फोटो कैप्शनः बाएं से अभिज्ञात, नागार्जुन, मंजु अस्मिता, सकलदीप सिंह व अन्य
26 जून से शुरू बाबा नागार्जुन के जन्म शताब्दी वर्ष पर विशेष
(परिचयः नागार्जुन का असली नाम वैद्यनाथ मिश्र है परंतु हिन्दी साहित्य में वे बाबा नागार्जुन के नाम से मशहूर रहे हैं। जन्म : 1911ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन ग्राम तरौनी, जिला दरभंगा में। परंपरागत प्राचीन पद्धति से संस्कृत की शिक्षा। सुविख्यात प्रगतिशील कवि एवं कथाकार। हिन्दी, मैथिली, संस्कृत और बांग्ला में काव्य रचना। मातृभाषा मैथिली में "यात्री" नाम से लेखन। मैथिली काव्य संग्रह "पत्रहीन नग्न गाछ" के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित। छः से अधिक उपन्यास, एक दर्जन कविता संग्रह, दो खण्ड काव्य, दो मैथिली;(हिन्दी में भी अनूदित)। कविता संग्रह, एक मैथिली उपन्यास, एक संस्कृत काव्य "धर्मलोक शतकम" तथा संस्कृत से कुछ अनूदित कृतियों के रचयिता। उनके मुख्य कविता-संग्रह हैं: सतरंगे पंखों वाली, हज़ार-हज़ार बाहों वाली इत्यादि। उनकी चुनी हुई रचनाएं दो भागों में प्रकाशित हुई हैं। निधन : 5 नवम्बर 1998।)
नागार्जुन के साथ हिन्दी कविता का आचरण बदला। कविता सुरुचि सम्पन्न पाठकों की परिधि से निकलकर चायखानों तक आयी। यह बदलाव सहज उपलब्ध हो सका हो ऐसा नहीं है। इसका मूल्य कबीर से लेकर नागार्जुन तक ने चुकाया है। कलाहीनता के आरोप झेलते हुए और वक्तव्यबाज कहलाते हुए भी इन्होंने ऐसा किया। कविता का सड़क और नुक्कड़ पर उतर आना किस-क़दर ख़तरनाक़ हो सकता है यह कहने की आवश्यकता नहीं। समाज के दुःख-सुख, जद्दोजहद को सीधे-सीधे कविता में उसी के सामने लौटाना एक दुस्साहस ही है। मीडिया द्वारा बुनी, रची, सोची गयी साज़िशों और अवसरवादी मानकों ध्वस्त करते हुए सच को अपनी नजर से देखकर उस सीधे पाठकों और श्रोताओं तक पहुंचे यह नागार्जुन के ही बूते का था। जनता को उकसाने के आरोप उन पर बड़ी आसानी से लगाये जा सकते थे, जो इसी माइने में सार्थक भी है-
'आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी
यही हुई है राय जवाहरलाल की
रफ़ू करेंगे फटे-पुराने जाल की
यही हुई है राय जवाहरलाल की
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी
आओ, शाही बैण्ड बजायें
आओ बन्दनवार सजायें
खुशियों से डूबें उतरायें
आओ तुमको सैर करायें
उटकमंड की, शिमला नैनीताल की।' (नागार्जुन, प्रतिनिधि कविताएं, सम्पादक-नामवर सिंह, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ 98)
ऐसे कवियों के लिए जनता एक अमूर्त वस्तु नहीं है:जिसकी अमूर्तता की चिन्ता स्व.विजयदेव नारायणदेव साही को हमेशा रही। ना ही उनके यहां उनका दुःख-दर्द अख़बारों से छनकर आता है। उनका काव्य-संसार लोकगीतों, लोककथाओं में अपना रूप बड़ी अन्तरंगता के साथ तलाश सकता है। यह अन्तरंगता मात्र लोगों केसात ही नहीं, बल्कि प्राणियों और वनस्पतियों से भी है, प्रकृति से भी। यही कारण है कि नागार्जुन को जहां विघटन के कई स्तरों का पता है, वहीं उल्लास के अनन्त अवसरों का भी, जो प्रकृति के बगैर तादात्म्य स्थापित किये संभव नहीं-
'धूप में पसरकर लेटी है
मोटी-तगड़ी, अधेड़, मादा सूअर...
जमना-किनारे
मखमली दूबों पर
पूस की गुनगुनी धूप में
पसरकर लेटी है
वह भी तो मादरे हिन्द की बेटी है
भरे-पूरे बारह थनों वाली!
लेकिन अभी इस वक््त छौनों को पिला रही है दूध
मन-मिज़ाज़ ठीक है
कर रही आराम
अखरती नहीं है भरे-पूरे थनों की खींच-तान
दुधमुंहे छौनों की रग-रग में
मचल रही है आख़िर मां की हो तो जान!' (वही, पृष्ठ 77)
नागार्जुन के अपने लोग गांव के किसान हैं और नगर के श्रमिक। वे इनकी यातनाओं को भी उसी शिद्दत से महसूस कर लेते हैं जिस सदाशयता से उनके हास। यह अद्भुत है कि यह वर्ग किन विषम परिस्थितियों में कैसे और कहां रत्ती-रत्ती खुशी पाता चलता है। नागार्जुन की कविता उल्लास की अनेक परिषाभाएं एक साथ दे सकती है, जो अन्तत्र दुर्लभ है। कई-कई तो अपरिभाषित रह जाने का जोख़िम और माद्दा रखती हैं।
उनकी कविता तटस्थ कविता नहीं है, जो मानवीय सरोकारों से उठ कर आध्यात्म और स्व-मुक्ति की सोचे। वह पक्षधरता की हिमायती है और वह पक्ष है-सर्वहारा का। इस पक्षधरता के लिए वे निरन्तर कटिबद्ध और प्रतिबद्ध रहे हैं-
'प्रतिबद्ध हूं, जी हां प्रतिबद्ध हूं
बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त
संकुचित स्व की आपाधापी के निषेधार्थ।' (वही, पृष्ठ 15)
यही कारण है कि उनका रचना-क्रम जिस पक्ष को प्रारम्भ में साधता है साधता ही चला गया है। इस पक्षधरता के पीछे तत्कालिक उद्वेग न था बल्कि वह वैज्ञानिक सोच था जो शोषित और दमित जनता की मुक्ति में समाज की सम्पन्नता और खुशहाली देखता है। उनका अभिष्ट साहित्यिक नहीं सामाजिक क्रांति है। नागार्जुन का जन यही है जो उनकी ममता, स्नेह और समर्थन का पात्र है। इसके प्रति लिखते हुए नागार्जुन में सहज की कोलमला आ जाती है, एक गहरी संवेदना जिसके भीरत करुणा की अविरल धार है, कहीं-कहीं रुमानियत की हद तक। और यह स्वाभाविक है अपने प्रियजन के पक्ष में लिखते हुए। उनके प्रियजन भारत के किसान, मज़दूर और नवयुवक हैं। अखिल विश्व के संघर्षशील लोग हैं।
शोषक पक्ष की बात आते ही उनका लहज़ा व्यंग्यात्मक हो उठता है जिसकी धार गहरे तक असर करती है। व्यंग्य साहित्य में निचला दर्ज़ा पाते हुए भी नागार्जुन के यहां प्रतिष्ठा पाता है। नागार्जुन व्यंग्य की महत्ता और सिध्दि के कवि हैं। जन-पक्ष में इसका इस्तेमाल होने के कारण व्यंग्य जीवन का सकारात्मक पक्ष ही साबित होगा। कम-से-कम उनके संदर्भ में यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है। उसकी एक बानगी देखें-
'दिल्ली की सर्दी कम होती
तंत्र-मंत्र के हीटर से
अपनी किस्मत आप मिलता लो
योग-सिद्धि की मीटर से
राजघाट में बातें कर लो
यूसुफ से या पीटर से
लोकतंत्र का जूस मिलेगा
नाप-नाप कर लीटर से।' (नागार्जुन, पुरानी जूतियों का कोरस, 1983, पृष्ठ 144)
नागार्जुन की कविता अपने यथार्थबोध के कारण भी याद की जाती है। वे व्यक्तिगत को समष्टिगत यथार्थ की कसौटी पर कसकर ही उसकी हीनता और उत्कृष्टता का निर्धारण करते हैं। व्यक्तिवादी मूल्यों के लिए उनककी कविता में कत्तई गुंजाइश नहीं है किन्तु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि व्यक्ति के रागतत्त्वों और प्रेम तथा शृंगार भाव की उन्होंने उपेक्षा की हो या ये उनके कार्य-प्रदेश में वर्जित रहे हों। ये भाव मानव-मात्र के हैं और सर्वव्यापक भी। नागार्जुन की कविता में रागतत्त्व जिस सहजता और तन्मयता से आये हैं, वे सार्वजनीन हैं। पूरे आदमी की भरपूर ज़िन्दगी से। इन्हें निजी मन की दमित व कुण्ठित कामनाओं का दस्तावेज़ नहीं बनाया गया है और ना ही इसमें डूबकर ज़िन्दगी की वास्तविकताओं को व्यर्थ और सारहीन। उनके यहां राग-तत्त्व जीवन के संघर्ष में प्रेरक और साहचर्य हेतु आया है।
प्रकृति और सौन्दर्यबोध उनकी कविता के महत्त्वपूर्ण सोपान हैं जो एक-दूसरे के पूरक हैं। प्रकृति के प्रति उनका सम्बंद कुछ हद तक रागात्मक ही है। यह उनके सौन्दर्यबोध की क्लासिक ऊंचाई के चलते है। नागार्जुन भविष्य के विश्वास के कवि हैं। वे आस्था के और नये युग के नव निर्माण के लिए नवयुवकों से आशावान रहे। भविष्य के लिए उनके पास जो कुछ था वह दे जाना चाहते थे। एक जीवन्त कवि की एक बड़ी विशेषता यह होती है कि वह आने वाली पीढ़ी को अपनी विरासत बड़े जतन, प्यार और विश्वास के सात दे जाये। वह भी संघर्ष की विरासत। वे एक सीमाबद्ध कवि कदापि नहीं हैं। उसका एक कारण स्थितियों को खुली नज़र से देखने और उसे बिना लाग-लपेट कहने की धड़क थी। तत्कालीन मसलों पर उन्होंने खूब लिखा और ज़रूरत महसूस करने पर उन्हें ताली बजाकर उन्हें नुक्कड़ों पर गाया और नाचा भी है। भले इससे कला का ह्रास हुआ हो, कला निथरी न हो और कई बार कविता कविता रह ही नहीं गयी हो। ऐसी रचनाओं को एक जागरुक और संघर्षशील नागरिक की तत्कालिक आवश्यक प्रतिक्रिया समझ कर संतोष करना पड़ सकता है। संस्कृत साहित्य के व्यापक अध्ययन मनन के कारण एक कलात्मक संस्कार भी नागार्जुन में कहीं-न-कहीं विद्यामान रहा। इसीलिए एक ओर उनकी भाषा, बोध और ज़मीन खुरदुरी है तो दूसरी ओर कई कविताओं में ऐसी कलात्मक ऊंचाइयां और गत्यात्मकता है, जो हतप्रभ और मुग्ध कर देती है।
सुन्दर लेखन।
ReplyDeleteबाबा नागार्जुन उन गिने चुने आधुनिक कवियों में से हैं जो मुझे छायावादोत्तर पीढ़ी में पसन्द आए।
ReplyDeleteमैं पेशेवर आलोचकों के शब्दाडम्बर में न पड़ कर अपनी बात अपने तरीक़े से कहने का आदी हूँ। मुझे लगता है कि साहित्य में बाबा एक मदारी के जैसे थे - जिसकी डुगडुगी बजते ही हम जैसे बच्चे - सड़क चलते राहगीर से लेकर अगल-बगल का कुल मजमा तो जुटता ही था - सड़क पार की हवेली में भी सरगर्मी शुरू हो जाती थी - कि देखो आज ये जम्हूरे से क्या कहलवाता - निकलवाता या बवाल करवाता है - और सब ध्यान लगाकर सुनते थे।
और बाबा मस्त डुगडुग-डुगडुग : नई पीढ़ी का निराला भी, कबीर भी, प्रसाद भी और उनसे एकदम जुदा भी। मौलिक!
आभार आपकी एक सशक्त और सार्थक-सामयिक पोस्ट का।