Thursday, 12 August 2010

सरस रचनात्मक ताजगी की डगर

Sanmarg-22 August 2010


दिमाग़ में घोंसले/उपन्यास/लेखक-विजय शर्मा/ प्रकाशक-अंतिका प्रकाशन, सी-56/यूजीएफ-4, शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन-2, गाजियाबाद-201005/मूल्य-200 रुपये
अपने पहले ही उपन्यास 'दिमाग में घोंसलेÓ के साथ कथाकार विजय शर्मा यह उम्मीद जगाते हैं कि वे इस दिशा में काफी कुछ करने की सामथ्र्य रखते हैं। उनकी किस्सागोई का अन्दाज अलग है और भाषा चुस्त-दुरुस्त। परिदृश्य के डिटेल्स पर वे बहुत ज्यादा ध्यान देते हैं जो पाठकों को बहुत कुछ नया, अचीन्हा और कई बार कुछ नये अंदाज में जाना पहचाना उपलब्ध कराता है लेकिन इसी कारण कारण उपन्यास में कई बार मुख्य-कथन गौण हो जाता है और पाठक यह भूल जाता है कि वह विभिन्न विषयों पर ललित निबंध पढ़ रहा है या उपन्यास। उपन्यासकार को कथा-सूत्रों के निर्वाह पर भी ध्यान देना चाहिए जिसके बिना रचना की शर्त पूरी नहीं होती। पतंग चाहे जितनी उड़े नियंत्रण तभी रह सकता है जब डोर आपके हाथ में हो। कटने के बाद वह कहां गयी इसका श्रेय पतंग उड़ाने वाले को नहीं जायेगा। हालांकि परिदृश्य के विस्तार के बावजूद उपन्यास की पठनीयता में कोई कमी नहीं आती क्योंकि वे जिस विषय को भी उठाते हैं सरसता के साथ उठाते हैं। कई नये स्थलों की जानकारी तो मिलती ही है विभिन्न विचार सरणियों के अन्तर्विरोधों पर भी उनकी बेलाग टिप्पणियां हमें झकझोरती हैं और अपनी दृष्टि को मांजने में मदद करती हैं और उन्हें नयी धार देती हैं।
इस उपन्यास का नायक ब्रजराज है, जो 14 साल कैदी की जिन्दगी गुजारता है। सामाजिक बदलाव चाहने वाले लोगों के बौद्धिक जगत से जुड़े ब्रजराज को संगत के कारण ही बिना किसी जुर्म के जेल हो जाती है और उस पर कई दफाओं के तहत मामला चलता है, जिसमें खून का संगीन मामला भी था। राज्य के खिलाफ युद्ध किस्म के राजनैतिक मामले तो थे ही। उसे संभवत: उसी के साथी कामरेड सूरज ने गिरफ्तार करवाया था। वे दोनों भाकपा, माकपा के शीर्ष नेताओं के चहेते कार्यकर्ता थे। इस उपन्यास में 1971 के बाद के बंगाल का राजनैतिक सामाजिक इतिहास है और उस दौर की स्थितियों का बेलौस वर्णन, जिसमें नक्सलबाड़ी के उभार और सीपीआईएमएल की गतिविधियों के विस्तार और युवाओं की मानसिक स्थिति का विश्लेषण है, जो इसे कथ्य और तथ्य के लिहाज से महत्वपूर्ण बनाता है किन्तु उपन्यास का 'प्रेम डगरÓ खण्ड ही उनकी औपन्यासिक क्षमता के लिहाज से महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें तथ्य और कथ्य के अलावा कथा-तत्व के रेशे भी हैं जिनके बिना कोई कथानक कथानक नहीं बनता। पूर्वा, गज्जो और विदिशा के साथ नायक ब्रजराज के रोमांस व प्रेम प्रसंग का चित्रण अत्यंत प्रभावशाली है। हालांकि पूर्वा व गज्जो की ब्रजराज के जीवन में वापसी का इन्तजार पाठक को तो बना रहता है किन्तु उपन्यासकार उसे पता नहीं क्यों भूल जाता है। विजय के यहां यह तीनों स्त्री चरित्र गंध, परिदृश्य व स्वाद के साथ जुड़े हैं, जो पाठक की स्मृति में भी प्रवेश कर जाते हैं और उपन्यासकार विजय शर्मा की नायिकाओं के नाम गुम हो जाते हैं और यह सब उन्हें याद करने में सहायक होते हैं। पूर्वा के साथ काजागर का चन्द्रमा और अजवाइन जुड़ी है। पूर्वा के साथ ब्रजराज अपने सम्बंधों को यूफोरिया कह कर सम्बोधित करता है। उसी के अपने शब्दों में-'हम लगातार एक-दूसर के करीब जाने की कोशिश करते थे, लेकिन बीच का वो फिक्स्ड, अलंघ्य फासला कभी नहीं लांघा गया।' गज्जो से जुड़ी ब्रजराज की स्मृतियों में मठरी और नींबू के अचार की गंध बसी है तो विदिशा नींबू नमक का स्वाद।
उपन्यास के कथा विस्तार के लिहाज से सबसे कमजोर पकड़ के बावजूद एक महत्वपूर्ण खण्ड 'उत्तर कथन' है, जो संभवत: उपन्यास से इतर लेखक का एक आलेख है जिसे एकबारगी पाठक उपन्यास का हिस्सा मानकर पढ़ता जाता है और अन्त में अपने को ठगा हुआ सा पाता है। फिर भी यह खण्ड पठनीयता के लिहाज से आकर्षक है और यहीं विजय शर्मा का रचनात्मक कौशल भी उभर कर आता है कि वे बिना तारतम्य वाले अध्याय को भी उपन्यास में जोड़ दें तो उसे भी अन्त तक पढ़ा जा सकता है। इतना ही नहीं एक वर्चुअल शहर 'अबतकनहींआबादपुर, का उन्होंने इस खण्ड में वर्णन किया है जो काफी दिनों के लिए पाठक के दिलोदिमाग पर अपने स्थापत्य का प्रभाव छोड़ जाता है।

3 comments:

  1. abhigyat ji,
    how can i link it with my facebook.
    thanks for yr genorosity.
    vijay sharma

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  2. अभिज्ञात जी ,
    विजय शर्मा जी ,
    सादर प्रणाम !
    विजय जी '' दिमाग में घौसले '' के लिए आप को हार्दिक बधाई ,
    सादर

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