Tuesday 28 November 2017

गांव की विडम्बनापूर्ण स्थितियों का कथात्मक विश्वसनीय दस्तावेज

साभारः सन्मार्ग, कोलकाता, 26.11.2017

लघुकथाकार के रूप में पुख्ता पहचान बना चुके अशोक मिश्र का पहला कहानी संग्रह ‘दीनानाथ की चक्की’ ग्रामीण परिवेश को जीवंत करता हुआ पाठकों के आस्वाद में एक सकारात्मक और ज़रूरी हस्तक्षेप करता है। हालांकि इसमें संग्रहीत कहानियां देश की प्रमुख पत्रिकाओं में पहले ही प्रकाशित हो चुकी हैं किन्तु एक साथ इनको पढ़ना उनकी मुकम्मल दस्तानगोई से वाकिफ होना है। उनकी कहानियों में कस्बाई और शहरी परिवेश है किन्तु वह ग्रामीण दृश्य से देखा गया शहर है। उनकी कहानियां गांव से उठती हैं और उसके विषाक्त होते परिवेश और वहां ध्वस्त होते जीवन मूल्यों को बेबाक ढंग से पाठक के समक्ष रखती हैं। जातिवाद का घुन किस कदर देश की सारी व्यवस्था को कमज़ोर कर रहा है, इसकी शिनाख्त इन कहानियों से की जा सकती है। यह कहानियां कहानी भर ही नहीं हैं, बल्कि उससे आगे जाकर एक समाजशास्त्रीय अध्ययन और विमर्श बन जाती हैं।

संग्रह की पहली कहानी ‘बुद्धिराम@पत्रकारिता डॉट कॉम’ पत्रकारिता की दुनिया में जातिवादी गठजोड़ और देश की तमाम घटनाओं को जातीय दृष्टिकोण से देखने-दिखाने को बेनकाब करती है लेकिन वह जातीय विमर्श तथा समाज में दलित और स्त्री की स्थिति तक ही नहीं रुकती बल्कि मीडिया के पतनोन्मुख यथार्थ को भी बयां करती है। मीडिया के मिशन से प्रोफेशन बन जाने की टीस भी इसमें है। बीस साल तक पत्रकार के तौर पर सक्रिय रहे इस कथाकार ने इस दुनिया को करीब से देखा है, जो कथन को अतिरिक्त विश्वसनीयता प्रदान करता है। शीर्षक कहानी ‘दीनानाथ की चक्की’ भी आज की ग्रामीण व्यवस्था का आईना है और ग्राम विकास के नाम पर चलाई जा रही योजनाओं पर गहरा व्यंग्य है। शिक्षा जगत में व्याप्त विसंगतियां तो उनकी कई कहानियों में उजागर हुई हैं। अशोक मिश्र की कहानियां परास्त, पस्त और निराश लोगों के घुटन का दस्तावेज हैं। हर चौथी पंक्ति कहीं-न-कहीं किसी-न-किसी प्रकार व्यवस्था की खामियों पर एक तल्ख टिप्पणी है और यह विनय की भाषा में नहीं है। उनकी कहानियों में संवाद कम हैं लेकिन जब भी कोई पात्र मुख खोलता है, उसमें तीखा कटाक्ष है। इसी प्रकार गांव की मौत कहानी में मौजूदा विडम्बनाओं के हमारा साबका पड़ता है। संग्रह की सत्रह नयी- पुरानी कहानियों में अशोक मिश्र ने क्रमशः लेखन -शिल्प को मांजा, कटाक्ष को तीव्रतर और यथार्थ पर अपनी पकड़ को मज़बूत किया है।

    डॉ.अभिज्ञात

Wednesday 1 November 2017

काइनात में कुछ भी नहीं है,दो दिल इक धड़कन



साभार- सन्मार्ग 12.11.2017

पुस्तक समीक्षा/डॉ.अभिज्ञात

पुस्तक : झील के बिस्तर पर/गीत/लेखक-फ़े.सीन.एजाज़/प्रकाशक: इंशा पब्लिकेशंस, 26 ज़करिया स्ट्रीट, कोलकाता-700073/मूल्य: 120 रुपये


दिल के अहसासों को पूरी शिद्दत से व्यक्त करने वाले गीतों का संग्रह ‘झील के बिस्तर पर’ आया है। इसे लिखा है उर्दू के प्रख्यात शायर, कथाकार, आलोचक और ढाई दशक से अधिक अरसे में कई देशों में अपना अच्छा-खासा पाठक वर्ग तैयार कर चुकी पत्रिका ‘महानामा इंशा’ के सम्पादक फ़े.सीन.एजाज़ ने। देवनागरी लिपि में आये ये गीत हिन्दी गीतों के प्रचलित मुहावरों और प्रतीकों से एकदम अलग हैं जिसके कारण इनमें अतिरिक्त ताज़गी है। चूंकि एजाज़ ग़ज़लगोई की दुनिया का एक सुपरिचित नाम है, जिसने गीत के मीटर पर भी अपनी वैसी ही पकड़ बरकरार रखी है इसलिए इन गीतों को गाने वालों के सामने भी कोई दुश्वारी नहीं है। हिन्दी उर्दू की मिलीजुली आसान हिन्दुस्तानी जुबान में लिखे ये गीत आसानी से लोगों की समझ में आने वाले हैं। एक और खूबी यह कि कई गीत स्त्रियों की ओर से उनके मनोभावों को व्यक्त करने वाले हैं। एक बानगी देखें-‘तरसेंगी मिरी सांस को जब सांसें तुम्हारी/उलझेंगी मंज़िलों से भी जब राहें तुम्हारी/कुछ काम न आ पायेंगी जब आहें तुम्हारी/ढूंढोगे मेरे साथ की तन्हाइयों को तुम/पर मैं नहीं मिलूंगी..।’
ताजमहल को लेकर उर्दू शायरी में साहिर लुधियानवी से लेकर तमाम रचनाकारों ने बहुत कुछ लिखा है, उस क्रम को एजाज़ ने आगे बढ़ाया है। उनका गीत यूं है-‘सोचा है कोई ताजमहल हम भी बनायें/ हल्का सा कोई तंज़ ज़फ़ाओं पे नहीं हो/इस दिल को ग़ुरूर अपनी वफ़ाओं पे नहीं हो/दिल छूने का इक तर्ज़े अमल हम भी बनायें।’
इस संग्रह के गीतों में नारेबाजी व समाज को बदल डालने की चाहतों की बातें नहीं बल्कि मुहब्बत, ज़ुदाई व उससे जुड़े मनोभावों को अधिक व्यक्त किया गया है जो युवाओं को भी आकृष्ट करेगा-‘कल तू भी नहीं होगी यहां, हम भी न होंगे/आ जा के मुलाक़ात का यह आख़िरी दिन है/इक प्यार का आलम जो गुज़ारा है तेरे साथ/बरसात का मौसम जो गुज़ारा है तेरे साथ/उस मौसमे बरसात का यह आख़िरी दिन है।’ उनके गीतों की दुनिया में और कोई नहीं बल्कि दो मुहब्बत करने वाले हैं और उनसे जुड़ी बातें हैं। इस बात को वे अपने पहले ही गीत में कह देते हैं-‘आज इक साथ हंसें तो खुल कर साथ बहें आंसू/कोई नहीं है वादी--गुल में, इक मैं और इक तू/काइनात में कुछ भी नहीं है, दो दिल इक धड़कन/यह कैसी उलझन है।’
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