Sunday, 29 November 2009

मैं सदैव तुम्हारे साथ हूं, दूर नहीं-लोढ़ा


जीवन वृत्त-एक नज़र
जन्‍म-28 सि‍तम्‍बर 1921। निधनः 21 नवम्बर कीरात लगभग 2.30 बजे जयपुर में। कोलकाता के सेठ आनंदराम जयपुरि‍या कॉलेज में हि‍न्‍दी प्रवक्‍ता के रूप में अध्यापन शुरू किया। 1953 में कलकत्‍ता वि‍.वि‍. के हि‍न्‍दी वि‍भाग में पूर्णकालि‍क शि‍क्षक के पद पर नि‍युक्‍ति‍। सन् 1979-80 के बीच जोधपुर वि‍श्‍ववि‍द्यालय के कुलपति‍। उनके निर्देशन में पचास से ज्‍यादा पीएचडी। 11 मौलि‍क कि‍ताबें प्रकाशित और 14 कि‍ताबें संपादि‍त। साहित्यिक अवदान के लिए मूर्ति देवी पुरस्कार, केंद्रीय हिंदी संस्थान-आगरा से राष्ट्रपति द्वारा सुब्रमण्यम सम्मान, अमरीकन बायोग्राफिकल सोसाइटी अदि ने सम्मानित किया। केके बिरला फाउन्डेशन, भारतीय विद्या भवन, भारतीय भाषा परिषद्, भारतीय संस्कृति संसद जैसी संस्थाओं से सम्बद्ध रहे।

श्रद्धांजलि
हिन्दी का आभिजात्य स्वरूप जिन कुछेक लोगों में दिखायी देता है उनमें प्रो.कल्याणमल लोढ़ा का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। हिन्दी में लिखने-पढ़ने वालों की कुछेक श्रेणिया बनायी जा सकती हैं जिनमें एक तो दीनहीन दिखायी देते हैं जिन्हें देखकर करुणा जैसा भाव पैदा होता है। वे स्वयं इस भाव से हिन्दी लेखन पाठन में जुटे रहते हैं जैसे हिन्दी सेवा मांग रही हो और वे सेवक हों। दूसरी श्रेणी वे रखे जा सकते हैं जो संस्कृत और संस्कृति के बोझ से स्वयं दबे दिखायी देते हैं और बात-बात पर दूसरों की अज्ञानता का खुलासा करना नहीं भूलते। उनके लिए सब कुछ महत्वपूर्ण पहले ही लिखा जा चुका है और अब जो लोग लिखने पढ़ने के लिए बचे हैं उनका काम इतिहास को ढोना है। लिखे हुए का अनुशीलन करना ही रचनात्मकता है और हिन्दी में लिखने का स्वर्णकाल तो कब का चला गया है और यह जो नारीमुक्ति, दलित और वाम लेखन है उसने साहित्य का सर्वनाश कर रखा है। तीसरे वे हैं जिनके पास पश्चिम के कोटेशन हैं। उसकी दो शाखायें है एक जिसमें मार्क्स का चिन्तन मनन उसी प्रकार होता है जैसे कीर्तन में हरे राम हरे कृष्ण होता है। दूसरी शाखा उसकी है जो मार्क्स को खारिज करते हैं किन्तु अवधारणाएं पश्चिमी हैं और यह दोनों ही उद्धरणों के पत्थर हर नयी बात पर उछालकर उसे ध्वस्त करते रहते हैं। उधार की बातें, उधार का चिन्तन उधार की जीवन शैली। कहीं दैन्य तो कहीं दम्भ। संतुलन का सिरे से अभाव। इन सबके बरक्स प्रो.लोढ़ा की शैली एकदम संतुलित, धीर गंभीर थी। वे जो कुछ भी कहते उसमे एक शालीनता और एक गरिमा थी। पूर्व व पश्चिम का अद्भुत सामंजस्य उनके आलेखों में मिलता है। भवभूति व कालिदा सहित दुनिया भर के विद्वानों को वे भी कोट करते थे लेकिन उसे मौजूदा संदर्भों से जोड़कर देखने की लियाकत थी जो उनके विचार को एक मौलिक टच देती थी।
एक बात और यहां उल्लेख करना चाहूंगा कि मंचों पर अपनी उपस्थिति विशेष तौर पर दर्ज कराने का उनका एक सुनिश्चित फंडा था। वे किसी समारोह की अध्यक्षता को तो तैयार हो जाते थे लेकिन कार्यक्रम में पूरे समय तक उपस्थित नहीं रहते थे। दो-एक वक्ताओं को सुनने के बाद वे घड़ी देखने लगते थे और मंच संचालक कहता नजर आता था कि लोढ़ा जी को एक और समारोह में जाना है और उन्हें देर ही रही है इसलिए अध्यक्षीय भाषण अन्त में होने के ट्रेंड को तोड़ते हुए लोढ़ा जी बीच में ही अपना वक्तव्य चल देते थे।
मंचों पर उन्हें भाषण देते कई बार सुनने का अवसर मिला है और उसे किसी न किसी अखबार के लिए कवर करने का भी। कई बार ऐसा भी हुआ है कि कार्यक्रम में पहुंचने में विलम्ब हुआ और उनका वक्तव्य समाप्त हो चुका हो तो बाद में फ़ोन पर भी उनसे पूछने में भी मैं संकोच नहीं करता था कि उन्होंने सभा में क्या कहा था। एक बात गौर करने की यह थी कि मंचीय वक्तव्यों में सामान्य तौर पर उनके कोटेशन फिक्स थे और हर बात को कहने के लिए उसी प्रसंग का जिक्र करते थे जिसमें पाब्लो पिकासो की पेंटिग "गुएर्निका" का जिक्र भी शामिल है, जो स्पेनिश गृह युद्ध में छोटे से कस्बे बास्क को तहस-नहस करने के खिलाफ उनके आक्रोश का प्रतिबिंब थीं।
उन्होंने मीडिया को लिखने-पढ़ने में सहर्ष सहयोग किया है। कई बार ऐसा भी हुआ है कि किसी प्रख्यात रचनाकार की मृत्यु हो गयी हो या फिर कोई अन्य सांस्कृतिक मसले पर प्रतिक्रिया हो उनसे देर रात भी जगाकर प्रतिक्रिया ली गयी है। वे जानते थे मीडिया के कामकाज के तौर-तरीके और उसकी मज़बूरियां। उन्होंने कभी बुरा नहीं माना। कई बार अपने व्यक्तिगत लेखन में भी किसी शब्द के प्रयोग को लेकर मुझे उलझन होती तो उनसे पूछ लेता था। लोढ़ा जी का मुझसे सम्पर्क बनाये रखने का एक कारण मेरा मीडिया से जुड़ा होना भी था। किसी भी समारोह में वे मीडिया के लोगों का काफी ध्यान रखते थे और व्यक्तिगत तौर पर यथासम्भव सम्पर्क भी रखते थे।
मेरे कोलकाता नागपुर से एमए करके आया था इसलिए उनसे पढ़ने का अवसर मुझे नहीं मिला था। जब मैंने पीएचडी के लिए कलकत्ता विश्वविद्यालय से शोध प्रारम्भ किया था उस समय वे पीएचडी कमेटी में थे, आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री और डॉ.प्रबोधनारायण सिंह के साथ। मेरे लिखे को वे पसंद करते थे। मेरी जो भी किताब प्रकाशित होती थी मैं उन्हें भेजता था और उन पर उनकी प्रतिक्रियाएं भी मिलती थीं। पत्राचार को वे पर्याप्त महत्व देते थे और संभवतः सभी के सभी पत्रों का जवाब देते थे। कई बार उनके घर भी मुझे जाने की मौका मिला है। एक अखबार की ओर से उनके जन्म दिन पर उनकी इंटरव्यू लेने भी गया था। कुछेक साहित्यिक समारोहों में मुझे उन्हें उनके घर से आयोजन स्थल पर भी ले जाने या पहुंचाने की जिम्मेदारी उठानी पड़ी इसलिए रास्ते में भी उनसे काफी बातें करने का अवसर मिला। एकाध बार उनकी फटकार भी सुनने का मौका मिला है। मैंने नाद प्रकाशन शुरू किया था और डॉ.सुकीर्ति गुप्ता का कविता संग्रह 'शब्दों से मिलते जुलते हुए' में प्रूफ़ की गल्तियां छूट गयी थीं। वह किताब सुकीर्ति जी ने अपने गुरु लोढ़ा जी को समर्पित की थी। इसलिए किताब़ में प्रूफ की गल्तियों पर उनकी फटकार भी मुझे सुनने को मिली थी। प्रो.लोढ़ा कोलकाता व बाहर के लिखने पढ़ने वालों के सम्बंध में अपने विचार भी शेयर करते थे। मैं उन दिनों खूब पढ़ता था नयी से नयी पत्रिका और लाइब्रेरियों की भी खाक छानता था सो वे नये लिखने-पढ़ने वालों के बारे में पूछते भी थे। यह भी उतना ही सही है कि मैं उनका शिष्यवत कभी नहीं था। ज्यादातर लिखने- पढ़ने वालों के साथ समानता के स्तर पर ही सम्बंध का निर्वाह कर पाता हूं उनके साथ भी मेरा यही व्यवहार था। अपनी असहमतियां व्यक्त करने में मुझे गुरेज नहीं था। उनकी बातचीत के प्रमुख विषय जिन व्यक्तियों से जुड़े होते थे उनमें प्रो.विष्णुकान्त शास्त्री, डॉ.कृष्ण बिहारी मिश्र, डॉ.सुकीर्ति गुप्ता, डॉ.शंभुनाथ प्रमुख थे। और वे यह पसंद करते थे कि उनके साथ हुई बातचीत किसी से शेयर न की जाये। वे सम्बंधों की प्राइवेसी को पर्याप्त तरजीह देते थे। इसलिए कई लोगों को उनका मिला सहयोग कभी चर्चा में नहीं आया पर उन्होंने बहुतेरों की आवश्यकतानुसार मदद की है। वे सकलदीप सिंह के पाश्चात्य साहित्यिक अध्ययन का लोहा भी मानते थे, जो अरसे तक मेरे फ्रैंड-फिलासर-गाइड रहे हैं। हालांकि तुलसी, सूरदास, कबीर, निराला, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, माखनलाल चतुर्वेदी के साहित्यिक अवदान की चर्चा वे अक्सर करते और समकालीन लेखन पर उतनी पकड़ उनकी नहीं थी। प्रसाद की 'कामायनी' उनकी प्रिय कृति थी।
अपने व्यवसाय के डूबने के बाद के दिनों में और कोलकाता के छूटने के हालत बनने पर मैंने एक नाराजगी भरा पत्र उन्हें लिखा था। उसका जवाब भी मिला था। मुद्दा मुझे अब याद नहीं पर उनका पत्र यूं था-
कलकत्ता
03. 01.96
प्रिय अभिज्ञात

तुम्हारा 29.12.96 का पत्र आज मिला। अच्छा लगा। सर्व प्रथम नववर्ष की शुभकामनाएं सपरिवार स्वीकार करो। तुम्हारा उपालम्भ भी मिला। मैं तो सदैव तुम्हारे साथ हूं दूर नहीं। ऐसा क्यों सोचा। तुम्हारे ग्रंथ भी पढ़े हैं-तुममें प्रतिभा है और लगन भी। मैं अपनी सीमा में जो कुछ भी होगा, सहयोग दूंगा। अभी कलकत्ते में ही हूं। फोन न.4642300 है। मिलें तब विस्तृत चर्चा होगी।
सस्नेह
तुम्हारा
कल्याणमल
कल्याणमल लोढ़ा
2ए, देशप्रिय पार्क ईस्ट
कलकत्ता-7200021
पत्र मिलने का बाद जब मैं उनसे मिलने गया था उन्होंने मेरी मदद करने के कुछ उपक्रमों की चर्चा की लेकिन वे मुझे मंजूर नहीं थे। एक अफलातूनी मानसिकता थी उन दिनों जिसके चलते हालत यह बने कि मदद मांगने वाला शर्ते रख रहा था। बात बेनतीजा रही लेकिन यह भाव जीवन भर मन में कायम रहेगा कि वे मेरी मदद करना चाहते थे। मुसीबतजदा व्यक्ति के पास खड़े होने की ज़हमत कम ही बुद्धिजीवी लेते हैं। लोढ़ा जी उनमें से एक थे।
बाद के दिनों में जब कोलकाता मुझसे आखिरकार कुछ अरसे के लिए छूट गया तो लोढ़ा जी से सम्पर्क भी टूट गया। अब उनके देहावसान ने उनकी यादें ताजा कर दीं। उन्हें मेरी श्रद्धांजलि। उनके बाद हिन्दी में एक स्टाइलिश व्यक्तित्व की कमी खलती रहेगी। अंतिम बार उन्हें मैंने देखा था कोलकाता बुक फेयर में, जिसमें उनके साथ थीं मेरी प्रिय कवयित्री नवनीता देवसेन। लोढ़ा जी ने फर की टोपी पहन रखी और उनका खूबसूरत चेहरा बुजुर्गियत की आभा से और दिव्य लग रहा था। वर्ष मुझे याद नहीं पर चेहरा वह चेहरा नहीं भूलेगा।

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