Saturday 24 May 2014

अब चुनौती मजबूत विपक्ष की


-डॉ.अभिज्ञात
लोकतंत्र के असली दुर्दिन तब शुरू नहींं होते जब सरकार कमजोर होती है बल्कि असली दुर्दिन वे होते हैं जब वह सशक्त होती है। सरकार की निरंकुशता का लगातार खतरा बना रहता है। हालिया लोकसभा चुनावों में जनता ने भाजपा को भरपूर शक्तियां प्रदान कर दी हैं इसलिए चुनौतियों की विकरालता भी बढ़ी है। यह चुनौतियां क्षीण विपक्ष के कारण पैदा हुई हैं। भाजपा की 282 सीटों के बरअक्स दूसरे नम्बर पर रही कांग्रेस को महज 44 सीटें ही जीत पायीं। तीसरे स्थान पर जयललिता की पार्टी अन्नाद्रमुक रही जिसे 37 सीटें मिलीं मिली हैं। चौथे स्थान पर  34 सीटों वाली ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस है। विपक्ष का दारोमदार इन्हीं लोगों पर है। आेडिशा के बीजू जनता दल आठ सीटें जीतकर कुल 20 सीटों के साथ पांचवें स्थान पर हैं।
हमारे यहां जो पद्धति है इससे यही लगता है कि विपक्ष की स्थिति सोचनीय है। जबकि इसे
31 बनाम 69 के रूप में भी देखा जा सकता है। चुनाव के निष्कर्ष निकालने के पैमाने बदले की जरूरत है। देखना यह पड़ेगा कि 31 प्रतिशत मत 69 प्रतिशत पर कैसे भारी पड़ रहा है। यह कौन सा लाजिक है जिसके आधार पर यह कहा जा रहा है कि देश में विपक्ष नहीं है। जनादेश का मतलब यह नहीं है आपको विपुल मत मिले हैं। 31 का आंकड़ा न तो संतोषजनक है और ना ही करिश्माई। इतने प्रतिशत अंक वाले परीक्षा में पास नहीं माने जाते। सबसे बेहतर ही संतोषजनक होने का पैमाना नहीं हो सकता। हालांकि यह तथ्य है कि भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में आजादी के बाद पहली बार केंद्र में किसी गैर कांग्रेसी दल को स्पष्ट बहुमत के साथ सरकार बनाने का जनादेश मिला। यह इस पार्टी की उपलब्धि है। दूसरे यह कि कांग्रेस के नेतृत्व में नरसिम्हा राव ने 1991 में विभिन्न राजनीतिक दलों के साथ गठबंधन करके केंद्र में सरकार चलाने का जो प्रयोग शुरू किया था वह ढाई दशक में चला और क्षेत्रीय दलों को केंद्र की सत्ता तक पहुंचने का रास्ता खोला जिसे मोदी लहर ने बंद कर एक नये युग की शुरुआत है। ढाई दशक के घटनाक्रम ने देश के बता दिया कि गंठबंधन का एक नाम शठबंधन हो सकता है। सौदेबाजी ने लोकतंत्र को कलंकित करने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी। भ्रष्टाचार के कई मामलों की जड़ गठबंधन सरकार के दबाव हैं।
बहरहाल देखना यह कि संसद में विपक्ष को मजबूत बनाने के लिए गैरभाजपाई क्या रणनीति अपनाते हैं। अगर लोकसभा अध्यक्ष नियमों में छूट देते हुए संप्रग को एक इकाई की मान्यता देते हैं कि नहीं। जिसके सांसदों की संख्या 56 है। वरना कांग्रेस के पास केवल 44 सीटें हैं, जबकि मुख्य विपक्षी दल की मान्यता प्राप्त करने के लिए किसी पार्टी के पास 543 सदस्यीय लोकसभा में कम से कम 10 प्रतिशत हिस्सेदारी यानी 55 सदस्य होनी चाहिए। कांग्रेस यदि इस जिम्मेदारी से कतराती है तो अन्नाद्रमुक और तृणमूल कांग्रेस विपक्ष के नेता पद का दावा करने के लिए साथ आ सकते हैं जिनके सीटों की संख्या क्रमश: 37 और 34 है। देश की निगाह विपक्ष पर रहेगी क्योंकि वही संसद में उनके हितों की आवाज बुलंद करेगा।
खास तौर पर कांग्रेक उपाध्यक्ष राहुल गांधी को लोकसभा में विपक्ष के नेता पद की चुनौती स्वीकार करनी चाहिए। जबकि वे और पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी इससे कतरा रही हैं और कमलनाथ का नाम इसके लिए आगे किये जाने के कयास लगाये जा रहे हैं। कांग्रेस मनमोहन सिंह सरकार के दोनों पारी की उपलब्धियों की जोरशोर से चुनाव प्रचार में चर्चा न कर पहले ही अपना जनाधार खो चुकी है उसे और गलतियों से बचना चाहिए। राहुल गांधी को आगे बढ़ाने के लिए मनमोहन की अनदेखी करना आवश्यक नहीं था। अब राहुल के पास एक महत्वपूर्ण दायित्व लेने का अवसर हो सकता है, जिससे उनके तेवर में एक नयी धार आयेगी।
24 मई को कांग्रेस संसदीय दल ने सोनिया गांधी को एक बार फिर अपने संसदीय दल का नेता चुना है। इस अवसर पर पारित प्रस्ताव में कहा गया कि पार्टी संसद में सभी धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील ताकतों व रणनीतियों का प्रभावशाली ढंग से परस्पर समन्वय करेंगी ताकि एकजुट विपक्ष तैयार हो सके। पार्टी समान विचारधारा वाली अन्य पार्टियों को को आश्वस्त किया है कि इस संबंध में वह अपना पूरा सहयोग करेगी। कांग्रेस आक्रामक विपक्ष की भूमिका निभाने को दृढ़संकल्प है। कांग्रेस यह देखना चाहती है कि लंबित विधेयकों को लेकर नयी सरकार क्या रुख अपनाती है। यह नहीं भूलना होगा कि भले लोकसभा में पार्टी व विपक्ष की क्षमता कम हो लेकिन राज्यसभा में कांग्रेस अभी भी सबसे बड़ी पार्टी है। सोनिया ने सतर्क किया है कि 'विपक्ष में रहने का मतलब है कि अधिक नियमित उपस्थिति हो, सदन के भीतर अधिक समय बिताया जाये और विषयों का अधिक अध्ययन किया जाये। इसका मतलब हुआ कि अधिक सवाल किये जायें, अधिक मुद्दे उठाये जायें, अधिक चर्चाएं शुरू की जायें और हमेशा सतर्क प्रहरी की तरह रहा जाये।

Saturday 17 May 2014

बंगाल में लाल लगभग बेदखल, ममता का जादू कायम

-डॉ.अभिज्ञात 
कोलकाता -देश भर में चली मोदी लहर से पश्चिम बंगाल भी अछूता नहीं रहा किन्तु यह असर लाल दुर्ग के ध्वांसावशेष पर पड़ा और ममता बनर्जी अपराजेय रहीं। उनके नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस ने ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल की है। उसने पिछले लोकसभा चुनाव में 19 सीटें हासिल की थी इस बार उसे 34 सीटें मिली हैं। वामपंथी सीटों पर कब्जा करते हुए राज्य से लगभग बेदखल कर दिया। वे अपना जनाधार बचाने में कामयाब रहीं और राज्य में हुए सारधा घोटालों में अपनी पार्टी की संलिप्तता का नाम उछाले जाने और मामले की सीबीआई जांच का सामना करने जा रही ममता ने बंगाल की राजनीति के ढर्रे को को ही बदल कर रख दिया है। चुनावी नतीजे इस बात का संकेत दे रहे हैं आने वाले समय में भले कांग्रेस की स्थिति कमोबेश जस की तस बनी रही है और उसे केवल चार सीटें मिलीं, किन्तु यहां अब भाजपा भी राजनीति में अपनी उपस्थिति दर्ज करायेगी तथा वामदलों का स्थान तृणमूल लेने जा रही है। वामदल 15 सीटों से सिमट कर दो पर आ गये। माकपा को केवल दो सीट मिली उसके अन्य दलों को सिफर हाथ लगा। राज्य के अल्पसंख्यकों की सरपरस्त के तौर पर ममता ने अपनी छवि बना ली है और मुस्लिम वोट बैंक पर अपना हक समझने वाले वामदलों से उसने यह हथिया लिया है। देश भर में चली रही मोदी लहर से किसी हद तक तृणमूल के चुनावी नतीजे अप्रभावित रहे तो इसलिए कि अल्पसंख्यक मतों का ध्रुवीकरण उनके पक्ष में हुआ। उन्होंने अपने तेवर व गतिविधियों से यह साबित किया है कि वे साम्प्रदायिक ताकतों को रोकने वाली एक जुझारू नेता भी हैं और आने वाले समय में वे राष्ट्रीय स्तर अपनी इस छवि का विस्तार करेंगी, जो अब तक वामदलों की थी। हिन्दीभाषियों को बंगाल में गेस्ट बताने वाली ममता ने चुनाव प्रचार के आखिरी दिनों में अपनी गलती को सुधार लिया था और लगातार हिन्दीभाषियों को अपना बताने मेंं जुटी रहीं, जिसका उन्हें लाभ पहुंचा। वामपंथियों ने ऐसा नहींं किया था और ममता ने भी ऐसा पहली बार किया जिसका उन्हें लाभ मिलता रहेगा। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी के खिलाफ अपनी तीखी टिप्पणियों के जरिये भी उन्होंने यह संदेश दिया है। यहां यह भी गौरतलब है कि राज्य में भाजपा के वोटों का प्रतिशत बढ़ा है।
तृणमूल की उपलब्धियों में पूर्व रेल मंत्री और तृणमूल कांग्रेस के नेता दिनेश त्रिवेदी की बैरकपुर लोकसभा सीट पर माकपा की सुभासिनी अली से 1,01,373 वोटों जीत को विशेष तौर पर उल्लेखनीय माना जा सकता है क्योंकि उनके रिश्ते कुछ अरसा पहले ममता से खटासभरे हो गये थे। त्रिवेदी ने अपनी सीट बरकरार रखी है। चुनावी नतीजों में कांग्रेस की दीपा दासमुंशी अपने पति प्रियरंजन दासमुंशी की परम्परागत सीट से हार गयी हैं। इस चुनाव में ममता ने फिल्म व ग्लैमर की दुनिया से जुड़ी हस्तियों शताब्दी राय, देव, मुनमुन सेन, संध्या राय, तापस पाल को पार्टी प्रत्याशी बनाया था जिस पर खुद उनकी पार्टी में किसी हद तक असंतोष था किन्तु चुनावी नतीजों ने यह साबित कर दिया कि वे सही थीं।
राज्य की दो सीटों पर भाजपा को अच्छी बढ़त मिली और आसनसोल से पाश्र्व गायक बाबुल सुप्रियो और दार्जिलिंग से एसएस आहलुवालिया ने जीत हासिल की है। भाजपा को इस बार एक सीट का फायदा हुआ। राज्य के भाजपा प्रमुख राहुल सिन्हा का मानना है कि तृणमूल विरोधी वोटों का कांग्रेस, भाजपा व वाम में बंटवारा हुआ जिसके कारण तृणमूल मजबूत दिखायी दे रही है, अगले चुनाव तक तृणमूल विरोधी वोटों भाजपा के पक्ष में ध्रुवीकरण होगा।
वामदलों की बंगाल से बेदखली का कारण भले उसके नेता बूथ दखल रीगिंग बता रहे हों किन्तु इसमें केवल आंशिक सच्च्चाई है। विधानसभा और स्थानीय निकाय चुनावों में तृणमूल से अपनी शर्मनाक पराजय के बाद भी वामदलों आत्मालोचना के लिए तैयार नहीं दिखायी दिये। सांगठनिक स्तर पर जो भी बदलाव हुए वह लीपापोती और धड़ाबंदी के स्तपर ही हुआ और ना ही सिद्धांतों में किसी आमूलचूल परिवर्तन की बात उन्होंंने की इसलिए तृणमूल से असंतुष्ट लोगों को लिए भी लोग वामपंथियों को राजनीतिक विकल्प बनने योग्य नहीं मानते हैं, इसलिए यथास्थिति बनी रहेगी या नये राजनीतिक विकल्पों को तलाश की जायेगी।
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