Wednesday 30 October 2013

देह और मन का द्वंद्व और यथार्थ

समीक्षा

-डॉ.अभिज्ञात

पुस्तक का नाम: फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे/
लेखिका: ई.एल. जेम्स/ प्रकाशक-डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि., 10-30, 
ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-2, नयी दिल्ली-110020/
मूल्य-175 रुपये
फिफ्टी शेड्स ट्रॉयोलॉजी ने अपने प्रकाशन के साथ दुनिया भर में धूम मचा दी। यह बेहद पढ़ी जाने वाली पुस्तकों की श्रेणी में आ गयी जिसकी विभिन्न भाषाओं में करोड़ों प्रतियां बिकीं। इस ट्रॉयोलॉजी का पहला भाग है-'फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे'। यह साहित्य की एक भोली-भाली व मासूम छात्रा एनस्टेशिया स्टील उर्फ एना एवं सफल उद्यमी क्रिस्टियन ग्रे के सम्बंधों की कहानी पर आधारित है, जिसका तानाबाना दैहिक सम्बंधों और सच्चे आत्मिक प्यार के द्वंद्व से बुना गया है। अपनी पत्रकार मित्र की बीमारी के चलते उसकी ओर से ग्रे का इंटरव्यू लेने वह पहुंचती है और वह ग्रे को अपना दिल दे बैठती है किन्तु ग्रे का व्यक्तित्व सम्मोहक होते हुए भी उसके जीवन के तौरतरीके एना की कल्पना से परे थे। वह दैहिक सम्बंधों के लिए एना को एक सेक्स गुलाम बनाना चाहता है और जबकि एना उसमें सच्चे प्यार की तलाश करती है। लगातार एक तनावपूर्ण स्थितियों में उपन्यास धीमी गति से आगे बढ़ता है। जहां ग्रे क्रमश: मन की भीतरी तहों में उतरा जाता है वहीं एना देह की भाषा को सुनना समझना शुरू करती है। भारतीय पाठकों के लिए यह एक नये विषयवस्तु के आस्वाद का उपन्यास है जिसे न तो वह अधूरा छोड़ सकता है और तीखे यथार्थ की अभिव्यक्ति के कारण ना ही लगातार उसे पढऩे की ताब रख पाता है। इसमें ग्रे का दैहिक सम्बंध लगभग मशीनी प्रक्रिया है और एना का प्यार इन सम्बंधों में रूह की तलाश करता है। यह उपन्यास की सफलता है कि ग्रे क्रमश: एना और एना क्रमश: ग्रे की दिशा में उन्मुख है, जो सम्बंधों को एक नया अर्थ देता है। दैहिक सम्बंधों के मशीनीकरण और प्रेम की वायवीयता के बीच की जगह की तलाश इस उपन्यास की एक खासियत है जिसके लिए पाठक इसे अरसे तक याद रखेंगे। इस उपन्यास में तिक्त और जटिल यथार्थ की अभिव्यक्ति जिस साफगोई से हुई है वह पाठक को स्तंभित ही नहीं आक्रांत भी करती है।
ग्रे के व्यक्तित्व की खामियां उसके स्वभाव की उपज नहीं हैं, बल्कि उसके जीवन के अनुभवों और हालत से निर्मित हैं, जिन पर वह काबू पाने की अनवरत कोशिश वह करता है। अपने स्तर पर वह एक ईमानदार व्यक्ति है और सम्बंधों में पारदर्शिता का हामी है। वह सबके साथ हमेशा यह तय करना चाहता है कि उसे और उससे जुड़े किसी व्यक्ति का आपस में क्या लेना-देना है और दोनों की सीमाएं क्या हैं? क्या करना है और क्या नहीं करना है। उसकी यह आदत जब प्रेम सम्बंधों से टकराती है तो उसकी विसंगतियां उभर कर आती हैं। झकझोर कर रख देने वाली इस ट्रॉयोलॉजी के अन्य दो भाग हैं-फिफ्टी शेड्स डार्कर एवं फिफ्टी शेड्स फ्रीड, जिसे फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे के पाठक अवश्य पढऩा चाहेंगे।

Tuesday 22 October 2013

गीता के भाष्य में लगा पूरा जीवन


अपनी जिन्दगी की लगभग पूरी ऊर्जा किसी एक ग्रंथ के भाष्य में कोई लगा दे तो उस काम के महत्व का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। डा.मंगल त्रिपाठी ने लगभग चालीस साल गीता के भाष्य को दिये हैं। अपने जीवन की लगभग समस्त ऊर्जा उन्होंने इस काम में झोंक दी है। ऐसा नहीं है कि वे इसमें अकेले लगे हैं बल्कि कमोबेश पांच लोगों की पूरी टीम उनके साथ इस काम में जुटी रही है हालांकि इस लम्बी कालावधि में उनके कुछ साथी अब नहीं रहे।
लगभग छह सौ पृष्ठों का जो भाष्य तैयार किया है वह न सिर्फ चिन्तन से जुड़ा नायाब ग्रंथ है, बल्कि वह कलात्मक संयोजन का भी उत्कृष्ट उदाहरण है। तीन सौ पृष्ठों में गीता के समस्त श्लोक और उसका मंगल त्रिपाठी द्वारा किया गया भाष्य है बल्कि उनके भाष्य की चित्रात्मक अभिव्यक्ति वाली पेंटिंग की तस्वीरें भी ग्रंथ में हैं। अर्थात 300 पृष्ठ में भाष्य और उतने ही पृष्ठों में चित्र भी।
पुस्तक में लेखन सम्बंधी कार्यों का मूल्य छोड़ कर केवल उसमें प्रयुक्त होने वाली सामग्री पर ही प्रति पुस्तक एक लाख से अधिक का खर्च बैठा है। ग्रंथ का वजन साढ़े सात किलो है। वह एक ऐसे लकड़ी के बाक्स में है जिसे खोलकर ग्रंथ को बाहर निकाले बिना ही पढ़ा जा सकता है। ग्रंथ का नाम हीरे से लिखा है।
हीरे का उपयोग ग्रंथ में किये जाने के औचित्य पर उन्होंने बताया कि मैं मानता हूं कि गीता के श्लोक हीरे से अंकित किये जाने योग्य हैं। अपने सीमित संसाधनों के बावजूद मैंने यह प्रयोग इसलिए किया ताकि गीता के महत्व की ओर लोगों का ध्यान जाये। आज के समय में गीता ही वह ग्रंथ है जो हमें मार्ग दिखला सकता है। कोई व्यक्ति जब ज्ञान मार्ग पर चलता है तो कभी न कभी वह गीता के अर्थ तलाश करने की कोशिश अवश्य करता है क्योंकि  गीता में हर ज्ञान को चुनौती देने वाले तत्व विद्यमान हैं। जिसके ज्ञान की परिधि जितनी है गीता का अर्थ उसे उतना ही मिलता है। गीता ज्ञान को एक प्रवाह के रूप में देखने को विवश करती हैं क्योंकि गीता अर्थ का निरंतर अतिक्रमण करने वाला शास्त्र है।
त्रिपाठी से जब यह पूछा गया कि आज गीता के कई भाष्य विद्यमान हैं, आपको उसमें से कौन सा भाष्य अपने भाष्य के अर्थ के करीब लगता है, तो उनका कहना था गांधी जी और ज्ञानेश्वर का भाष्य मुझे प्रिय है किन्तु मैंने अपने भाष्य अपने तरीके से किया है दूसरे का अनुसरण नहीं। मैं गीता के पास दूसरे भाष्य के रास्ते नहीं गया। मैंने सीधे गीता से अर्थग्रहण को ही अपना पथ चुना। मैं गीता के पास अपना ज्ञान और अर्थ लेकर नहीं गया। मैं गीता के पास गया और जो मिला उसे अर्जित किया।
उन्होंने बताया गीता के मेरे भाष्य की प्रतियां सीमित हैं और वह आम बिक्री के लिए नहीं है। उन्होंने बताया कि मेरे आय के साधन सीमित हैं फिर भी मैं यदि इस कार्य को अंजाम दे पाया तो मैं इसे गीता की अपनी शक्ति ही मानता हूं।
उनका कहना था मैं चाहता हूं कि इसके महत्व को समझा जाये। गीता की प्रस्तुति सर्वोत्तम ढंग से करना ही मेरा मुख्य लक्ष्य है और चूंकि मेरे साधन सीमित हैं मैं यही कर पाऊंगा। कुछ अन्य धर्मग्रंथ में हैं जिनकी कुछ प्रतियां विशिष्ट तौर पर तैयार की गयी हैं तो फिर गीता के विशिष्ट अंदाज में क्यों न पेश किया जाये। उसे जो लोग देखना पढऩा जानना चाहते हैं तो वे राष्ट्रीय पुस्तकालयों में उनकी उपलब्धता का लाभ उठा ही सकते हैं।

Sunday 13 October 2013

विज्ञान ने पुराने भय मिटाए पर नए खड़े किए

शिवनारायण सिंह अनिवेद से डॉ.अभिज्ञात की बातचीत
(नोट-एक पुरानी बातचीत की अत्यंत विलम्ब से प्रस्तुति)

  
सुपरिचित युवा कवि और चित्रकार शिवनारायण सिंह अनिवेद मानव संसाधन मंत्रालय में उपसचिव हैं। दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में उनकी कला की एकल प्रदर्शनी कास्मिक सैलिब्रेशन लगी, जिसने उन्हें चर्चाओं के बीच ला खड़ा किया। कास्मिक सैलिब्रेशन नाम से उनकी एक पुस्तक भी आई है जिसमें उनकी पेंटिंग और हिन्दी कविताएं अंग्रेजी में अनुवाद और उनके कला व काव्य मर्म को उद्घाटित करने वाली टिप्पणियों के साथ आई। उन्हें पेंटिंग के लिए ललित कला अकादमी का पुरस्कार भी मिल चुका है। वे इधर कलकत्ता आए थे। प्रस्तुत है उनसे साहित्य, कला और प्रशासकीय कर्म के बारे में बातचीत-


- विज्ञान और कला दो विभिन्न धाराएं मानी जाती हैं। यहां तक कि एक को दूसरे के विपरीत दिशा वाली भी लगती है। आप तो फिजिक्स के छात्र रहे हैं। एक कलाकार के नाते आपका क्या अनुभव रहा?
सभ्यता के शुरुआत में जाएं। 50 हजार साल पहले वर्तमान मानव का प्रारंभिक दौर वह रहा। उसका मानव मन, कवि हृदय क्या विजुअलाइज करता था या सोचता था। मानव मन की टकराहट अपने आस-पास की प्राकृतिक दुनिया से हुई। उसके अंदर दो प्रतिक्रियाएं हुई। भय और आस्था की। संशय की प्रतिक्रिया हुई तो उसने विज्ञान (भौतिक शास्त्र) को जन्म दिया। आस्था की जो प्रतिक्रिया जन्मी उसने कला-साहित्य को जन्म दिया। मानव मन की जो मुख्य धाराएं हैं भय और आस्था। भय की जो मूल मानव दृष्टि है वह आज भी बरकरार है। हालांकि मुमकिन है आज जो भय की वजहें हैं उनका कारण कल विज्ञान ढूंढ लेगा। लेकिन तब नए भय भी होंगे। वे भय विज्ञान की प्रगति से उपजे भी हो सकते हैं। अर्थात एक ओर तो विज्ञान और वह नए भय भी पैदा कर रहा है। विज्ञान निर्भय नहीं कर रहा। दूसरा क्षेत्र आस्था का है। वही मनुष्य की सर्जनात्मकता को बचाए हुए है।

इस तरह देखा जाए तो मानव मन में जो फिजिक्स सेंस है, जो विजुअल आर्ट से जुड़ा है। विज्ञान और कला दोनों एक- दूसरे के निषेध बिन्दु पर नहीं, बल्कि पूरक ही है। एक बात यहां यह उल्लेखनीय है कि विज्ञान की सीमा है। कला विज्ञान से आगे चली जाती है। मूल विषय ज्ञान है। कला के मूल में आत्मा है। आत्मा से उपजी सर्जना है, विज्ञान से अधिक स्थायी व गहरी।

- आत्मा की बात आप कह रहे हैं। क्या आप आध्यामिकता पर विश्वास करते हैं?
आत्मा जिसे हम कहेंगे, सोचे-समझें। वह मिथिकल नहीं है। उसे आध्यात्मिक शक्ति कहें। सही ढंग से अंग्रेजी में कहूं कि इमोशनल स्ट्रेंथ ऑफ ह्यूमन बिइंग से हैं। तमाम बाहरी दुनिया की अबूझ चीजों को समझने के लिए बेहतर भौतिक दुनिया बनाने की आवश्यकता है। भय से बाहर आतंक से मानव निजात पाने के लिए अग्नि का आविष्कार हुआ। भोजन की व्यवस्था हुई। वही विज्ञान यात्रा न्यूटन से होती हुई, रोबोट, कम्प्यूटर से इंटरनेट तक पहुंची है। मगर यह नहीं भूलना होगा कि विज्ञान के भय या संत्रास का संतुलन पैदा करने के लिए आस्था से उपजी सर्जनात्मक कला और साहित्य की बेहद जरूरत है।

- विज्ञान और कला का योगदान क्या एक ही तराजू में तौला जा सकता है। दोनों के योगदान में भिन्नता क्या है?
विज्ञान ने सभ्यता का विकास किया, जबकि कला ने संस्कृति का। दोनों के बीच संतुलन का बिगड़ना ही मानव जीवन की सबसे बड़ी ट्रेजडी है। खुद मेरी कला की सोच का मूल बिंदु यही है। प्रकृति व अन्य जीवों का जो गैर भौतिक पहलू है वह जाग्रत है। मार्क्स ने उसे सुपर कांसेस मटेरियल कहा है। वही मानव है। एक संवेदनशील मानव कितना ही विज्ञान का प्रखर समर्थक हो बार-बार लगता है कि मानवीकरण की जो प्रक्रिया है वह संस्कृति ही हो सकती है। मेरा मानना है साइंसेस मार्डनाइज द सोसाइटी, सोसल साइंस मार्डनाइज द ह्ययूमन बीइंग, एंड आर्ट एंड कल्चर ह्ययूमनाइज द ह्ययूमन।

- आपकी कला में अमूर्तन दिखाई देता है, जबकि भारतीय संस्कृति की बात करतें हैं, जबकि अमूर्तन के बारे में आम अवधारणा यह है कि यह पश्चिमी कला शैली है।
यह भ्रांत धारणा है कि अमूर्तन पश्चिमी कला शैली है। अमूर्तता का सबसे पुराना उदाहरण शिवलिंग है। वह भारत में मिला। भारत के पुरातात्विक अवशेष हैं फैलस। वही सबसे पुराना है। हिन्दुस्तान के हर कोने में इस अमूर्त बिंब के प्रति जो आम भारतीयों की आस्था है, उससे मैं प्रभावित रहा। इससे लगातार प्रेरित हुआ कि जो अमूर्तता का इतना शक्तिशाली प्रमाण कला व संस्कृत में भारतीय चित्रकला अमूर्त रही है। वैनगाग के बजाय हमें अपनी कला की ओर ध्यान देना होगा। फैलस को ही मैं कला की अमूर्तता का आधार मानता हूं। आस्था से जुड़ा पहलू प्रभावित करता है। वह धार्मिक उपयोग की शै नहीं है। भारतीय किसानों की पृथ्वी के प्रति उपजाऊपन की आस्था का प्रतीक है। देश के कोने-कोने की जनजातियों में लिंग या शिवलिंग का फर्टीलिटी कल्ट के रूप में प्रमाण पाया गया है। मानव की उत्पत्ति विकास हरास से जुड़ा हुआ है। लिंग या फैलस मानव, जीव और पौधों की उत्पत्ति का प्रमाण है। संस्कृति के जीवन में शिवशक्ति इस सोच की एक समकालीन व्याख्या करती है।

- तंत्र-मंत्र के बारे में आपकी क्या धारणा है?
भारतीय कला के कलात्मक प्रमाण के तांत्रिक या धार्मिक प्रयोग को व्याख्या दे दी गई है। 200 सालों के उपनिवेशिक शासन ने भ्रम खड़ा किया है। धार्मिक या तमाम आग्रहों को समयलीन नहीं रहने दिया। शुरू से समकालीन रहा है। कोणार्क या खजुराहो जीवन के उत्सव को अभिव्यक्त करते हैं। दर्द, पीड़ा, वेदना सब में है। भारतीय कलात्मक मूर्ति चित्रों के उत्सव के रूप में व्यक्त करता है। रहस्य-सा बना है। विदेशियों के लिए समझ पाने की कमी ने भ्रम पैदा करने वाले विशेषण दिए हैं। प्रजातांत्रिक दौर में बंधन नहीं काल्पनिकता है। दो धाराएं सोच की रही है। इंटरनल अर्ज एक्सप्रेशन पाता है।

गांव अपने आस-पास के समाज व्यवस्था की जो अभिव्यक्ति है शब्दों के माध्यम से अधिक हो पाती है। रंगों से आप प्रभावकारी बयान दे सकते हैं। बाहर दुनिया के बारे में उसी रूप में संप्रेषित करना उस बात को उसी तरह से पहुंचना शब्द से हो पाता है। चूंकि मेरा मूल प्रयास है कि कला साहित्य का एक संदर्भ हो। संदर्भविहीनता सामग्रीकरण की परिधि में बंध कर न रह जाए। रंगों व शब्दों के परस्पर प्रयोग के माध्यम से समकालीन भारतीय सोच व संदर्भ में सार्थकता पाई है।

Friday 4 October 2013

भोजपुरी गीतों से थाइलैंड के लोगों का मन मोहेंगी प्रतिभा सिंह व देवी


कोलकाता: थाइलैंड की राजधानी बैंकाक में भोजपुरी गीतों का परचम रही हैं भोजपुरी की प्रसिद्ध गायिकाएं प्रतिभा सिंह व देवी। इन दोनों के अतिरिक्त अरुण देव यादव और मोहन कुमार भी अपने गीतों से लोगों का मन मोह रहे हैं। आज शुरू हुए इस समारोह में ये कलाकार 14 अक्टूबर तक आयोजित कार्यक्रम में अपने भजनों से श्रोताओं का मन मोहेंगे। सत्य सनातन संघ, बैंकाक के तत्वाधान में गीता आश्रम में आयोजित नवरात्रा महोत्सव में ये कलाकार भाग ले रहे हैं। विगत दस वर्षों से यहां नवरात्रा महोत्सव का आयोजन किया जा रहा है और इस बार ग्यारहवां वर्ष है जिसमें अप्रवासी भारतीयों के साथ-साथ बैंकाक वासी भी उल्लास के साथ हिस्सा ले रहे हैं। गीता आश्रम अध्यात्म का एक बड़ा केंद्र है।
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