Sunday, 16 August 2009

साहित्य में प्रतिबद्धता के नये आयाम खोजें

प्रतिबद्ध साहित्य की जुगाली करने वालों को अब नये मुद्दों को तलाशने की शिद्दत से आवश्यकता है। तीन ऐसे मुद्दे थे जिनको लेकर साहित्य में खासी लिखापढ़ी का दौर चला। एक दलित, दूसरा स्त्री और तीसरा मार्क्सवाद। दलित की बात स्वतंत्रता के पहले तक तो ठीक लग रही थी लेकिन अम्बेडकर आदि के प्रयासों के कारण संविधान में जो अधिकार आरक्षण के तौर पर उन्हें मिले वह उन्हें समानता के अधिकार से भी अधिक थे। और अब जबकि कुछ सीमित अवधि के लिए आरक्षण की बात थी उसमें लगातार अवधि का इजाफा हो चला है तो दलित अब वह नहीं रह गये हैं जिनके लिए आंसू बहाना है या जिन्हें बराबरी में खड़ा करने की बात है बल्कि यह वर्ग है जो काबिलित से बूते नहीं बल्कि जन्म के बूते तमाम सुविधाओं को पाने का हकदार हो गया है। हाल ही अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए आरक्षण की अवधि में और इजाफा हो गया है। ऐसे में यह साहित्य का मुद्दा रही ही नहीं गया है। उल्टे आरक्षण के खिलाफ आवाज उठती रही है भले वह दबा दी जाती है। दूसरा मुद्दा स्त्री को बराबरी का दर्जा देने का है तो अब जबकि तमाम महत्त्वपूर्ण पदों पर स्त्रियां विराजमान हैं चाहे वह राष्ट्रपति हो, स्पीकर हो या फिर संप्रग की चेयरपर्सन। स्त्री अब वह नहीं रह गयी है जिसके हालत पर आंसू बहाये जायें। उल्टे भारतीय लोकतंत्र में वह इतनी सबल होकर उभरी है कि दुनिया के बाकी लोकतांत्रिक देश इससे सबक ले रहे हैं। स्त्रियों को आरक्षण देने का मुद्दा तो उसी प्रकार है जैसा दलितों का। आरक्षण देना फिर असमानता को दावत देना है। आरक्षण बराबरी का दूसरा नाम नहीं है। भले यह प्रथा हमारे यहां चल निकली है कि जिसे बराबरी का दर्जा देना हो उसे दूसरों को अधिक तरजीह दे दिया जाये। इससे तो गैर बराबरी का सिलसिला कभी खत्म नहीं होगा। तीसरा है मार्क्सवाद, जिसका साहित्य में सबसे अधिक बोलबाला होता है किन्तु पश्चिम बंगाल में जो कुछ हो रहा है उससे यह सबक देश को मिला है कि कोई भी विचारधारा व्यावहारिक तौर पर विफल ही होगी यदि वह राजनीति से जुड़ती है क्योंकि राजनीति की अपनी शर्तें होती हैं। राजनीति की सीमाएं ही विचारधारा की नियति तय करती हैं। अच्छा हो कि साहित्यकार अपने लिए इन तीनों से परे और मुद्दे तलाशें तभी वह समाज की मशाल बनेंगे।

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