Tuesday 24 December 2013

गृहस्थ जीवन की संवेदनात्मक सृजनशीलता

 समीक्षा-डॉ.अभिज्ञात
पुस्तक का नाम-अच्छा लगता है/रचनाकार-निर्मला तोदी
/प्रकाशक-नयी किताब, 1/11829 पंचशील गार्डन, प्रथम तल, नवीन शाहदरा, 
दिल्ली-110032/मूल्य-195 रुपये 

एक स्त्री के जीवन से जुड़ी रोजमर्रा की तमाम बातों और उसके सरोकारों की सहज, सरल और सच्ची अभिव्यक्ति निर्मला तोदी के पहले काव्य संग्रह 'अच्छा लगता है' में हुई है। उनके यहां कुछ भी मामूली नहीं है। हर चीज गहरी अर्थवत्ता और लगभग आध्यात्मिक उत्कर्ष लिए हुए है। संग्रह में अधिकांश छोटी-छोटी कविताएं हैं लेकिन वे अपने आप में एक पूरी बात को उसके वास्तविक परिप्रेक्ष्य में कहने मेंं पूरी तरह सक्षम हैं। मिथकथन न सिर्फ उनका काव्य स्वभाव है बल्कि उनके रचाव का एक कौशल भी है। उनकी रचनाओं में संकेत अधिक हैं और ये संकेत ही उनकी कविताओं के फलक का अधिकाधिक विस्तार करते हैं। ऐसी ही एक कविता है जीवन संघर्ष-'कमरे में/एक ऑक्सीजन सिलेण्डर लगा है उसके/बालकनी में एक एक्ट्रा पड़ा हुआ है/कभी-कभी/ ऐसा भी होता है/पूरी पृथ्वी का ऑक्सीजन कम पड़ जाता है।'
उनके लिए कविता क्या है, उसका उत्स क्या है और उनका रचनात्मक संघर्ष क्या है इस बात पर एक सार्थक टिप्पणी उन्हीं की एक कविता 'मेरे शब्द' है, हालांकि वह पुस्तक के अनुक्रम में न तो पहली कविता है न आखिरी-'मेरे विचार/आले में चाभियों के गुच्छे के नीचे/ दबे पड़े हैं/मेरी यादें/स्टोररूम के संदूक में धरी हैं/मेरे अनुभव/बरनियों के तेल-मसाले में डूबे हैं/मेरे शब्द/सोफा पर कुशनों के साथ बिखरे हैं/मैं इन्हें/पहचानने से भी इनकार करती हूं/जबकि मैं जानता हूं/ये हैं/एक कहानी/ एक कविता/एक संस्मरण/मैंने इन्हें बिखेर कर/दबा कर रखा है/मैं सजाने से डरती हूं।' यह कविता तमाम रचनारत महिलाओं की आवाज भी है, जो हर हाल में घर-परिवार के दायरे से मुक्त नहीं हैं। जिनके स्वतंत्र व्यक्तित्व पर गृहस्थी की जिम्मेदारियों की छाप है। उनकी यह बात उनकी एक अन्य कविता 'सबसे पहले वह एक गृहणी है' में भी व्यक्त हुई है। 'मेरी रसोई' कविता में वे लिखती हैं-'चायपत्ती व चीनी का डब्बा/मेरे स्पर्श से मेरी मन:स्थिति को भांप लेते हैं।' निर्मला जी कविता में चयन पर विशेष जोर देती है और यह चयन सार्थकता से ओत प्रोत है। 'जन्म दिन' कविता में वे लिखती हैं-'आज के दिन/मैं नहीं कहती/आपको दुनिया भर की खुशियां मिलें/मैं चाहती हूं/जो खुशियां आप पाना चाहते हैं/आपको जरूर मिलें/आज के दिन यह भी नहीं कहूंगी/आप सौ साल जीएं/आप जितना जीएं/जिन्दगी को भरपूर जीएं।' यहां जो जिन्दगी से भरपूर जीवन उल्लेख है उसका एक विस्तृत प्रारूप भी उनकी एक अन्य कविता 'छाता' में है। वे अपने लिए भरपूर जीना किसे मानती हैं, और यहीं उनका कवि अपनी तमाम विशेषताओं के साथ पाठक के समक्ष आता है। उसकी बानगी देखें-'धरती के रेशे में पानी ही पानी/मैं भी रेशा रेशा भीगना चाहता हूं......तुम देखना मैं एक दिन छाता बन जाऊंगी/ उनकी तरह।' मां, पिता, बच्चों पर लिखी उनकी कविताएं भी हमारी संवेदना को गहराई तक छूती हैं। इस प्रकार गृहस्थ जीवन की संवेदनात्मक सृजनशीलता के लिए लिहाज से उनकी कविताएं स्मरणीय हैं। वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह ने इनकी कविताओं के बारे में ठीक ही लिखा है कि सहजता इस संग्रह की कविताओं की सबसे बड़ी खासियत है। 

Sunday 22 December 2013

कविता और दर्शन के मूल्य तत्व प्रेम और दुख हैं-शंभुनाथ


कोलकाता :'यदि कोई अपने लिए कविता लिखता है तो वह सार्वजनीन भी हो जायेगी, लेकिन जो दूसरों के लिए ही लिखता है वह कई बार ठीक- ठाक कविता लिख ही नहीं पाता। इसलिए कविता की विश्वसनीयता कवि के अपने दुख-सुख से जुडऩे से भी सम्बंधित है। कविता का स्वभाव ऐसा है कि वह एक के दुख को दूसरे के दुख से जोड़ती है।' यह बात कही आलोचक एवं कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ.शंभुनाथ ने। वे शनिवार की शाम मुकुंद अपार्टमेंट, बालीगंज में आयोजित एक कवि गोष्ठी को सम्बोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि चाहे व कविता हो या दर्शन, उनका सम्बंध मूल तौर पर दो ही चीजों से है-एक है प्रेम, दूसरा है दुख। इन दोनों के निजी अनुभव की अभिव्यक्ति भी निजी नहीं रह जाती, यह व्यापक समुदाय से जोड़ती है। गोष्ठी में डॉ.गीता दूबे, राज्यवर्धन, डॉ.अभिज्ञात, विमलेश त्रिपाठी, निर्मला तोदी, रितेश पांडेय, निशांत, जीवन सिंह, जयप्रकाश एवं विजय गौड़ ने अपनी कविताओं का पाठ किया।

Wednesday 18 December 2013

'बैंकों की हिंदी या द्विभाषिक पत्रिकाएं : कितनी औपचारिक, कितनी गंभीर' पर राजभाषा सम्मेलन


कोलकाता : बैंक ऑफ इंडिया की ओर से कोलकाता के पार्क होटल में 'बैंकों की हिंदी या द्विभाषिक पत्रिकाएं : कितनी औपचारिक, कितनी गंभीर' पर राजभाषा सम्मेलन का आयोजन सोमवार 16 दिसम्बर को किया। सम्मेलन की अध्यक्षता  बैंक ऑफ इंडिया के कार्यपालक निदेशक बी.पी शर्मा ने किया। मुख्य अतिथि थे वरिष्ठ पत्रकार-लेखक डॉ.अभिज्ञात। सम्मेलन में बैंक ऑफ इंडिया, प्रधान कार्यालय के महाप्रबंधक एस.सी अरोड़ा, आरबीआई के महाप्रबंधक जीएन रथ तथा राष्टïरीयकृत बैंकों के उच्च अधिकारियों ने भाग लिया। आरबीआई के महाप्रबंधक जी. एन रथ कहा कि बैंकों द्वारा हिंदी पत्रिकाओं के प्रकाशन में कितनी भी कठिनाई क्यों न हो पर उनका प्रकाशन अवश्य जारी रखना है तथा भविष्य की चुनौतियों के लिए भी उन्हें तैयार रखना है।
सम्मेलन के आरंभ में अनिल भल्ला, महाप्रबंधक, एन. बी. जी (पूर्व), बैंक ऑफ इंडिया ने सभी अतिथियों का स्वागत किया तथा हिंदी के विकास में अहिंदीभाषी विद्वानों व कोलकाता शहर की भूमिका को रेखांकित किया। सम्मेलन को आर. डी वशिष्ठï (इलाहाबाद बैंक), एस. एस यादव (यूनियन बैंक), के. के गुप्ता (आईओबी), सरताज मो. शकील (संपादक, तारांगण, बीओई), मित्तल (विजया बैंक) जे. के भल्ला (सेंट्रल बैंक), प्रदीप चतुर्वेदी (यूको बैंक), साइबा पात्र (सचिव, बैंक, नराकास, कोलकाता) व स्वरूप चक्रवर्ती (संपादक, एक्जिम पत्रिका) ने संबोधित किया।कार्यक्रम में सहभागिता के लिए एल. एम कुलेठा, मुख्य प्रबंधक, बैंक ऑफ इंडिया ने सभी प्रतिभागियों व श्रोताओं को धन्यवाद ज्ञापित किया।

Tuesday 26 November 2013

शुभकामनाओं से लैस कविताएं


पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम: धरती अधखिला फूल है/

लेखक: एकान्त श्रीवास्तव/ प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन,
 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, 
नयी दिल्ली-110002/मूल्य:250 रुपये

नवें दशक में उभरे महत्वपूर्ण कवि एकान्त श्रीवास्तव का नया कविता संग्रह उनके मुहावरों में नयी अर्थवत्ता के साथ उपस्थित हुआ है। यहां आते आते उनकी कविताओं में स्वप्न और आदर्श की रुमानियत यथार्थ से मुठभेड़ के क्रम में पहले से कम हुई है और कविताएं शब्द से इतर अपने संकेतों और कथन के निहितार्थ में केंद्रित हैं। उनकी कविताओं ने वैचारिक प्रतिबद्धता से परे जाकर करुणा, संवेदना और अनुभूति को तरजीह दी है। इस संग्रह की कविताएं धीरे-धीरे मन में गहरे पैठती जाती हैं और उनका समग्र रूपाकार पाठक के मन में एक स्थायी जगह बना लेता है। वे उन बेहद कम कवियों में से हैं जिनका अपना एक स्वतंत्र कवि व्यक्तित्व है। एकाध कविता, कुछ कविताएं या कुछ अधिक कविताएं अच्छी या बहुत अच्छी लिखना दीगर बात है और अपनी कविताओं से पूरे एक काव्य व्यक्तित्व का सृजन दूसरी बात। यह दूसरी बात अर्जित करने की विलक्षणता उनमें है। वे वहां पहुंच चुके हैं जहां से दुनिया की तमाम छोटी-बड़ी घटनाएं, उथल-पुथल और परिवर्तन को एक खास नजरिये से देख सकते हैं और यही नहीं उनका पाठक भी उनके विजन को समझने के बाद देश दुनिया और अपने इर्द गिर्द को देखने की नयी दृष्टि पाते हैं। मेरी नजर में उनकी सबसे बड़ी कामयाबी यही है कि पाठक न सि$र्फ उनकी कविता से प्रभावित हों बल्कि उसका अपना व्यक्तित्व भी कवि के नजरिये प्रभावित हो जायें। वे वस्तु व भाव जगत को नयी उष्मा व चेतना के साथ देखें।
इस संग्रह की कविताएं ऐसी नहीं हैं कि यदि आपके पास बहुत फुरसत हो तो भी पांच सात कविताएं एक साथ पढ़ सकें। दो-तीन-चार कविताओं तक पहुंचते पहुंचते पुस्तक आपके साथ से हट जायेगी। आप उस लोक और अनुभूति की गहराई में उतर चुके होंगे जहां ये कविताएं आपको ले गयी हैं। इसलिए इस संग्रह को पूरा पढऩे के लिए कई दिन और सीटिंग की आवश्यकता पड़ेगी। यह यात्रा सिर्फ शब्दों की नहीं है। आपके सामने कई परिचित-अपरिचित दृश्य व दुनिया के दरवाज़े खुलेंगे और कवि के साथ प्रवेश करने के बाद बेचैन, संवेदित और अपने दुखते-टीसते दिल के साथ लौटेंगे। ये कविताएं माक्र्स नहीं बुद्ध व महाबीर के करीब हैं। इनमें विचार नहीं दर्शन है। संग्रह में शब्द नहीं संकेत की कविताएं हैं। यह दृश्य नहीं दृष्टि है। कंसेप्ट नहीं विजन है। यहां लोकेल सुरक्षित है। ये व्यक्तित्वहीन कविताएं नहीं हैं। एकांत जिस भौगोलिक क्षेत्र से जुड़े हैं, उसका भूगोल, वानस्पतिक संसार, जीव जंतु, रम्मो-रिवाज सब कुछ उनकी कविताओं का हिस्सा है। कोई कवि अपनी ओढ़ी बिछाई दुनिया को किस प्रकार अपनी कविता का अहम हिस्सा बनाता यह उनसे सीखने लायक है। एक बात इन कविताओं में विशिष्ट है कि ये बेहतर देश दुनिया के लिए सद्भावों,  शुभकामनाओं से लैस कविताएं हैं। आशीष देती और मंगलकामना करती, और कई बार उपदेश मुद्रा में- 'जिनका कोई नहीं है/इस दुनिया में/हवाएं उनका रास्ता काटती हैं/शुभ हों उन सब की यात्राएं/ जिनका रास्ता किसी ने नहीं काटा।' (पृष्ठ-15) कई कविताओं में लोकजीवन के हृदयग्राही दृश्यों, भंगिमाओं व लोकशैली का उपयोग उन्होंने किया है जो अपने टटकेपन से हमारा अतिरिक्त ध्यान खींचती हैं। उसी प्रकार पारिवारिक रिश्तों पर रची गयी कविताएं भी मन को छूती हैं। करेले बेचने आयी बच्चियां, बुनकर की मृत्यु (एक व दो), नमक बेचनेवाले, सोनझर, बाबूलाल और पूरन, आम बेचती स्त्रियां आदि कविताएं एक प्रकार के खास चरित्र को उठाती हैं और उनके जीवन मर्म को एक वृहत्तर आयाम प्रदान करती हैं साथ ही उनके दुख को दर्शन की ऊंचाइयों तक ले जाती हैं। -डॉ. अभिज्ञात 

Wednesday 30 October 2013

देह और मन का द्वंद्व और यथार्थ

समीक्षा

-डॉ.अभिज्ञात

पुस्तक का नाम: फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे/
लेखिका: ई.एल. जेम्स/ प्रकाशक-डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि., 10-30, 
ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-2, नयी दिल्ली-110020/
मूल्य-175 रुपये
फिफ्टी शेड्स ट्रॉयोलॉजी ने अपने प्रकाशन के साथ दुनिया भर में धूम मचा दी। यह बेहद पढ़ी जाने वाली पुस्तकों की श्रेणी में आ गयी जिसकी विभिन्न भाषाओं में करोड़ों प्रतियां बिकीं। इस ट्रॉयोलॉजी का पहला भाग है-'फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे'। यह साहित्य की एक भोली-भाली व मासूम छात्रा एनस्टेशिया स्टील उर्फ एना एवं सफल उद्यमी क्रिस्टियन ग्रे के सम्बंधों की कहानी पर आधारित है, जिसका तानाबाना दैहिक सम्बंधों और सच्चे आत्मिक प्यार के द्वंद्व से बुना गया है। अपनी पत्रकार मित्र की बीमारी के चलते उसकी ओर से ग्रे का इंटरव्यू लेने वह पहुंचती है और वह ग्रे को अपना दिल दे बैठती है किन्तु ग्रे का व्यक्तित्व सम्मोहक होते हुए भी उसके जीवन के तौरतरीके एना की कल्पना से परे थे। वह दैहिक सम्बंधों के लिए एना को एक सेक्स गुलाम बनाना चाहता है और जबकि एना उसमें सच्चे प्यार की तलाश करती है। लगातार एक तनावपूर्ण स्थितियों में उपन्यास धीमी गति से आगे बढ़ता है। जहां ग्रे क्रमश: मन की भीतरी तहों में उतरा जाता है वहीं एना देह की भाषा को सुनना समझना शुरू करती है। भारतीय पाठकों के लिए यह एक नये विषयवस्तु के आस्वाद का उपन्यास है जिसे न तो वह अधूरा छोड़ सकता है और तीखे यथार्थ की अभिव्यक्ति के कारण ना ही लगातार उसे पढऩे की ताब रख पाता है। इसमें ग्रे का दैहिक सम्बंध लगभग मशीनी प्रक्रिया है और एना का प्यार इन सम्बंधों में रूह की तलाश करता है। यह उपन्यास की सफलता है कि ग्रे क्रमश: एना और एना क्रमश: ग्रे की दिशा में उन्मुख है, जो सम्बंधों को एक नया अर्थ देता है। दैहिक सम्बंधों के मशीनीकरण और प्रेम की वायवीयता के बीच की जगह की तलाश इस उपन्यास की एक खासियत है जिसके लिए पाठक इसे अरसे तक याद रखेंगे। इस उपन्यास में तिक्त और जटिल यथार्थ की अभिव्यक्ति जिस साफगोई से हुई है वह पाठक को स्तंभित ही नहीं आक्रांत भी करती है।
ग्रे के व्यक्तित्व की खामियां उसके स्वभाव की उपज नहीं हैं, बल्कि उसके जीवन के अनुभवों और हालत से निर्मित हैं, जिन पर वह काबू पाने की अनवरत कोशिश वह करता है। अपने स्तर पर वह एक ईमानदार व्यक्ति है और सम्बंधों में पारदर्शिता का हामी है। वह सबके साथ हमेशा यह तय करना चाहता है कि उसे और उससे जुड़े किसी व्यक्ति का आपस में क्या लेना-देना है और दोनों की सीमाएं क्या हैं? क्या करना है और क्या नहीं करना है। उसकी यह आदत जब प्रेम सम्बंधों से टकराती है तो उसकी विसंगतियां उभर कर आती हैं। झकझोर कर रख देने वाली इस ट्रॉयोलॉजी के अन्य दो भाग हैं-फिफ्टी शेड्स डार्कर एवं फिफ्टी शेड्स फ्रीड, जिसे फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे के पाठक अवश्य पढऩा चाहेंगे।

Tuesday 22 October 2013

गीता के भाष्य में लगा पूरा जीवन


अपनी जिन्दगी की लगभग पूरी ऊर्जा किसी एक ग्रंथ के भाष्य में कोई लगा दे तो उस काम के महत्व का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। डा.मंगल त्रिपाठी ने लगभग चालीस साल गीता के भाष्य को दिये हैं। अपने जीवन की लगभग समस्त ऊर्जा उन्होंने इस काम में झोंक दी है। ऐसा नहीं है कि वे इसमें अकेले लगे हैं बल्कि कमोबेश पांच लोगों की पूरी टीम उनके साथ इस काम में जुटी रही है हालांकि इस लम्बी कालावधि में उनके कुछ साथी अब नहीं रहे।
लगभग छह सौ पृष्ठों का जो भाष्य तैयार किया है वह न सिर्फ चिन्तन से जुड़ा नायाब ग्रंथ है, बल्कि वह कलात्मक संयोजन का भी उत्कृष्ट उदाहरण है। तीन सौ पृष्ठों में गीता के समस्त श्लोक और उसका मंगल त्रिपाठी द्वारा किया गया भाष्य है बल्कि उनके भाष्य की चित्रात्मक अभिव्यक्ति वाली पेंटिंग की तस्वीरें भी ग्रंथ में हैं। अर्थात 300 पृष्ठ में भाष्य और उतने ही पृष्ठों में चित्र भी।
पुस्तक में लेखन सम्बंधी कार्यों का मूल्य छोड़ कर केवल उसमें प्रयुक्त होने वाली सामग्री पर ही प्रति पुस्तक एक लाख से अधिक का खर्च बैठा है। ग्रंथ का वजन साढ़े सात किलो है। वह एक ऐसे लकड़ी के बाक्स में है जिसे खोलकर ग्रंथ को बाहर निकाले बिना ही पढ़ा जा सकता है। ग्रंथ का नाम हीरे से लिखा है।
हीरे का उपयोग ग्रंथ में किये जाने के औचित्य पर उन्होंने बताया कि मैं मानता हूं कि गीता के श्लोक हीरे से अंकित किये जाने योग्य हैं। अपने सीमित संसाधनों के बावजूद मैंने यह प्रयोग इसलिए किया ताकि गीता के महत्व की ओर लोगों का ध्यान जाये। आज के समय में गीता ही वह ग्रंथ है जो हमें मार्ग दिखला सकता है। कोई व्यक्ति जब ज्ञान मार्ग पर चलता है तो कभी न कभी वह गीता के अर्थ तलाश करने की कोशिश अवश्य करता है क्योंकि  गीता में हर ज्ञान को चुनौती देने वाले तत्व विद्यमान हैं। जिसके ज्ञान की परिधि जितनी है गीता का अर्थ उसे उतना ही मिलता है। गीता ज्ञान को एक प्रवाह के रूप में देखने को विवश करती हैं क्योंकि गीता अर्थ का निरंतर अतिक्रमण करने वाला शास्त्र है।
त्रिपाठी से जब यह पूछा गया कि आज गीता के कई भाष्य विद्यमान हैं, आपको उसमें से कौन सा भाष्य अपने भाष्य के अर्थ के करीब लगता है, तो उनका कहना था गांधी जी और ज्ञानेश्वर का भाष्य मुझे प्रिय है किन्तु मैंने अपने भाष्य अपने तरीके से किया है दूसरे का अनुसरण नहीं। मैं गीता के पास दूसरे भाष्य के रास्ते नहीं गया। मैंने सीधे गीता से अर्थग्रहण को ही अपना पथ चुना। मैं गीता के पास अपना ज्ञान और अर्थ लेकर नहीं गया। मैं गीता के पास गया और जो मिला उसे अर्जित किया।
उन्होंने बताया गीता के मेरे भाष्य की प्रतियां सीमित हैं और वह आम बिक्री के लिए नहीं है। उन्होंने बताया कि मेरे आय के साधन सीमित हैं फिर भी मैं यदि इस कार्य को अंजाम दे पाया तो मैं इसे गीता की अपनी शक्ति ही मानता हूं।
उनका कहना था मैं चाहता हूं कि इसके महत्व को समझा जाये। गीता की प्रस्तुति सर्वोत्तम ढंग से करना ही मेरा मुख्य लक्ष्य है और चूंकि मेरे साधन सीमित हैं मैं यही कर पाऊंगा। कुछ अन्य धर्मग्रंथ में हैं जिनकी कुछ प्रतियां विशिष्ट तौर पर तैयार की गयी हैं तो फिर गीता के विशिष्ट अंदाज में क्यों न पेश किया जाये। उसे जो लोग देखना पढऩा जानना चाहते हैं तो वे राष्ट्रीय पुस्तकालयों में उनकी उपलब्धता का लाभ उठा ही सकते हैं।

Sunday 13 October 2013

विज्ञान ने पुराने भय मिटाए पर नए खड़े किए

शिवनारायण सिंह अनिवेद से डॉ.अभिज्ञात की बातचीत
(नोट-एक पुरानी बातचीत की अत्यंत विलम्ब से प्रस्तुति)

  
सुपरिचित युवा कवि और चित्रकार शिवनारायण सिंह अनिवेद मानव संसाधन मंत्रालय में उपसचिव हैं। दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में उनकी कला की एकल प्रदर्शनी कास्मिक सैलिब्रेशन लगी, जिसने उन्हें चर्चाओं के बीच ला खड़ा किया। कास्मिक सैलिब्रेशन नाम से उनकी एक पुस्तक भी आई है जिसमें उनकी पेंटिंग और हिन्दी कविताएं अंग्रेजी में अनुवाद और उनके कला व काव्य मर्म को उद्घाटित करने वाली टिप्पणियों के साथ आई। उन्हें पेंटिंग के लिए ललित कला अकादमी का पुरस्कार भी मिल चुका है। वे इधर कलकत्ता आए थे। प्रस्तुत है उनसे साहित्य, कला और प्रशासकीय कर्म के बारे में बातचीत-


- विज्ञान और कला दो विभिन्न धाराएं मानी जाती हैं। यहां तक कि एक को दूसरे के विपरीत दिशा वाली भी लगती है। आप तो फिजिक्स के छात्र रहे हैं। एक कलाकार के नाते आपका क्या अनुभव रहा?
सभ्यता के शुरुआत में जाएं। 50 हजार साल पहले वर्तमान मानव का प्रारंभिक दौर वह रहा। उसका मानव मन, कवि हृदय क्या विजुअलाइज करता था या सोचता था। मानव मन की टकराहट अपने आस-पास की प्राकृतिक दुनिया से हुई। उसके अंदर दो प्रतिक्रियाएं हुई। भय और आस्था की। संशय की प्रतिक्रिया हुई तो उसने विज्ञान (भौतिक शास्त्र) को जन्म दिया। आस्था की जो प्रतिक्रिया जन्मी उसने कला-साहित्य को जन्म दिया। मानव मन की जो मुख्य धाराएं हैं भय और आस्था। भय की जो मूल मानव दृष्टि है वह आज भी बरकरार है। हालांकि मुमकिन है आज जो भय की वजहें हैं उनका कारण कल विज्ञान ढूंढ लेगा। लेकिन तब नए भय भी होंगे। वे भय विज्ञान की प्रगति से उपजे भी हो सकते हैं। अर्थात एक ओर तो विज्ञान और वह नए भय भी पैदा कर रहा है। विज्ञान निर्भय नहीं कर रहा। दूसरा क्षेत्र आस्था का है। वही मनुष्य की सर्जनात्मकता को बचाए हुए है।

इस तरह देखा जाए तो मानव मन में जो फिजिक्स सेंस है, जो विजुअल आर्ट से जुड़ा है। विज्ञान और कला दोनों एक- दूसरे के निषेध बिन्दु पर नहीं, बल्कि पूरक ही है। एक बात यहां यह उल्लेखनीय है कि विज्ञान की सीमा है। कला विज्ञान से आगे चली जाती है। मूल विषय ज्ञान है। कला के मूल में आत्मा है। आत्मा से उपजी सर्जना है, विज्ञान से अधिक स्थायी व गहरी।

- आत्मा की बात आप कह रहे हैं। क्या आप आध्यामिकता पर विश्वास करते हैं?
आत्मा जिसे हम कहेंगे, सोचे-समझें। वह मिथिकल नहीं है। उसे आध्यात्मिक शक्ति कहें। सही ढंग से अंग्रेजी में कहूं कि इमोशनल स्ट्रेंथ ऑफ ह्यूमन बिइंग से हैं। तमाम बाहरी दुनिया की अबूझ चीजों को समझने के लिए बेहतर भौतिक दुनिया बनाने की आवश्यकता है। भय से बाहर आतंक से मानव निजात पाने के लिए अग्नि का आविष्कार हुआ। भोजन की व्यवस्था हुई। वही विज्ञान यात्रा न्यूटन से होती हुई, रोबोट, कम्प्यूटर से इंटरनेट तक पहुंची है। मगर यह नहीं भूलना होगा कि विज्ञान के भय या संत्रास का संतुलन पैदा करने के लिए आस्था से उपजी सर्जनात्मक कला और साहित्य की बेहद जरूरत है।

- विज्ञान और कला का योगदान क्या एक ही तराजू में तौला जा सकता है। दोनों के योगदान में भिन्नता क्या है?
विज्ञान ने सभ्यता का विकास किया, जबकि कला ने संस्कृति का। दोनों के बीच संतुलन का बिगड़ना ही मानव जीवन की सबसे बड़ी ट्रेजडी है। खुद मेरी कला की सोच का मूल बिंदु यही है। प्रकृति व अन्य जीवों का जो गैर भौतिक पहलू है वह जाग्रत है। मार्क्स ने उसे सुपर कांसेस मटेरियल कहा है। वही मानव है। एक संवेदनशील मानव कितना ही विज्ञान का प्रखर समर्थक हो बार-बार लगता है कि मानवीकरण की जो प्रक्रिया है वह संस्कृति ही हो सकती है। मेरा मानना है साइंसेस मार्डनाइज द सोसाइटी, सोसल साइंस मार्डनाइज द ह्ययूमन बीइंग, एंड आर्ट एंड कल्चर ह्ययूमनाइज द ह्ययूमन।

- आपकी कला में अमूर्तन दिखाई देता है, जबकि भारतीय संस्कृति की बात करतें हैं, जबकि अमूर्तन के बारे में आम अवधारणा यह है कि यह पश्चिमी कला शैली है।
यह भ्रांत धारणा है कि अमूर्तन पश्चिमी कला शैली है। अमूर्तता का सबसे पुराना उदाहरण शिवलिंग है। वह भारत में मिला। भारत के पुरातात्विक अवशेष हैं फैलस। वही सबसे पुराना है। हिन्दुस्तान के हर कोने में इस अमूर्त बिंब के प्रति जो आम भारतीयों की आस्था है, उससे मैं प्रभावित रहा। इससे लगातार प्रेरित हुआ कि जो अमूर्तता का इतना शक्तिशाली प्रमाण कला व संस्कृत में भारतीय चित्रकला अमूर्त रही है। वैनगाग के बजाय हमें अपनी कला की ओर ध्यान देना होगा। फैलस को ही मैं कला की अमूर्तता का आधार मानता हूं। आस्था से जुड़ा पहलू प्रभावित करता है। वह धार्मिक उपयोग की शै नहीं है। भारतीय किसानों की पृथ्वी के प्रति उपजाऊपन की आस्था का प्रतीक है। देश के कोने-कोने की जनजातियों में लिंग या शिवलिंग का फर्टीलिटी कल्ट के रूप में प्रमाण पाया गया है। मानव की उत्पत्ति विकास हरास से जुड़ा हुआ है। लिंग या फैलस मानव, जीव और पौधों की उत्पत्ति का प्रमाण है। संस्कृति के जीवन में शिवशक्ति इस सोच की एक समकालीन व्याख्या करती है।

- तंत्र-मंत्र के बारे में आपकी क्या धारणा है?
भारतीय कला के कलात्मक प्रमाण के तांत्रिक या धार्मिक प्रयोग को व्याख्या दे दी गई है। 200 सालों के उपनिवेशिक शासन ने भ्रम खड़ा किया है। धार्मिक या तमाम आग्रहों को समयलीन नहीं रहने दिया। शुरू से समकालीन रहा है। कोणार्क या खजुराहो जीवन के उत्सव को अभिव्यक्त करते हैं। दर्द, पीड़ा, वेदना सब में है। भारतीय कलात्मक मूर्ति चित्रों के उत्सव के रूप में व्यक्त करता है। रहस्य-सा बना है। विदेशियों के लिए समझ पाने की कमी ने भ्रम पैदा करने वाले विशेषण दिए हैं। प्रजातांत्रिक दौर में बंधन नहीं काल्पनिकता है। दो धाराएं सोच की रही है। इंटरनल अर्ज एक्सप्रेशन पाता है।

गांव अपने आस-पास के समाज व्यवस्था की जो अभिव्यक्ति है शब्दों के माध्यम से अधिक हो पाती है। रंगों से आप प्रभावकारी बयान दे सकते हैं। बाहर दुनिया के बारे में उसी रूप में संप्रेषित करना उस बात को उसी तरह से पहुंचना शब्द से हो पाता है। चूंकि मेरा मूल प्रयास है कि कला साहित्य का एक संदर्भ हो। संदर्भविहीनता सामग्रीकरण की परिधि में बंध कर न रह जाए। रंगों व शब्दों के परस्पर प्रयोग के माध्यम से समकालीन भारतीय सोच व संदर्भ में सार्थकता पाई है।

Friday 4 October 2013

भोजपुरी गीतों से थाइलैंड के लोगों का मन मोहेंगी प्रतिभा सिंह व देवी


कोलकाता: थाइलैंड की राजधानी बैंकाक में भोजपुरी गीतों का परचम रही हैं भोजपुरी की प्रसिद्ध गायिकाएं प्रतिभा सिंह व देवी। इन दोनों के अतिरिक्त अरुण देव यादव और मोहन कुमार भी अपने गीतों से लोगों का मन मोह रहे हैं। आज शुरू हुए इस समारोह में ये कलाकार 14 अक्टूबर तक आयोजित कार्यक्रम में अपने भजनों से श्रोताओं का मन मोहेंगे। सत्य सनातन संघ, बैंकाक के तत्वाधान में गीता आश्रम में आयोजित नवरात्रा महोत्सव में ये कलाकार भाग ले रहे हैं। विगत दस वर्षों से यहां नवरात्रा महोत्सव का आयोजन किया जा रहा है और इस बार ग्यारहवां वर्ष है जिसमें अप्रवासी भारतीयों के साथ-साथ बैंकाक वासी भी उल्लास के साथ हिस्सा ले रहे हैं। गीता आश्रम अध्यात्म का एक बड़ा केंद्र है।

Friday 20 September 2013

किसी की दो-चार पंक्तियां भी जीवित रह गयीं, तो उसका लिखना सार्थक

प्रख्यात नवगीतकार डॉ.बुद्धिनाथ मिश्र से डॉ.अभिज्ञात की बातचीत 
प्रश्न: ऐसे में जबकि छंदों की वापसी की बात की जा रही है ऐसे में नवगीतों की भूमिका के बारे में क्या कहना चाहेंगे?
उत्तर: नवगीत आंदोलन के पहले जो गीत लिखे जाते थे उसमें प्रकृति जिस तरह से आधार बनकर आती है उससे आधुनिक पीढिय़ों दूर हो गयी हैं। गीतकारों से नगरीय जीवन उससे छूट रहा था। आज जीवन में जटिलता ज्यादा आ गयी। जो आधुनिक चेतना व जीवन की विडम्बनाएं हैं, जो कुंठा है उन्हें पुराने ढंग के गीत व्यक्त नहीं कर पा रहे थे। उन्हें अभिव्यक्ति देना नवगीत का पहला मकसद था। दूसरा यह कि पहले लिखे गये गीतों से अलग पहचान कैसे बनायें। जहां छायावाद के एक से एक रचनाकार हैं, उससे पहले भी गीतकार थे। उसके अलावा भी उस समय कई रचनाकार लिख रहे थे, जिनमें दिनकर व बच्चन जी थे। तो गीतों का एक विशाल भंडार था, उसमें अपनी अलग पहचान कैसे बनायें, यह चुनौती थी। आधुनिक चेतना का कर्ज नवगीत उतार रहे थे। मैं कलकत्ता आया था। सड़क पर दुर्घटना हो गयी थी..सड़क पर शीशे की किरचें बिखरीं हुई थीं.. मैंने एक गीत में शब्द दिया 'सड़कों पर शीशे की किरचें हैं, और नंगे पांव हमें चलना है, सर्कस के बाघ की तरह हमको, लपटों के बीच गुजरना है।' जो तीन-चार विशेषताएं थी उनमें आंचलिक जीवन की जो संस्कृति और शब्द हैं उन्हें भी लिया जाये। वह एक दौर था। आंचलिक शब्दों और संस्कृति को रेणु ने अपनाया, बाबा नागार्जुन, प्रेमचंद ने तमाम शब्दों को पहले ही लिया था। निराला ने लिया था। बाबा नागार्जुन ने अपने उपन्यासों बाबा बटेश्वर नाथ में तथा बिल्लेसुर बकरिहा में लिया था। उनके गांव में बिल्लेश्वर हैं महादेव। उनकी पूजा होती है। उसी की लोग बिल्लेसुर कहने लगे। यह प्रवृत्ति है उसे नवगीतकारों ने स्थान दिया। मेरा एक नवगीत संग्रह आया है 'ऋतुराज एक पल का'। उसमें मैंने छंद पर विस्तार से बात की है। इस बात को भी रखा है कि अभियान जिस तरह से चला था वह कुछ शिथिल हुआ है। उसका सबसे बड़ा कारण यह है कि नवगीतकार आत्मकेंद्रित हो गया। यह बहुत दुखद है। वे दूसरे को स्वीकार नहीं करना चाहते, पढ़ते भी नहीं हैं। अपने सामने दूसरे को कुछ नहीं समझते। आत्ममुग्धता और आत्म-केंद्रीयता है। आपको जानकर बेहद आश्चर्य होगा कि मेरे जो घनिष्ठ मित्र हैं जब नवगीतकार की चर्चा करते हैं तो अपनी ही चर्चा करते हैं मेरा नाम भी भूल जाते हैं। सबको साथ लेकर चलने का जो काम डॉ.शंभुनाथ सिंह ने किया उसमें उन्होंने अपनी पसंद-नापसंद को अधिक तरजीह दी। जो नायक को नहीं करना चाहिए था। मैंने कोशिश की अपने को पीछे करके अन्य गीतकारों को प्रकाशित-प्रचारित करने का अवसर दिया जाये। कलकत्ता में रहते हुए मैंने कई गीतकारों का जिनका कोई कविता संग्रह नहीं था प्रकाशित किया था..सोम ठाकुर, माहेश्वर तिवारी के नवगीत संग्रह मैंने एक संस्था 'वांगमय विकास' बनाकर प्रकाशित करवाया। रामचंद्र चंद्रभूषण का संग्रह भी प्रकाशित किया जो अस्सी साल के हो गये थे उनका एक भी नवगीत नहीं आया था, जबकि वे शीर्षस्थ नवगीतकार माने जाते हैं। आत्ममुग्धता के विपरीत मैंने यह किया। उससे मुझे व्यक्तिगत घाटा हुआ किन्तु नवगीत विधा को फायदा हुआ।

बुद्धिनाथ मिश्र
जीवन-परिचय
1 मई,1949 को मिथिलांचल में समस्तीपुर(बिहार) के देवधा गाँव में  मैथिल ब्राह्मण परिवार में जन्म। गाँव के मिडिल स्कूल और रेवतीपुर(गाज़ीपुर) की संस्कृत पाठशाला में प्रारम्भिक शिक्षा। वाराणसी के डीएवी कालेज और बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के आर्ट्स कालेज में उच्च शिक्षा। अंग्रेज़ी व हिन्दी में एम.ए.,एम.ए.(हिन्दी),'यथार्थवाद और हिन्दी नवगीत' प्रबंध पर पी.एच.डी. की उपाधि। 1966 से हिन्दी और मातृभाषा मैथिली के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में निबंध,कहानी,गीत,रिपोर्ताज़ आदि का नियमित प्रकाशन। 'प्रभात वार्ता' दैनिक में 'साप्ताहिक कोना', 'सद्भावना दर्पण' में 'पुरैन पात' और 'सृजनगाथाडॉटकॉम' पर 'जाग मछन्दर गोरख आया' स्तम्भ लेखन। देश के शीर्षस्थ नवगीतकार और राजभाषा विशेषज्ञ।मधुर स्वर,खनकते शब्द,सुरीले बिम्बात्मक गीत,ऋजु व्यक्तित्व। राष्ट्रीय -अन्तरराष्ट्रीय काव्यमंचों के अग्रगण्य गीत-कवि। 1969 से आकाशवाणी और दूरदर्शन के सभी केन्द्रों पर काव्यपाठ, वार्ता,संगीत रूपकों का प्रसारण।बीबीसी,रेडियो मास्को आदि से भी काव्यपाठ,भेंटवार्ता  प्रसारित।दूरदर्शन के राष्ट्रीय धारावाहिक 'क्यों और कैसे?' का पटकथा लेखन।वीनस कम्पनी से 'काव्यमाला' और 'जाल फेंक रे मछेरे' कैसेट,मैथिली संस्कार गीतों के दो ई.पी. रिकार्ड और संगीतबद्ध गीतों का कैसेट 'अनन्या'। डीवीडी 'राग लाया हूँ' निर्माणाधीन। 'जाल फेंक रे मछेरे' 'शिखरिणी' 'जाड़े में पहाड़' गीत संग्रह,'नोहर के नाहर' 'स्वयंप्रभ' 'स्वान्त: सुखाय' 'नवगीत दशक' 'विश्व हिन्दी दर्पण' तथा सात मूर्धन्य कवियों के काव्य संकलनों का सम्पादन।'अक्षत' पत्रिका और 'खबर इंडिया' ई-पत्रिका में कर्तृत्व पर केन्द्रित विशेषांक और 'बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता' पुस्तक(सं. डॉ. अवनीश चौहान) प्रकाशित।
अन्तरराष्ट्रीय पुश्किन सम्मान, दुष्यन्त कुमार अलंकरण,परिवार सम्मान, निराला,दिनकर और बच्चन सम्मान।'कविरत्न' और 'साहित्य सारस्वत' उपाधि।रूस,अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, नीदरलैंड, जापान, मारिशस, उज़बेकिस्तान, दक्षिण अफ्रीका, थाईलैंड, सिंगापुर,यूएई आदि अनेक देशों की साहित्यिक यात्रा।न्यूयार्क और जोहान्सबर्ग विश्व हिन्दी सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व। सार्क देशों में बेहद लोकप्रिय कवि। 'आज' दैनिक में साहित्य और समाचार सम्पादन,यूको बैंक,हिन्दुस्तान कॉपर लि. और ऑयल एण्ड नेचुरल गैस कार्पोरेशन(ओएनजीसी) मुख्यालय में वरिष्ठ पद पर राजभाषा-सेवा। सम्प्रति 'स्वयंप्रभा' और 'अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन' के अध्यक्ष। सम्पर्क: देवधा हाउस, 5/2 वसंत विहार एन्क्लेव,देहरादून-248006, फोन: 0135-2767979, मो. 09412992244

प्रश्न :एक विधा से बंध जाना कहां तक उचित है। क्या उसका अतिक्रमण किया जाना चाहिए। आपने किया या नहीं किया और व्यक्तिगत तौर पर उसके बारे में क्या सोचते हैं? उत्तर-मनुष्य हैं और सीमाएं हैं रचनाधर्मिता की सीमाएं। अपने को सकारात्मक है या नहीं
उत्तर: पहली बात है कि हम लोग खुद सीमित हैं। अगर हम नि:सीम नहीं हैं, हमारी सीमाएं हैं। और यदि हमारी सीमाएं हैं तो हमारी रचनाधर्मिता की भी सीमाएं हैं। यदि सीमा न होती तो मनुष्य न होते..ईश्वर होते। ये आपको आइटेंटीफाई करना है कि आप अपने को किस विधा में अच्छी तरह से अभिव्यक्त करते हैं। शुरू में मैंने अखबारों में निबंध लिखे। कभी-कभार गीत भी आ जाया करता था। फिर कहानियां भी लिखीं। रिपोर्ताज लिखे, नाटक भी लिखा। नृत्यनाटिकाएं लिखीं आकाशवाणी के लिए। मंच पर जो मेरा रूप है फ्रंट पर है वह दीख पड़ता है नवगीतकार का। मैंने एक अखबार में दो साल से अधिक समय तक स्तम्भ लिखा, वह भी एक रूप है रचना का। नवगीत में मुझे लगता है कि रचनाकार का लक्ष्य है कम से कम शब्द में अधिक से अधिक अभिव्यक्त कर दे। यह गुण गीत में है। मेरा एक मुक्तक है-'आदमी गुम जायेगा/ उसका पता रह जायेगा/ और नदी के तीर पर/ जलता दिया रह जायेगा। आज तक हमने कहा जो, भूल जायेंगे सभी/याद दुनिया को हमारा, अनकहा रह जायेगा।' यह अनकही बातें गीत में ज्यादा होती हैं इसलिए मैं लिखता हूं। मैंने देखा है एक से एक लोग जो छंदहीन कविता के हैं, सब धराशायी हो जाते हैं..सब अपने को वीर, बामन अवतार ही मानते हैं लेकिन कहीं उनका अता-पता नहीं हैं। आम आदमी उन्हें नहीं जानता। वे अपना ब्रांडनेम जरूर बना लेते हैं। अज्ञेय बड़े कवि हैं पर उनकी कविता कितने लोगों तक पहुंची.. मैं यह प्रश्न पूछना चाहता हूं। उससे अच्छा तो बुद्धिनाथ मिश्र जैसा छोटा कवि है, जिसकी बात अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समाज तक पहुंचती है लेकिन इतने प्रचार के बावजूद अज्ञेय की एक भी पंक्ति आम लोगों तक नहीं पहुंची। मैं वहां पर सार्थक हूं। और किसी की दो-चार पंक्तियां भी जीवित रह गयीं, तो उसका लिखना सार्थक हो गया।
प्रश्न: आपका गीत 'एक बार और जाल फेंक रे मछेरे' बहुचर्चित है। लोग कवि-सम्मेलनों में उसे बार-बार सुनना चाहते हैं। मंच की दुनिया पर लगभग कालजयी कृति मानी जाती है, उसकी रचनाप्रक्रिया के बारे में बतायें। आपकी नजर में उसकी क्या विशेषता है..।
उत्तर: निराला की तरह मैं भी हिन्दी कविता के लिए गैर-पारम्परिक था। मेरी मातृभाषा मैथिली है, प्रारम्भिक शिक्षा संस्कृत में हुई थी, जिससे संस्कृत के काव्यवैभव को मैं अत्यन्त समीप से निहार चुका था और मेरी स्नातकोत्तर शिक्षा अंग्रेजी साहित्य में हुई थी, जिससे यूरोपीय साहित्य की नवीनतम प्रवृत्तियों की पूरी जानकारी मुझे थी। यह एक दुर्लभ मणि-कांचन संयोग था। जानकी वल्लभ शास्त्री संस्कृत के उद्भट विद्वान थे, मगर अंग्रेजी साहित्य से दूर थे। बच्चन जी अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर थे, मगर संस्कृत में शून्य थे। इसलिए, मेरे गीत भारतीय संस्कारों के साथ-साथ पाश्चात्य तेवर लेकर आये थे। मैं उस समय 20 साल का था। मेरे पास इमेजरी या तो संस्कृत की थी या अंग्रेजी की जो एक खजाना था। उससे मैंने गीत लिखना शुरू किया। मैं उस समय लिखी जब मैं बेरोजगारी के दौर से गुजर रहा था। उस दौर मैंने यह कविता लिखी थी-'एक बार और जाल फेंक रे मछेरे' यह एक सामान्य बात है। कविता दूसरी पंक्ति में है-'जाने किस मछली में बंधन की चाह हो'.. और जो इस चीज को नहीं जानते उन्होंने इसकी प्रतिद्वंद्विता में नकल भी की, नकल भी की तो भोंडी नकल की...हमारे देश की एक अच्छी कवियत्री ने कविता लिखी थी-'जाल फेंकता रहा मछेरा, मछली फंसी नहीं मछली।' .बंधन की चाह और फंसी हुई मछली.. कहां राजा भोज और कहां बुधिवा तेली..उससे प्रेरित होकर छंदहीन कविता भी लिखी गयी..पक्ष-विपक्ष में चर्चा हुई ..विरोध में लिखा गया कि भला कोई मछली फंसना क्यों चाहेगी।...भाई अभिधा में कविता नहीं समझी जा सकती। अभिधा में तो अखबार में कहा जाता है..कविता समझनी हो तो व्यंजना समझनी ही होगी। हमारे सामने करोड़ों श्रोता हैं उसका आस्वाद ले रहे हैं। पहला ही गीत लेकर मैं आया था-'नाच गुजरिया नाच की आयी कजरारी बरसात री ....।' उन दिनों मैं बनारस में रहता था। तभी आचार्य विष्णुकांत शास्त्री बनारस गये थे और प्रसाद जी के घर पर हम मिले थे। पद्मधर त्रिपाठी ने मुझे उनसे मिलवाया था। वे बड़े अच्छे रचनाकार थे। उन्होंने शास्त्री जी से कहा कि यह अच्छा गीत लिखते हैं मैं उन्हें आपको सुनवाना चाहता हूं। प्रसाद जी का एक बड़ा सा अहाता था जिसमें एक शिवालय था, वहीं काव्यपाठ रखा गया। मैंने यही गीत सुनाया था। उन्हें पसंद आया। जो कविता उन्हें पसंद आती थी वह उन्हें याद हो जाती थी। उन्होंने पूछा- 'कहीं छपी तो नहीं है?' जब मैंने बताया कि अभी तो लिखी है छपी नहीं है तो मुझे आदेश दिया-'लिखकर दो।'  उन्होंने वह कविता 'धर्मयुग' में धर्मवीर भारती के पास भेज दी और साथ में यह भी लिखा कि कविता मेरी काशी यात्री की उपलब्धि है। उन दिनों धर्मयुग का चार लाख-पांच लाख सर्कुलेशन था। धर्मयुग में उन दिनों बंगलादेश पर रिपोर्ताज छप रहे थे। छपा तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बिजली सी चमक गयी। 'एक बार जाल और फेंक रे मछेरे' के लिए बुद्धिनाथ को जाना जाता है। बुद्धिनाथ मिश्र के लिए वह गीत नहीं जाना जाता। मेरा नाम ही कुछ ऐसा है कि लोकप्रिय नहीं हो सकता। वो मछेरे वाला गीत ही मेरी पहचान है। उन दिनों जीवन में किसी की एक रचना एक बार धर्मयुग में छप जाये तो अपने रचनाजीवन को सार्थक मानता था। उसमें 20 साल की उम्र में मेरी रचना छपी तो बधाई देने त्रिलोचन शास्त्री मेरे घर आये।
प्रश्न-साहित्य में एक विरोधाभासी प्रक्रिया चल रही है। जो लोग साहित्य को जनता से जोड़ते हैं और लोकप्रिय हैं उन्हें साहित्यकार माना ही नहीं जाता और जो साहित्यकार माने जाते हैं उनकी पहुंच आम जनता तक नहीं है। इस विडम्बना का कारण क्या है? कवि-सम्मेलनों के सदर्भ में क्या कहना चाहेंगे?
उत्तर-हिन्दी साहित्य का पठन-पाठन कुछ राजनीतिक प्रोफेसरों के चंगुल में फंस कर निष्प्राण हो गया। साहित्य को नेस्तनाबूद कर दिया गया है। जो कविता पाठ्यपुस्तकों में पढ़ाई जाती है उससे छात्र आतंकित हो जाते हैं। साहित्य छात्रों को आकृष्ट करने के लिए होता है या उन्हें आतंकित करने के लिए। उन्हें बुझौव्वल परोस दिया गया है। हमने पाठ्यपुस्तकों में ऐसी हिन्दी कविता दी जिसने हिन्दी को नयी पीढ़ी से काट दिया है। यदि दोष मढ़ा जाये तो उन प्रोफेसर महामहिम के सिर, जो हिन्दी को मारने वाले कसाई हैं, हिन्दी को चौपट करने वाले। छन्दमुक्त कविता जितना भी आम आदमी का नाम लेती है, आम आदमी उतना ही उससे दूर भागता है। नयी कविता के कवियों को शेखी बघारने या जुगाड़ से पाठ्यपुस्तकों में घुसने के बजाय इस विडम्बना का विश्लेषण करना चाहिए कि आम आदमी क्यों पिछले 70 साल से नीरज की कविताई पर फिदा है, जबकि वे जन सरोकार के कवि नहीं माने जाते। स्कूल-कॉलेजों में कविता का रस लेना सिखानेवाले अध्यापक नहीं रहे। वहां भी नयी कविता के विषधर प्रोफ़ेसर के रूप में कुंडली मारकर बैठे हैं। यूजीसी कवियों को आमन्त्रित कर कविता का रस लेना सिखाने की आवश्यकता नहीं समझती, इसलिए सेमिनार के नाम पर बतकही में लाखों रुपये बहाने का उसके पास प्रावधान है, लेकिन किसी वरिष्ठ कवि को कालेज में बुलाकर कविता पढ़ाने और इस प्रकार बच्चों को कविता से जोडऩे की उसके पास कोई व्यवस्था नहीं है।
उधर, कवि-सम्मेलन के मंचों को शंभुनाथ सिंह, माहेश्वर तिवारी, उमाकान्त मालवीय आदि ने समृद्ध किया था। उन्हें सुनने लोग बड़े चाव से जाते थे। पिछले 25-30 वर्षों में धीरे-धीरे ऐसे गीतकार कुछ कारणों से कम होते गये..उनकी जगह पर चुटकुलेबाज आ गये, वे हास्य-कवि भी नहीं है। वे लतीफों को तोड़कर मंच पर कलाकारी दिखानेवाले हैं..जिसके कारण कविता सुनने के लिए जो श्रोता आते थे, वे मंच से दूर हो गये। कवि-सम्मेलन अब उतने नहीं होते इसके बावजूद हम लोग जाते हैं अपनी शर्तों पर। मैं यह मानता हूं की जो 50 हजार लोगों की भीड़ है उसमें कम से कम एक हजार लोग ऐसे ज़रूर हैं, जो मुझे सुनने आये हैं। और वे कम से कम मुझे साल भर याद रखेंगे। बाकी भूल जाते हैं। कोई तीस साल बाद मिलता है तो कहता है कि मैंने आपको किशोरावस्था में सुना था। कई साल पहले और पाता हूं कि उसे मेरे गीत की कुछ पंक्तियां याद हैं। लतीफेबाज कितनों को याद रहते हैं। लतीफा पहली बार अच्छा लगता है, दूसरी बार सिरदर्द होता है तीसरी बार तो लोग उसे सुनना कत्तई पसंद नहीं करते, वहीं गीतकार को जितनी बार सुनेंगे उतनी बार अच्छा लगेगा। वह ऐसी खटाई है कि जिसमें से रस बंद ही नहीं होता।
प्रश्न: आप गीत विधा की क्या विशेषताएं पाते हैं?
उत्तर-गीत लिखना सबसे कठिन काम है। कम शब्दों में एक केन्द्रीय भाव को तीन-चार अन्तराओं में समेटने के लिए भावावेश भी चाहिए, शब्द-सम्पदा भी और कहन का नयापन भी। गजल में हर शेर स्वतन्त्र होता है, इसलिए वहां मन की एकरसता या लेखनी की अविरलता जरूरी नहीं है। गीत-रचना में गहन अध्ययन, श्रेष्ठ प्रतिभा, विलक्षण दृष्टि और शब्दों की मितव्ययिता आवश्यक है। बात नये बिम्बों-प्रतीकों की हो या नयी शब्दावली की, गीतकार को हमेशा जाग्रत रहना पड़ता है। इसमें धैर्य और संयम का विशेष महत्त्व है।
प्रश्न: गीत की अपनी रचनाप्रक्रिया के संबंध में कुछ बतायें?
उत्तर-मैंने कलकत्ता में प्राइवेट बसों की भीड़ में खड़े रहकर भी प्रेमगीत लिखे हैं-प्यास हरे,कोई घन बरसे। तुम बरसो या सावन बरसे। अपने विश्वविख्यात गीत एक बार और जाल फेंक रे मछेरे/ जाने किस मछली में बंधन की चाह हो में सबसे पहली पंक्ति मैंने चंदा के इर्द-गिर्द मेघों के घेरे/ऐसे में क्यों न कोई मौसमी गुनाह हो लिखी थी। आश्विन का महीना था। इस ऋतु में सड़कों पर कुछ मौसमी गुनाह होते मैंने देखा था। यही तो सब्लिमेशन (उन्नयन) है, जो श्रेष्ठ कविता करती है। किसी कवि के मन में गीत कैसे, किस क्षण जन्म लेता है, इसका पता उसे नहीं होता। किसी विषय में वह गहरे डूबा रहता है या यों ही मटरगश्ती करता रहता है कि कोई पंक्ति उसके मन में कौंधती है, जो गीत का बीज बनती है। बाद में उसी का विस्तार होता है।
प्रश्न: आपने कविता से क्या पाया?
उत्तर-सन 1970 के आसपास बनारस के गोदौलिया चौराहे पर अनेक कवि एक पान की दूकान पर शाम को अड्डा जमाते थे। वहां हम जैसे गीतकवि भी थे और सुदामा पांडेय धूमिल जैसे छन्दमुक्त कविता के पक्षधर भी। सभी अपनी-अपनी नयी कविता सुनाते थे। हम सभी ने अपनी क्षमता और पसन्द के अनुसार अभिव्यक्ति का अपना रास्ता ढूँढ़ा था। आपस में कोई वैमनस्य नहीं था। यह तो तब शुरू हुआ, जब दिल्ली की राजनीति ने साहित्य के आकाश में ग्रहण लगाया। एक प्रकार से, मैं जीवन के हर क्षेत्र में अण्डरपेड रहा, यानी रोज पानी पीने के लिए रोज कुआँ खोदता रहा। वह आजीविका में भी रहा, लेखन में भी। इसके बावजूद मैने कविता से बहुत कुछ पाया। आज मैं जो कुछ हूं, सब कविता की देन है। गीत लिखने का मेरा मकसद ख्याति या पुरस्कार पाना नहीं रहा। यह कुल मिलाकर स्वान्त:सुखाय ही था, मगर जब किसी सुदूर गांव में जाता हूं और वहां अपनी पंक्तियों को लोगों के अधरों पर पाता हूं, तब मुझे गौरव की अनुभूति होती है। एक अच्छा गीत लिखकर जो सुख की अनुभूति मेरे अन्त:करण में होती है, उसके सामने हजारों अलंकरण और पुरस्कार बेकार हैं। जोड़-तोड़ से प्राप्त राजकीय पुरस्कार संवेदनशील व्यक्तियों के मन में ग्लानि ही पैदा करते हैं।
प्रश्न: गीतों से नवगीत किस माने में अलग है?
उत्तर-नवगीत को मैं गीत की ही एक शैली मानता हूं, कविता की नवीनतम प्रशाखा। नगरीय जीवन के वैशिष्ट्य ने ग्रामीण बिम्बों और प्रतीकों को धुंधला कर दिया है। नवगीत में उसी नगर के बोध को महत्त्व दिया गया है। नवगीतकार प्राकृतिक दृश्यों को भी अपने नजरिये से प्रस्तुत करता है। आज का शहरी कवि जिस जीवन को भोग रहा है, उसमें अम्बर पनघट में डुबो रही/ तारा-घट ऊषा नागरी की परिकल्पना असम्भव है। लेकिन सारा देश अभी नगर नहीं बना है। अभी भी भारत की आत्मा गांव में ही बसती है। नवगीत में उसकी अभिव्यक्ति भी हुई है। आधुनिकता शब्द समय-सापेक्ष है; वह हर नये दौर में केंचुल बदलता है। जिस समय आदिकवि वाल्मीकि ने रामायण रची थी,या व्यास ने महाभारत, या कालिदास ने मेघदूत या शुद्रक ने मृच्छकटिक–  सभी अपने समय में नवीनतम और आधुनिकतम थे। इसलिए जीवन-शैली या साहित्य में यूरोप से आयी आधुनिकता को ही आधुनिकता मानना मूढ़ता है। ठाकुर प्रसाद जी के संथाली परिवेश के गीतों में भी गजब की आधुनिकता है। कोई जवाब है प्यार के इस आदिम रंग का? जामुन की कोंपल-सी चिकनी ओ! मुझे छिपा आंचल में/जाड़ा लगता है, क्या भीतर आ जाऊं? इसी प्रकार मेरा एक गीत है-धान जब भी फूटता है गाँव में/एक बच्चा दुधमुंहा,किलकारियां भरता हुआ/आ लिपट जाता हमारे पांव में। यह नवगीत की नवाभिव्यक्ति। इस तरह की नवाभिव्यक्तियों ने ही भारती जी जैसे वरेण्य सम्पादक को गीत का पक्षधर बनाया।
प्रश्न: क्या आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि में साहित्य था? प्रारंभिक प्रभाव के विषय में कुछ बतायें।
उत्तर: मेरा परिवार मैथिल ब्राह्मण परिवार था, सरस्वती का दुलारा और लक्ष्मी का दुत्कारा जो मैथिल ब्राह्मणों की पुश्तैनी पहचान है। परिवार में ही नहीं, पूरे गांव पर संस्कृत का वर्चस्व था। पिताजी ज्योतिष के प्रकांड पंडित थे। वे अत्यन्त भावुक और उदात्त विचारों वाले व्यक्ति थे। गांव में खेती बहुत थोड़ी-सी थी। पौरोहित्य और ज्योतिष-कार्य से ही घर चलता था। पिताजी तीन बजे सबेरे जाग जाते थे और विभिन्न देवी-देवताओं के स्तोत्र पढऩे के बाद विद्यापति-सूर -तुलसी के पद गाया करते थे। उनका कंठ भी बहुत सुरीला था। मुझे भी वे बीच में जगा दिया करते थे। नींद के मारे मुंदी आंखों से पिताजी का संग देते हुए पंक्तिओं को दुहराना पड़ता था। तमाम श्लोक मैंने ऐसे ही उनके साथ गाकर सीखे थे। उन स्तोत्रों के ध्वनि-सौन्दर्य ने मेरे मानस में काव्य के प्रति आकर्षण पैदा किया। बचपन में विद्यापति जैसे महाकवियों के पदों का जो वर्चस्व मैंने अपने समाज पर देखा, उसने मेरे भीतर कवित्व के बीज अंकुरित किये। एक सपना कि मेरे गीत भी इसी तरह लोग गायें। 1957 में लगभग 10 वर्ष की आयु में मैं बड़े भाई पं.विद्यानाथ मिश्र के साथ संस्कृत पढऩे काशी चला आया था। हम लोग दशाश्वमेध घाट के पास किराये के मकान में रहते थे। उस मकान में भाई साहब के और भी कई सहपाठी मित्र रमाकान्त जी, शक्तिनाथ जी आदि रहते थे। सबेरे गंगा स्नान के लिए जाने से पहले वे अपने मित्रों  के साथ, तेल मालिश करते हुए जोर-जोर से हिन्दी के समकालीन गीतों को गाया करते थे। उनके पास नये साहित्यिक गीतों का अच्छा संकलन था। वे संस्कृत के काव्य-मर्मज्ञ थे और उनका स्वर भी हजार में एक था। बाद में हमलोग सूर्यकुण्ड स्थित ब्रह्यर्षि संस्कृत छात्रावास में जाकर रहने लगे। उन्हीं दिनों मैं भक्ति के पद लिखने लगा था। जब मैं 1961 में गाजीपुर जनपद के रेवतीपुर गांव के गुरुकुलनुमा संस्कृत पाठशाला में पढऩे गया, तब मुझे हिन्दी के तमाम नवीन साहित्य से परिचय हुआ। अपनी पाठ्य-पुस्तक जयद्रथ वध के छन्द में मैंने दुर्गा सप्तशती का एक-दो सर्ग काव्यानुवाद भी कर लिया था। 1962 में भारत-चीन युद्ध हुआ, तब मैंने एक कविता लिखी थी-आँखें लाल दिखाते क्यों? मैं बनारस-प्रवास के दौरान ही आज दैनिक की बाल संसद का सदस्य हो गया था जिसमें  बच्चों की कविताएं छपती थीं। उसी सूत्र से मैंने अपनी कविता आज में छपने भेज दी- अवधेश के नाम से.. क्योंकि कविताई वहां विषय से भटकने का पर्याय मानी जाती थी। कोई अध्यापक नहीं चाहता था कि मैं अपने विषय पाणिनीय व्याकरण से भटकूं। वह कविता छप भी गयी, मगर मुझे कोपभाजन नहीं बनना पड़ा। किशोरावस्था में मैंने छायावादी कवियों को बहुत सुना, अध्यापकों के मुंह से। पाठशाला के पुस्तकालय में हिन्दी का विशाल साहित्य उपलब्ध था। मैंने बहुत सारे उपन्यास भी छुप-छुप कर पढ़े थे, जिनका भावनात्मक प्रभाव मुझ पर पड़ा। विद्यापति और तुलसी तो हमारे लिए सर्वव्यापी थे ही, दिनकर जी के अनुसरण में मैने अपना उपनाम छबिकर रख लिया था, मगर इस नाम से कोई कविता नहीं छपी।
प्रश्न: नवगीत विधा का नामकरण किसने किया था?
 उत्तर-नवगीत नामकरण उसी तरह है,जैसे छायावादी काव्य इससे नवगीत गीत -परिवार से पृथक नहीं हो गया। बहुत दिनों तक यही विवाद चलता रहा कि नवगीत नामकरण किसने किया? यह भी कोई विवाद का विषय है? बच्चा किसका है, इसपर तो विवाद हो सकता है; मगर बच्चे का नामकरण किसने किया,इसपर विवाद हास्यास्पद है। राजेन्द्र प्रसाद जी ने यह दावा किया था,मगर शम्भुनाथ जी ने नवगीत को जिस प्रकार परिभाषित किया, वही बाद में सर्वमान्य हुआ। निस्सन्देह, कुछ कमियों के बावजूद, नवगीत दशक अभियान नवगीत धारा के विकास में मील का पत्थर है। इसे समसामयिक काव्य-प्रवृत्ति का प्रथमप्रतिनिधि और आधिकारिक संकलन माना गया है।
प्रश्न:इस संदर्भ में क्या निराला को याद किया जाना चाहिए?
 उत्तर-निराला को नवगीत का प्रथम पुरुष इसलिए माना जाता है कि उन्होंने हिन्दी गीत के परम्परागत छन्द-विधान को तोड़कर नये साँचे बनाने की दिशा प्रशस्त की। वे बंगाल से आये थे और बंगला के समकालीन काव्य-वैभव को हिन्दी में उतारना चाहते थे। वे छन्द से मुक्ति नहीं,छन्द की मुक्ति के पक्षधर थे। वे संगीत कई गहरी समझ रखते थे,इसलिए छन्दों को तोड़कर नये सांचे में ढाल सकते थे। पंत ने भी छंद तोडऩे की कोशिश की, मगर बहर से बाहर हो गये।
प्रश्न :कविता में गीतिकाव्य का क्या महत्व है?
उत्तर:गीतिकाव्य निरन्तर प्रयोगशील काव्यधारा है। छन्द, प्रतीक, बिम्ब और शब्द के क्षेत्र में कुछ नयापन लाने का प्रयास हर गीतकार करता ही है। वैसे गीत में छन्द किसी न किसी रूप में रहेगा ही। यह छन्द संगीत का वह गणित है, जो कविता को आकार-प्रकार देता है।
प्रश्न: छंद तो गज़ल और दोहे में भी होता है?
उत्तर:गज़ल और दोहे हिन्दी कवियों में काफ़ी लोकप्रिय रहे हैं। शेर और दोहे के सांचे लगभग एक से हैं। दो पंक्तियों में एक बात कहनी है। गज़़ल अगर हिन्दी की है,तो उसकी आत्मा भी हिन्दी की होनी चाहिए, अरबी-फारसी की नहीं लेकिन अधिकतर कवि गज़़ल लिखते समय हिन्दी के कवि रह ही नहीं जाते।
प्रश्न :कविता क्या केवल गरीबी के चित्रण से ही महत्वपूर्ण बनती है?
उत्तर: सच्चा कवि जीवन को समग्रता में देखता है। मुझे लगता है कि गरीबों के जीवन की बारीकियों को परखने के साथ-साथ अमीरों के जीवन को भी सहज ढंग से हमें परखना चाहिए तभी दुनिया को समग्रता से देखने का दावा किया जा सकता है। गीतों में लिजलिजी भावुकता आज भी मंचों पर छायी हुई है। इस समय जिन्दगी जितनी परेशानियों से भरी है,उसमें अच्छे प्रेम और शृंगार के साहित्यिक गीतों को संगीतबद्ध कर समाज में प्रस्तुत करने की दरकार है। ऐसे गीत उपलब्ध न होने कारण ही सामान्य लोग फि़ल्मी गीतों की ओर भाग रहे हैं। 

Tuesday 10 September 2013

आंदोलित करती हैं कविताएं : डॉ सिंह


डॉ केदारनाथ सिंह, रामकुमार मुखोपाध्याय, लक्ष्मण केडिया, डॉ शंभुनाथ, प्रियंकर पालीवाल व नंदलाल शाह, एकांत श्रीवास्तव, डॉ अभिज्ञात, डॉ राजश्री शुक्ला, राहुल सिंह.भवानी प्रसाद मिश्र की कविता का विवेक से मूल्यांकन बाकी
साभार - प्रभात खबर, कोलकाता, 8 सितम्बर 2013

पुरुषोत्तम तिवारी, कोलकाता
जी हां मैं गीत बेचता हूं’ भवानी प्रसाद मिश्र की यह कविता बाजारवाद के खिलाफ पहली चोट है. यह पहला काव्यात्मक रूप है. उनकी कविताएं लोगों को आंदोलित करती थी. जब वो कविता पढते तो उनके आंख से आंसू बरबस झरने लगते. उनकी आवाज में ऐसा जादू था कि बात सीधे दिल तक पहुंचती थी. दुर्भाग्य है उनकी कविता को कोई अच्छा आलोचक नहीं मिल सका. विवेक व सहानुभूति के साथ उनकी कविता का मूल्यांकन होना बाकी है. वे कहन शैली के कवि हैं. लिखित व वाचिक कविता के फासले को उन्होंने कम किया है. कवि सम्मेलनों में जहां जाते उनकी आवाज सब पर भारी हो जाती. ये बातें भारतीय भाषा परिषद के तत्वावधान में कवि भवानी प्रसाद मिश्र की जन्मशती समारोह में बीज भाषण देते हुए वरिष्ठ कवि डॉ केदारनाथ सिंह ने परिषद के सीताराम सेकसरिया सभागार में कहीं. डॉ सिंह ने कहा कि मेरा यह सौभाग्य है कि भवानी भाई का स्नेह मुझे मिला. उनके आग्रह पर मैं कवि सम्मेलनों में भी शामिल हुआ. प्रियंकर पालीवाल ने कहा कि डॉ मिश्र की कविता को आज सस्वर पढ.ने की जरूरत है, तभी उनके शब्द बजते हैं और उनके अर्थ खुल कर सामने आते हैं. लक्ष्मण केडिया ने कहा कि कवि के साथ वे एक बडे. मनुष्य भी थे. पहले सत्र की अध्यक्षता करते हुए डॉ शंभुनाथ ने कहा कि भवानी भाई की कविता में अलंकरण नहीं है. उनकी कविता सीधी व सरल है. अपनी बात कहने में सर्मथ्य है. भक्त कवियों की तरह भवानी भाई जिस विषय पर कविता लिखते उसमें डूब जाते. उनकी कविताओं में स्थानीयता की खुशबू बिखरी हुई है. उन्होंने आश्‍चर्य जताया कि आज मनुष्य कविता से नहीं बाजार और राजनीति से जीना सीख रहा है. स्वागत भाषण करते हुए मंत्री नंदलाल शाह ने भवानी प्रसाद  : जैसे मेरे मन में उगे विषय का परिवर्तन करते हुए कहा कि उनकी कविताएं आज भी हमारी चेतना को झकझोरती है. भवानी भाई को गांधीवादी कवि भी माना जाता है. उन्होंने कभी गांधी की आलोचना नहीं की है. पहले सत्र का संचालन श्रद्धांजलि सिंह ने किया. संस्था के मंत्री डॉ कुसुम खेमानी ने अतिथियों का पुष्प गुच्छ देकर सम्मानित किया एवं धन्यवाद ज्ञापित किया.दूसरे सत्र की अध्यक्षता करते हुए डॉ राजश्री शुक्ला ने कहा कि उनके जीवन व साहित्य, प्रकृति और लोक के बीच कोई अंतर नहीं है. मेरी कविता की समझ बनी है उनकी कविता को पढ.के. नयी पीढ़ी को उनकी कविता पढ.नी चाहिए. उनकी कविता को आलोचकीय भाषा में न समझायी जाये बल्कि कविता स्वयं उनके सामने बहे. उपभोक्तावाद के समय भवानी भाई की कविताएं संवेदनाओं को जागृत करने में सक्षम है. कवि व पत्रकार अभिज्ञात ने कहा कि भवानी भाई की सरलता सहज नहीं है. वह विरल है. उन्होंने गांधी के रूप में एक वृहद जीवन मूल्य और आदर्श को पा लिये थे. ये बातें उनकी कविताओं में दिखती है. एकांत श्रीवास्तव ने कहा कि मिश्र जी वस्तुत: लोक मन के कवि हैं और कुलीनता के सारे तामझाम से बाहर हैं. राहुल सिंह ने कहा कि उनकी कविताएं आज भी हमारे लिए प्रासंगिक हैं. दूसरे सत्र का संचालन पीयूष कांत राय ने किया. इस मौके पर विश्‍वंभर दयाल सुरेका, निर्मला तोदी, सीमी तलवार, सेराज खां बातिश सहित अन्य गणमान्य लोग मौजूद थे.

Wednesday 4 September 2013

वृत्त्तांत से बढ़कर


साभार: द पब्लिक एजेंडा
15 सितम्बर 2013


अपनी गज़लों के लिए भी अलग से पहचाने जायेंगे महेंद्र शंकर

समीक्षा

-डॉ.अभिज्ञात

पुस्तक का नाम-मतला अर्ज़ है/लेखक-महेंद्र शंकर/प्रकाशक-प्रज्ञा प्रकाशन, 1/सी/4 शिमला शतघड़ा रोड, एक्सटेंशन रिसड़ा, पो.-प्रभास नगर, जिला-हुगली-712249/मूल्य-60 रुपये 

सुपरिचित नवगीतकार महेंद्र शंकर 'मंदिर में शंख बजे' के प्रकाशन के साथ खासे चर्चित हुए थे। इस संग्रह के लिए उन्हें उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ का पुरस्कार भी मिला था। उनके मरणोपरांत उनकी गज़लों का संग्रह आया है-मतला अर्ज़ है। इस संग्रह से उनके काव्य व्यक्तित्व को एक नयी आभा और एक और विशिष्ट पहचान बनती है। उनके प्रशंसकों के लिए यह संग्रह एक नायाब उपहार है। अपने समय की लोकप्रिय पत्रिका 'वासंती' के जरिए उन्होंने साहित्यकारों की एकाधिक पीढ़ी तैयार की थी, जो न सिर्फ़ उनके सम्पादन से रचनात्मक ऊर्जा प्राप्त करती रही, बल्कि मार्गदर्शन भी पाया। उन्होंने 'त्रिविधा' पत्रिका का भी सम्पादन किया था। इस प्रकार अपनी रचनात्मक मेधा से उन्होंने साहित्य की सेवा भी की और साहित्य कर्म को संजीदगी से लेने वालों की जमात भी तैयार की। उन्हीं के एक शेर से यह बात कही जाये तो-'चूम ले एक खार हौले से। पूरी टहनी गुलाब हो जाये।'
महेंद्र जी के योगदान की चर्चा करते हुए प्रख्यात कवि केदारनाथ सिंह का कहना है कि 'नयी कविता के समय के कवि महेंद्र लोक जीवन के सभी पक्षों को उजागर करने वाले प्रगतिशील चेतन के अकेले तेज कवि थे।..लिखना तो उन्होंने 1950 के बहुत पहले से शुरू किया था लेकिन 1957 से नवगीत के एक समर्थ कवि के रूप में उन्हें स्वीकृति मिली।' महेंद्र शंकर के रचनात्मक योगदान की चर्चा करते हुए कवि शलभ श्रीराम सिंह ने कहा है कि महेंद्र के गीत लोक शिल्प व लोक शब्द तथा लोक बिम्बों के कारण अति बौद्धिकता से बच गये हैं। वहीं मृत्युंजय उपाध्याय का मानना है कि उनके नवगीतों में भाव, विचार, बुनावट, भाषा के नये शब्दों का प्रयोग तथा बिम्बों का बड़ा ही अद्भुत मगर सहज प्रयोग हुआ है।
महेंद्र शंकर ने लगातार अपनी रचनात्मक परिधियों का विस्तार किया और नयी रचनात्मक चुनौतियों से लोहा लेते रहे। उन्होंने कहानियां, $गज़लें और मुक्त छंद की कविताएं भी लिखीं। उनकी बहुत सी रचनाएं पुस्तकाकार प्रकाशित नहीं हैं। यह सुखद है कि उनके रचनाकार सुपुत्र एस आनंद ने उनकी गज़लों के इस संग्रह के प्रकाशन का उपक्रम किया और आशा है वे उनकी अन्य कृतियों को भी प्रकाशित कराने का बीड़ा उठायेंगे।
मौजूदा संग्रह में महेंद्र जी की गज़लों में मौसम की चिन्ता रेखांकित करने योग्य है। उनके कई शेरों में यह व्यक्त हुई है, यथा- 'मौसम का क्या मिजाज है, कुछ कह नहीं सकते/किस ओर का परवाज है कुछ कह नहीं सकते। कितनी गरज, तड़प है आकाश के भीतर/किस पर गिरेगी गाज कुछ कह नहीं सकते।' एक अन्य $गज़ल का शेर देखें-'मौसम के मन में चोर, फूल अनखिले रहे/ हर ओर अजब शोर फूल अनखिले रहे।' 
महेंद्र की गज़लों में भले उर्दू शब्दों को भी प्रयोग हुआ है किन्तु उनकी भावभूमि और मुहावरेदारी हिन्दी कविता की ही है। इस मामले में वे दुष्यंत और चंद्रसेन विराट, नीरज जैसों की परम्परा में हैं-'एक परिचित स्वर विजन में पास आ जाये तो क्या हो/साथ का छूटा मुसाफिर साथ पा जाये तो क्या हो। पेड़ से लिपटी हुई है छांह बेसुध चांदनी में/चांद पर यदि बादलों का रंग छा जाये तो क्या हो।' एक अन्य गजल़ की बानगी देखें- 'इतना वक्त कहां है कि तुमसे बात करें/बिना नैवेद्य चलें और बारात करें। नरसी मेहता की तरह हममें चमत्कार नहीं/गर्म जल शीत करें, जर की बरसात करें।' महेंद्र जी की गज़लों में मौजूदा वक्त की विसंगतियां भी व्यक्त हुई हैं और नर्म खयाल भी। धड़कता हुआ दिल भी है और टीस और विरह भी। संग्रह में अन्नामलाई पर्वत पर लिखी गयी रुबाइयां अलग से पाठक का ध्यान आकृष्ट करती हैं।

Monday 2 September 2013

साहित्य व भाषा पर संवाद

संवाद गोष्ठी की औपचारिक शुरूआत के पूर्व बातचीत करते बाएं से कथाकार विजय शर्मा, पत्रकार-लेखक डॉ.अभिज्ञात, कथाकार सिद्धेश, आलोचक व कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ.अमरनाथ एवं भारतीय विद्या मंदिर तथा भारतीय संस्कृति संसद के अध्यक्ष डॉ.विट्ठलदास मूंधड़ा
कोलकाता : भारतीय विद्या मंदिर की ओर से भारतीय संस्कृति संसद में शनिवार की शाम आयोजित मिलन गोष्ठी में संस्था के अध्यक्ष डॉ.विट्ठल दास मूंधड़ा ने कार्यक्रम में विशेष तौर पर संम्बोधित किया। उन्होंने साहित्येतर विषयों पर हिन्दी में लिखी किताबों की कमी के प्रति लोगों का ध्यान आकृष्ट किया। अरुण माहेश्वरी ने कहा कि एक ही समय में अलग-अलग विचार समय मेंं लोग जीते हैं। जाग्रत मनुष्य ही समाज को आगे ले जाता है। गोविंद फतरहपुरिया ने ऐसे साहित्य के सृजन पर जोर दिया जो लोगों की जुबान पर पैठ सके। शारदा फतरहपुरिया कहा कि युवाओं से संवाद स्थापित करने के प्रयास किये जाने चाहिए ताकि उन्हें ठीक तरह से समझा जा सके। डॉ.अमरनाथ हिन्दी की स्थित पर चिंता जाहिर की और कहा कि बोलियों के भाषा बन जाने से हिन्दी कमजोर होगी। उन्होंने कहा कि अध्ययन आज टीम वर्क हो गया है और इतना कुछ छप रहा है कि किसी एक के बूते का नहीं है कि वह सब पढ़कर बता सके कि कहां क्या अच्छा लिखा जा रहा है। पढऩे वाले आपस में अच्छे लिखे की चर्चा कर सकते हैं। सिद्धेश ने कहा कि पत्रिकाओं के सम्पादक अब लेखकों को बहुत महत्व नहीं देते। प्रकाशनार्थ मिली रचना की बावती की बात तो दूर उसके प्रकाशन की स्वीकृति या उसके बाद उसके प्रकाशित हो जाने तक की जानकारी कई बार नहीं देते।
डॉ.शंभुनाथ ने संवादहीन की भयावहता की चर्चा की। उन्होंने कहा कि लोगों के पास दूसरे से सीधे संवाद के लिए समय नहीं है।
 लक्ष्मण केडिया ने कहा कि चौपाल अंदाज में आयोजित इस तरह के कार्यक्रम को बड़े स्तर पर किया जाना चाहिए।
डॉ.अभिज्ञात ने कहा कि आज के आधुनिक होते दौर में मनुष्य एकेला होता जा रहा है और इस अकेले होते जाते व्यक्ति का सबसे बड़ा सहारा साहित्य बनेगा। लोग अपने पड़ोसी और पास रह रहे मित्रोंं से बात भले न करें किन्तु वे इंटरनेट पर एक समाज तलाश करते हैं उनसे चैट करते हैं और एक आभासी दुनिया में अपने को लोगों से जुड़ा पाते हैं। ऐसे लोग जल्द ही साहित्य में अधिक दिलचस्पी लेने लगेंगे।
 डॉ.सोमा बंद्योपाध्याय ने अपनी भाषा को बचाने के प्रयास पर जोर दिया और कहा कि अंग्रेजी के बदले अपनी भाषा को प्राथमिकता देनी चाहिए। तारा दूग्गड़, काली प्रसाद जायसवाल,  सेराज खान बातिश ने भी सभा को सम्बोधित किया। राजीव हर्ष ने कहा कि अखबारों में साहित्य इसलिए कम प्रकाशित होता है क्योंकि पाठकों की दिलचस्पी उसमें कम है। यदि लोग उसे पढऩा चाहेंगे तो अखबार जरूर छापेंगे। डॉ. गीता दूबे, डॉ.वसुंधरा मिश्र, विजय शर्मा, विद्या भंडारी,रतन शाह आदि भी कार्यक्रम में विशेष तौर पर उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन वैचारिकी के सम्पादक डॉ.बाबू लाल शर्मा ने किया।

Tuesday 20 August 2013

मनोविज्ञान की गहरी सूझ वाली कहानियों का आत्मीय संसार

समीक्षा 
 -डॉ.अभिज्ञात
पुस्तक का नाम-स्याह लहरों का ध्रुवतारा/लेखक-नंद किशोर/ प्रकाशक-श्री प्रकाशन, 32 सरकार लेन, कोलकाता-700007/ मूल्य-पेपरबैक-80 रुपये व सजिल्द 150 रुपये मात्र।
कवि-चित्रकार नंद किशोर का पहला कहानी संग्रह स्याह लहरों का ध्रुवतारा पाठकों को एक ऐसे आत्मीय संसार में ले जाता है जो हमारा बहुत जाना पहचाना भले न हो किन्तु वह कहीं से पराया नहीं लगता। यह कथाकार की रचनात्मकता की खूबी है कि वह अपने साथ हमें अपने अनुभूत और काल्पनिक जगत में इस तरह ले जाता है कि वह बड़ी सहजता से हमारा अपना भी बन जाता है। भाषा न तो आक्रांत करती है और ना ही अपनी ओर अलग से ध्यान खींचती है। पाठक का पूरा ध्यान इस बात पर रहता है कि कथानक के चरित्र के साथ क्या घटा। ये चरित्र केवल कथानक तक सीमित नहीं रह जाते बल्कि हमारे अनुभव संसार एक ऐसा हिस्सा बन जाते हैं जैसे वे हमारी दुनिया में प्रत्यक्ष आया हों और उनके साथ जो कुछ घटित हुआ वह हमारे सामने ही हुआ। इन कहानियों को घटनाक्रम ही कहानी नहीं बनाते बल्कि संवेदन तत्त्व भी उसमें केंद्रीय भूमिका निभाते हैं। मनोविज्ञान की गहरी समझ ने इन्हें अतिरिक्त अर्थवत्ता प्रदान की है और कई कहानियां मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के लिहाज से भी याद किये जाने योग्य हैं। हिन्दी कहानी में मनोविज्ञान की गहरी सूझ की उन्हें इलाचंद जोशी, जैनेन्द्र व अमरकान्त की कथा परम्परा से जोड़ती है। इस लिहाज से संग्रह की पहली दो कहानियां 'कुएं का बर्फीला सन्नाटा' व 'इनविटेशन' द्रष्टव्य है। 'कुएं का बर्फीला सन्नाटा' कहानी के मुख्य पात्र तकी अहमद की कुंठाओं का प्रभावी मनोविश्लेषण कथाकार ने किया है। उसकी पीठ पर कूबड़ था और वह इसे प्राकृतिक अभिशाप को कभी दिल से स्वीकार नहींं कर पाता है। उसे हर वक्त लगता रहता है कि उसके परिवार के लोग उसकी उपेक्षा कर रहे हैं। हाई स्कूल में अच्छे अंकों के बावजूद वह कालेज में एडमिशन नहीं लेता और अन्तत: वह अपने दोस्तों, घर-परिवार के लोगों की आत्मीयता को भूलकर कुएं में कूदकर आत्महत्या कर लेता है। 'इनविटेशन' कहानी में खदान का सीनियर मैनेजर पर्सनल अपने घर पर काकटेल पार्टी में कई मजदूरों को भी बुलाता है। जिसमें अफसर, यूनियनों के नेता, ठेकेदार, क्लर्क व एजेंट भी बुलाये गये हैं। इस दावत में मजदूरों को निमंत्रण क्यों दिया गया है यह कहानी के मुख्य पात्र बूधन पासवान का पड़ोसी चटर्जी दा समझाते हैं कि प्रबंधन-श्रमिक का करीबी रिश्ता उत्पाद को प्रभावित करता है, इन्हीं कवायदों में पार्टी वार्टी मात्र एक प्रबंधकीय टैक्टिस है। किन्तु बूधन उनकी गूढ़ लगती बातों को नहीं समझ पाता। पार्टी में जाने का उत्साह व सब कुछ बेहतर हो जाने की कल्पना आदि के लिए इस कहानी में मजदूर की मन:स्थिति का बेहद विश्वसनीय मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है। कहानी का क्लाइमेक्स अत्यंत नाटकीय अंदाज में होता है जब बुधन पार्टी में विदेशी शराब के नशे में बेसुध होकर गिर जाता है और जब उसे होश आता है तो पाता है कि पार्टी देने वाला जो अफसर उसे महान नजर आ रहा था वह अपनी पत्नी के आगे भीगी बिल्ली बना हुआ है और उसकी बीवी उसे फटकार रही है-जाने तुम कहां-कहां से भिखारियों को उठाकर ले आते हो..यह कंगाली रात भर उल्टियां करता रहा।....उसे अभी घर से बाहर निकालो और पूरा बंगला फिनाइल, डिटाल से रगड़कर साफ करो...। दूसरी तरफ 'मसालों का सौदागर' जैसी कहानियां भी हैं जिनमें यथार्थ और फेंटेसी का ऐसा समन्वय है कि वह पाठक को एक अन्य लोक में ले जाता है जहां सच झूठ के प्रश्न बेमानी हो जाते हैं और पाठक दिल थामे इस बात का इन्तजार करता है कि अब क्या होने वाला है। 'एक था रतन', 'फातिहा' और 'ठंडी चाय' कहानियां व्यक्तियों के अलग-अलग रूप प्रस्तुत करती हैं और अलग-अलग दुनियाओं में ले जाती हैं जहां हम व्यक्ति की खूबियां-खामियों, उसकी आशा-निराशा और इनमें रोजमर्रा की जि़न्दगी के घात-प्रतिघात से पाठक का साबका होता है। नंद किशोर का यह पहला संग्रह यह दर्शाता है कि उनके अंदर कई दुनियाएं हैं, जिनसे कहानी की दुनिया और समृद्ध होगी।

Wednesday 15 May 2013

समय सापेक्ष नैतिकताओं का सृजन

समीक्षा-डॉ.अभिज्ञात
साभारः आलोचना, जुलाई-सितम्बर 2013
लावण्यदेवी/लेखिका-कुसुम खेमानी/प्रकाशक-राजकमल प्रकाशन प्रा.लि., 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नयी दिल्ली-110002/मूल्य-300 रुपये

'लावण्यदेवी' डॉ.कुसुम खेमानी का पहला उपन्यास है जिसमें लेखिका ने एक जीवन दर्शन प्रस्तुत किया है, जो व्यवहारिकता पर आधारित आध्यात्म का पथ है। यह जीवन की एक नयी राह का अन्वेषण है जिसमें अपने सुख-दुख के साथ-साथ परोपकार भी शामिल है। राग और विराग की एक विलक्षण संधि इस उपन्यास में मिलेगी, जो पाठक को जीने का एक नया सलीका देती है। यह विवेकवाद पर आधारित पथ है, जो सिर्फ त्याग नहीं सिखाता बल्कि त्याग का नया अर्थ और वैकल्पिक मार्ग देता है। यह उस व्यवहार से मिलता-जुलता है जो वारेन बफे ने शुरू किया है, जो अपनी मेधा और श्रम से कमाई दौलत का एक बड़ा हिस्सा लोकहित में खर्च करने को सार्थक मानता है।
अपने जीवन के उत्तरकाल में संन्यासी सा जीवन जीते हुए अपने समर्थकों से एक जगह लावण्यदेवी कहती है-'हमें भी जीवन में दुनियादारी निबाहते हुए उच्चतर मूल्यों के लिए काम करना चाहिए। देह के धर्म को उसका प्राप्य देते हुए मनुष्य जब अपने विवेक से काम करता है, तो आधिभौतिक तत्त्व आधिदैविक तत्त्वों की प्राप्ति में अड़चन नहीं डालते। फलस्वरूप हमारे मन, वचन तथा कर्म तीनों ही सुंदर हो जाते हैं।... अपनी देह से प्रेम करते हुए उसका प्रयोग लक्ष्य-प्राप्ति की सीढ़ी की तरह कीजिए।' (पृष्ठ 77)  उपन्यास की गति तेज है। इसमें धीमे-धीमे घटित होता जीवनक्रम नहीं है, बल्कि कई पीढिय़ों के अनुभवों को एक दूसरे के बरअक्स देखने का उपक्रम है। इसमें पिछड़ी पीढ़ी कई बार नयी पीढ़ी से सीखती है तो वहीं बड़ी सहजता से बिना किसी दबाव के नयी पीढ़ी को बहुत कुछ सीखाती है। मामूली लगते अनपढ़ और अनगढ़ पात्र भी उच्च शिक्षा प्राप्त पात्र को बिना कहे सिखाते हैं। यह उपन्यास एक तरह से कई पीढिय़ों और कई वर्गों के बीच वैचारिक विमर्श और उनमें सामंजस्य की महती भूमिका निभाता है। किसी एक विचार को सायास थोपने या किसी विचार सूत्र को पात्रों के माध्यम से लादने की कोशिश इसमें नहीं मिलती बल्कि तमाम विचारों को आमने-सामने रखकर व्यावहारिक पथ निकालने की कोशिश दिखती है। आम सहमति बनाने का प्रयास हर जगह है। इस उपन्यास में जगह-जगह समाज में समझे समझाये और लगभग रूढ़ हो चुके आदर्शों को बौना करते विमर्श मिल जायेंगे। उपन्यास दरअसल जीवन का एक खंड नहीं अपितु पूरा एक जीवन होता है अपनी तमाम खूबियों और खामियों के साथ। मनुष्य की जय-पराजय, उत्थान-पतन, राग-विराग, लोभ और त्याग के प्रश्नों को यह उपन्यास पूरी शिद्दत से उठाता है और उसे एक विशेष अन्वति तक पहुंचाता है। लावण्यदेवी उपन्यास एक बंगाली सम्पन्न परिवार से जुड़ी पांच पीढ़ी के लोगों की गाथा है जिसमें उनके उत्थान-पतन, कार्यशैली, रहनसहन और सोच के ढर्रे को उसकी पूरी बनावट और बारीकियों से साथ चित्रित किया गया है। लेकिन जिस चीज पर लेखिका का फोकस है वह है धनवान लोगों का सामाजिक योगदान। धन का लोकहित में उपयोग। अब तक पूंजी का शोषणमूलक स्वरूप ही साहित्य में मुख्यतौर पर प्रस्तुत किया जाता था। धनवान की और अधिक धनवान होने की होड़, उसकी ओर से गरीब और मजबूर लोगों का किया जाता आर्थिक शोषण। यह उपन्यास पूंजी के सामाजिक योगदान को रेखांकित करता है और दौलतमंद लोगों के बारे में रूढ़ विचारों को बदलता है। पूंजी के इर्द गिर्द रहने वालों के उदात्त चरित्र को उजागर करता है। इस प्रकार साहित्य की दुनिया में एक नया प्रयोग इस उपन्यास में है। सम्पन्न परिवार के आदर्शवादी कई युवा और बुजुर्ग पात्र इस उपन्यास में अलग-अलग तरीकों से समाजसेवा और जनहित के कार्यों में अपने जीवन को खपा देते हैं या फिर अपनी कमाई का बहुत बड़ा हिस्सा ऐसे कार्यों के लिए दान कर देते हैं। उदात्त पात्रों में स्वयं कथानायिका लावण्यदेवी के अलावा नशाखोरी उन्मूलन से जुड़ी प्रियंवदा भी है, जो एक तमिल वैभवशाली खानदान की बेटी और दूसरे वैभवशाली खानदान की बहू है।
समाजसेवा के कार्य में बुजुर्ग और प्रौढ़ लोग ही नहीं हैं युवा भी हैं। लावण्यदेवी की प्रेरणा से उनकी युवा पौत्रियां मंजुलिका और मालविका भी समाजसेवा के कार्यों में जुट जाती हैं, एक ने नशा उन्मूलन के कार्यों में अपने को जोड़ा तो दूसरी ने सोनागाछी की वेश्याओं की समस्याओं के निवारण में। उपन्यास में समाज कल्याण और सुधार की दिशा में सक्रिय लोगों की विश्वस्त दास्तान है। लावण्यदेवी की नानी भी ऐसे ही कार्यों से जुड़ी थी। उपन्यास का यह रुझान और मिशन से जुड़े पात्रों की समाज सुधार की परिकल्पनाओं के कारण प्रेमचंद का 'सेवासदन' नारी चरित्र के उत्कर्ष के संदर्भ में यशपाल के 'दिव्या' जैसे उपन्यासों की याद दिलाता है। तिक्त अनुïभव इस उपन्यास में लगभग नहीं हैं क्योंकि पात्रों के अंदर की खामियां उनके समूचे व्यक्तित्व को नहीं ढक पाती हैं, उनमें कहीं न कहीं पछतावा है जो अपनी परिधि तोड़कर समाज सुधार के व्यापक विमर्श से जुड़ जाता है। जीवन की उदात्तता की ओर जाता यह उपन्यास कई मूल्यों को एक साथ साधता है और अपने बहुआयामों के साथ इसकी अर्थवत्ता को प्रकट करता है। एक जगह कुसुम जी कहती हैं-'सांस्कृतिक और सामाजिक एकता की इससे बड़ी परिकल्पना और क्या हो सकती थी कि एक आदमी अपने व्यक्तित्व में अपने संस्कार, अपनी भाषा, अपने उच्चारण, अपने रीति रिवाज आदि समेटे हुए धुर विपरीत प्रदेश में आकर उस स्थान के संस्कारों को स्वयं में और स्वयं के संस्कारों को उस स्थानीय समाज में समावेशित कर उत्कृष्ट मूल्यों की स्थापना करे। एक संस्कृति की दूसरी संस्कृति में घालमेल, यह बिखरे भारत की अखंडता के लिए भी अनिवार्य थी।' (पृष्ठ- 92)
रांग साइड आफ द बेड् वाले नाजायज रिश्तों से लेकर गे और लेस्बियन सम्बंधों की भी इस उपन्यास में चर्चा है किन्तु इन सम्बंधों को हिकारत से नहीं देखा गया है बल्कि उसके व्यावहारिक पहलुओं के साथ उसके उजले पक्ष को ही लेखिका सामने लाती हैं। अपनी बात कहने के लिए जगह जगह लोककथाओं और पौराणिक प्रसंगों का बखूबी प्रयोग उन्होंने किया है। भाषा परिष्कृत और आध्यात्मिक और वैचारिक पहलुओं को उजागर करने में समर्थ है। आध्यात्मिकता की व्याख्या करते हुए उन्होंने एक जगह कहा है-'साधारण आदमी के लिए स्वयं से और मेरे-तेरे की ममता से ऊपर उठकर नाम, यश और अर्थ लाभ की कामना किये बिना दूसरों के लिए कोई अच्छा काम करना क्या अध्यात्म नहीं है?' (पृष्ठ 97) शिक्षा की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा है-'शिक्षा का सबसे बड़ा लाभ यह है कि शिक्षा आदमी के व्यक्तित्व को विस्तार देती है और वह जीवन की ओछी क्षुद्रताओं से ऊपर उठकर स्वयं का और दूसरों का विकास करना चाहता है।' (पृष्ठ 87) यह उपन्यास वृहत्तर अर्थों में समय सापेक्ष नैतिकताओं का सृजन है। जो लोग यह मानकर चलते हैं कि यह समय घोर अनैतिकताओं का है और हर मूल्य टूट कर बिखर रहे हैं, उन्हें यह जरूर पढऩा चाहिए। क्योंकि इस उपन्यास में यह अहसास बराबर बना रहता है कि हर नयी पीढ़ी अपने समय के साथ कुछ पुरानी पड़ गयी नैतिकताओं से असहमत होती है तथा कई बार उन्हें सीधे-सीधे खारिज कर देती और कई बार उनके साथ मजबूरन समझौता कर उन्हें केवल ढोती है। उसे लगता है कि कुछ मूल्य और नैतिकताएं पुरानी पीढ़ी ने जबरन उस पर थोपे हैं। लावण्यदेवी परवर्ती काल में नैतिकताओं व जीवन मूल्यों को समय की कसौटी पर कसती है और उनमें आवश्यतानुसार बदलाव और नयेपन को अपनाने को तत्पर हो जाती है। इससे कई पीढिय़ों के बीच एक सेतु बनता है जिसकी आज आवश्यकता है। यदि पुरानी पीढ़ी अपनी ही धारणाओं को अंतिम मानकर उसी पर अड़ी रहती है तो वह नयी पीढ़ी के लिए बोझ बन जाती है। लेखिका ने बड़ी खूबी के साथ आज के उन मूल्यों को तलाश किया है जो नयी पीढ़ी के लिए लगभग अप्रासंगिक हो चले हैं, उसमें बदलाव की आवश्यकता को सहजता से स्वीकार किया है। यदि समाज नये मूल्यों को भी स्वीकारने को तैयार हो तो वह अनैतिक समय में जीने की कुंठा से मुक्त हो सकता है। दरअसल नैतिकताएं समय सापेक्ष होती हैं और नयी चुनौतियों के अनुसार यदि उनमें बदलाव होता रहे तो उसकी स्वीकार्यता भी बढ़ेगी और समाज का जो विखंडित रूप हमें दिखायी दे रहा है उस पर से धुंध छंट जायेगी। पुराने मूल्यों की कसौटी पर यह जो पतित लगता समय है उसे नये मूल्यों के आलोक में देखने पर समाज का कुछ स्वस्थ चेहरा भी नजर आयेगा। यह ठीक है कोई भी साहित्य अपने समय की आलोचना के आधार पर श्रेष्ठता का दावा करता है किन्तु वह साहित्य उससे कमतर कतई नहीं माना जाना चाहिए जो समय की आलोचना के नये मानदंडों का सृजन करे। कुसुम खेमानी की यह कृति जोखिम उठाकर भी यह करती है, जिसके लिए इसे अलग से याद किया जाना चाहिए। यह उपन्यास जितना अध्यात्म सम्बंधी प्रश्नों से जूझता है उतना ही सामाजिक ताने-बाने की खामियों-खूबियों को लेकर भी चिन्तित है। यहां अध्यात्म का ताल्लुक परलोक से नहीं बल्कि व्यक्तित्व के आंतरिक विकास और आत्म-निरीक्षण से है।
लावण्यदेवी कोलकाता के सोनागाछी इलाके से लेकर सुदूर गांव व पहाड़ों के जीवन की तमाम समस्याओं को हल करने के लिए जगह जगह स्वयंसेवी संस्थाएं बनाकर उसमें समर्पित स्वयंसेवकों को मुस्तैद करती चलती है। उन्हें सामाजिक कार्यों के लिए पैसे की कोई कमी नहीं होती। हमखयाल लोग उनके प्रति समर्पित होते रहते हैं। उनके व्यक्तित्व के जादुई प्रभाव के कारण कई युवा अपना जीवन उनके महान उद्देश्यों के लिए समर्पित करने को तैयार हो जाते हैं। ये युवा तमाम आधुनिक संसाधनों से लैस हैं और अंतर्राष्ट्रीय स्तर उनकी पहुंच हैं जहां से वे तमाम जनहितकारी योजनाओं का लाभ लोगों तक पहुंचाने की सीढ़ी तैयार करते हैं। मोहम्मद यूनुस की माइक्रो बैंकिंग के महत्व को यहां स्वीकार किया गया है जिसने बांग्लादेश जैसे गरीब मुल्क में महिलाओं को केंद्र में रखकर छोटे ऋण देने की पहल की गयी।
 गांधीवादी तरीकों से उन्हें गुरेज नहीं है ना ही सुंदरलाल बहुगुणा के सामाजिक उत्थान के काम-काज के तौर तरीकों से। फिर भी यह काम इन दिनों समाजसेवा में जुटे उन सामाजिक कार्यकर्ताओं से भिन्न है, जो सेवा में दिलचस्पी कम रखते हैं और उनका एकमात्र काम भ्रष्टाचार को उजागर करना है। वे अव्यवस्था के खिलाफ तो मुखर तो हैं पर इसे ही अपने काम की इतिश्री मान बैठे हैं। उनकी राजनीतिक और व्यावसायिक महत्वाकांक्षाएं समय-समय पर उजागर होती रहती हैं। शुक्र है कि आज के सोशलाइटों की तरह लावण्यदेवी राजनीति में नहीं जाती बल्कि क्रमश: जीवन के उस शिखर पर पहुंचती है जहां जीवन की तमाम उत्कंठाएं तिरोहित होती जाती हैं। वह कहती है-'तुम लोग अभी ज्ञानमार्गी हो इसलिए विवेकसम्मत तर्क प्रस्तुत करोगे पर मैं अब भक्तिमार्ग की पथिक बन गयी हूं। जिसमें सारे तर्क-वितर्क से ऊपर केवल पूर्ण श्रद्धा और पूर्ण समर्पण होता है। वहां एक ही सत्ता राज्य करती है वह है-प्रेम।' (पृष्ठ 121) प्रारंभिक जीवन में वैभवपूर्ण जीवन जीते हुए और उच्चशिक्षा ग्रहण करने के बाद क्रमश: सामाजिक जीवन और फिर वैराग्य की ओर उन्मुख लावण्यदेवी की गाथा भारतीय मानस की एक ऐसी गाथा है जिसे एक श्रेष्ठ व सार्थक जीवन का मॉडल कहा जा सकता है। इसमें कहीं भी त्याग अतिशयोक्ति नहीं लगता न ही आदर्श ओढ़े हुए। एक महिला के बेहतर जीवन का क्रमिक विकास इसमें है और यह उपन्यास भी क्रमश: नयी ऊंचाइयों को छूने में समर्थ हुआ है। लावण्यदेवी अपने जीवन काल में ही लोगों की प्रेरणा का केंद्र नहीं बनी रही बल्कि उनकी मृत्यु के बाद वे अपने पीछे अपने आदर्शों पर चलने वाले असंख्य लोगों को छोड़ जाती है। वह पारिवारिक व सांसारिक सुख सुविधाओं से ऊपर उठकर समाजसेवा व अध्यात्म के पथ पर चलकर एक अलौकिकता अर्जित करती है। उपन्यास के कथानक का यह लगभग अप्रत्याशित मोड़ है जिसमें एक ठोस लगता चरित्र अपनी मृत्यु के बाद कतिपय अलौकिक घटनाओं के साथ अपनी रहस्यमय उपस्थिति के साथ मिथ में बदल जाता है।

Friday 26 April 2013

अभिज्ञात की कविताएं


दोस्तो,
आकाशवाणी, कोलकाता की कवि गोष्ठी में आज दिनांक26 अप्रैल 2013 को काव्य पाठ में आनंद आया। संचालन कर रहे थे वरिष्ठ पुलिस अधिकारी, कवि, गायक व मेघदूतम का अंग्रेज़ी व हिन्दी में काव्यानुवाद करने वाले श्री मृत्युंजय कुमार सिंह। मैंने जो कविताएं पढ़ीं उसे आपने यदि न सुनी हों तो पढ़कर आनंद लें और अपनी प्रतिक्रिया से भी वाकिफ करायें....
  • अगली सदी तक हम
स्पंदन बचा है अभी
कहीं, किन्हीं लुके-छुपे सम्बंधों में

अन्न बचा है
अनायास भी मिल जाती हैं दावतें

ऋण है बचा कि
बादलों को देखा नहीं तैरते-जी भर
बरस चुके कई-कई बार

क्षमा है कि बेटियां
चुरा ले जाती हैं बाप की जवानी
उनकी राजी-खुशी

जोश है बचा
कि रीढ़ सूर्य के सात-सात घोड़ों की उर्जा से
खींच रही है गृहस्थी

कहीं एक कोने में बचे हैं दुख
जो तकियों से पहले
लग जाते हैं सिरहाने
और नींद की अंधेरी घाटियों में
हांकते रहते हैं स्वप्नों की रेवड़

पृथ्वी पर इन सबके चलते
बची है होने को अभी दुर्घटना

प्रलय को न्योतते हुए
नहीं लजायेंगे अगली सदी तक हम।

  • जड़ों का वक्तव्य अगर लो
नंगी
ठेठ
ठोस
ज़मीन से जिनके प्राथमिक रिश्ते हैं
अचरज की उनके मन
जेठ की सिवान से अधिक दरके-दरके हैं

यह एक और बड़ा सच है
कि ज़मीन के जो ऊपर है
वह ज़मीन के बाहर नहीं है
बल्कि वही सचमुच ज़मीन में है
जड़ों का वक्तव्य अगर लो
भीतर होना ही
बाहर होने की एकमात्र विश्वस्त शर्त है
और शर्त का माने है दोस्तो
जोखिम!
हर शर्त जोख़िम से शुरू होकर
जुए तक पहुंचती है
और जुआ
बैल नहीं आदमी के कंधे पर
अक्सर होता है
प्रायः हर घड़ी

आदमी अपने कंधे पर
जुआ नधाए हुए
आदमी लगता है
एकदम आदमी
ज़मीन का वारिस
ज़मीन का हक़दार
ज़मीन के अंदर
अंदर का हिस्सेदार
इसलिए, ज़मीन के ऊपर की हिस्सेदारी
ज़मीन के अंदर की हिस्सेदारी से
कत्तई अलग नहीं है

कोई आये और गंगा को नील कह दे
मैं अपने हिमालय को
चीन की दीवार से बदलने को तैयार हूं

मैं अपने हिस्से के शब्दकोषों से
मातृभूमि
खारि़ज़ करने की कोशिश में हूं।

  • हक़ पर साझा
इस लम्बे शहर के पिछवाड़े
एक नाटा सा कमरा है मेरा

कमरा
जिसमें जाड़े के दिनों में
आसानी से महसूस कर सकते हैं आप
स्टोव की गरमाहट अपने रोओं पर

फिलहाल जबकि जाड़ा नहीं है
पूरा कमरा एक मुकम्मल तवा है
जिसे स्टोव गरमा रहा है धीरे-धीरे

इस शहर और इस कमरे में रहते-रहते
मैं इसका कायल होता जा रहा हूं
कि दुनिया की तमाम आक्सीजन पर
इस स्टोव का उतना ही हक़ है
जितना मेरे फेफड़ों का।

  • दूर नहीं है हिमांक
बड़ी तेज़ी से दुनिया
व्याकरण से बाहर हो रही है
दुनिया अपनी कोख में समा जायेगी
व्याकरण विहीन होकर
जबकि सब कुछ जल रहा है
यह जम रही
जम कर क्या रह जायेगी दुनिया?

इसका पिघलना
किस अक्षांश पर होगा
इसी फ़िक्र में
जम जाते हैं लोग

जबकि उनके पास पिघलने की एकमात्र चिन्ता होती है
वे ख़ुद जमने की ओर तेज़ी से अग्रसर होते हैं
बिना समझे कि
जमने और पिघलने के बीच
एक संतुलन का आस्वाद
उसकी आहट
उसे राहत दे सकती है, अगर वे सुनें
अगर यह हो पाये
अगर यह हो पाये तो दुनिया
एक साफ़ धुली हुई काली-कत्थई स्लेट तक हो सकती है
जिस पर आदमी
गुणनफल निकालने में व्यस्त हो सकता है
इसके बावज़ूद बचा रह सकता है
कुछ न कुछ शेष
शेष नहीं तो कुछ चाक
चाक के साबूत टुकड़े

स्लेट के लिए चाक का होना
दुनिया को जलकर जमने से बचाना है
व्याकरण के बाहर जाती हुई दुनिया के लिए
एक व्याकरण
जो हमारी धमनियों में है
हो सके तो मित्रो, उसे ढूंढो
और इस निरंतर जमती हुई दुनिया को
आग के बचाओ

आंधी आने से पहले
बुत जानी चाहिए
हर बोरसी की आग
अगर दो पत्थर कहीं पड़े हैं
तो आग को लेकर चिन्तित मत होओ
उसे बेझिझक बुता दो
पैदा हो सकती है ज़रूरत भर आग

फिलहाल
आग अगर कहीं शब्द है
तो उसके माने बदल दो
आखि़र दुनियाल को चाहिए ही चाहिए
एक व्याकरण
और व्याकरण को चाहिए
सही शब्द नहीं
सही नीयत
शब्द के बाहर भी हो सकते हैं-व्याकरण
बहुत दूर नहीं है हिमांक
ज़रा, जल्दी करो।

  • संवाद के लिए
यह समझकर
कि लगातार बोलना
अंदर चुप होते जाने की आहट है
मैं सहसा चुप हो जाना चाहता हूं

चुप हो जाना चाहता हूं
भीतर व्यापते सन्नाटे के विरुद्ध

मैं उलीच देना चाहता हूं
मने के भीतर का रत्ती-रत्ती सन्नाटा-बाहर

अंदर के संवाद को बचाये रखने के लिए
चुप होना पलायन नहीं है
जैसा कि है का अंदेसा होता है
अक्सर बोलते हुए लोगों को

मैं संवद को और तहों में
धमनियों के तहखाने तक ले जाना चाहता हूं

मैं अंदर के संवाद को
इशारे की शक्ल देना चाहता हूं

मैं इशारे को सही दिशा का संवाद चाहता हूं
चाहता हूं एकदम ठीक दिशा की ओर अंगुली उठाना
बस एक बार

अगर नहीं उठा पाऊं अंगुली
तो भी चाहता हूं
चाहता रहूं अंगुली उठाना

मैं एक सही इशारा होने की
कोशिश होना चाहता हूं

सचमुच मैं
चुप चुप चुप होना चाहता हूं।

  • वंशावली के लिए
मैंने आश्चर्य से देखा
पूरी पृथ्वी आश्चर्य से रिक्त हो चुकी है

कहीं भी, कुछ भी नहीं घटता आश्चर्य
घटना, आश्चर्य नहीं

इस भोथड़ी पृथ्वी का आश्चर्य रहित होना
और फिर भी उसका होना
आश्चर्य हो तो हो

पृथ्वी आठवें आश्चर्य की प्रतीक्षा में
चूक गयी है

इस पृथ्वी पर बोना पड़ेगा
नये सिरे से आश्चर्य
जैसे बोआ जाता है गन्ना
दूसरी फसल के बाद
नये सिरे से

कैसा हो
आश्चर्य बदल जाये सहसा
जौ के तैयार बेंगे में
कहीं भी छींट दो और उग आये
रातोंरात आश्चर्य
खेत का खेत।
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