(जन्म शती वर्ष पर विशेष)
परिचयः जन्म: 13 जनवरी 1911-निधन: 12 मई 1993।
जन्म स्थान-देहरादून। प्रमुख कृतियाँ-कुछ कविताएँ (1959), कुछ और कविताएँ (1961), चुका भी हूँ मैं नहीं (1975), इतने पास अपने (1980), उदिता: अभिव्यक्ति का संघर्ष (1980), बात बोलेगी (1981), काल तुझसे होड़ है मेरी (1988)। 1977 में "चुका भी हूँ मैं नहीं" के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार एवं मध्य प्रदेश साहित्य परिषद के "तुलसी" पुरस्कार से सम्मानित। सन् 1987 में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा "मैथिलीशरण गुप्त" पुरस्कार से सम्मानित।
शमशेर बहादुर सिंह अपने काव्य-शिल्प एवं संवेदन-वैशिष्टय के कारण हिन्दी काव्य-परिदृश्य में एक अपूर्व मेधा के रचनाकार दिखायी देते हैं। प्रगतिवादी काव्य-धारा से लेकर प्रयोगवाद, नयी कविता, साठोत्तरी कविता से जनवादी कविता तक साहित्य के अनेक आन्दोलन और प्रवृत्तियां प्रवहमान हुईं किन्तु इनमें अपनी प्रबल काव्य-चेतना के चलते वे इन सबके प्रभाव को अपनी शर्तों और अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर अलग प्रकार से स्वीकारते दिखायी देते हैं। यही नहीं शमशेर का झुकाव उर्दू-फ़ारसी काव्य की ओर भी रहा तथा उन्होंने ग़ज़लें भी लिखीं हैं, इसलिए उलझाव के दोहरे मोर्चे उनके रू-ब-रू उपस्थित रहे होंगे, ऐसा कहने की स्थिति बनती है।
शमशेर की अविचल रागात्मक संवेदना इससे अ-क्षत और अपने तेवर में प्रगाढ़तर होती गयी, जो उनकी लेखकीय जिजीविषा की उद्दाम बनावट और माद्दा का परिचय देती है। शमशेर में जहां नित-नूतनता है वहीं निरन्तर बढ़ाव या उठान भी। नित-नित परिष्कृत होती उनकी शैली अपने वैशिष्ट के चलते एक जीवित मिथक गढ़ती गयी है। शमशेर स्थूल के आग्रही किन्हीं विशेष परिस्थितियों में अपवादवश भले रहे हों, मूलतः सूक्ष्म संवेगों की छटी हुई अनुभूतियों का खाका उनकी कविताओं में विद्यमान हैं-
'शाम का बहता हुआ दरिया कहां ठहरा!
सांवली पलकें नशीली नींद में जैसे झुकें
चांदनी से भरी भारी बदलियां हैं
ख़्वाब में गीत पेंगे लेते हैं
प्रेम की गुइयां झुलाती हैं उन्हें;
-उस तरह का गीत, वैसी नींद, वैसी शाम-सा है
वह सलोना जिस्म।
उसकी अधखुली अंगड़ाइयां हैं
कमल के लिपटे हुए दल
कसे भीनी गंध में बेहोश भौंरे को।'( कुछ कविताएं व कुछ कविताएं और, पृष्ठ 64)
ऐसा होना शुभ है कि शमशेर एक चित्रकार भी रहे। कविता में चित्रों का रचाव कला की संभावना और व्यापकता को अतिरिक्त गहनता, व्यापकता और सूक्ष्मता प्रदान करता है। शमशेर के यहां शब्दों के रंग और उन रंगों के उतार-चढ़ाव भी हैं। दो कलाओं का संयोग एक किस्म के सौन्दर्य-बोध और आस्वाद की सृष्टि से पाठक को सम्पृक्त करता है, जिसको महसूस करने की जितनी सुविधाएं हैं उन्हें व्याख्यायित करने की उतनी कठिनाइयां भी-
'पूरा आसमान का आसमान है
एक इन्द्रधनुषी ताल
नीला सांवला हलका-गुलाबी
बादलों का धुला
पीला धुआं...
मेरा कक्ष, दीवारें, क़िताबें, मैं, सभी
इस रंग में डूबे हुए से
मौन।
और फिर मानो कि मैं
एक मत्स्य-हृदय में
बहुत ही रंगीन
लेकिन
बहुत सादा सांवलापन लिए ऊपर
देखता हूं मौन पश्चिम देश :
लहरों के क्षितिज पर
एक
बहुत ही रंगीन हलकापन
बहुत ही रंगीन कोमलता।
कहां हैं
वो क़िताबें, दीवारें, चेहरे, वो
बादलों की इन्द्रधनुषी हंसियां?
बादलों में इन्द्रधनुषाकार लहरीली
लाल हंसियां
कहां हैं?' (वही, पृष्ठ 49)
यहां यह कह देना समीचीन होगा कि शमशेर की संचालित जीवन-दृष्टि प्रगतिशील है और कला के मानदण्ड में यह दृष्टि उनके 'विजन' को एक रास्ता देती है, दूसरी ओर भटकाव का शिकार नहीं होने देती। शमशेर की 'बैल' कविता श्रम पर लिखी सार्थक नक्काशीदार अद्भुत कविता है, जो कला और दृष्टि के साझे की मिसाल है। शमशेर शहरी स्वभाव के कवि हैं। गांव में उनका मन कम रमा है। नगरबोध के त्रासद अनुभव उनकी कविता में अक्सर पाये जा सकते हैं, आसानी से। एक और सकारात्मक कला पक्ष है उनकी कविता का वह है-प्रेम। प्रगतिशील धारा के आगमन के पश्चात लम्बी अवधि तक प्रेम कविताएं कम लिखी गयीं और जो लिखी गयीं वे सतही और गैर-ईमानदार हैं। अपनी स्वाभाविक और सहज मनोवृत्तियों का स्पर्श उनमें नहीं है और वे हृदय के उद्गारों से नहीं वैचारिकता से ओतप्रोत हैं। केदारनाथ अग्रवाल, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, केदारनाथ सिंह जैसे कुछेक कवि इसके अपवाद हैं। शमशेर के पास प्रेम कविताओं की सम्पन्नता है। उसका कारण शायद यही ठीक जंचता है कि अन्दर से बिना बड़ा हुए बड़ी और निष्कपट कविता संभव नहीं, कम से कम प्रेम कविता तो नहीं ही। शमशेर में वह खरापन है, जो विश्वसनीय है। उनकी आन्तरिक उद्वेगों से उपजी कविताएं भरोसेमंद हैं। वैसी ही भरोसेमंद जैसी मुक्तिबोध की जनसंघर्ष पर लिखी कविताएं।
शमशेर के पास कला और दृष्टि का अनूठा संगम था। कला की दृष्टि से उनकी कविताएं क्लासिक हैं और बोध के स्तर पर वामपंथी प्रगतिशील। अतएव कविता में शमशेर की उपस्थिति ने हिन्दी कविता को अधिकाधिक समृद्ध किया। शमशेर ने अपनी कविताओं के लिए जोख़िमभरा मार्ग चुना। उन्हें 'कवियों का कवि' यूं ही नहीं कहा गया। उन्होंने कला और कविता की स्वायत्त दुनिया की उपस्थिति को कमोबेश स्वीकार किया है और कई महत्त्वपूर्ण रचनाकारों पर कविताएं लिखीं-निराला से लेकर अज्ञेय, त्रिलोचन, मुक्तिबोध, मोहन राकेश, गिन्सबर्ग, गुलाम रसूल संतोष से लेकर प्रभात रंजन तक पर। उनकी कविताओं में एक पठनीय दृष्टि-भंगी है, जो उनके लिखने के ढर्रे के कारण एक अलग आस्वाद का अनुभव कराती हैं या यह कहना ज्यादा ठीक पड़ेगा कि अनुभव का आस्वाद कराती हैं। एक नयी दिशा की ओर जाने वाले अर्थ का संकेत का नाम है-शमशेर की पाठ-प्रक्रिया। यह एक शर्त है उनकी कविता के साथ कि पाठक को उनकी कविता को समझने के लिए ख़ुद भी शामिल होना पड़ता है तथा अपनी ओर से कुछ जोड़-घटाव भी करना पड़ सकता है।
शमशेर एक बिम्ब-समृद्ध कवि हैं। वे ऐन्द्रिक बिम्बों के लिए अलग से पहचाने जा सकते हैं। इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि कवि संसार को अपने संवेगों और क्षमताओं के आधार पर दुनिया को अलग-अलग ग्रहण करता है और उस ग्राह्य में बहुत कुछ काट-छांटकर और उतना ही अपनी ओर से जोड़कर अपने सांचे में ढालकर कला में वापस उलीचता है। इस प्रकार कला गर्भधारण से लेकर प्रजनन तक की एक प्रक्रिया तक से गुज़रती है। शमशेर की कविता इस सच की आधार-शिला पर अपनी पुख़्ता पहचान के साथ उपस्थित है। उन्होंने शब्दों के मुहावरे नहीं गढ़े, किन्तु शब्दों को एक नया आचार दिया है और एक नया व्यवहार भी, जिसके कारण वे विशिष्ट बनते हैं और शमशेर की शैली के सम्मोहक चुम्बकत्व में एक नयी स्थिति में क़ायम रहते हैं, अधर में लटके हुए से, एक नये लोक में मंत्रबद्ध
'चुका भी हूं मैं नहीं
कहां किया मैंने प्रेम
अभी
जब करूंगा प्रेम
पिघले उठेंगे
युगों के भूधर
उफन उठेंगे
सात सागर।
किन्तु मैं हूं मौन आज
कहां सजाये मैंने साज
अभी।'( चुका भी हूं मैं नहीं, द्वितीय संस्करण, 1981, पृष्ठ 111)
शमशेर के बारे में शलभ श्रीराम सिंह का मानना था-
'आज साठोत्तरी कविता के जिन चन्द कवियों की कविताओं को लेकर व्यक्तिवादी रुमानियत और रूपवादी रुझान की बात की जा रही है वस्तुतः वे शमशेर बहादुर सिंह की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले कवि हैं। ध्यान से देखने पर साफ़-साफ़ पता चल जायेगा कि ये कवि व्यक्तिवादी रुमानियत और रूपवादी रुझान के सांचों को तोड़कर भविष्य की मुख्यधारा को गति प्रदान कर रहे हैं।' (शलभ श्रीराम सिंह, समकालीन संचेतना, कलकत्ता, 13 जुलाई 1990, पृष्ठ 2) शमशेर अपनी ग़ज़लों के लिए अलग से पहचाने जाते हैं। हिन्दी के कवियों में ग़ज़ल लेखन की प्रवृत्ति नयी नहीं है। उनके पूर्व भी भारतेन्दु, गया प्रसाद शुक्ल 'सनेही', मैथिलीशरण गुप्त से लेकर सूर्यकान्त त्रिपाठी' निराला' आदि तक ने ग़ज़लें लिखीं। उनके समकालीनों में त्रिलोचन ने भी एक पूरा ग़ज़ल संग्रह 'गुलाब और बुलबुल' प्रकाशित करवाया। हालांकि यह विधा किसी और से उतनी नहीं सध पायी जितनी शमशेर से। शमशेर ने ग़ज़ल के परम्परागत स्वरूप को खण्डित किये बग़ैर उसे आत्मसात किया और ग़ज़ल की अपनी आन्तरिक आवश्यकताओं को पूरा करने में वे सफल भी रहे। 'सन् 1961 में प्रकाशित शमशेर बहादुर सिंह के संग्रह 'कुछ और कविताएं' में उनकी 7 ग़ज़लें संग्रहीत हैंxxxशमशेर के बाद ही सन् 1974-75 में दुष्यंत कुमार का प्रसिद्ध ग़ज़ल संग्रह 'साये में धूप' प्रकाशित हुआ जिसमें उनकी 52 ग़ज़लें संग्रहीत हैं। दुष्यंत भाषा के स्तर पर भारतेन्दु या निराला की परम्परा के कवि नहीं बल्कि शमशेर बहादुर सिंह की परम्परा के कवि हैं। दोनों की ग़ज़लें कई स्थानों पर उर्दू के कठिन शब्दों से भरी हैं परन्तु वे उसे आम बोलचाल की भाषा कहते हैं। जहां तक कथ्य का प्रश्न है दुष्यंत भारतेन्दु व निराला से जुड़ जाते हैं।' (डॉ.हनुमंत नायडू, जलता हुआ सफ़र, मुंबई, 1987, पृष्ठ 14)
यह पहले ही कहा जा चुका है कि शमशेर ने ग़ज़ल के परम्परागत ढांचे को स्वीकारते हुए ही अपनी बात कही है और इस विरासत का मूल्य भी कम नहीं है। शिल्पगत ढांचे को तोड़कर नयी बात कहना किन्ही अर्थों में अपेक्षाकृत सरल है किन्तु परिपाटी के बीच रहकर नया कुछ कर ग़ुजरना कठिन। हिन्दी कवियों में शमशेर की परम्परा का लगभग वैसा ही निर्वाह किया शलभ श्रीराम सिंह ने। यह रास्ता उनकी पहचान को पुख़्ता करने वाला ही साबित हुआ। शमशेर लिखते हैं-
'वही उम्र का एक पल कोई लाये
तड़पती हुई सी ग़ज़ल कोई लाये
हक़ीक़त को लायें तख़ैयुल से बाहर
मेरी मुश्किलों का जो हल कोई लाये।' (कुछ कविताएं व कुछ और कविताएं, 1984, पृष्ठ 18/19)
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