Friday 1 February 2013

उन्नतिशील भारत की पतनशील पत्रकारिता

देश आर्थिक उन्नति कर रहा है ऐसे में रोजगार के नये क्षेत्र विकसित हो रहे हैं। जीवन शैली बदल रही है। उदारीकरण के दौर में हर देश दूसरे देश में अपने लिए सम्भावनाएं तलाशता है तो जो अपने साथ विज्ञापन भी ले आता है। और यह वह प्राणवायु है जिससे देश की पत्रकारिता फलफूल रही है। यह हमारे जमीन से जुड़े मुद्दों के बल पर जीवित नहीं है। उसे खाद पानी हवा उन व्यापारियों से मिल रही है जो अपने लिए संभावना तलाश रहे हैं। यह व्यापारी अपने उत्पाद के साथ उसके इस्तेमाल का विमर्श भी ले आता है। उसकी भाषा संवेदनशील, मानवीय और जनहितकारी तो होती है जीवन को जीने के नये तरीके भी सीखाती है। इस नयी जीवन शैली में उत्पादों की खपत के लिए नयी संभावना होती है। यह मूल्य पर टिकी पत्रकारिता को बढ़ावा नहीं देती वह उत्पाद की खपत के लिए नये मूल्य गढ़ती है। वह आवश्यतानुसार यूज एंड थ्रो की हिमायत भी कर सकती है और प्राचीन वस्तुओं की गुणवत्ता का बखान भी। कभी वह वस्तु को महत्व देती है तो कभी स्टाइल को। कभी नित नये पर जोर देती है तो कभी टिकाऊपन पर।
विज्ञापनों के लिए मुफीद माहौल तैयार करने के लिए लेख लिखे और लिखवाये जा रहे हैं। विज्ञापनों को ध्यान में रखकर पृष्ठ काले गोरे किये जा रहे हैं। मूल्यों की दुहाई देने वाला जनसत्ता अखबार भी रंगीन विज्ञापन मिलने पर अपना पेज रंगीन कर लेता है बाकी समय में मूल्यों की बात करके ब्लैक एंड व्हाइट परोसता रहता है। वह यह नहीं कहता है कि साहब हम तो अमुक पेज ब्लैक ही छापते हैं रंगीन विज्ञापन के लिए हमारे यहां जगह नहीं है।
सारे के सारे अखबार विज्ञापनों की अधिकता के कारण पृष्ठ बढ़ा देते हैं। वे जूते का विज्ञापन भी जैकेट के रूप में फ्रंट पेज के पहले लगा सकते हैं या सीधे फ्रंट पेज पर प्रकाशित कर सकते हैं। उत्पाद का विज्ञापन सिर चढ़कर बोलता है।
प्रिंट मीडिया में इस बात को ध्यान में रखकर भी खबरें छपती है कि इसमें इसके मालिकों के हितसाधक कौन हैं। खबरों को मालिक के हित के नजरिये से बड़ा छोटा किया जाता है, पृष्ठ और स्थान का निर्धारण होता है। कई बार खबर छापनी भी है या नहीं इस पर भी विचार किया जाता है। कई बार छपने पर कीमत मिलती है तो कई बार किसी खबर के नहीं छपने पर उससे भी अधिक वसूली हो जाती है।
राजनीतिक सम्बंधों को चुस्त दुरुस्त करने भी इस दौर की पत्रकारिता का एक महत्वपूर्ण कार्य है। सत्ता के गलियारे में अपनी पैठ बनाकर अपना और अपने हितचिन्तकों के काम निकलवाने से इन्हें कतई गुरेज नहीं। इसके चलते पत्रकारों को तरह तरह एक असाइनमेंट करने पड़ते हैं। आप अपनी विचारधारा अपने पास रखिये अखबार के मालिकों के सत्ता विमर्श से तालमेल बिठाकर चलिए, यही आपको यश और तरक्की देगा।
धर्म एक बड़ी दुकान है और जिसमें सोने-चांदी की सतत वर्षा होती रहती है। किसी किसी मंदिर की त्रैमासिक आय ही डेढ़ दो अबर रुपये की होती है। इसलिए धर्मिक खबरें किसी हद तक पेड न्यूज ही होती हैं। धार्मिक आयोजनों के लम्बे चौड़े विज्ञापनों के एवज में उसकी कवरेज कराई जाती है, यह किस प्रकार से पेड न्यूज से अलग है। विज्ञापन के बदले समाचार का कवरेज किस प्रकार निष्पक्ष पत्रकारिता है। देश मंदिरों में एक एक त्योहार में डेढ़ दो अरब रुपये तक का चढ़ावा और दान आता है, ऐसे में किस प्रकार से कह सकते हैं कि धर्म की खबरें जनरुचि को ही ध्यान में रखकर प्रकाशित होती हैं।
विज्ञापनों के प्रकाशन में कई ऐसे अखबार हैं जो यह प्रकाशित कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं कि विज्ञापनों की विश्वसनीयता से उनका कोई वास्ता नहीं है। भले लोग उसके विज्ञापनों को पढ़कर ठगे जायें। फैंडशिप से लेकर मालिश करने वाले विज्ञापनों को प्रकाशित करने के बाद कोई अखबार किस प्रकार नैतिकता की बात कर सकता है।
मिशन की पत्रकारिता की बात गुजरे जमाने की बात हो चुकी है। वैकल्पिक पत्रकारिता के रूप में लिटिल मैगजीन की बातें भी बहुत विश्वसनीय नहीं रह गयी हैं। लघु -पत्रकारिता विशेषांक पत्रकारिता की दुकान में तब्दील हो चुकी है और तीन से पांच सौ पृष्ठ की यह पत्रिका यह सोचने को विïïवश करती है कि इसे फाइनेंस कहां से मिला है। उनमें विमर्श चलाने वाले कौन लोग हैं और जिनके हित साधने में यह पत्रिका साथ दे रही है। कौन सा देश अपने किसी उद्देश्य के लिए दूसरे देश में किस विमर्श को संचालित कर रहा है यह शोध का दिलचस्प विषय हो सकता है। स्थानीय खबरों के नाम पर लोगों के जीवन की छोटी-छोटी चीज़ों को उनकी अस्मिता बनाकर पेश किया जा रहा है। फिर उनका इस्तेमाल उपद्रव कराने के काम में हो रहा है।
युवाओं के हाथ में पहले विचार और फिर हथियार थमा कर देश की व्यवस्था को छिन्न भिन्न करने वाले लोग ही तो उनके सिर पर गांधी टोपियों का फाइनेंस नहीं कर रहे हैं। जो काम हिंसा के जरिए करा रहे थे कहीं उन्होंने वही काम अहिंसा के जरिये तो कराना शुरू नहीं कर दिया है। जैसे मानवाधिकारों का हनन करने व हिंसक घटनाओं को अंजाम देने वाले अपने गुर्गों के पकड़े जाने पर उन्हें बचाने के लिए मानवाधिकारों के रुदालियों को फाइनेंस करते हैं।
हमें यह भी देखना होगा कि हिन्दी की बढ़ती ताकत को रोकने के लिए बोलियों को भषा बनवाने की कोई सुपारी तो नहीं दे रहा। जिन बोलियों में अभी अखबार तक नहीं निकाला जिससे यह प्रमाणित हो कि वह सामान्य मसलों पर लोगों की भावनाओं को अभिव्यक्त भी कर पा रही है या नहीं या फिर उसे चाहने वाले उसे व्यवस्थित तौर पर एक भाषा के तौर पर स्वीकार भी कर पा रहे हैं या नहीं, वे भी भाषा बनने की दौड़ में शामिल हैं। क्या सरकारी वजीफे से भाषाएं बननी और विकसित होती हैं। या फिर सरकारी संरक्षण से बोली को भाषा का दर्जा उसके कुछ लोगों को उसकी पुरोहिती सौंपने के ध्येय तक सीमित होगी। क्या भाषाओं को उससे बोलने वाले ही नहीं बल्कि लिखने, पढ़ने और उसमें जीने वाले लोग बचाते हैं।
हमें यह भी देखना होगा कि यदि पत्रकारिता को शुद्ध व्यापार मान लिया जाता है तो उसमें काम करने वालों को उनके श्रम, मेधा व सेवा के बदले समुचित सुविधाएं भी मिलतीं। अखबार चलाने वालों का सरकार और व्यवस्था पर ऐसा जबर्दस्त दबाव है कि उसमें काम करने वालों के ही हक मारे जा रहे हैं ऐसे में कैसे दूसरों के हक की आवाज़ बुलंद करेंगे।
यह जरूर है कि मीडिया के सम्बंध में बहुत अच्छी अच्छी बातें प्रचारित प्रसारित हैं जिससे इसके ऐबों पर पर्दा पड़ा रहता है। जिसने रुपये में चपरासी नहीं मिलते उतने में प्रशिक्षु पत्रकार मिल जाते हैं। इसमें काम करने वालों को शुरू में वहम रहता है कि वे किसी बड़े मिशन में लगने जा रहे हैं। दो चार साल बरबाद करने का बाद उन्हें पता चलता है कि उनका एक ही मिशन है मालिक की हित साधना। आप अपने आदर्श अपने पास रखिये। दरअसल यह गड़बड़ी किसी कार्य के पेशा बन जाने की वजह से आयी है। धीरे धीरे अन्य व्यापारों के तौर तरीके पत्रकारिता में भी आम हो गये। अन्य व्यापार करने वाले जब इस पेशे में आते हैं तो वो वैसी ही उम्मीद इस पेशे से करते हैं जो अपने व्यापारिक प्रतिष्ठानों से करते हैं।
हिन्दी व अन्य भाषाई अखबारों के प्रकाशन संख्या या फिर उनके नये नये संस्करणों के प्रकाशन से यह खुशफहमी न पालें कि हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं में अखबारी क्रांति हो गयी है और वे टीवी पर समाचार देखने के बावजूद अखबारों की खबरों को शिद्दत से तलाश रहे हैं इसलिए ये अखबार निकल रहे हैं। यह अखबार पाठकों के लिए नहीं निकल रहे हैं यह उपभोक्ताओं के लिए निकाले जा रहे हैं। खुले बाजार और भूमंडलीकरण के कारण हर देश में दूसरे देश ने अपनी बैठ बनानी शुरू की है सारे देशों की कूटनीति इस पर केन्द्रित है कि हमारे लिए किस देश का बाजार कैसा है। दूसरे देशों में बाजार और उपभोक्ता की तलाश ही अखबारों के प्रसार की जननी है। भारत इसलिए भी एकाएक दुनिया के नक्शे पर महत्वपूर्ण हो उठा है क्योंकि उसके पास एक अच्छा खासा पढ़ा लिखा उपभोक्ता वर्ग है। इस बाजार को ध्यान में रखकर ही दुनिया के अन्य देश भारत से सम्बंध गांठने में लगे हैं। ऐसे में अपने देश के विचारों, नैतिकताओं, वस्तुओं, संस्कृति, साहित्य, कला और वस्तुओं की पैठ भारत के गांव गांव तक पहुंचाने की गरज से अखबार निकल रहे हैं। वे ऐसे अखबारों को विज्ञापन देने के हामी है जिसका नेटवर्क गांव गांव तक हो। जिसमें गांव गांव की खबरें छपती हों और गांव तक उसकी आसान पहुंच हो। बाजार हर घर में घुसना चाहता है इसलिए वह चाहता है कि भारत के अखबार अपनी बोली बानी में गांव गांव तक पहुंचे। इसी शर्त पर उन्हें विज्ञापन मिलेंगे और इसी लालच में अखबारों के लिए स्थानीयता एकाएक महत्वपूर्ण हो उठी। साथ ही यह नारा भी उछाला गया जो लोकल है वही ग्लोबल है। बिना लोकल हुए ग्लोबल नहीं हुआ जा सकता। गांव गांव तक मोबाइल फोन ने पहुंच कर यह बता दिया कि गांव गांव में उपभोक्ता भरे पड़े हैं.. अब अखबार यह आजमा रहे हैं उसके बाद इंटरनेट भी पहुंचेगा..। तो अब भाषाई अखबारों में चार से आठ पेज स्थानीय कस्बों देहात और जिला स्तर की खबरों के लिए होते हैं। भले समाचार न हों पर जगह पहले से तय है कि इतने सफे स्थानीय रंगने हैं। ऐसे में खबरों को बढ़ा चढ़ा कर लिखना, जबरन विस्तार, गढ़ी हुई खबरों से पत्रकारिता का स्तर गिरा है।
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