Friday, 26 March 2010

एक क्षेत्र की जानकारी दूसरे क्षेत्र में काम नहीं आती

कवि प्रभात पाण्डेय जी का एक ई मेल मुझे मिला। उससे कुछ बातें निकलीं जो आप तक पहुंचाने में कोई हर्ज नहीं लग रहा ताकि आप भी उस पर विचार करें।

2010/3/27 Prabhat Pandey
prabhat_lucknow@yahoo.co.in
हिमालय प्रहरी के सम्पादक डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने पत्रिका के मार्च - अप्रैल 2010 अंक के सम्पादकीय में एक घटना का जिक्र किया है जो इस प्रकार है -

किसी प्राथमिक विद्यालय के एक अंकगणित के शिक्षक ने बच्चों से सवाल किया. शिक्षक का सवाल था - कुल तेरह भेड़ मैदान में चर रहीं थी जिसमें से तीन भेड़ गड्ढे में गिर गयीं. बताओ कितनी भेड़ें रह गयीं. कक्षा के एक बच्चे को छोड़ कर सभी ने कहा - दस. बच्चों के उत्तर से शिक्षक संतुष्ट हुए. कक्षा का एक बच्चा अपना हाथ उठाये चुपचाप बैठा रहा. शिक्षक ने उससे पूछा - क्या तुम कुछ कहना चाहते हो. बच्चा बोला - मास्टर जी, एक भी भेड़ नहीं बची. शिक्षक ने रंज होते हुए कहा - आज तुमने अपना परिचय दे ही दिया. बस यही कहने के लिए तब से हाथ उठाये बैठे हो. बच्चा बोला - मास्टर जी, मैं ठीक कह रहा हूँ. मेरे घर में भेड़ हैं. मैं उन्हें मैदान में चराने जाता हूँ. जब कभी झुंड की एक भेड़ गड्ढे में गिर जाती है तो बाकी सभी भेड़ें उसके पीछे गड्ढे में गिर जाती हैं.
प्रश्न यह कि कौन सा उत्तर सही था और क्यों - जो एक को छोड़ बाकी बच्चों ने दिया या वो जो उस बच्चे ने दिया जो भेड़ चराता था.
प्रश्न यह भी कि क्या यह घटना हमें कुछ और इंगित करती है.
मेरा उत्तर था-यह प्रसंग यह बताता है कि अनुभव से प्राप्त ज्ञान की भी सीमाएं हो सकती हैं। विधा का ज्ञान दूसरे क्षेत्र में लागू किया जाये तो उसके नतीजे गलत भी हो सकते हैं। गणित और मनोविज्ञान दोनों अलग-अलग शास्त्र हैं। छात्र गणित के उत्तर मनोविज्ञान से देने की कोशिश कर रहा था। छात्र मनोविज्ञान में पास हो जायेगा लेकिन गणित में कभी पास नहीं होगा। एक क्षेत्र की समस्या का हल दूसरे क्षेत्र के हल से नहीं खोजा जा सकता। हम वही कोशिश करते हैं और विफल हो जाते हैं। और बच्चे के जवाब से संतुष्ट लोगों की इस देश में बहुतायत है।
एक क्षेत्र विशेष के मूल्यों को दूसरे क्षेत्र में प्रयोग मुसीबत में डालते हैं और सफलता को संदिग्ध बना देते हैं।
-राम को लोकजीवन और आध्यात्म जगत से निकाल कर राजनीति में किया गया प्रयोग देश के लिए सर्वनाशी साबित हो रहा है।-फ्रायड ने मनोविश्लेषण के लिए जब अपनी ही बेटी के क्रिया कलापों को चुना तो लोकजीवन में उसकी निन्दा हुई। -यौन जीवन की चर्चा जब हम खुले मंच पर करते हैं तो वह निन्दनीय बन जाता है।-कामयाबी को ही नैतिक जीवन की कसौटी मानना व्यावहारिक जीवन में सराहनीय होता है किन्तु मूल्यों के क्षेत्र में कामयाबी का कोई महत्व नहीं है और विफल लोग समाज के आदर्श बन सकते हैं।

No comments:

Post a Comment