचार भारतीय व्यंजनों का नहीं किया। 'सम्राट-संन्यासी सूपकार' अध्याय में शंकर ने लिखा है कि वे न सिर्फ तरह-तरह के व्यंजनों को खाने के बेहद शौकीन थे बल्कि पाक कला में भी उन्हें विशेष महारथ हासिल थी। विदेशों में भी कई बार अपने करीबी लोगों को घर जाकर खुद खाना बनाकर खिलाया भोजन प्रसंग में विवेकानंद के चाय व आइसक्रीम के प्रति लगाव की विशेष चर्चा है। शंकर कहते हैं-'स्वामी जी जिनके भी घर में मेहमान बनते थे, उन लोगों को अपना भी एकाध व्यंजन पकाकर खिलाने को उत्सुक रहते थे।' शंकर इस अध्याय में कहते हैं-'उत्तरी कैलिफोर्निया के रसोईघर में शेफ यानी रसोइया विवेकानंद। बेहद अद्भुत दृश्य होता था। खाना पकाते-पकाते स्वामी जी दर्शन पर बात करते रहते थे। गीता के अठारहवें अध्याय से उद्धरण देते रहते थे।' विवेकानंद के लिए वेद-उपनिषद का प्रचार प्रसार, मानवता के कल्याण की बातें और व्यंजनों की रेसिपी में कोई फर्क नहीं था। यहां यह भी गौरतलब है कि उनका खान पान शाकाहार तक ही सीमित नहीं था।
इस पुस्तक में जो प्रमुख स्वर उभरा है वह है अपनी मां के प्रति उनका अगाध प्रेम। मां से उनका सम्बंध अंत तक बना रहा और वे इस बात के प्रति भी चिन्तित रहे कि उनकी मौत के बाद उनकी मां की देखभाल और भरण-पोषण ठीक से हो। इस पुस्तक में उनकी पैतृक सम्पत्ति के लेकर चलने वाले लम्बे मुकदमे का भी विस्तार से जिक्र है जिसके कारण उनके परिवार को गरीबी के दिन देखने पड़े और जिन्हें सुलझाने का उन्होंने भरसक किया। अदालत से मुकदमे का समाधान न होते देख उन्होंने छह हजार रुपये देकर अपनी चाची से पैतृक घर का हिस्सा खरीद लिया जिसके लिए उन्हें मठ के फंड से पांच हजार रुपये उधार लेने पड़े। खेतड़ी महाराज से वे पत्र में गुजारिश करते हैं-'मेरी मां के लिए आप जो हर महीने सौ रुपये भेजते हैं, हो सके तो उसे स्थायी रखें। मेरी मौत के बाद भी यह मदद उन तक पहुंचती रहे।'
शंकर के विवेकानंद की उन तमाम बीमारियों का जिक्र किया है जिनसे वे लगातार घिरे रहे। वे अनिद्रा के भी शिकार थे। यह देखकर हैरत होती है कि जिस व्यक्ति को इतनी सारी बीमारियां थीं उसने कैसे दर्शन के क्षेत्र में महती योगदान दिया और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी धाक बनायी। खेतड़ी के राजा अजीत सिंह की चर्चा जिस तरह से शंकर ने की है उससे स्पष्ट है कि विवेकानंद को विदेश भेजने का इन्तजाम उन्होंने ही किया था। विवेकानंद ने इसे खुलेआम स्वीकार किया था कि अगर खेतड़ी के राजा से परिचय न होता तो जो कुछ मामूली सा मैं भारत की उन्नति के लिए कर पाया हूं, वह मेरे लिए असंभव था। पुस्तक का बंगला से अनुवाद सुशील गुप्ता ने किया है।

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