Tuesday 28 November 2017

गांव की विडम्बनापूर्ण स्थितियों का कथात्मक विश्वसनीय दस्तावेज

साभारः सन्मार्ग, कोलकाता, 26.11.2017

लघुकथाकार के रूप में पुख्ता पहचान बना चुके अशोक मिश्र का पहला कहानी संग्रह ‘दीनानाथ की चक्की’ ग्रामीण परिवेश को जीवंत करता हुआ पाठकों के आस्वाद में एक सकारात्मक और ज़रूरी हस्तक्षेप करता है। हालांकि इसमें संग्रहीत कहानियां देश की प्रमुख पत्रिकाओं में पहले ही प्रकाशित हो चुकी हैं किन्तु एक साथ इनको पढ़ना उनकी मुकम्मल दस्तानगोई से वाकिफ होना है। उनकी कहानियों में कस्बाई और शहरी परिवेश है किन्तु वह ग्रामीण दृश्य से देखा गया शहर है। उनकी कहानियां गांव से उठती हैं और उसके विषाक्त होते परिवेश और वहां ध्वस्त होते जीवन मूल्यों को बेबाक ढंग से पाठक के समक्ष रखती हैं। जातिवाद का घुन किस कदर देश की सारी व्यवस्था को कमज़ोर कर रहा है, इसकी शिनाख्त इन कहानियों से की जा सकती है। यह कहानियां कहानी भर ही नहीं हैं, बल्कि उससे आगे जाकर एक समाजशास्त्रीय अध्ययन और विमर्श बन जाती हैं।

संग्रह की पहली कहानी ‘बुद्धिराम@पत्रकारिता डॉट कॉम’ पत्रकारिता की दुनिया में जातिवादी गठजोड़ और देश की तमाम घटनाओं को जातीय दृष्टिकोण से देखने-दिखाने को बेनकाब करती है लेकिन वह जातीय विमर्श तथा समाज में दलित और स्त्री की स्थिति तक ही नहीं रुकती बल्कि मीडिया के पतनोन्मुख यथार्थ को भी बयां करती है। मीडिया के मिशन से प्रोफेशन बन जाने की टीस भी इसमें है। बीस साल तक पत्रकार के तौर पर सक्रिय रहे इस कथाकार ने इस दुनिया को करीब से देखा है, जो कथन को अतिरिक्त विश्वसनीयता प्रदान करता है। शीर्षक कहानी ‘दीनानाथ की चक्की’ भी आज की ग्रामीण व्यवस्था का आईना है और ग्राम विकास के नाम पर चलाई जा रही योजनाओं पर गहरा व्यंग्य है। शिक्षा जगत में व्याप्त विसंगतियां तो उनकी कई कहानियों में उजागर हुई हैं। अशोक मिश्र की कहानियां परास्त, पस्त और निराश लोगों के घुटन का दस्तावेज हैं। हर चौथी पंक्ति कहीं-न-कहीं किसी-न-किसी प्रकार व्यवस्था की खामियों पर एक तल्ख टिप्पणी है और यह विनय की भाषा में नहीं है। उनकी कहानियों में संवाद कम हैं लेकिन जब भी कोई पात्र मुख खोलता है, उसमें तीखा कटाक्ष है। इसी प्रकार गांव की मौत कहानी में मौजूदा विडम्बनाओं के हमारा साबका पड़ता है। संग्रह की सत्रह नयी- पुरानी कहानियों में अशोक मिश्र ने क्रमशः लेखन -शिल्प को मांजा, कटाक्ष को तीव्रतर और यथार्थ पर अपनी पकड़ को मज़बूत किया है।

    डॉ.अभिज्ञात

Wednesday 1 November 2017

काइनात में कुछ भी नहीं है,दो दिल इक धड़कन



साभार- सन्मार्ग 12.11.2017

पुस्तक समीक्षा/डॉ.अभिज्ञात

पुस्तक : झील के बिस्तर पर/गीत/लेखक-फ़े.सीन.एजाज़/प्रकाशक: इंशा पब्लिकेशंस, 26 ज़करिया स्ट्रीट, कोलकाता-700073/मूल्य: 120 रुपये


दिल के अहसासों को पूरी शिद्दत से व्यक्त करने वाले गीतों का संग्रह ‘झील के बिस्तर पर’ आया है। इसे लिखा है उर्दू के प्रख्यात शायर, कथाकार, आलोचक और ढाई दशक से अधिक अरसे में कई देशों में अपना अच्छा-खासा पाठक वर्ग तैयार कर चुकी पत्रिका ‘महानामा इंशा’ के सम्पादक फ़े.सीन.एजाज़ ने। देवनागरी लिपि में आये ये गीत हिन्दी गीतों के प्रचलित मुहावरों और प्रतीकों से एकदम अलग हैं जिसके कारण इनमें अतिरिक्त ताज़गी है। चूंकि एजाज़ ग़ज़लगोई की दुनिया का एक सुपरिचित नाम है, जिसने गीत के मीटर पर भी अपनी वैसी ही पकड़ बरकरार रखी है इसलिए इन गीतों को गाने वालों के सामने भी कोई दुश्वारी नहीं है। हिन्दी उर्दू की मिलीजुली आसान हिन्दुस्तानी जुबान में लिखे ये गीत आसानी से लोगों की समझ में आने वाले हैं। एक और खूबी यह कि कई गीत स्त्रियों की ओर से उनके मनोभावों को व्यक्त करने वाले हैं। एक बानगी देखें-‘तरसेंगी मिरी सांस को जब सांसें तुम्हारी/उलझेंगी मंज़िलों से भी जब राहें तुम्हारी/कुछ काम न आ पायेंगी जब आहें तुम्हारी/ढूंढोगे मेरे साथ की तन्हाइयों को तुम/पर मैं नहीं मिलूंगी..।’
ताजमहल को लेकर उर्दू शायरी में साहिर लुधियानवी से लेकर तमाम रचनाकारों ने बहुत कुछ लिखा है, उस क्रम को एजाज़ ने आगे बढ़ाया है। उनका गीत यूं है-‘सोचा है कोई ताजमहल हम भी बनायें/ हल्का सा कोई तंज़ ज़फ़ाओं पे नहीं हो/इस दिल को ग़ुरूर अपनी वफ़ाओं पे नहीं हो/दिल छूने का इक तर्ज़े अमल हम भी बनायें।’
इस संग्रह के गीतों में नारेबाजी व समाज को बदल डालने की चाहतों की बातें नहीं बल्कि मुहब्बत, ज़ुदाई व उससे जुड़े मनोभावों को अधिक व्यक्त किया गया है जो युवाओं को भी आकृष्ट करेगा-‘कल तू भी नहीं होगी यहां, हम भी न होंगे/आ जा के मुलाक़ात का यह आख़िरी दिन है/इक प्यार का आलम जो गुज़ारा है तेरे साथ/बरसात का मौसम जो गुज़ारा है तेरे साथ/उस मौसमे बरसात का यह आख़िरी दिन है।’ उनके गीतों की दुनिया में और कोई नहीं बल्कि दो मुहब्बत करने वाले हैं और उनसे जुड़ी बातें हैं। इस बात को वे अपने पहले ही गीत में कह देते हैं-‘आज इक साथ हंसें तो खुल कर साथ बहें आंसू/कोई नहीं है वादी--गुल में, इक मैं और इक तू/काइनात में कुछ भी नहीं है, दो दिल इक धड़कन/यह कैसी उलझन है।’

Thursday 12 October 2017

प्रोसेनियम की ओर से कवि सम्मेलन और मुशायरा सम्पन्न


कोलकाताः शिव कुमार झुनझुनवाला द्वारा संचालित प्रोसेनियम आर्ट सेंटर की ओर से उसके रिपन स्ट्रीट सभागार में कवि सम्मेलन और मुशायरा का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। कार्यक्रम की अध्यक्षता कवि, गायक व पश्चिम बंगाल के अतिरिक्त पुलिस महानिरीक्षक (रेलवे) मृत्युंजय कुमार सिंह ने की। उन्होंने इस अवसर पर न सिर्फ अपनी कविताएं सुनायीं बल्कि स्व लिखित अपने भोजपुरी गीतों से भी उपस्थित समुदाय का मन मोह लिया। कार्यक्रम में डॉ. अभिज्ञात ने पैसे फेंको, तुम मेरी नाभि में बसो विश्वास कविताएं और देशभक्ति गीत दुश्मन के लहू से लिखने को एक और कहानी है गीत सुनाया। वदूद आलम आफ़ाकी ने ग़ज़ल "जो कह दिया उसे कर के दिखा दिया उसने, हाँ में मुझको तमाशा बना दिया उसने' सुनाकर खूब तालियां बटोरी।
जितेन्द्र जितांशु ने बहुत धूप है ,काला चश्मा साथ नही है  तथा घर से घर को घर की तरफ  आदि कविताएं सुनायीं। सोहैल खान सोहैल की ग़ज़ल यूं थी- 'पत्थर पूजे या फिर निराकार है,सबका करता वो ही बेड़ा पार है।' पलाश चतुर्वेदी ने अपनी हिन्दी व उर्दू कविताओं का पाठ किया। कार्यक्रम का संचालन किया डॉ.बिन्दु जायसवाल एवं अरविंद कुमार सिंह ने।












Wednesday 4 October 2017

संवेदना के नये धरातल के अन्वेषण की कविताएं

पुस्तक समीक्षा
-डॉ.अभिज्ञात
कविता संग्रह-काश !कोई शीशा दिखाता/लेखक-सुव्रत लाहिड़ी/
प्रकाशक-आनंद प्रकाशन, 176/178 रवीन्द्र सरणी, कोलकता-700007/
मूल्य-200 रुपये

सुव्रत लाहिड़ी का यह दूसरा कविता संग्रह लगभग 25 साल बाद आया है। पहला संग्रह ज़िल्द बन जाने से पहले था। इस बीच उन्होंने अपने काव्यानुभवों और संवेदना के स्तर का पर्याप्त विकास किया है। यूं भी एक वामपंथी प्रतिबद्ध विचारक की संवेदना के धरातल के प्रति पाठकों में उत्सुकता होती है किन्तु जिस भाव प्रवणता का परिचय इस संग्रह से मिलता है वह उसे सुखद विस्मय से भर देता है। यहां विचारों का शुष्क संसार नहीं है बल्कि मनोवेगों के उतार-चढ़ाव व संवेदना के विभिन्न रूपों से उसका साबका होता है। ये कविताएं संवेदना के नये धरातल का अन्वेषण करती नज़र आती हैं। प्रकृति उनके कथन को व्यक्त करने का विश्वस्त आलम्बन है-'अभी/बस अभी खिले ओस भींगे स्निग्ध जूही के अनगिनत फूल/सुबह की शुरुआत है/सूरज की आह्निक गति की पहली कड़ी है/चहचहाहट के मंत्रोच्चार से झूमती बूंद ओस की/हर सुबह का करती है स्वागत/तुम सुबह हो..।'
संवेदना की गहराई का 'खोया' कविता पुष्ट उदाहरण है, जो मां पर लिखी गयी है-'जिन जिन की मां/तारा बन गयी/उसे खोने का दर्द/महसूस नहीं कर पाते वे/मां है जिनके साथ।'
कविता की असली ताक़त वे किसे मानते हैं वह 'जरूरी' कविता में उन्होंने स्पष्ट किया है-'शब्दों को/कविता में सुरक्षित करना/ज़रूरी हो गया हमारे शब्दों को ग्लास हाउस में रखकर बोंसाई बनाने का प्रयास जारी है इसलिए कवि होना नहीं शब्दों की देखभाल ज़रूरी है।' दरअसल उनकी निगाह में केवल कविता नहीं बल्कि शब्दों की वह शक्ति महत्वपूर्ण है जिसमें मानवीय नियति, सभ्यता, संस्कृति व मेहनतकश जनता का इतिहास महफूज होता है, लेकिन उसके पाठ में दुरभिसंधियां छिपी होती हैं। शब्द अपने सही आशय खो रहे हैं। कवि की निगाह में कविता में ही शब्द को सहेज कर महफूज रखा जा सकता है।
छीजती संवेदनशीलता और जीवन से खोते उल्लास के प्रति कवि के मन में गहरी टीस है। यह उसकी कविता में झांकती रहती है-'सोचता हूं/बारिश से बुझी आग में तप कर/श्मशान में एक गुलमोहर का पौधा लगाऊंगा/कभी तो संवेदन भरा फूल खिलेगा/तब भरपूर रोऊंगा/तब भरपूर हंसूंगा/तब भरपूर बोलूंगा/तब मेरे शब्द संवेदनपूर्ण होंगे।'
सुव्रत लाहिड़ी की कविताओं में शिव, कृष्ण, राधा, दक्ष, सीता, द्वापर, त्रेता आदि पौराणिक चरित्रों व शब्दावलियों से जुड़े संदर्भ उनकी बातों को व्यापक अर्थ प्रदान करते हैं। बांग्ला संस्कृति की छाप तो खैर उनकी हर कविता में है, जो हिन्दी कविता के सौंदर्य को समृद्ध करती है।

Saturday 29 July 2017

विस्थापन और खालीपन के दंश की अभिव्यक्ति

पुस्तक समीक्षा /डॉ.अभिज्ञात

सड़क मोड़ घर और मैं/ निर्मला तोदी/ 

वाणी प्रकाशन, 4695, 21 ए, दरियागंज,

 नयी दिल्ली-110002, मूल्य-295 रुपये



निर्मला तोदी की कविताओं को पढ़ना एक ऐसे काव्यात्मक संसार से गुज़रना है, जहां इस बात का चौकन्नापन और सजगता मिलती है कि अमुक शै अमुक ज़गह पर होनी चाहिए थी, वह वहां क्यों नहीं है। अगर वह अपनी ज़गह से हट रही है, हट चुकी है या हटेगी तो उसके कारक क्या हैं। विस्थापन की ऐसी चिन्ताएं उनकी सोच को काव्यात्मक प्रतिबद्धता प्रदान करती है। विस्थापन और खालीपन के दंश का सामना उनकी कविताओं में बार-बार होता है और इस क्रम में हर बार कविता की एक नयी ज़मीन टूटती लगती है। उनकी काव्य- शैली इतनी सधी हुई है कि कविता अपने होने को अलग से उजागर नहीं करती। साधारण घटनाओं के बीच चुपचाप बहती रहती है। न तो उनकी कविताओं में टूटन की तीव्र आवाज़ें हैं और ना रूदन की तेजतर हिचकियां, पर उदासी है और जहां-तहां पसरी पड़ी है-'बड़े मज़बूत हैं दीवारों के कंधे/सिर रखकर रोया जा सकता है/अपनी बात कही जा सकती है/ खूब धैर्य से सुनती हैं/बड़े सुन्दर हैं इसके कान/किसी और से कहती भी नहीं/मेरी बातें सिर्फ़ मुझसे करती हैं/मुझे अपने जैसी लगती हैं।'
ये कविताएं किसी के न होने में होने का आभास करातीं और होने की अर्थवत्ता को भी उजागर करतीं हैं। और समय के चूक जाने के बाद होने के अर्थ को समझना स्थिति को कारुणिक भी बनाता है। कभी पूरी न होने वाली एक क्षति का पता देता है और कई बार खालीपन से उपजी उपलब्धियों से संतोष करना भी सिखाता है-'बड़ों का सिर पर हाथ हो/बहुत कुछ संभल जाता है/अपने आप/ बड़ों की खड़ाऊं/ संभाल लेती है राज-पाट।' मृत्यु पर लिखी गयी हिन्दी कविताओं के क्रम में निर्मला तोदी की कविता उनके जाने के बाद एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है, यह कविता उन्होंने अपनी सास की मृत्यु पर लिखी है-'सुबह नल की सबसे पहली आवाज़/शाम के कूकर की पहली सीटी/अब चुप है/वह जिस जिस आवाज़ में थी/यह भी मालूम हुआ/उनके जाने के बाद/रसोई से/उनका पानी का लोटा गुम है/तनी पर सूखते कपड़ों में/सफ़ेद रंग कम है/लगातार हाथ में घूमती माला/बैठी है चुपचाप/सब चीज़ें कहां थीं/मालूम हुईं उनके जाने के बाद।'
अभिव्यक्ति की विकलता और अपने अंतरमन को पन्नों पर उकेरने की बेचैनी कि कविताएं हैं सड़क मोड़ घर और मैं काव्य संग्रह में। अच्छी, उत्कृष्ट समकालीन काव्यात्मक मुहावरों से कदमताल करने का कोई प्रयास नहीं दिखायी देता और यही सादगी उनकी खूबी है। कई कविताएं शृंखलाबद्ध हैं। एक पूरा परिदृश्य उनकी कई कविताओं को मिलाकर उपस्थित है। अर्थात् तीन-चार-पांच कविताएं एक ही ज़मीन पर लिखी गयी हैं या फिर उन्हें मिला भी दिया जाये तो एक ही कविता का हिस्सा बन जाये, अर्थात् एक भावभूमि पर शृंखला की एकाधिक कविताएं हैं। ऐसा हमारे समय के महत्त्वपूर्ण कवि केदारनाथ सिंह में भी है। उन्होंने सूर्य पर कई कविताएं लिखी हैं, हालांकि उन्हें अब तक वैसे शृंखलाबद्ध नहीं किया गया है जैसे बाघ कविता का किया गया। उनकी सूर्य सम्बंधी कविताओं को शृंखलाबद्ध करने पर एक नये विस्मयलोक और अर्थपूर्ण जगत का उद्घाटन संभव है। केदारजी के पूर्ववर्ती कवि मुक्तिबोध में भी यह शृंखलाबद्धता दिखती है, भावबोध की। मुक्तिबोध साथ तो यह भी हुआ कि उनकी लम्बी कविता के टुकड़े अलग-अलग कविता के तौर पर प्रकाशित हुए। निर्मला तोदी में शृंखलाबद्धता की प्रवृत्ति इसलिए दिखायी देती है कि उनमें एक समूचा काव्य व्यक्तित्व है, जो एक बड़ी सम्भावना वाले रचनाकार में दिखायी देता है। रवीन्द्रनाथ टैगोर, अज्ञेय, शमशेर आदि की तरह। सारी रचनाओं की कड़ियां कोई सावधानी से मिलाये तो मिलेंगी। उनके जाने के बाद, जिस समय सांस निकलती है’, ‘इस तरह’, ‘जीवन चलता रहता है’, ‘बड़ों की खड़ाऊं एक ही भावभूमि की कविताएं हैं। उसी प्रकार 198 बी बी गांगुली स्ट्रीट’, ‘अपनी गली की दुनिया’, ‘रैली में, होड़ एक शृंखला की कविताएं हैं जो उनके अपने व्यक्तित्व और उनके आसपास के परिवेश और मनोजगत की हलचलों का पता देंगी। वैसे शमशेरित उनकी कविताओं में चित्रात्मकता के संदर्भ में है। उनकी कई कविताओं में दृश्य ऐसे उपस्थित हैं, जैसे वे किसी पेंटिंग का विवरण हों। या फिर कोई चाहे तो उनकी कविताओं को पढ़कर पेंटिंग बना ले।
उनकी कविताओं में प्रकृति भी बड़ी गरिमा से उपस्थित है तथा उसकी छोटी- बड़ी हलचलों का जीवंत समूचा दृश्य है, खासतौर पर बारिश का अंतरबाह्य प्रभाव परिलक्षित है और उसका बारीक विवरण भी। जीप की घरघराती आवाज़ से दरख़्तों की टूटती तन्मयता तक की फ़िक्र उन्हें है-'कौन सी साधना/ कैसी तन्मयता/ टूटती है/जब घरघराती जीप गुज़रती है।' कई बार तो वे मनुष्य तो वृक्षों से सीखने की नसीहत तक दे डालती हैं-'सभी पेड़ खड़े हैं/ साथ साथ/ पास पास/ हम लोगों में/ ऐसा क्यों नहीं होता।'
उनकी कविताओं में कई ज़रूरी सवाल और मुद्दे हैं, जिनमें शहर के आगे गांव की हैसियत, वर्तमान समाज में स्त्री की स्थिति, परित्यक्त स्थलों की उदासी, मृत्यु से उपजा सूनापन उल्लेखनीय है। स्त्री के सम्बंध में वे लिखती हैं-'चांदनी फैली हो/ या हो अमावस्या की रात /उसे क्या फ़र्क पड़ता है/ वह सोती है/ रोज़ ही/ वाणों की शैया पर।' ध्यान पर भी उनकी कविताएं हैं, जो उनकी कविताओं में आध्यात्मिक रुझान को पुष्ट करता है।



Saturday 15 July 2017

प्रकृति से अप्रतिम संवादशीलता और गहन तादात्म्य



समीक्षा-डॉ.अभिज्ञात
पुस्तक का नामः प्रकृति राग/ लेखक : मानिक बच्छावत

 प्रकाशक : समकालीन सृजन, 20 बालमुकुंद रोड, कोलकाता-700007/मूल्यः 150/-

लगभग साठ वर्षों से सतत रचनाशील वरिष्ठ साहित्यकार मानिक बच्छावत की प्रकृति से घनी आत्मीयता की रचनाओं का साक्ष्य उनका काव्य-संग्रह 'प्रकृति राग' है। उनकी प्रकृति पर लिखी कविताओं का चयन पीयूषकांति राय ने किया है। मानिक जी का प्रकृति के प्रति मैत्री भाव रहा है, जिससे वे लगातार संवादशील रहे हैं। उसके द्वंद्व को समझते हैं और उससे अपनी मानसिक ऊर्जा व संवेदनशीलता भी ग्रहण करते हैं। ऐसे दौर में जबकि वैश्विक स्तर पर पर्यावरण के बचाव की चिन्ता की जा रही है, ये रचनाएं उस मनोभूमि का निर्माण करती हैं, जहां प्रकृति का साहचर्य सुखद, विस्मयकारी और आह्लादकारी है। प्रकृति से मनुष्य के रिश्ते की पड़ताल इन कविताओं में है। कहना न होगा कि मानिक जी प्रकृति प्रेम से भी अपनी रचनात्मक खूराक प्राप्त करते हैं और ये रचनाएं उस ऋण का स्वीकार भी हैं।
इन रचनाओं में प्रकृति को उजाड़ने की साजिशों की ओर भी उन्होंने इशारा किया है। 'पहाड़ों पर आग कविता' में उन्होंने लिखा है-'सब कुछ खाक होता/दिखा/नंगे होते दिखे पहाड़/पहाड़ों पर न होंगे/पेड़ न फूल न फल/न घास घसियारे/न पशु न पक्षी/आस-पास क्यारियों में/बस खाली ज़मीन होगी/उस पर उठने लगेंगे/मकान दुकान/कारखाने/पहाड़ों पर लगी है आग/ या लगायी गयी है आग।' यह जो 'लगायी गयी है' का ज़िक्र है वही बताता है कि कवि का प्रकृति के प्रति कैसा अनुराग है तथा प्रकृति का संकट कितना गहरा है। एक ओर प्रकृति के बचाने की नारेबाजी है, दूसरी ओर मनुष्य की स्वार्थपरता प्रकृति की नैसर्गिक सुषमा को तहस- नहस करने में जुटी हुई है।
ऐसा नहीं है कि उनकी कविताओं में केवल तार्किकता है, बल्कि वे प्रकृति से गहन साहचर्य रखने वालों पर भी रीझते हैं-'वन कन्या कविता में वे लिखते हैं-'उसके पास/फुलदानी के/पुष्प नहीं/जूड़े में/पूरे वन की श्री है/उसे कृत्रिम प्रसाधनों की/ कोई ज़रूरत नहीं/अंग अंग में/ नैसर्गिंक महक है।' वन के पंछी के प्रति भी उनका अनुराग कम नहीं-'बस्तर की मैना' कविता की बानगी यूं है-'उसका बदन/रेशम की तरह/चमक रहा था/पक्षियों का अंतर्ज्ञान/नहीं बदला है/न मंद हुआ है/न बंद हुआ है/बदले हैं मनुष्य/जो उनके संकेतों को/ पढ़ नहीं पाते।' इस कविता में मनुष्य के प्रकृति से अलग-थलग पड़ जाने की टीस व्यक्त होती है।
प्रकृति की उपेक्षा और दुर्दशा से कवि दुःखी और चिन्तित है-'रेत की नदी' कविता में वे कहते हैं-'वर्षों से पड़ी हूं/अछूती/पीतवर्णी/दर्दीले मरुस्थल की/छाती पर पसरी/स्वर्ण झरी/मर्म भरी/परी-सी लेटी/निर्वसना/पीताभ रेत कणों की/ झर-झर कन्था/अपने निष्कासन के/दुख की परत कथा/सहती रही व्योम का ताप।'
प्रकृति की तमाम हलचलें उनके इस संग्रह में पूरी गरिमा के साथ उपस्थित हैं-'पका धान' कविता का एक अंश यूं है-'धरती के बेटों का/मन खुश है/अभी-अभी जो धान पका है/जीवन में जैसे मान पका है/और उमंगें नाच रही हैं/पके धान पर।' इन कविताओं में एक आंतरिक छंद है, जो भाषा को और नम करता है और उन भावों तक पहुंचने में और सुगम्यता प्रदान करता है।

Friday 17 March 2017

एक नये सौंदर्य की सृष्टि करती कविताएं

-डॉ.अभिज्ञात
पुस्तक एक दिन अचानक
लेखक-जितेन्द्र जितांशु
प्रकाशक-सदीनामा प्रकाशन, एच-5. गवर्नमेंट क्वार्टर्स, बजबज, कोलकाता-700137
मूल्य-30 रुपये


जितेन्द्र जितांशु का दूसरा कविता संग्रह है एक दिन अचानक। पहला संग्रह कबूतर काफी अरसा पहले 1975 में आया था। तब से उनकी कविता काफी आगे बढी है और उन्होंने विचार और संवेदना के नये धरातल की लगातार तलाश की है। उनकी कविता में जहां एक ओर जूझारूपन है वहीं एक बेफिक्री और मस्ती भी है, जो एक नये तरह का सम्मोहन रचती है। शब्दों और आशय की नयी गति और नयी लय उनके नये संग्रह की विशेषता है। गंभीर बातें वे बड़ी आसानी से कह जाती हैं जिसमें कई जगह तुक बैठती तो कहीं टूटती है..लेकिन यह टूटन, यह लापरवाही एक सौंदर्य की सृष्टि करती है। ये प्यार क्या है कविता में वे लिखते हैं-
इंकार भी इकरार भी
धिक्कार भी तकरार भी
किस्से कहानी नज़्म कविता गीत
थिरकते चित्र, कितने रंग, कितने संग, कितने गीत
कट के गिरा तो पता चला धार क्या है
ये प्यार क्या है
सुखी को सोने न दे
दुखी को रोने न दे
हर एक युग में जीत
कैसा ज़िन्दगी का गीत
कितनी सभ्यताएं, बनीं बिगड़ीं दौड़ते रथ
ज़िन्दगी के आख़िरी क्षण तक खुला पथ
मोक्ष क्या है..धर्म क्या संसार क्या है
ये प्यार क्या है
सुखी को सोने न दे
दुखी को रोने न दे।
जितेन्द्र जितांशु संवादधर्मी कवि हैं। वे हर समस्या का निदान संघर्ष से नहीं बल्कि संवाद से खोजने के हिमायती रहे हैं। बिना संवाद के की गयी कोई भी कार्यवाही समस्या को जहां की तहां रखना ही साबित होगा, चाहे जिसनी पुरानी बात हो उसका समाधान संवाद से ही सम्भव है..एक दिन अचानक शीर्षक कविता में वे कहते है-
आ ही गया प्रश्न
क्या तुम भी मानते हो
क्या तुम जानते हो
कितनी ज़रूरत है सभ्यताओं के बीच संवाद की
एक दिन अचानक
कविता की धार
शब्दों की गूंज
तितली के पंख
पसीने की गंध
मिलेंगे म्यूज़ियम में
हमारे इन्तजार में।
इस संग्रह की कविता में आज के मनुष्य की इच्छा, आकांक्षा, स्वप्न और उलाहने सब कुछ हैं। कवि के लिए तो उनकी कविताएं उनके लिए उनका दर्शन और धर्म तक हैजीते रहने के प्रमुख कारणों में से एक। इन संवादधर्मी कविताओं के बीच जहां तहां अभिव्यक्ति का एक टटकापन है, जो हमें दुखद विस्मय में डाल देता है-
मौन होते जा रहे पुर्जे सृजन के
कौन सा बारूद बरसेगा गगन से
इस सृजन की सार्वभौमिकता, सरलता नि:स्वार्थ
साथ रहना है समझ के साथ।
कवि को सिर्फ साथ नहीं चाहिए बल्कि समझ के साथ साथ चाहिए।
नववर्ष की शाम कविता में जितेन्द्र जितांशु ईदगाह कहानी को नये संदर्भ में रचते हुए कहते हैं कि बच्चे हामिद को अपनी दादी के लिए अब मेले से चिमटा नहीं खरीदना है, जिनसे वह रोटी सेंकते हाथों को जलने से बचा सके बल्कि उसे अब एक जिस्ता काग़ज और कलम चाहिए, जिससे वह अपनी दादी को हर मुश्किल से बचा सके।



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