Saturday 10 March 2012

दोहरी भूमिकाओं से हुआ है मेरे व्यक्तित्व का विकास-मृत्युंजय कुमार सिंह


पश्चिम बंगाल के पुलिस महानिरीक्षक मृत्युंजय कुमार सिंह साहित्य और संस्कृति की दुनिया में एक जाने-पहचाने नाम हैं। गंभीर प्रशासनिक कार्यों के साथ-साथ कविता, गायन अनुवाद के क्षेत्र में उनके योगदान से जुड़ा उनका बहुआयामी व्यक्तित्व लोगों को प्रेरित और विस्मित करता है। प्रस्तुत है उनसे डॉ.अभिज्ञात से की गयी लम्बी बातचीत के अंश :

प्रश्न : आप पुलिस प्रशासनिकसेवा जैसे उलझन भरे और तनावपूर्ण दायित्व तथा साहित्य-संस्कृति जैसे कोमल विषय के बीच तालमेल कैसे बिठाते हैं? क्या दोनों के बीच कोई अंतर्विरोध नहीं महसूस होता?
उत्तर : नहीं। उल्टे मैं पुलिस सेवा से जुड़ी अपनी प्रशासनिक जिम्मेदारियों को और गंभीरता से ले पाता हूं। मेरे लिए किसी समस्या का निदान सिर्फ सरकारी ड्यूटी नहीं रह जाता, मैं उससे व्यक्तिगत तौर पर भी अपने को जुड़ा हुआ पाता हूं और संतोषजनक निदान की तलाश करता हूं। मैं अपने कामकाज में उस साहित्यिक संवेदना को छोड़ नहीं पाता, जो मेरे स्वभाव में रची-बसी है। उसका उल्टा भी सच है कि मैं यदि प्रशासनिक कार्यों से सीधे तौर पर करीब से जुड़ा न होता तो स्थितियों को उस तरह से देखने का अवसर नहीं मिलता, जैसा मैं देख और समझ पाता हूं। इससे मेरे अनुभव व संवेदन जगत का विस्तार हुआ है। कई बार ऐसे हालात सामने आये जिसने मुझे लिखने को प्रेरित किया। मेरी कई रचनाएं प्रशासनिक जिम्मेदारियों के निर्वाह के दौरान प्राप्त अनुभवों पर आधारित हैं या उनसे प्रेरित हैं। इस प्रकार मेरे व्यक्तित्व के दोनों पहलू मुझे एक दूसरे के पूरक लगते हैं और एक दूसरे को खुराक पहुंचाते रहते हैं। 12 देशों के बोरोबुदुर सम्मेलन में मैंने भारत का प्रतिनिधित्व किया था। उस आयोजन में मैंने कविता पढ़ी थी- 'बुद्ध हम तुम्हें बेचना चाहते हैं..' जो बेहद पसंद की गयी और इस प्रकार मेरी रचनात्मकता ने मुझे मेरे प्रशासनिक दायित्व के निर्वाह में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। जब मैं आरपीओ था, मेरे समक्ष एक तलाक का मुद्दा आया था। पति-पत्नी के बीच एक बच्चा था- कौस्तुभ। उस बच्चे के भविष्य को लेकर मैं चिंतित हो उठा था। मैंने कौस्तुभ पर कविता भी लिखी थी।
प्रश्न : इन दिनों कालिदास के 'मेघदूत' के आपके काव्यानुवाद की खासी चर्चा है। इसमें आपने किन बातों पर विशेष तौर पर ध्यान दिया?
उत्तर : मूल कृति में कालिदास की भाव-भव्यता और काव्य-सौंदर्य को किस प्रकार बचाये रख कर अनुवाद हो इस पर मैंने विशेष ध्यान दिया। मैंने इस बात को महसूस किया कि छंदों का गद्य में अनुवाद प्रभावी नहीं होगा, इसलिए मैंने उपयुक्त छंद की रचना की। लय के बिना कालिदास के भावों के बिखरे मोतियों के खो जाने की आशंका मुझे थी।
प्रश्न : अनुवाद को आपने प्रासंगिक किस तरह बनाया है और अपनी तरफ से उसमें क्या दिया है?
उत्तर : इस रचना को गुनते समय मुझे यह महसूस हुआ कि इसमें यक्षिणी के विरह पक्ष को उद्घाटित किया गया है, जबकि यक्ष की विरह-वेदना काव्य में अंत:सलिला की तरह बहती रहती है। मैंने इस कृति में यक्ष के विरह-बिंदुओं की खोज की है। अपनी ओर से मैंने मूल छंदों की तरह ही यक्ष के विरह को महत्व देने वाले छंदों को जोड़ा है। यक्ष का परिचय प्रथम पुरुष के रूप में दिया है। मुझे यह आवश्यक लगा था कि मैं कृति के नायक का परिचय पहले दे दूं ताकि मूल कथ्य से पाठक जुडऩे में सहज हो सके, जैसे नाटक के प्रारंभ में पात्र परिचय दिया जाता है। यह मामला कुछ उसी तरह का है। इसके अलावा मैंने पर्यावरण से जुड़े कई प्रश्नों को भी पूरी शिद्दत से इसमें उठाया है।
प्रश्न : कालिदास की कृति का अनुवाद करने की प्रेरणा कहां से मिली?
उत्तर : मेरे संगीतकार मित्र देवज्योति मिश्र ने मुझसे एक फिल्म के लिए मेघ पर छंद लिखने को कहा। वे चाहते थे कि मैं कालिदास के 'मेघदूत' जैसा कुछ लिखूं। इस संदर्भ में मैंने डॉ. उदयभानु सिंह से संपर्क किया। वे मेरी पत्नी के दादाजी तथा संस्कृत के उद्भट विद्वान थे, जो अब नहीं रहे। मेघदूत को समझने के लिए मैंने उनके साथ पढ़ा। मैंने उनसे गुजारिश की कि वे संस्कृत के सामासिक शब्दों को तोड़ दें ताकि मैं उसकी तहों में छिपे अर्थों की भी खोज कर सकूं। मैंने उन्हें कृति पर कोई टिप्पणी करने से मना कर दिया था ताकि उनकी टिप्पणियों और नजरिये का मुझ पर प्रभाव न पड़े और मैं उन अर्थों को स्वत: प्राप्त कर सकूं। इस प्रकार मेघदूत ने मुझे अपने आकर्षण में पूरी तरह से बांध लिया और अनुवाद के जरिये उसके पुनर्सृजन की इच्छा मुझमें जगी। मेघदूत के अनुवाद का कार्य अब पूरा हो चुका है। मैंने हिन्दी और अंग्रेजी, दोनों भाषाओं में यह कार्य किया है। हिन्दी रचना की भूमिका संस्कृत के साधक तथा ज्ञानपीठ सम्मान, पद्मश्री व पद्मभूषण से नवाजे गये डॉ. सत्यव्रत शास्त्री ने लिखी है। अंग्रेजी अनुवाद को ट्रेफर्ड पब्लिकेशंस, यूएसए प्रकाशित कर रहा है। उसके 40 छंदों का अनुवाद इंडोनेशियाई भाषा में आयु उतामी ने किया तथा उन्होंने अक्टूबर 2011 में हुए सालीहारा लिटरेरी फेस्टिवल में उसका पाठ भी किया था।
प्रश्न : जब आप अंग्रेजी हिन्दी दोनों भाषाएं समान रूप से जानते हैं तो फिर अंग्रेजी में क्यों नहीं लिखते? बतौर लेखक अंग्रेजी वालों में स्टारडम है। पैसा और शोहरत दोनों अधिक है।
उत्तर : स्वभावत: मैं अपने को हिन्दी के करीब पाता हूं। मैं जब हिन्दी में लिखने बैठता हूं तो भाव अपने आप शब्द लेकर आते हैं, जबकि अंग्रेजी में मैं अपनी बातों को शब्द पहनाता हूं। इस तरह जब हिन्दी ही मेरी स्वाभाविक रचनात्मक भाषा है तो फिर उसी में क्यों न लिखूं?
प्रश्न : भोजपुरी में भी तो आप लिखते हैं?
उत्तर : भोजपुरी मेरी बोली है जो मेरे उन भावों को भी व्यक्त करती है जिसका किसी और भाषा में अनुवाद करने की मुझे आवश्यकता महसूस नहीं हुई। मुझे भोजपुरी से प्रेम है और वह मेरी निजता की भाषा है। मुझे किसी को प्रदर्शित करने की आवश्यकता नहीं हुई कि मैं भोजपुरी बोलता हूं और अपनी गीतात्मकता को उसमें व्यक्त करता हूं। मैंने भोजपुरी में गीत लिखेे हैं और भोजपुरी गीत गाता भी हूं।
प्रश्न : इन दिनों क्या रच रहे हैं?
उत्तर : द्रोपदी पर लिखना शुरू किया है। यह एक खण्ड-काव्य होगा। इसके 15-20 छंद अब तक लिख चुका हूं। मैं द्रोपदी को आज की नारी की चुनौतियों के साथ जोड़कर देखता हूं और प्रयास कर रहा हूं कि मेरी कृति की द्रोपदी आज की नारी शक्ति का प्रतीक बने। मैंने द्रोपदी को उसके पौराणिक चरित्र से फ्लैश बैक में उठाया है। द्रोपदी के उस रूप को आदर्श के रूप में ग्रहण किया है जब उसकी मृत्यु के दिन करीब आते हैं और वह होमाग्नि में समर्पित होने जाती है। वहीं मैं उसके विश्वरूप को देखता हूं। मैंने कथा को वहीं से शुरू किया है और उसके आलोक में उसके पूर्ववर्ती रूपों को शब्द देना शुरू किया है।
प्रश्न : क्या महाभारत के प्रसंगों पर पहले भी कोई काम किया है?
उत्तर : हां, जब मैं इंडोनेशिया में सेवारत था, महाभारत के चरित्र शिखंडी पर संगीत-नाटक या डांस बैले लिखा था, जिसे नाम दिया था 'शिखंडिनी'। उसमें मेरे साथ दिदिक निनी थोवोक ने काम किया था। वे जावा नृत्य के शिरोमणि समझे जाते हैं, जो ट्रांसजेंडर हैं। उसमें जावनीज नृत्यकारों, कत्थक व छऊ डांसर्स ने मिलकर काम किया था। यह एक घंटे का कार्यक्रम था। इसमें मैंने शिखंडी के प्रारब्ध और नियति के अंतद्र्वंद्व को रेखांकित किया है। मैंने यह भी दिखाया है कि प्राकृतिक नियमों की उपेक्षा करने के कारण कैसे भीष्म जैसा शक्तिशाली चरित्र मानवीय दुर्बलता से उबर नहीं पाता। भारत-इंडोनेशिया के कूटनीतिक संबंधों की 60 वीं वर्षगांठ पर जो ऐेतिहासिक समारोह मनाया गया, उसके उद्घाटन कार्यक्रम का यह प्रमुख हिस्सा था। यहां यह उल्लेखनीय है कि शिखंडी को लेकर इंडोनेशिया और भारत की पौराणिक परंपरा एक ही है। वहां उन्हें श्रीकांडी कहा जाता है। वहां श्रीकांडी की पूजा होती है। शिखंडी ने अर्जुन की पत्नी के रूप में भी अपनी भूमिका निभाई थी और भीष्म पर विजय पाने में अर्जुन की मदद की थी। इंडोनेशिया में मेरी मित्र इबू इला हैं। इबू इला ने चित्रा बनर्जी दिवाकुरनी की पुस्तक 'पैलेस ऑफ इल्यूजन' का अनुवाद किया है। इस उपन्यास को पढऩे और इबू इला के साथ द्रोपदी के चरित्र और व्यक्तित्व पर चर्चा के दौरान यह प्रेरणा और भी बलवती हो उठी।
प्रश्न : आपने अपनी रचनाओं या अनुवाद में जो भी प्रसंग उठाये हैं वे हिन्दू पौराणिक चरित्रों से जुड़े हैं। क्या यह माना जाये कि आप हिंदुत्व के मुद्दों को तरजीह देते हैं?
उत्तर : नहीं। हिंदुत्व मेरा एजेंडा नहीं है। धर्म विशेष की बहुलता वाले संदर्भों का मतलब यह नहीं कि मैं उसे तरजीह देता हूं। यह मेरी सामाजिक पृष्ठभूमि की वजह से स्वाभाविक रूप से आया है। किसी भी रचनाकार के ज्ञान व संवेदना का संबंध अनिवार्यत: उसकी पृष्ठभूमि से होता है। मैंने फिल्म 'चतुरंग' के लिए सूफी गीत लिखे हैं। सूफी गीत या काव्य इस्लामिक परंपरा की रचनाएं हैं, जिनका सरोकार मेरे पालन-पोषण से उतना नहीं रहा जितना कि हिन्दू परंपराओं का। फिर भी अपने परिवेश और जगत में जीते हुए इन परंपराओं के बारे में जो मैंने जाना, वे सब मेरी रचनाओं में परिलक्षित होते हैं। चतुरंग फिल्म के दो सूफी गीत (जिन्हें देवज्योति मिश्र के संगीत निर्देशन में शफकत अमानत अली ने गाये हैं ) मेरे इसी पक्ष का उदाहरण हैं। मेरे प्रथम-काव्य संग्रह 'किरचें' में भी कुछ गजलें हैं, जिनमें उर्दू के ऐसे शब्द और बिंब प्रयुक्त हुए हैं, जो साधारणतया हिंदी लेखकों से अपेक्षित नहीं होते।

आदर्श युवक के सम्मोहक प्रेम के सूत्र में बंधल सामाजिक ताना बना


हरेन्द्र कुमार पाण्डेय का भोजपुरी उपन्यास जुगेसर

जुगेसर के लोकार्पण के अवसर पर बाएं से हरेन्द्र कुमार पाण्डेय, डॉ.केदारनाथ सिंह, महाश्वेता देवी, डॉ.सुब्रत लाहिड़ी एवं हरिराम पाण्डेय

प्रस्तावना

-डॉ.अभिज्ञात
'जुगेसर' उपन्यास एक अइसन व्यापक फलक वाला आधुनिक उपन्यास हऽ जवना में गांव अउर शहर दूनों के सामाजिक परिस्थिति अउर चुनौती के वस्तुपरक ढंग से बहुत व्यापक अर्थ में चित्रण बा। कथानक के पात्र खाली व्यक्ति हउअन बल्कि ऊ मौजूदा समाज के एक अइसन व्यक्ति बनकर आईल बाडऩ जवना में उनका निजीपन के अतिक्रमण भइल बा आ ऊ समाज के लाखोंलाख लोगन के प्रतिनिधित्व करे में समर्थ बाडऩ। उपन्यास के नायक जुगेसर कउनो साधारण युवक ना हउअन बल्कि ऊ एगो अइसन जोशीला, आदर्शवादी अऊर निष्कपट व्यक्ति हउअन जवन समाज में व्याप्त तमाम समस्या से जूझऽता अउर अपना ढंग से प्रतिक्रिया देऽता और एही समाज में अपने जीये के एगो अलग रास्ता बनावऽता। ई रास्ता संघर्ष के नइखे ऊ सहअस्तित्व के सिद्धांत पर चलऽ ता। दोसरा के बदले के तऽ बहुत प्रयास नइखन करऽत लेकिन अपना आचरण के शुचिता के अन्तत: बरकरार रखे में सफल बाड़े। जुगेसर के जीवन अपने आपमें एगो आदर्श युवक के जीवन बा अऊर चुपचाप एगो मॉडल देश-दुनिया के सामने रखऽ ता कि कइसे विपरीत परिस्थिति में बिना समझौता कइले भी व्यक्ति सादगी और बिना भ्रष्टाचार के कवनो रास्ता अपनवले आपन जीवन शुचिता से गुजार सक ता।
जुगेसर साइंस के मेधावी छात्र रहे अउर बिना कवनो जोड़ तोड़ के भी अपना व्यक्तित्व के खूबी के साथ भी तरक्की करत चलऽ जा ता। पद प्रतिष्ठा में जुगेसरसे सफल व्यक्ति भी ओकरा व्यक्ति के आगे नत हो जाता और पाठक के निगाह में बौना भी। सफल व्यक्ति हमेशा समाज के आदर्श व्यक्ति ना होखे ई बात पूरी शिद्दत से हरेन्द्र कुमार जी अपना ये उपन्यास में उठवले बानी तथा ईहो एगा कारण बा जवन ए उपन्यास के सार्थकता प्रदान कर ता।
उपन्यास में खाली सामाजिक ठोस यर्थाथ ही नइखे अपितु एकर प्रमुख विशेषता बा एकर रोचकता। हृदयस्पर्शी एगो प्रेम कथा के सूत्र से ई उपन्यास बंधल बा जवन जुगेसर के दाम्पत्य जीवन में भी बरकरार रहऽ ता, जवन ना सिर्फ युवा पाठकन के बल्कि प्रौढ़ पाठक के भी समान रूप से आकृष्ट करी। स्त्री के व्यक्तित्व के औदात्यपूर्ण चित्रण भी ए उपन्यास के अर्थवान बनावे में समर्थ बा। जुगेसर के प्रेमिका पूजा, जवना से बाद में जुगेसर अपना परिवार के अनिच्छा के बावजूद शहर में विवाह कर ले ता, एक अइसन आदर्श नारी के रूप में उभर के आवऽ तिया जे भारतीय समाज के पारिवारिक ताना-बाना के मजबूत कऽ के आदर्श प्रस्तुत करऽ तिया। प्रेम परिवार से अलगाव करावे ला के प्रचलित धारणा के विपरीत मौका पड़ला पर प्रेम के परिधि केतना विस्तृत हो सकेला पूजा के चरित्र ओकर उदाहरण बा। उपन्यास में प्रेम के द्वंद्व, अंतरजातीय विवाह के समस्या, शिक्षा जगत व राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार आदि समस्या के बखूबी उठावल गइल बा जवन उपन्यास के उपन्यासे नइखे रहे देत बल्कि समाज के मौजूदा स्वरूप पर सार्थक टिप्पणी बन जाता। उपन्यास में प्रेम क कएक गो दृश्य एतना जीवन्त बा कि पढ़त समय पाठक के सामने दृश्य उपस्थित करे में समर्थ बा। हरेन्द्र जी के लेखन शैली एतना सादगी पूर्ण और भाषा एतना सरल-सहज व प्रवाहपूर्ण बा कि कहीं से साहित्यिकता के आतंक नइखे होत बल्कि रोचकता, सरसता व आगे का भइल जाने के जिज्ञासा अन्त तक बनल रह ता। अउर अन्त में उपन्यास पढ़ के आंख छलाछला जाय तो एके उपन्यास दोष न मानल जाव, मन भारी हो जायी लेकिन उपन्यास के कथानक और चरित पाठक के मन में हमेशा-हमेशा खातिर आपन जगह त बनइये ली, ई पूरा विश्वास बा।

मेरे लिए जीवन आनंद की तलाश है कला साधना-होरीलाल साहू


चित्रकला को अपना पूरा जीवन समर्पित करने वाले होरीलाल साहू से डॉ.अभिज्ञात द्वारा की गयी बातचीत का एक अंश:
प्रश्न: कला के प्रति रुझान कैसे हुआ और आरंभिक कला शिक्षा के बारे में बतायें?
उत्तर: उन दिनों हमारा परिवार बनारस में रहता था। 16 साल की उम्र में मैंने सरस्वती की एक तस्वीर बनायी थी जिस पर मुझे खूब प्रशंसा मिली। हालांंकि मेरे परिवार में पेंटिंग के प्रति किसी की अभिरुचि नहीं थी फिर भी मुझे लगा कि कला जगत ही वह मुकाम है जिसमें मेरा भविष्य हो सकता है। मैं अपनी चित्रकला पर विशेष ध्यान देने लगा। 1955 में 18 साल की उम्र में मैं शिवराज श्रीवास्तव से बाकायदा पेंटिंग सीखने लगा। वे बैनर पेंटर थे। उनके अलावा मैंने बनारस के कार्टूनिस्ट कांजीलाल से भी कला की खूबियां सीखीं।
प्रश्न: यह तो अनौपचारिक कला शिक्षा थी। अकादमिक ढंग से सीखने का क्या उपक्रम किया?
उत्तर-आरम्भिक शिक्षा के बाद मैंने लखनऊ आट्र्स कॉलेज में दाखिला लिया। पांच साल के पाठ्यक्रम वाली इस शिक्षा से एक साल में ही तौबा कर ली क्योंकि वहां मुझे सीखने का वातावरण नहीं मिला। मुझे किसी ने सुझाव दिया कि मुझे कला की समझ विकसित करने के लिए मुंबई जाना चाहिए। और मैं सचमुच मुंबई चला गया। वहां जेजे स्कूल ऑफ आट्र्स के पांच वर्षीय पाठ्यक्रम में दाखिला मिल गया लेकिन वहां भी मन दो साल से अधिक नहीं रमा। मैंने कला की तालीम लेना छोड़ दिया और फिल्मिस्तान स्टूडियो में असिस्टेंट आर्ट डायरेक्टर बन गया। वहां उन दिनों आर्ट डायरेक्टर थे रामकुमार शर्मा।
प्रश्न: क्या कारण है कि आपने फिल्मी कैरियर को भी छोड़ा जबकि वहां ग्लैमर और पैसा दोनों है?
उत्तर: फिल्मिस्तान में मैं साढ़े तीन साल रहा लेकिन उन दिनों फिल्म जगत में काफी राजनीति थी जिसमें मैं अपने को फिट नहीं पा रहा था। मुझे फिल्म निर्देशक केदार शर्मा के यहां आर्ट डायरेक्टर का काम मिला। वे 'चित्रलेखा' फिल्म बना रहे थे जिसमें गुरुदत्त और वैजयंती माला ने अभिनय किया है। मुझ पर राजकुमार शर्मा लगातार दबाव दे रहे थे कि मैं चित्रलेखा में खराब काम करूं, जो मेरे लिए संभव नहीं था। आखिरकार मैंने मुंबई को अलविदा कहा और बनारस लौट गया।
प्रश्न: बनारस लौटकर आपने जो कुछ किया उसमें किन कार्यों को गिनाना चाहेंगे? और फिर बनारस से कोलकाता कैसे आना हुआ?
उत्तर: मुंबई से लौटकर मैंने अपना पेंटिंग स्टूडियो बनाया। हालांकि वह 9 माह तक ही कायम रहा। उन्हीं दिनों मेरी घनिष्ठता बीएचयू के आर्ट टीचर अमूल्य चंद्र मुखर्जी से हुई। उन्होंने मुझे समझाया कि कला का मुफीद माहौल और शिक्षा मुझे कोलकाता में ही मिल सकती है। मैं उनके प्रभाव में आ गया। मैंने कोलकाता के इंडियन आर्ट्स कॉलेज में पांच वर्षीय डिप्लोमा कोर्स में दाखिला ले लिया। और इस तरह मैं बनारस छोड़कर कोलकाता का हो गया। मेरे पिछले रिकार्ड को देखते हुए मुझे सीधे सेकेंड ईयर में एडमीशन मिला और आखिरकार मैंने पांच साल का कोर्स चार साल में करने में कामयाब हो गया। 1964 में मैं फस्र्ट क्लास फस्र्ट आया था। उसके बाद कोलकाता में ही अपना स्टूडियो बनाया। कोलकाता के ही इंडियन आर्ट कॉलेज में मुझ कला शिक्षक की नौकरी मिली। 1985 में मैं वहीं प्रिंसिपल हो गया, जहां से 1997 में रिटायर हुआ।
प्रश्न: बनारस वाले प्रसंग में आपने वहां के घाटों पर बनी पेंटिंग शंृखला का जिक्र नहीं किया?
उत्तर: हां, आपने ठीक याद दिलाया। मैंने बनारस के सभी घाटों पर 51 पेंटिंग्स की शंृखला बनायी थी। वे सभी विभिन्न माध्यमों से बनायी गयी थीं जिनमें तैल रंग, जल रंग व पेंसिल का काम शामिल है। उसी तरह का काम मैंने बंगाल पर भी किया है। टेम्पल्स ऑफ बंगाल पेंटिंग श्रृंखला में मैंने पश्चिम बंगाल के प्रमुख मंदिरों पर 40 पेंटिंग्स बनायी है।
प्रश्न: अपनी अन्य पेंटिंग्स में किसका उल्लेख करना पसंद करते हैं?
उत्तर: मैं 'कास्ट्यूम्स आफ इंडिया' का नाम लेना चाहूंगा। यह किताब डॉरिस फ्लिन ने लिखी है जिसमें मेरे इलेस्ट्रेशंस हैं। मेरी एक पेंटिंग है 'लास्ट मोंमेंट्स ऑफ जहांगीर' जो 1966 में बनायी गयी ऑयल पेंटिंग है। वह अब किसी के एक निजी कलेक्शन का हिस्सा है। मेरी कुछ पेंटिंग्स महाजाति सदन, शिक्षायतन आदि में लगी हैं तो कई विभिन्न कंपनियों के कलेक्शन में हैं। इंदिरा गांधी ने भी मेरी एक पेंटिंग मंगवाई थी।
प्रश्न: अपनी कला प्रदर्शनियों कला से जुड़े सम्मान के बारे में बतायें।
उत्तर: एकेडमी ऑफ फाइन आट्र्स, कोलकाता में 9, बीएचयू, बनारस में एक तथा भारतीय कला केन्द्र में मेरी पेंटिग्स की 2 एकल प्रदर्शनियां लगीं। उल्लेखनीय सम्मान है बनारस में मिला शिल्पीश्री सम्मान।
प्रश्न: आप अपने को कला गुरु मानते हैं या कलाकार? कला से आपने क्या पाया?
उत्तर: मेरे लिए दोनों एक है। कला की साधना और कला के हुनर को दूसरे में बांटना दोनों ही मुझे आनंदित करते हैं। कला की साधना हमें अकेला करती है तो तो कला सिखाना अपने एकांत में दूसरे को शामिल करना है। अपने जाने हुए को दूसरे से शेयर करना कम आनंददायक नहीं। सिखाना पुनर्सृजन है। मेरे कला जीवन की उपलब्धि कला के जरिये जीवन आनंद की तलाश है।
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