Friday 10 August 2012

बांग्ला सांइस फिक्शन पर बनी फिल्म में ब्रात्य बसु

साभारः सन्मार्ग,

10 अगस्त 2012


हॉलीवुड फिल्मों की तरह की साइंस फिक्शन पर बन रही पहली बांग्ला फिल्म में मुख्य भूमिका निभा रहे हैं नाट्यकार, रंगकर्मी, प्राध्यापक तथा पश्चिम बंगाल के उच्च शिक्षा मंत्री ब्रात्य बसु। प्रतिज्ञा प्राइवेट लिमिटेड के बैनर तले फिल्म 'महाकाश कांडोÓ की शूटिंग के दौरान उन्होंने कहा कि वे हिन्दी फिल्मों में भी काम करना चाहेंगे बशर्ते कोई अच्छा प्रस्ताव मिले। पिछले दिनों कोलकाता के अपर्णा लॉ हाउस में शूटिंग के बीच समय निकालकर संवाददाताओं से बातचीत में उन्होंने कहा कि हालांकि उनकी हिन्दी बहुत अच्छी नहीं है फिर भी वे स्वयं भी हिन्दी फिल्म बनाने पर भी विचार कर सकते हैं और वे रामगोपाल वर्मा जैसे फिल्म निर्देशकों की फिल्म बनाना चाहेंगे। उन्होंने स्वयं तीन बांग्ला फिल्में बनायी हैं। उन्होंने कहा कि हाल ही उन्हें मनोरंजक फिल्में पसंद हैं और हाल ही में उन्होंने 'एजेंट विनोदÓ फिल्म देखी है, जो उन्हें बेहद पसंद आयी। वे फिल्मों से अंतर्राष्ट्रीय ख्याति नहीं पाना चाहते बल्कि वे चाहते हैं कि उनकी फिल्मों से लोगों का मनोरंजन हो। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि राजनीति बहुत व्यस्तता का क्षेत्र है फिर भी वे अभिनय के लिए समय निकाल लेते हैं क्योंकि इससे उन्हें सुकून मिलता है।
अपने पसंदीदा अभिनेताओं की चर्चा करते हुए वे कहते हैं 'मैं नसीरुद्दीन शाह को अपना आदर्श मानता हूं वे मेरे भगवान हैं। बेशक उन्हें अमिताभ बच्चन, आमिर खान और सलमान खान का अभिनय पसंद है। इसी क्रम में वे पंकज कपूर का नाम भी लेते हैं। लेकिन नसीरुद्दीन की बात कुछ और हैं व अनपैरलल हैं। मैंंने शाह के कई नाटक देखें हैं और फिल्में भी देखी हैं जिनसे उन्हें बहुत कुछ सीखने को मिला है।Ó यह पूछने पर कि क्या थिएटर के दर्शक नहीं हैं वे कहते हैं-'हैं, अच्छे नाटक हैं खराब नाटक के नहीं हैं।Ó
ब्रात्य ने महाकाश काण्ड के बारे में कहा कि यह शीर्षेंदु मुखोपाध्याय की विज्ञान-कथा 'गोलमालÓ पर आधारित है। मैंने शीर्षेंदु को पढ़ा है और उनकी रचनाएं मुझे पसंद हैं। इसके पहले मैंने उनकी कहानी पर बनी 'गोसाईंबगानेर भूतÓ फिल्म देखकर उसके निर्देशक नीतीश राय से कहा कि यदि वे उनकी किसी अन्य रचना पर फिल्म बनायें तो मैं उसमें काम करना चाहूंगा। नीतीश ने मेरी 'इच्छेÓ और 'मुक्तधाराÓ फिल्में देखी थीं और उन्होंने मुझे इस फिल्म के लिए कास्ट कर लिया। इस फिल्म में मेरी भूमिका रामानुज की है जो एक रहस्यमय किरदार है। वह फिल्म में दावा करता है कि वैज्ञानिक मधुबाबू का लम्बे समय तक सहायक रहा है और वह उनके अधूरे कार्यों को पूरा करना चाहता है। मधुबाबू अपने बनाये गये यंत्र द्वारा ही अंतरिक्ष में चले गये हैं। मधुबाबू के घर वालों के लिए रामानुज एक पहेली है। यह फिल्म बच्चों के लिए है है। बंगला में साइंस फिक्शन पर बनी फिल्म का का ट्रेंड नहीं है, यह नयापन होगा। इस फिल्म में बांग्ला फिल्मों के सुपरिचित कलाकार विक्टर बनर्जी व कोनिनिका आदि काम कर रहे हैं।
सेट पर उपस्थित हिन्दी फिल्मों में आर्ट डायरेक्टर के तौर पर ख्याति अर्जित कर चुके तथा फिल्म के निर्देशक नीतीश राय ने अलग से की गयी ïिवशेष बातचीत में कहा कि मुझे गोसाईंबागानेर भूत फिल्म पर दर्शकों का अच्छा रिस्पांस मिला था। बच्चों के लिए फिल्म बनाने पर मुझे यह पता चला कि एक दर्शक दो और दर्शकों को ले आता है वह है बच्चों के अभिभावक। उन्होंने बताया कि बच्चों के लिए फिल्म बनाते समय मुझे जिस बात पर विशेष ध्यान देना पड़ा वह है भाषा। बच्चों के लिए बनी फिल्म में ऐसी भाषा का इस्तेमाल होना चाहिए जो सीधी व सरल हो। राय ने कहा कि बच्चों देश में बच्चों के लिए बहुत कम फिल्में बनती हैं, जबकि बच्चों के रूप में दर्शकों का एक बहुत बड़ा तबका है। उन्होंने कहा कि कोलकाता में एक ऐसा सिनेमाहाल होना चाहिए जिसमें केवल बच्चों की फिल्में ही हर समय लगें तथा उसके आसपास का वातावरण भी बच्चों की रुचि के अनुकूल हो ताकि बच्चा अपने अभिभावकों या दोस्तों की टीम के साथ पहुंचे तो वह फिल्म और पूरे वातावरण का लुत्फ उठा सके।
यह पूछने पर कि बांग्ला ही नहीं हिन्दी में भी बच्चों की फिल्मों की बेहद कमी है वह हिन्दी में फिल्म क्यों नहीं बना रहे। उन्होंने बताया कि हिन्दी बनाने पर बजट बहुत बढ़ जाता है। बांग्ला कलाकारों की तुलना में हिन्दी के कलाकारों का रेट अधिक है। दूसरे टेक्नीशियंस के तौर पर रेट का संकट है। टेक्नीशीयंस की यूनियन के नियम के चलते किसी भी प्रादेशिक भाषा की तुलना में हिन्दी का रेट बहुत बढ़ जाता है। रीजनल भाषाओं के लिए रेट कम हैं जबकि हिन्दी के लिए बहुत अधिक हैं। अगर हम बांग्ला के इन्हीं कलाकारों को भी लेकर हिन्दी में यह फिल्म बनायेंगे तब भी टेक्नीशियंस के कारण बजट बढ़ जायेगा। राय ने कई बांग्ला फिल्मों निर्देशन किया है जिसमें प्रमुख हैं तबू मनेरेखो, जामाई नम्बर वन,। एक फिल्म जलेर संसार बनकर तैयार है पर अभी रिलीज नहीं हुई है।-डॉ.अभिज्ञात


‘कृष्‍ण प्रताप कथा सम्‍मान २०११’

आस्था के लुप्‍त होते सूत्रों की खोज करती हैं मनीषा की रचनाएं : संजीव
वर्धा, 10 अगस्‍त; युवा पीढ़ी में मनीषा कुलश्रेष्ठ वेहद संभावनाशील रचनाकार हैं। राजस्‍‍थान के ठेठ चुरू इलाके से आई लेखिका का कथा में प्रवेश करने का ठंग यानि एप्रोच एकदम अलग है। इस एप्रोच के माध्‍यम से वे अपनी रचनाओं में आस्‍था के लुप्‍‍त होते सूत्रों की तलाश करती हैं। एक लेखिका के रूप में उन्‍‍होंने लंबी दूरी तय कर ली है तथा नारी विमर्श में नए रंग जोड़े हैं। वे अपनी कहानियों में पारिवारिक हिंसा को केंद्रीयता प्रदान करती हैं। उनके पास चकित करने वाली भाषा है, काव्‍‍यात्‍‍मक भाषा है। ‘खर पतवार’ पढ़ते हुए मुझे ऐसा ही महसूस हुआ।
वरिष्‍ठ कथाकार संजीव ने मनीषा कुलश्रेष्‍ठ के रचना संसार पर बात करते हुए ये बाते कहीं। अवसर था इलाहाबाद में महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍‍ट्रीय हिंदी विश्‍‍वविद्यालय के सत्‍‍यप्रकाश मिश्र सभागार में ‘कृष्‍ण प्रताप कथा सम्‍‍मान २०११’ का आयोजन। जिसमें कथाकार संजीव बतौर विशिष्‍‍ट अतिथि उपस्थित थे। सम्‍मान समारोह के अध्‍य‍क्ष हिंदी के ख्‍‍यातनाम कथाकार शेखर जोशी ने कहा कि मनीषा अपनी कहानियों में भारतीय एवं ग्रीक मिथकों का सटीक प्रयोग करती हैं। उनकी भाषा अर्जित की हुई भाषा है उनके लेखन में परिपक्‍‍व संभावनाएं हैं।
समारोह के मुख्‍य अतिथि वरिष्‍‍ठ कथाकार एवं महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍‍ट्रीय हिंदी विश्‍‍वविद्यालय के कुलपति तथा कृष्‍ण प्रताप कथा सम्‍‍मान के संस्‍‍थापक विभूति नारायण राय ने कहा कि पहले यह ‘वर्तमान साहित्‍य’ पत्रिका द्वारा आयोजित कृष्‍‍ण प्रताप कहानी प्रतियोगिता के रूप में शुरू किया गया था। लगभग दो दशक तक यह पुरस्‍‍कार सफलता पूर्वक सम्‍‍पन्‍‍न हुआ और बहुत महत्‍वपूर्ण कथाकारों और कहानियों को पुरस्‍कृत किया है1 सन् २०१० से यह कृष्‍ण प्रताप कथा सम्‍‍मान के रूप में दिया जा रहा है। उनका कहना था कि इस सम्‍मान के माध्‍‍यम से वे कृष्‍‍ण प्रताप से अपनी मित्रता का दाय पूरा कर रहे हैं। इसका उद्देश्‍‍य है कि समकालीन कहानी के उन हस्‍ताक्षरों का सम्‍मान करना जो अनुभव, संवेदना और विचार के साथ नए यथार्थ से मुठभेड़ कर कहानी को नए आस्‍‍वाद से समृद्ध कर रहे हैं। उन्‍‍होंने उम्‍मीद जताई कि मनीषा आगे चलकर इस सम्‍‍मान का गौरव बढ़ाएंगी।
‘पुस्‍तक-वार्ता’ के संपादक एवं विशिष्‍ट अतिथि भारत भारद्वाज ने कहा कि मनीषा की कहानियों में वे साधारण लोग जगह पाते हैं जो लोक कला को जीवित रखे हैं। उनकी कहानियों की विशेषता यह है कि उनमें प्रखर राजनीतिक चेतना है और सांप्रदायिकता के विरोध की रचनात्‍‍मक ऊर्जा भी। बतौर वक्‍ता युवा आलोचक कृष्‍ण मोहन ने कृष्‍‍ण प्रताप के सत्‍‍या प्रकाशित कहानी संग्रह ‘कहानी अधूरी है’ के हवाले से उनकी कहानियों की खूबियों और आलोचनात्‍‍मक लेखों का उल्‍‍लेख करते हुए कहा कि उन्‍हें फिर से पढ़ने की जरूरत है। सम्‍‍मानित लेखिका मनीषा कुलश्रेष्‍ठ ने अपने वक्‍तव्‍य में कहा कि यह एक शहीद हुए इंसान के नाम पर दिया जाने वाला सम्‍‍मान है, जो साहित्‍य के भी एक गहरा रिश्‍ता रखते थे, इसलिए वो यह सम्‍मान पाकर खुद को गौरवान्वित महसूस कर रही हैं।
सम्‍मान समारोह का संयोजन आयोजन समिति के सदस्‍य प्रो.संतोष भदौरिया ने किया। आभार सम्‍मान समारोह के संयोजक नरेन्‍‍द्र पुण्‍डरीक ने किया तथा अतिथियों का स्वागत अनामिका प्रकाशन के विनोद कुमार शुक्‍‍ल, डॉ.पीयूष पातंजलि तथा डॉ. प्रकाश त्रिपाठी ने किया।

सम्‍मान समारोह में प्रमुख रूप से दूधनाथ सिंह, वी.रा. जगन्‍‍नाथन, नीलम शंकर, के.के. पाण्‍डेय, मीना राय, नन्‍‍दल हितैषी, हिमांशु रंजन, संतोष चतुर्वेदी, जमीर अहसन, फखरूल करीम, पूनम तिवारी, अशोक सिद्धार्थ, रेनू सिंह, यश मालवीय, रविनंदन सिंह, नरेन्‍‍द्र पुण्‍‍डरीक, श्रीप्रकाश मिश्र, अनिल भौमिक, जे.पी. मिश्र, रमेश ग्रोवर, कान्ति शर्मा, जयकृष्‍‍ण तुषार एवं शशिभूषण सिंह सहित तमाम साहित्‍य प्रेमी उपस्थित थे।

प्रस्‍‍तुति - अमित विश्‍वास

Friday 3 August 2012

बच्चों की फिल्म में काम कर रहे हैं ब्रात्य बसु

साहित्यकार शीर्षेन्दु मुखोपाध्याय के उपन्यास गोलमाल पर आधारित फिल्म महाकाश कांडो में इन दिनों पश्चिम बंगाल के उच्च शिक्षा मंत्री ब्रात्य बसु अभिनय कर रहे हैं। शूटिंग स्थल पर उनसे तथा फिल्म के निर्देशक नीतीश राय से रोचक बातचीत हुई। उस अवसर पर मैंने कुछ तस्वीरें भी ली थीं। बातचीत जल्द आपके सामने होगी, फिलहाल कुछ तस्वीरें।



शूटिंग की व्यस्तता के बीच मीडिया से बातचीत करते ब्रात्य बसु




















शूटिंग की तैयारियों के बीच फिल्म निर्देशक नीतीश राय


















फिल्म महाकाश काण्डो के सेट पर अन्य कलाकारों के साथ ब्रात्य बसु

सारी तस्वीरें-डॉ.अभिज्ञात

Friday 6 July 2012

पाँचवाँ अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ताशकंद में सम्पन्न





ताशकंद। सृजन-सम्मान, छत्तीसगढ़ और प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के संयुक्त तत्वावधान में (सृजनगाथा डॉट कॉम, निराला शिक्षण समिति, नागपुर और ओनजीसी के सहयोग से) पांचवा अन्तरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन 24 जून से 1 जूलाई तक सपलतापूर्वक संपन्न हुआ । मुख्य आयोजन उज़्बेकिस्तान की राजधानी ऐतिहासिक शहर ताशकंद के होटल पार्क तूरियान के भव्य सभागार में 26 जून, 2012 के दिन हुआ । यह उद्घाटन सत्र बुद्धिनाथ मिश्र, देहरादून के मुख्य आतिथ्य एवं प्रवासी साहित्यकार डॉ. रेशमी रामधोनी, मारीशस की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर श्री हरिसुमन बिष्ट, सचिव, हिंदी अकादमी,दिल्ली, डॉ. शभु बादल, सदस्य, साहित्य अकादमी, डॉ. पीयुष गुलेरी, पूर्व सदस्य, साहित्य अकादमी, कादम्बिनी से जुड़े रहे वरिष्ठ पत्रकार-सम्पादक डॉ. धनंजय सिंह, वागर्थ के सम्पादक व प्रतिभाशाली युवा कवि श्री एकांत श्रीवास्तव एवं निराला शिक्षण समिति, नागपुर के निदेशक डॉ. सूर्यकान्त ठाकुर, आयोजन के प्रमुख समन्यवयक डॉ. जयप्रकाश मानस विशिष्ट अतिथि के रूप में मंचस्थ थे।
मुख्य अतिथि की आसंदी से वरिष्ठ गीतकार व राजभाषा के क्षेत्र में सराहनीय कार्य करने वाले डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र ने कहा कि संस्कृति की आवश्यकता की प्रतिपूर्ति करने वाली हिंदी भाषा का विस्तार विश्व व मानव कल्याण के लिये एक अमोघ अस्त्र बन रहा है। सभी को चुनौती दे रहा है। बाज़ार की सर्वमान्य एवं सर्वाधिक भाषा के रूप में हिंदी का जादू दुनिया के सिर चढ़ कर बोल रहा है। उन्होंने कहा कि हिंदी विश्व की सिरमौर भाषा बनने की ओर अग्रसर है। यह समारोह हिन्दी की विश्व-भाषा बनने की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण कदम है। यह सिद्ध करता है कि आज हिन्दी विश्व-फलक पर सरकारी बैसाखियों के सहारे नहीं, अपने पांवों पर चलकर आगे बढ़ रही है। आज हिन्दी साहित्य केवल भारत में ही नहीं लिखा जा रहा है, बल्कि तमाम देशों में पूरी ऊर्जा से रचा जा रहा है। इस प्रकार के सम्मेलन उस विराट साहित्य को समग्र रूप में प्रस्तुत करेंगे और भारत से बाहर रहकर प्रतिकूल परिस्थितियों में सृजन करने वाले रचनाकारों का हौसला बढ़ाएंगे। उन्होंने ताशकंद में 1966 में हुए भारत-पाकिस्तान समझौता, प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का स्मरण कराते हुए आव्हान किया है हमें उजबेकों से वह उपाय भी सीखना चाहिए,जिससे यह राष्ट्र अल्प अवधि में शत-प्रतिशत भ्रष्टाचार-विहीन और अपराध-मुक्त हो सका।
अध्यक्षीय उद्बोधन में मॉरीशस में महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट, भारतीय अध्ययन शाला की प्रमुख डॉ. रेशमी रामधोनी ने कहा कि तकनीकी युग में उसी भाषा का अस्तित्व बना रहेगा जो मनुष्य की जरूरतों को पूरा करती हुई तकनीकी के साथ भी सह-अस्तित्व में रहेगी। हिंदी में अन्यान्य भाषाओं और बोलियों का महासागर बनने की असंदिग्ध क्षमता है, इसे समय भी सिद्ध करता आ रहा है।


3 रचनाकारों का सम्मान
सम्मेलन में नागपुर के युवा आलोचक और नागपुर विश्वविद्यालय, हिंदी विभाग के अध्यापक डॉ. प्रमोद शर्मा, को प्रथम निराला काव्य सम्मान प्रदान किया गया । पुरस्कार स्वरूप उन्हें 21,000 रुपये, प्रतीक चिन्ह आदि से अलंकृत किया गया । इसके अलावा संतोष श्रीवास्तव, मुम्बई को कथालेखन एवं अहफ़ाज़ रशीद, रायपुर को इलेक्ट्रानिक पत्रकारिता में उल्लेखनीय योगदान के लिये सृजनगाथा सम्मान-2012 से अलंकृत किया गया।
28 कृतियों का विमोचन
5 वें अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन में एक साथ 28 साहित्यिक कृतियों का विमोचन हुआ । ये कृतियाँ हैं - श्रीमती सुमन सारस्वत, मुंबई,कथा संग्रह–मादा, डॉ. देवमणि पांडेय, मुंबई, ग़ज़ल संग्रह-अपना तो मिले कई, श्री दिनेश पांचाल, उदयपुर-कथा संग्रह–बहुरूपिये लोग, सुमन अग्रवाल, चैन्नई–ग़ज़ल संग्रह–मुझको महसूस करके देख, रेखा अग्रवाल, चैन्नई–ग़ज़ल–यादों का सफ़र, श्री हेमचन्दर सकलानी,आगरा, यात्रा संस्मरण–विरासत की खोज, डॉ. जे. आर. सोनी, रायपुर, कविता–बस्तर की कविताएं, डॉ. सरोज गुप्ता, गुडगाँव,बाल कविता संग्रह-बाल बगिया, श्री देवकिशन राजपुरोहित, जयपुर–जीवनी–मीरा बाई और मेड़ता, श्री देवकिशन राजपुरोहित, जयपुर- राजस्थानी व्यंग्य–निवान, श्रीमती उमा बंसल,दिल्ली,कविता-कुछ सच कुछ सपने, डॉ. मुनीन्द्र सकलानी, देहरादून–निबंध संग्रह–अभिव्यक्ति, श्री सुनील जाधव,नांदेड,कहानी- मैं भी इंसान हूँ, श्री सुनील जाधव, नांदेड, कविता संग्रह–मैं बंजारा,श्री सुनील जाधव, नांदेड, नाटक–सच का एक टूकड़ा, श्री मिर्जा हासम बेग, नांदेड-दक्षिनी साहित्यकार मुल्ला वजही , श्री मिर्जा हासम बेग, नांदेड,शोध धारा, डॉ. दामोदर मोरे, पुणे, कविता संग्रह– पद्य-रश्मि व सदियों के बहते जख्म, डॉ. सुजाता चौधऱी, भागलपुर–बापू और स्त्री/महात्मा का अध्यात्म/गांधी की नैतिकता, डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी, कानपुर,काव्य – ओमाय तथा उपमन्यु परीक्षा, श्री भगवान सिंह भास्कर, सिवान, विविध-कसौटी, आईना बोल उठा, वृक्ष कोटर से, श्री शिव प्रकाश जैन, उदयपुर, जीवनी–युगपुरुष महाराणा प्रताप ।
6 वां सम्मेलन संयुक्त राज्य अमीरात में
समारोह के प्रारंभ में अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन के समन्वयक, प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के निदेशक व सृजनगाथा डॉट कॉम के संपादक डॉ. जयप्रकाश मानस ने स्वागत वक्तव्य देते हुए बताया कि अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन में इस वर्ष से एक चयनित साहित्यकार को निराला शिक्षण समिति, नागपुर की ओर से 21 हजार रुपयेवाला निराला काव्य-सम्मान शुरु किया जा रहा है जिसकी नगद राशि अगले वर्ष से 50,000 रूपये की जा रही है । उन्होंने पिछले चारों आयोजनों के बारे में विस्तार से बताते हुए कहा कि अगला यानी 6 वां अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन आगामी फरवरी 2013 में संयुक्त अरब अमीरात के दुबई, आबूधाबी, शारजाह में होगा ।


उक्त अवसर पर जयपुर की प्रख्यात कोरियोग्राफर सुश्री चित्रा जांगिड ने कत्थक नृत्य की प्रस्तुति ने सबका मन मोह लिया। 6 घंटे तक चलनेवाले मैराथनी उद्घाटन सत्र का सफलतापूर्वक संचालन प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के उपाध्यक्ष श्री अशोक सिंघई ने किया । आभार माना सृजन-सम्मान के उपाध्यक्ष एच. एस. ठाकुर ने ।
अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन का गठन
सृजन-सम्मान द्वारा आयोजित होनेवाले अंतरराष्ट्रीय आयोजन के निरंतर संचालन, समन्वय और लोकव्यापकीकरण के लिए ‘अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन’ गठन का प्रस्ताव पारित करते हुए डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र को सर्वसम्मति से प्रथम अध्यक्ष और डॉ. जयप्रकाश मानस को समन्वयक के रूप में मनोनीत किया गया । सम्मेलन के संरक्षक हैं - डॉ. गंगाप्रसाद विमल, खगेन्द्र ठाकुर, विभूति नारायण राय, विश्वरंजन, सत्यनारायण शर्मा और धनंजय सिंह ।
अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन के अन्य पदाधिकारी हैं- उपाध्यक्ष- रेशमी रामधुनी (मारीशस), एकांत श्रीवास्तव (पश्चिम बंगाल), हरिसुमन विष्ट (दिल्ली प्रदेश), मीठेश निर्मोही (राजस्थान), श्रीमती संतोष श्रीवास्तव (महाराष्ट्र), डॉ. प्रमोद कुमार शर्मा (विदर्भ), अशोक सिंघई (छत्तीसगढ़), सुमन अग्रवाल (तमिलनाडू), झारखंड (डॉ. प्रमोदिनी हांसदाक), शरद जायसवाल (मध्यप्रदेश), दिवाकर भट्ट (उत्तराखंड), पीयुष गुलेरी (हिमाचल प्रदेश), डॉ. महेश दिवाकर (उत्तरप्रदेश), डॉ. कामराज सिंधू (कुरुक्षेत्र), रंजन मल्होत्रा (हरियाणा), डॉ. भगवान सिंह भास्कर (बिहार) । मनोनीत राज्य समन्यवक हैं – लालित्य ललित (दिल्ली प्रदेश), आशा पांडेय ओझा (राजस्थान), डॉ. अभिज्ञात (पं. बंगाल), डॉ. देवमणि पांडेय (महाराष्ट्र), सुनील जाधव (विदर्भ), डॉ. सुधीर शर्मा (छत्तीसगढ़), डॉ. खिरोधर यादव (झारखंड), डॉ. सविता मोहन (उत्तराखंड), डॉ. ओमप्रकाश सिंह (उत्तरप्रदेश), दिनेश माली (उड़ीसा), डॉ. अशोक गौतम (हिमाचल प्रदेश), डॉ. जयशकंर बाबू (आंध्रप्रदेश), रवीन्द्र प्रभात (उत्तप्रदेश) आदि । विदेश से समन्यक हैं- पूर्णमा वर्मन (युएई), चांद हदियाबादी (डेनमार्क), प्राण शर्मा (ब्रिटेन), सुधा ओम धींगरा(अमेरिका), कुमुद अधिकारी (नेपाल), आभा मोंढे (जर्मनी) आदि । इस नवगठित संस्था के नेतृत्व में राज्य सरकारों, केन्द्र सरकार से ऐसे सम्मेलनों के लिए मिलनेवाले संभावित सहयोग भी प्राप्त किया जा सकेगा । इस समिति से दूर दराज तथा प्रवासी देशों में कार्य करनेवाले साहित्यिक संगठनों और इसके सदस्य साहित्यकारों को इस दिशा जोड़ने जोड़ा जायेगा । ताकि प्रतिवर्ष संबधित देश के किसी एक प्रतिष्ठित साहित्यकार या हिंदीसेवी या हिंदी की संस्था को सम्मानित किया जा सके । प्रतिवर्ष संबंधित देश के कवियों की एक सामूहिक कृति का प्रकाशन कर उनका रिकोग्नाईजेशन भारतीय भूमि से हो सके । इससे प्रवासी देशों में रचे जा रहे साहित्य के मुख्यधारा के मूल्याँकन में भी मदद मिलेगी । सम्मेलन में राजस्थान के प्रतिष्ठित साहित्यकारों की मांग पर राजस्थानी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में समादृत करने के प्रस्ताव को नैतिक समर्थन दिया गया ।
आलोचना और उत्तर औपनिवेशक समय पर विमर्श
सम्मेलन का दूसरा सत्र 'आलोचना और उत्तर औपनिवेशक समय' पर केन्द्रित रहा। सत्र में हिन्दी आलोचना और वर्तमान समय पर चर्चा करते हुए वक्ताओं ने हिन्दी आलोचना के कई महत्वपूर्ण आयामों को स्पर्श किया। सत्र की अध्यक्षता साहित्य अकादमी के सदस्य, प्रसंग के संपादक व वरिष्ठ साहित्यकार शंभु बादल जी ने की। सत्र के प्रारम्भ में मुख्य वक्ता के रूप में बोलते हुए आलोचक प्रो; प्रमोद शर्मा ने कहा कि आज की आलोचना को रचनाओं के साथ आज के उत्तर औपनिवेशक समय को भी समझना होगा। आज की रचनाएं सामाजिक जटिलताओं और बदलते समय के साथ और जटिल होती चली जा रही हैं। विशिष्ट अतिथि डॉ मुनीन्द्र सकलानी ने इस विषय पर बोलते हुए कहा कि आलोचना सिर्फ रचना को स्थापित करने या निरस्त करने के लिए नहीं होनी चाहिए बल्कि इसे पूरी ईमानदारी से साहित्य को एक दिशा देने का काम भी करना चाहिए। डॉ. प्रमोदनी हंसदा ने कहा कि आज आलोचना को उन रचनाकारों की रचनाओं पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए जो केन्द्र से दूर, किसी मठ के समर्थन के बिना साहित्यिक रचनाएं दे रहे हैं। सत्र के विशिष्ट अतिथि डॉ.धनंजय सिंह ने कहा कि आज जब लेखक और पाठक के बीच जो एक खाई बनती जा रही है। उसे अच्छी आलोचना के द्वारा ही पाटा जा सकता है। किसी भी दौर में उस समय की आलोचना को दरनिनार करके साहित्य को नहीं बचाया जा सकता। सत्राध्यक्ष शंभू बादल ने कहा कि साहित्य की दुनिया विचार की दुनिया है। इसमें सहमति-असहमति स्वाभाविक है, पर इससे वैचारिक प्रवाह बना रहता है और इसे किसी भी समय में रुकना नहीं चाहिए। उन्होंने कहा कि आलोचना का काम है जो हमारी परम्परा में श्रेष्ठ है उसे बचना और आगे की पीढ़ी के लिए उसे सहेजना। आलोचना सत्र का संचालन कहानीकार विवेक मिश्र ने किया। उन्होंने अपनी टिपण्णियों में हिन्दी आलोचना के इतिहास और उसके उत्तर औपनिवेशक समय तक के सफर को श्रोताओं के समक्ष रखा। सत्र में सम्मेलन के सभी सहभागियों के साथ। वरिष्ठ साहित्यकार बुद्धिनाथ मिश्र, वागर्थ के संपादक एकांत श्रीवास्तव, सृजनगाथा के संपादक जय प्रकाश मानस तथा हिन्दी अकादमी के सचिव हरिसुमन बिष्ट जी आदि सभागार में उपस्थित थे।
भाषा और संस्कृति एक दूसरे के रचयिता
भाषा खुद संस्कृति की इकाई है और संस्कृति का रचाव और विस्तार्य भाषा में ही होता है। भाषा का संरक्षण अपने मूल में संस्कृति का ही संरक्षण है । भाषा की समाप्ति का एक अर्थ संस्कृति की समाप्ति भी है । लुप्त प्रायः भाषाओं को बचाना एक विशिष्ट संस्कृति को बचाना है । इसी तथ्यों को केंद्र में रखते हुए अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन में विमर्श का खास सत्र रखा गया था - भाषा की संस्कृति और संस्कृति की भाषा । इस सत्र के वक्ता के रूप में भारत के विभिन्न राज्यों के विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग प्रमुखों का चयन किया गया था । सत्र की अध्यक्षता की हिंदी के डॉ. महेश दिवाकर ने और विशिष्ट अतिथि थे – रेशमी रामधोनी, दिवाकर भट्ट, डॉ. केसरीलाल वर्मा । सत्र के वक्ताओं में प्रमुख थे - डॉ, ओमप्रकाश सिंह, डॉ. कामराज सिंधू, डॉ. चंदा डिसूजा, डॉ. सुधीर शर्मा, डॉ. जंगबहादुर पांडेय डॉ. खिरोधर यादव, डॉ. गीता सिंह, प्रभाकुमारी, डॉ. महासिंह पुनिया, डॉ. मीना कौल, डॉ. मिर्जा हासम बेग, डॉ. सुनीति आचार्य, राजेश्वर आनदेव आदि ने अपने-अपने आलेखों का पाठ किया । सत्र का संचालन किया डॉ. नेशनल बुक ट्रस्ट के संपादक और युवा कवि लालित्य ललित ने ।
ताशकन्द में अंतरराष्ट्रीय कथा पाठ
कहानी सत्र में भारत के विभिन्न प्रान्तों से आए कथाकारों की बारह कहानियों का वाचन हुआ। कार्यक्रम 11 बजे आरंभ हुआ । अध्यक्ष हरिसुमन बिष्ट, डॉ. मुक्ता तथा मेजर रतन जांगिड़ थे। अतिथियों के स्वागत के पश्चात कहानी सत्र आरंभ हुआ। सर्व प्रथम उत्तराखंड के जन जीवन पर आधारित हरिसुमन बिष्ट ने अपनी कहानी ‘कौसानी मेँ जैली फिश’ सुनाई । इस बेहद मार्मिक कहानी के बाद मीठेश निर्मोही ने दिल को छू लेने वाली कहानी ‘बंधन’ सुनाई, दिनेश पांचाल ने ‘मारकणिया’, सुमन सारस्वत ने ‘तिलचट्टा’, डॉ सुजाता चौधरी ने ‘चुन्नू’, डॉ. मुक्ता ने ‘आईने के पार’, विवेक मिश्र ने ‘गुब्बारा’, डॉ मृदुला झा ने ‘जन्मदिन’, प्रत्यूष गुलेरी ने ‘भेड़’, मेजर रतन जांगिड़ ने ‘भूख’, रमेश खत्री ने चोरी तथा हेमचंद सकलानी ने ‘हल्कू’ सुनाकर श्रोताओ के दिल पर गहरा असर छोडा। तीन घंटे तक चले इस सत्र का संचालन अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन की महाराष्ट्र राज्य की उपाध्यक्षा व कथाकार संतोष श्रीवास्तव ने किया।
50 से अधिक कवियों ने किया कविता पाठ
पांचवे अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन का मुख्य आकर्षण था उसका अंतिम सत्र जिसकी अध्यक्षता की वरिष्ठ कवि डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र ने और विशिष्ट अथिति थे – वागर्थ के संपादक एकांत श्रीवास्तव तथा प्रगतिशील लेखक संघ राजस्थान के उपाध्यक्ष और वरिष्ठ कवि मीठेश निर्मोही । इस सत्र में शंभु बादल, डॉ. पीयूष गुलेरी, डॉ. ओमप्रकाश सिंह, लालित्य ललित, सुमन अग्रवाल, डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी, रंजन मल्होत्रा, उमा बंसल, मनोज कुमार मनोज, तिलकराज मलिक, वंदना दुबे, डॉ. अर्जुन सिसौदिया, मीना कौल, शरद जायसवाल, डॉ. सविता मोहन, संजीव ठाकुर, सुनील जाधव, अरविंद मिश्रा, राजश्री झा, देवी प्रसाद चौरसिया, रामकुमार वर्मा, रवीन्द्र उपाध्याय, डॉ. प्रियंका सोनी, डॉ. जे. आर. सोनी, रेखा अग्रवाल, तुलसी दास चोपड़ा, श्रीमती चोपड़ा, सरोज गुप्ता, रामकुमार वर्मा, सुषमा शुक्ला, डॉ. अमरेन्द्र नाथ चौधरी, प्रवीण गोधेजा, सेवाशंकर अग्रवाल, विमला भाटिया, आदि ने भिन्न शिल्प, छंद और सरोकारों की कवितायें सुनायीं । कई घंटो तक चले इस सत्र का संयुक्त संचालन किया शायर मुमताज और डॉ. देवमणि पांडेय ने । उक्त अवसर पर भारत के 137 साहित्यकार, लेखक, शिक्षक, पत्रकार, ब्लागर्स सहित ताशकंद शहर से बड़ी संख्या में साहित्यिक श्रोता उपस्थित थे ।
24 जून से 1 जुलाई, 2012 तक इस 7 दिवसीय आयोजन में अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन के समन्वयक डॉ. मानस, विकास मल्होत्रा, श्री एच.एस. ठाकुर, शनि चावला, मुमताज, अशोक सिंघई, रामशरण टंडन, कुमेश जैन, आदि की विशिष्ट भूमिका रही। सम्मेलन में सभी भारतीय दल के सदस्यों ने भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री स्कवायर जाकर सामूहिक रूप से उन्हें श्रद्धांजलि दी और समरकंद सहित उज्बेकिस्तान के महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक स्मरकों का अध्ययन-पर्यटन किया ।
एच. एस. ठाकुर

Sunday 20 May 2012

साहित्य का कौमी एकता अवार्ड-2012 डॉ.जगदीश्वर चतुर्वेदी को













कोलकाताः
ऑल इंडिया कौमी एकता मंच की ओर से प्रतिवर्ष दिया जाने वाला कौमी एकता अवार्ड शनिवार 26 मई की देर शाम स्थानीय कला मंदिर सभाकार में आयोजित एक भव्य समारोह में प्रदान किया गया। विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय योगदान करने वालों को यह सम्मान प्रदान किया जाता है। सन 2012 का साहित्य का चौथा कौमी एकता सम्मान हिन्दी के साहित्यकार डॉ.जगदीश्वर चतुर्वेदी को प्रदान किया गया। इसके पूर्व यह सम्मान डॉ.अभिज्ञात, मुनव्वर राना, डॉ.विजय बहादुर सिंह को प्रदान किया जा चुका है। इसके अलावा फिल्म निर्देशक गौतम घोष, सामाजिक कार्यकर्ता तिस्ता शीतलवाड़, टीवी समाचार चैनल आज तक के पत्रकार आलोक श्रीवास्तव, शिक्षाविद् लौरिन मिर्जा को प्रदान किया गया। चिकित्सा क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए लाइफ टाइम अचीव
मेंट अवार्ड डॉ. सुकांति हाजरा को प्रदान किया गया। ये सम्मान डीआईजी डॉ.अकबर अली खान, चित्रकार वसीम कपूर एवं पंजाबी बिरादरी के अध्यक्ष अनिल कपूर को हाथों प्रदान किया गया। कार्यक्रम के दूसरे सत्र में गजल गायक जगजीत सिंह को श्रद्धांजलि देने के लिए शाम-ए-गजल का आयोजन किया गया था जिसमें विनोद सहगल ने अपनी गजलों से लोगों का मन मोह लिया। संस्था की गतिविधियों की जानकारी उसके अध्यक्ष जमील मंजर, उपाध्यक्ष सतीश कपूर एवं महासचिव आफताब अहमद खान ने दी।
डॉ.जगदीश्वर चतुर्वेदी का जन्म 12 अप्रैल 1957 मथुरा में हुआ। संपूर्णानंद विश्वविद्यालय,वाराणसी से सर्वोच्च अंकों से सिद्धांत ज्यौतिषाचार्य की परीक्षा पास करने के बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से एमए, एमफिल, पीएचडी। जेएनयू की छात्र राजनीति में सक्रिय नेतृत्व प्रदान किया और सन् 1984-85 में जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गए। छात्रजीवन में ही जेएनयू की एकेडमिक कौंसिल और बोर्ड ऑफ स्टैडीज के सदस्य के रूप में मनोनीत किए गए। सन् 1989 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में हिन्दी में लेक्चरर के रूप में अध्यापन आरंभ किया और 1993 में रीडर और सन् 2011 में प्रोफेसर बने। देश के विश्वविद्यालय अकादमिक जगत में यह कम होता है कि कोई शिक्षक मात्र 11साल के अध्यापन अनुभव के आधार में प्रोफेसर बने। कलकत्ता विश्वविद्यालय के इतिहास की यह विरल घटना है। 45किताबें अब तक प्रकाशित हुई हैं। ये किताबें साहित्य समीक्षा,स्त्री साहित्य आलोचना और मीडिया पर केन्द्रित हैं। 1. दूरदर्शन और सामाजिक विकास,1991,डब्ल्यू न्यूमैन एंड कंपनी,कोलकाता. 2. मार्क्सवाद और आधुनिक हिन्दी कविता,1994,राधा पब्लिकेशंस,दिल्ली 3.आधुनिकतावाद और उत्तार आधुनिकतावाद,1994,सहलेखन, संस्कृति प्रकाशन ,कोलकाता 4.जनमाध्यम और मासकल्चर, 1996,सारांश प्रकाशन दिल्ली. 5.हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास की भूमिका,1997,अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि. दिल्ली 6.स्त्रीवादी साहित्य विमर्श ,2000,अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि.दिल्ली 7.सूचना समाज ,2000, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीग्यूटर प्रा.लि. दिल्ली. 8.जनमाध्यम प्रौद्योगिकी और विचारधारा, 2000,अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि.दिल्ली 9.माध्यम साम्राज्यवाद ,2002,अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि. दिल्ली 10. जनमाध्यम सैध्दान्तिकी, 2002,सहलेखन, अनामिका पब्लिशर्स एड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि. दिल्ली 11.टेलीविजन,संस्कृति और राजनीति, 2004,अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि. दिल्ली 12.उत्तर आधुनिकतावाद ,2004,स्वराज प्रकाशन, दिल्ली. 13.साम्प्रदायिकता,आतंकवाद और जनमाध्यम,,2005,अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि.दिल्ली 14.युध्द,ग्लोबल संस्कृति और मीडिया ,2005,अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि.दिल्ली 15.हाइपर टेक्स्ट,वर्चुअल रियलिटी और इंटरनेट ,2006,अनामिका पब्लिकेशंस एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि. 16.कामुकता,पोर्नोग्राफी और स्त्रीवाद, 2007,(सहलेखन) आनंद प्रकाशन, कोलकाता. 17.भूमंडलीकरण और ग्लोबल मीडिया,2007,(सहलेखन),अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर,प्रा.लि.दिल्ली 18. नंदीग्राम मीडिया और भूमंडलीकरण ,2007, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर,प्रा.लि.दिल्ली 19.प्राच्यवाद वर्चुअल रियलिटी और मीडिया,(2008),(सहलेखन)अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर,प्रा.लि. दिल्ली 20.वैकल्पिक मीडिया लोकतंत्र और नाँम चोम्स्की , (2008),(सहलेखन)अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर,प्रा.लि. दिल्ली 21. तिब्बत दमन और मीडिया, (2009) , अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर,प्रा.लि. दिल्ली. 22. ओबामा और मीडिया ,( 2009) , अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर,प्रा.लि. दिल्ली. 23. 2009 लोकसभा चुनाव और मीडिया , (2009) , अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर,प्रा.लि. दिल्ली 24.डिजिटल युग में मासकल्चर और विज्ञापन, (2010),(सहलेखन)अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर,प्रा.लि.दिल्ली. 25. -साइबरसंस्कृति के भारतीय बिम्ब - बाबारामदेव,ममता बनर्जी, माओवाद और अयोध्या ,(2012) स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली 26.मीडिया समग्र.12खंड़ों में,(2012) स्वराज प्रकाशन,नई दिल्ली, 27.इंटरनेट,जनतंत्र और साहित्य,(2012) स्वराज प्रकाशन,नई दिल्ली. 28. उम्ब्रेतो इकोः चिन्हशास्त्र ,साहित्य और मीडिया ,(2012), अनामिकाप्रकाशन,नईदिल्ली. सम्पादित पुस्तकें -1.बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि विवाद,1991,डब्ल्यू न्यूमैन एंड कंपनी,कोलकाता.2.प्रेमचंद और मार्क्सवादी आलोचना, सहसंपादन,1994,संस्कृति प्रकाशन,कोलकाता.3.स्त्री अस्मिता,साहित्य और विचारधारा,सहसंपादन, 2004,आनंद प्रकाशन ,कोलकाता.4.स्त्री काव्यधारा, सहसंपादन,2006,अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि. दिल्ली.5.स्वाधीनता-संग्राम,हिन्दी प्रेस और स्त्री का वैकल्पिक क्षेत्र,सहसंपादन, 2006, अनामिका प्रा.लि. दिल्ली

Sunday 13 May 2012

क्या आपने सुनी है भूत के मुंह से लव स्टोरी!

समीक्षा





पुस्तक-प्रेम की भूतकथा/उपन्यास/लेखक-विभूति नारायण राय/ प्रकाशक-भारतीय ज्ञानपीठ, 18 इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली-110003/ प्रथम संस्करण-2009/तृतीय संस्करण-2012मूल्य-150 रुपये





'प्रेम की भूतकथा' में कथानक को जिस दिलचस्प ढंग से व्यक्त किया गया है वह पाठकों को आद्योपांत एक बैठक में उपन्यास खत्म करने को प्रेरित करता है। एक बार इसके भूतों के कार्य-व्यवहार के बारे में आप जान लेते हैं तो फिर उनसे किसी प्रकार के भय की सृष्टि नहीं होती। यह लेखक की सफलता है कि भूत के मैत्रिपूर्ण व्यवहार को उन्होंने आद्योपांत बरकरार रखा है। भूतों के बारे में हमारी प्रचलित धारणाओं के उल्टे कई बार तो भूत मनुष्य को अपने से अधिक शक्तिशाली मानने लगते हैं। एक भूत कहता है कि मनुष्य का कोई ठिकाना नहीं, वह कुछ भी कर सकता है। सीमाएं तो हमारी हैं। इस उपन्यास में भूतों के सम्बंध में हमारी धारणा को बदलने की महत्वपूर्ण भूमिका उन्होंने निभाई है और कई बार हमें यह तक यक़ीन होने लगता है कि भूत वास्तव में होते होंगे और वह भी उतने ही मैत्रिपूर्ण जितना विभूति जी ने दर्शाया है। अपने पाठक को अपने भरोसे में ले पाना एक बड़ी बात है। समाज में व्याप्त मिथकों व अंधविश्वासों के एक बेहतर सफल और सार्थक प्रयोग के लिए यह उपन्यास अलग से जाना जायेगा।
यह भूत का प्रकरण भी है जो इस उपन्यास महज मर्डर मिस्ट्री या जासूसी उपन्यास बनाने से रोकता है। इसमें नायक के सहायक कोई और नहीं भूत हैं। यह कल्पना और फैंटेसी की नयी उड़ान है जिसमें लेखक कामयाब है। सच तक पहुंचने के कई रास्ते हो सकते हैं और जो रचनाकार सच तक पहुंचने की जो विधि और मार्ग चुनता है वही तय करता है कि उसकी रेंज क्या है, दूसरे यह कि जो भी उपकरण उसने सच तक पहुंचने के लिए चुने हैं उसका इस्तेमाल किस हद तक और कितनी सफलता से करता है। कोई दूसरा होता तो एक ही भूत से काम चला लेता और अलादीन के जिन्न की तरह लगभग सर्वशक्तिमान बनकर अपने मालिक की तमाम मागों को पूरा कर देता, किन्तु इसमें एकरसता का खतरा हो सकता था दूसरे इसमें भूत की सीमाएं तय करके लेखक ने भूतों की कार्यप्रणाली और सीमाओं और संभावनाओं का एक शास्त्र तैयार कर दिया है। उपन्यास में कहा गया है-‘भूतों में किस्सगोई की रिले परम्परा है, कम से कम मेरे भूतों में तो है ही। रिले रेस के धावकों की तरह वे अपना हिस्सा दौड़ चुकने के बाद कथा दूसरे व्यास को थमा देते हैं। विशेष बात यह है कि हर व्यास किसी कथावाचक की तरह इस तरह कथा कहता है कि लगता ही नहीं कि कोई कथा टुकड़ों में कही जा रही है।’ (राय, विभूति नारायण, प्रेम की भूत कथा, भारतीय ज्ञानपीठ, तीसरा संस्करण, 2012, पृष्ठ 77)
लेखक चाहे तो भूतों का उपयोग अपनी अगली कई रचनाओं में सिक्वल उपन्यासों में कर सकता है। उपन्यास की दुनिया में हैरी पोटर के सिक्वल उपन्यासों की चर्चा अभी बहुत मंद नहीं पड़ी है। हमारी कामना है कि भूत उनके इसी उपन्यास के भूत बनकर न रह जायें और इस तरह के उपन्यास और आयें। कम से कम लोग यह जानना चाहेंगे कि इस उपन्यास में जो कत्ल हुआ है उसका कातिल कौन था?
‘प्रेम की भूतकथा’ में विभूति जी ने तीन-तीन भूतों को उपस्थित किया है जो निकोलस, कैप्टन यंग और रिप्ले बीन के हैं। यह भूत कथानक को आगे बढ़ाते और उसका विस्तार करते हुए उसे तर्कसंगत निष्पत्तियों तक पहुंचाते हैं। पाठक को हमेशा लगता है कि कोई बहुत बड़ा कारण, कोई बहुत बड़ी मज़बूरी रही होगी जो नायिका अदालत में या पुलिस को यह नहीं बताती कि हत्या के समय तो उसका प्रेमी उसी के पास था, जो उसके निर्दोष होने का सबसे बड़ा प्रमाण है। पाठक को यह जानकर और सदमा लगता है कि वह बड़ी मज़बूरी केवल विक्टोरियन नैतिकता की थी। यहां यह छोटा सा कारण ही व्यापक अर्थों में एक बड़ा कारण बनता है जिसका फलक देश की सीमाओं और काल का अतिक्रमण कर पान में सक्षम है। यह नैतिकता का मुद्दा ही इस घटनाक्रम को आज भी पहले जितना ही प्रासंगिक बनाये रखता है। किसी भी समय में समाज की बनावट और उस में व्याप्त नैतिकताओं का बंधन इतना जटिल और कठोर होता है कि मनुष्य अपने को दोराहे पर पाता कि क्या करे, क्या न करे? नैतिकताओं के बंधन ने समाज का जितना विनाश किया है उतना तो अनैतिक कार्य करने वालों ने भी नहीं किया। समाज को दिशा देने के नाम पर थोपी गयी नैतिकताओं के हाथों कितने ही प्रेमियों के अरमानों का खून होता रहा है। आज का समय उससे एकदम जुदा नहीं है। आज भी थोथी नैतिकता और आनर किलिंग के मामले रोज देखने-सुनने को मिलते हैं। हर समय किसी न किसी रूप में कोई खाप पंचायत या जातीयतावादी बिरादरी के ठेकेदार रहते हैं, जिससे समय के प्रेमियों को लोहा लेना पड़ता है।
यूं भी कोई उपन्यास केवल कथानक के आधार पर जासूसी उपन्यास नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि लेखक की इसमें एकदम दिलचस्पी नहीं दिखायी देती की वास्तव में हत्यारा कौन था। उसका अभिप्राय वहीं हल हो जाता है जहां पता चलता है कि नायक एलन हत्यारा नहीं है। और उसकी प्रेमिका को यह पता होते हुए भी कि वह निर्दोष है उसके पक्ष में गवाही देकर उसकी जान नहीं बचाती क्योंकि वह उस समय के नैतिकतावादी बंधनों से जकड़ी हुई थी। ‘हम जान तो दे देंगे पर रुसवा न करेंगे।’ यही स्थिति नायक की भी है जो अपने को बार-बार निर्दोष करार देने के बावजूद किसी भी कीमत पर पुलिस या अदालत को यह नहीं बताता कि वह हत्या के समय किसके पास था, किसके शयनकक्ष में। यदि वह बता देता तो उसकी ज़िन्दगी बच जाती। यह प्रेम के लिए किया गया बलिदान था, जो नैतिकता के कारण दिया गया था। दोनों ही अपने समय की नैतिकता के बंधन में बंधे रहते हैं और अपने प्रेम को बदनाम नहीं होने देते। विक्टोरिया के वक्त में एक लड़की के लिए यह क़बूल करना कि विवाह के पहले किसी मर्द के साथ सोयी थी, बहुत मुश्किल था।
फ़ादर कैमिलस के सामने अपने दोस्त जेम्स के हत्याभियुक्त सार्जेन्ट मेजर एलन ने कहा था, ‘आप जिसे प्यार करते हैं उसे रुसवा कर सकते हैं क्या?’ मिस रिप्ले का भूत स्वीकार करता है, ‘लड़की कायर थी। कितना चाहती थी कि चीखकर दुनिया को बता दे कि एलन हत्यारा नहीं है पर डरती थी।’
‘प्रेम की भूतकथा’ एक घटना-क्रम पर आधारित है जो एक शताब्दी पहले मसूरी के माल रोड पर एक केमिस्ट की दुकान में काम करनेवाले जेम्स की हत्या पर केन्द्रित है। जिसके आरोप में उसके दोस्त एलन को 1910 में फांसी हुई थी। किन्तु जेम्स की क़ब्र पर अंकित यह वाक्य ठीक नहीं था, ‘मर्डर्ड बाई द हैंड दैट ही बीफ्रेंडेड’। इसकी वास्तविकता का पता एक पत्रकार लगाता है वह भी भूतों के माध्यम से। यह उपन्यास एक नाटकीय रोचकता के साथ शुरू होता जिसमें एक पत्रकार को असाइनमेंट दिया जाता है ऐसी हत्याओं के बारे में लिखने का, जो पिछली शबाब्दी में हुई थीं पर उनकी गुत्थी अनसुलझी रह गयी। अदालत ने अभियुक्तों को फांसी तो दे दी लेकिन लोगों के मन में यह शक बना रहा कि जिन्हें फांसी पर लटका दिया गया, वे सचमुच हत्यारे थे। अखबारों की उलजुलूल होती कार्यप्रणाली, अखबारों के प्रकाशन का उद्देश्य और नजरिये से यह उपन्यास पाठकों को दो-चार कराता है। उसमें न सिर्फ कटाक्ष और व्यंग्य है बल्कि वस्तुस्थिति को पेश करने की लियाकत भी। अखबार के काम-काज का ही जीवंत चित्रण लेखक ने नहीं किया है बल्कि कई और दृश्य हैं जिन्हें बारीक से बारीक नोट्स के साथ पेश किया है, जैसे कोई पटकथा हो। यह कहने में कोई हिचक नहीं कि डिटेल्स भी इस उपन्यास में उतने ही रोचक और महत्वपूर्ण हैं, जितना कथानक का ताना-बाना। तत्कालीन समय में अग्रेजी सेना के भारत में कामकाज का तौर-तरीका और सैन्य परिदृश्य, गोरखा पलटनों का इतिहास, तत्कालीन मसूरी का भौगोलिक पर्यावरण, सेना का टीम के साथ काम करने का रवैया और उससे अधिकारियों का जुड़ाव इसमें अपने पूरे ब्यौरे के साथ उपस्थित है और पाठक इन सबको अपनी आंखों देखे सच की तरह महसूस कर सकता है। यह साफ तौर पर दिखता है कि लेखक को पाठक को किसी खास बिन्दु पर पहुंचाने की हड़बड़ी नहीं है। वह इतमीनान से पूरे दृश्य को पाठक तक पहुंचने देता है और कई जगह पूरे दृश्य में नाटकीय तनाव पैदा करता है।
उपन्यास का 'हार्स टेस्ट नट के नीचे प्रेम' अध्याय इस लिहाज से अत्यंत महत्वपूर्ण है। है तो यह कल्पना पर आधारित लेकिन कल्पना को वास्तविकता का पुट देने वाले डिटेल्स के साथ पेश करने का हुनर विरल है। यहां हमें सुरेन्द्र वर्मा के उपन्यासों के डिटेल्स और कल्पनाशीलता याद आती है जिसका प्रभावशाली प्रयोग उन्होंने 'मुझे चांद चाहिए' में किया है। इस संदर्भ में विभूति जी के इस उपन्यास की एक बानगी देखें- ‘तार खिंचे, कुछ इस तरह से खिंचे कि लगभग टूट गये। जुगलबंदी द्रुत हुई, मद्धम हुई और धीरे-धीरे स्थिर हो गयी। दोनों शरीर एक दूसरे में गुंथे खामोश पड़े रहे हार्स चेस्ट नेट के छतनार तरख्त के नीचे। ऊपर गुच्छों में खिले हार्स चेस्ट नट के फूलों के नीचे और झरे पत्तों से भरी धरती के ऊपर, निरावरण, थोड़ी दूर जल रही आग की गर्मी से ऊष्मा हासिल करते हुए।’ (प्रेम की भूत कथा, पृष्ठ 123)
इसी प्रकार तीन भूतों में से दो भूत उपन्यास के बाहर भी हमारा पीछा नहीं छोड़ते। कैप्टन यंग का भूत जो अपनी मौत के बाद भी लगातार अपनी पलटन के जवानों के लिए चिन्तित है और रिप्ले बीन का भूत जो प्रेम की करुण गाथा सुनाते हुए रो पड़ता है। सचमुच विभूति नारायण राय की रचनात्मकता ही है, जो भूत तक को भी रुला दे।
इतिहास व तथ्यों के साथ कल्पना मिलाकर जिस औपन्यासिक रचाव का परिचय विभूति जी ने दिया है वह प्रेम कथाओ के इतिहास में एक मील का पत्थर है। इस उपन्यास में भूत का जो नया वर्जन विभूति जी ने प्रस्तुत किया है वह अत्यंत संवेदनशील और ह्यूमन फ्रेंडली है। उसे मनुष्य की शक्ति पर भी भरोसा है और उसके प्रति सदाशयता है। एक भूत कहता है-'तुम इनसान हो और मुझे पता है कि इनसानों के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है।' (प्रेम की भूत कथा, पृष्ठ 101) उसके होने में अपने होने को वह तलाश करता है। सबसे बड़ी बात यह है कि वह उन लोगों का साथ आसानी से पा जाता है, जिन्हें उसके अस्तित्व पर भरोसा नहीं है। वह विश्वासों की तिजारत नहीं करता और उसका फायदा नहीं उठाता, आज के साधु-संतों और प्रवचन देने वाले बाबाओं की तरह कि यदि आपको भरोसा नहीं है, विश्वास नहीं है तो हमारे दरवाज़े पर मत आना। यदि भरोसा नहीं है तो ईश्वर की अनुकम्पा से दूर रहोगे और कुछ भी न पाओगे। विभूति जी के भूत उनके साथी बन जाते हैं जिन्हें उनके अस्तित्व पर भरोसा है-‘यदि आप निश्छल मन से भूत की संगत मांगें और आप भी मेरी तरह उसके अस्तित्व में यक़ीन न रखते हों तो आपको भी भूत की दोस्ती सहज उपलब्ध हो सकती है।’ (प्रेम की भूत कथा, पृष्ठ 24)
हमारे तमाम संशयों को नकारते हुए ये भूत नफासती अवश्य हैं तुनक मिजाज भी हैं पर वे हिंस्र नहीं हैं। वे मनुष्य पर वार नहीं करते। वे मनुष्य की कई बुराइयों से भी मुक्त हैं। भूतों के इस नये रूप को देखकर मुझे इस समय के सबसे महत्त्वपूर्ण कवि केदारनाथ सिंह का 'बाघ' याद आता है। उन्होंने बाघ शृंखला की कई कविताएं लिखी हैं। केदारनाथ जी का बाघ भी हिंस्र नहीं है। वह मनुष्य का हमदर्द बनकर आता है, जिससे लोग नहीं डरते, इन भूतों की तरह ही -'और अगले दिन शहर में/फिर आ गया बाघ/एक बार दिन दहाड़े/एक सुंदर/आग की तरह लपलपाता हुआ बाघ/न कहीं डर न भय/सुंदर बाघ एक चलता -फिरता जादू था/ जिसने सब को बांध रखा था/वह लगातार चल रहा था/ इसलिए सुंदर था/ और चूंकि वह सुंदर था इसलिए कहीं कोई डर था न भय।' ..'(सिंह, केदारनाथ, बाघ, भारतीय ज्ञानपीठ 1996, पृष्ठ 57)
और केदार जी का बाघ भी विभूति के भूत की तरह रोता है। यह नया रुपांतर है, नया स्वभाव है बाघ और भूत का-'एक दिन बाघ/ रोता रहा रात-भर/ सब से पहले एक लोमड़ी आयी/ और उसने पूछा/ रोने का कारण/ फिर खरगोश आया/ भालू आया/ सांप आया/ तितली आयी/ सब आये/ और सब पूछते रहे/ रोने का कारण/ पर बाघ हिला न डुला/ बस रोता रहा/ रात भर/ प्यास लगी/ वह रोता रहा/ भूख लगी/ वह रोता रहा/ चांद निकला/ वह रोता रहा/ तारे डूबे/ वह रोता रहा/ कौआ बोला/ वह रोता रहा/ दूर कहीं मंदिरों में/ बजने लगे घंटे/ वह रोता रहा..'(बाघ, पृष्ठ 31/33)
विभूति जी का भूत भी रोता है-‘मैं पहली बार ऐसे भूत के सामने बैठा था जो धीरे-धीरे सुबक रह था। हालांकि आंखें अब भी उसकी सूखी थीं। मैं जानता था कि आंसू मनुष्यों को मिली सौगात है। बदकिस्मत भूतों के ऐसे नसीब कहां कि उनकी आंखों से आंसू टपकें। x x x पर भूत रोता। यह भी मेरे जीवन का विलक्षण अनुभव था-आंसुओं से तर झुर्रीदार चेहरा। आंसुओं से भींगते ही चेहरे का खुरदुरापन न जाने कहां ग़ायब हो गया। एक स्निग्ध, कोमल, कातर चेहरा कुछ कहने के लिए व्याकल था।’ (प्रेम की भूत कथा, पृष्ठ 142)
जिस प्रकार केदार जी ने हमारे समय के मिथ से खेलते हुए उसका नया रूप प्रस्तुत किया है उसी प्रकार विभूति जी भी भूत के मिथ को किसी हद तक बदलते हैं। विधाओं के अन्तर के बावजूद दोनों समय की भयावहता से आक्रांत नहीं होते और मिथकों को खंगालते हुए उससे एक नया संदेश मनुष्य जाति के लिए लेकर आते हैं। बाघ और भूत दोनों की चिन्ता के केन्द्र में मनुष्य है। यह व्यापक साहचर्य का मामला है, जो अलग से व्याख्या की मांग करती है। साहित्य और करता क्या है यही न कि साहचर्य बने। वस्तु जगत का प्राणिजगत से। पशु और मनुष्य में। विभूति जी केवल वरिष्ठ पुलिस अधिकारी और शिक्षाविद् या साहित्यकार ही नहीं रहे हैं वे एक सोशल एक्टिविस्ट भी हैं, इसलिए उनकी सोच के प्रत्येक आयाम को वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में ही देखा जाना चाहिए। भूत के मुंह से एक लव स्टोरी सुनने का मेरा पहला अनुभव था जो विरल था और मन में देर तक घूमती रहता है इसका शिल्प, इसके मिथक और इसका कथानक। क्या आपने सुनी है भूत के मुंह से लव स्टोरी?

Wednesday 25 April 2012

जीवन का साहित्यानुवाद करते कीर्त्तिनारायण मिश्र

संस्मरण
  • -डॉ.अभिज्ञात
साभार: जनपथ

मैं जब-जब कीर्त्तिनारायण मिश्र की रचनाशीलता को देखता हूं तो सुखद विस्मय होता है। किसी रचनाकार में लगभग साढ़े पांच दशक की सतत रचनाशीलता देखी जाये तो यही कहा जा सकता है कि रचनात्मक प्रतिबद्धता ही उसमें नहीं है, बल्कि रचनात्मकता उसका मूल स्वभाव है। वह जो कुछ देखता-महसूस करता है उसे रचनात्मक खुराक बनाता चलता है और यह प्रवृत्ति उसकी आंतरिक आवश्यकता बन गयी है। इस प्रकार एक जिया हुआ जीवन रचनात्मकता में अनूदित होता चला गया है। जीवन की तमाम आपाधापी, सुख-दुख का तर्जुमा कीर्त्ति जी ने साहित्य की विभिन्न विधाओं में किया है। कविता, आलेख, संस्मरण, मैथिली पत्रिका 'आखर' के प्रकाशन व मित्रों को लिखे पत्रों आदि के माध्यम से वे साढ़े पांच दशक के जीवन को साहित्य में रूपांतरित ही नहीं करते बल्कि उसे एक तरतीब भी देते हैं। उनकी रचनाओं में एक स्वप्न है मनुष्य के बेहतर जिन्दगी का, जो पूरा हो सकता था लेकिन प्रतिगामी ताकतों के कारण अधूरा रह गया या टूट गया। मनुष्य के हार न मानने के जीवट के साथ वे खड़े दिखाये देते हैं-'यदि मैं पथ भूल जाऊं/ या पथ को नहीं हो स्वीकार मेरा चलना/ वह बना ले अपने को अगम्य/ अथवा कर ले मुझे घोषित अपांक्तेय/ या मुझे ही नहीं हो स्वीकार/ उस पथ पर चलना/ जिस पर चिह्नित हों असंख्य पैर/ जो हो गया हो क्षत-विक्षत पदाघात से/ जहां दौड़ रहा हो काल-अश्व और खड़ा हो सवार/ तो क्या मुझे/चलना ही छोड़ देना चाहिए..।'(हो सकता है थके अश्व पर)
वे विचार के साथ तो खड़े दिखायी देते हैं लेकिन जो विचार संवेदना की राह में आते हैं वे टूट-टूट जाते हैं। जो व्यक्ति की निजता को या उसके विकास को बाधित करते हैं वे विचार कमजोर पड़ते जाते हैं। उनके लिए निजता सार्वजनिक चिन्तन से कमतर कभी नहीं रही। उनकी प्रतिबद्धता ओढ़ी हुई और रटी-रटायी और आयातित नहीं है। वह अन्होंने अर्जित की है अपने संवेदनशील मन, सामाजिक जुड़ाव वर परहित की चिन्ता से। उनका परिवार आध्यात्म व दर्शन से भी जुड़ा रहा है। उनके पिता पं.दिनेश मिश्र दर्शन, वेदांत व ज्योतिष के राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। परिवार से उन्हें न सिर्फ भाषिक संस्कार मिला बल्कि भारतीय चिन्तन और विवेक भी। चिन्तन-मनन उनके लिए बाहर से सुने-सुनाये जुमले नहीं थे। वे भारतीय और पाश्चात्य दोनों ही विचारधाराओं और चिन्तन की रोशनी में अपने समय के सच को देखते, परखते और गुनते रहे हैं। 'विराट् वट वृक्ष के प्रतिवाद में' भले उनका एक काव्य-संग्रह हो किन्तु उनकी तमाम रचनाशीलता उसी पथ का अनुगमन करती है और वे आम आदमी के पक्षधर सदैव बने रहे। कई बार वे एक अद्बुत किस्सागोई के साथ पाठक को अपनी रचना के उत्कर्ष-बिन्दु तक ले जाते हैं। उसका एक अच्छा उदाहरण 'अब भी तुम' कविता है, जिसमें वे अपने मित्र व सुपरिचित कवि सकलदीप सिंह से पूछते हैं-'प्यारे तुम करते रहो खुदकुशी/ लेकिन इतना बता दो/ विराट् वटवृक्ष के प्रतिवाद में कैसे खड़ी की जाती है/ नन्हीं दूब सी खुशी।' यह कविता जहां निषेध के कवि सकलदीप सिंह के जीवन और उनकी दृष्टि को पूरी शिद्दत से उजागर करती हैं वहीं कीर्त्ति जी के उस रचना-विवेक को भी व्यक्त करती है, जो चीज़ों को उसके आर-पार देखने में सक्षम है और औरों की चर्चा के बहाने अपनी बात कहने का हुनर सिखाती है।
वे एक ऐसे कवि हैं जो किसी एक सच को सच मानकर नहीं बैठते हैं। एक बेचैनी और संशय हमेशा उनमें बना रहता है और वे हर बार एक नय सिरा पकड़कर वस्तुस्थिति की पड़ताल करते रहे हैं। शायद यहीं कहीं छिपा है उनकी अनंत रचनात्मक ऊर्जा का स्रोत, जो उनसे लिखवाता रहता है। ‘क्या था सच’ कविता को इस संदर्भ में देख सकते हैं- 'सच वह नहीं था/ जिसे मैंने जाना-चीन्हा-मथा/ जिसे आत्मसात करने में ज़िन्दगी खपा दी/ सच वह भी नहीं था जिसे/ शास्त्र और विज्ञान ने मन-मस्तिष्क में भर दिया/ वह भी नहीं/ जिसे परिस्थितियों ने मेरे भविष्य पर जड़ दिया/ वह भी नहीं जिसने मेरा सब हर लिया/ तो फिर क्या था सच/ क्या वह जो गढ़ा संवारा और बार-बार मंच पर नचाया गया/ या वह जो विभिन्न माध्यमों से मुझे बताया गया/ क्या था सच!'
कीर्त्ति जी को सौभाग्यवश ऐसी ज़िन्दगी मिली जिसे दुनियादारी में कामयाब इनसान की ज़िन्दगी कहते हैं। अंधेरे भले कहीं किसी कोने में हों मगर उसकी खबर किसी को नहीं। प्रत्यक्षतः उन्हें सब कुछ मिला है। मैथिल ब्राह्मण का रसूखदार पढ़ा-लिखा परिवार। पिता पं.दिनेश मिश्र अच्छे ज्योतिषी माने जाते थे। बड़ी धाक थी, जिसके कारण सम्पन्नता भी आयी। कीर्त्ति जी ने अर्थशास्त्र से एम.ए. किया था फिर एल.एल.बी.। जूट मिलों में ऊंचे ओहदों पर नौकरी की। दो बेटे और एक बेटी है, जिन्हें उच्च शिक्षा दी। एक समय में तो उनके तीनों बच्चे विदेश में नौकरी कर रहे थे। छोटे पुत्र डॉ.अजय कुमार मिश्र 17 साल अमरीका में प्रवास के बाद एक मल्टीनेशनल कम्पनी का निदेशक होकर अब दिल्ली लौट आये हैं। वे ही गांव की पैतृक सम्पत्ति व अपने माता-पिता की देख रेख करते हैं। पत्नी आशा जी, मिलनसार, सुरुचिपूर्ण, सुन्दर और हर कदम पर उनका साथ देने वाली और उनकी खुशी में अपनी खुशी तलाशने वाली मिलीं। ऐसे में एक खाये-अघाये आदमी का साहित्य वे लिखते तो हैरत न होती। एक ओढ़ी हुई बौद्धिक सौजन्यता उनके साहित्यिक व्यक्तित्व के लिए कम नहीं थी। लेकिन ऐसा नहीं था। जिन दिनों जूट मिल में मैनेजर हुआ करते थे वे सूट और टाई में जरूर रहते थे लेकिन चकाचौंध की ज़िन्दगी के प्रति उनका दृष्टिकोण सदैव आलोचनात्मक ही रहा। यह कहा जाये कि उन्हें एक अच्छी ज़िन्दगी मिली और उन्होंने ज़िन्दगी के भरपूर मज़े भी लिए और आवश्यकतानुसार उसकी निन्दा भी की। मौज़-मजे से उन्हें परहेज कभी नहीं रहा पर उसमें से रचनात्मकता का चयन कर लेते हैं। उनकी एक कविता है 'मेरा घर' उसमें वे कहते हैं-'भुसकार वाली जगह पर बनी गैरेज से निकलती कार के हेड लाइट से/ चौंधिया गयी हैं आंखें/ अन्यथा कम से कम इतना तो देख पाता/ कि इस चकाचौधं में मेरी खुशहाली किस हालत में है?' इसी तरह की एक कविता और देखें। सुदूर विदेश न्यूयार्क में भी वे गांव से किसी की टेर को अनसुना नहीं कर पाते, ‘और कितनी देर’ में वे कहते हैं-'और कितनी दूर/ और कितनी देर/ कौन जाने/ गांव से मुझको रहा है टेर/ लांघकर सातों समुंदर/ व्योम में उड़ता/ मैं त्वरित प्रक्षेप से/ इस शून्य में पहुंचा/ पर कहां वह जगह/ रुककर मैं जहां दम लूं/ हैं कहां वे मित्र जिनपर/ बोझ कम कर लूं/ क्या कहूं अमराइयों से/ छांह दी जिनने/ नदीं पर्वत से कहूं क्या/ राह दी जिनने/ और जाने प्रश्न कितने हैं खड़े घेरे/ पूछते अब और कितने शेष हैं फेरे/ क्या कहूं, चूप हूं छुपाए आंसुओं का वेग/ कौन जाने गांव से मुझको रहा है टेर।'
यह कविता उन्होंने विदेश यात्रा के दौरान लिखी थी। वे अपने बच्चों से मिलने के लिए लम्बी विदेश यात्रा पर गये थे। वहां से उन्हें काफी रचनात्मक खुराक मिली। ‘जेठ की तप्त शिला’ की कई कविताएं उस यात्रा की देन हैं। खास तौर जंगल पर लिखी उनकी 10 कविताएं जिस आत्मीय अंदाज में लिखी गयी हैं वह उन्हें एक ऐसे रचनाकार के रूप में खड़ा करती हैं, जिसकी नागरिकता किसी देश की नहीं रह जाती। उनकी भौगालिक यात्रा उनकी मानसिक यात्रा भी बन गयी है और रचनात्मक परिधि का विस्तार किया है। किसी पर्यटक के लिए विदेशी परिवेश से इतने जुड़ाव की रचना मुश्किल है। विदेश की यात्रा ने उनकी रचनाशीलता को नयी चमक दी है, यह कहने में कोई हर्ज नहीं।
इन कविताओं को पढ़कर लगता है कि भौगोलिक निजता का अतिक्रमण उनके यहां कितनी आसानी से हुआ है। वे अपनी निजता का अतिक्रमण बड़ी सहजता और सरलता से करते हैं, निजता को महत्त्वपूर्ण मानते हुए भी। दरअसल उनके यहां निजता की अपनी परिभाषा है और आमजन तक पहुंचने के लिए वे उसमें कोई रुकावट अपनी तरफ से नहीं महसूस करते। लेकिन अपनी निजता को केवल उन्हीं तक और वहीं तक खोलते हैं जितना वे पसंद करें। ऐसा संभवतः अभिजात्य संस्कारों के कारण है, जो उनके स्वभाव का किसी हद तक हिस्सा है। अपनी निजी बातें न तो सबके साथ शेयर करते हैं और ना ही सबके साथ कहीं भी बैठकर गपशप करना पसंद करते हैं।
पहले विशाखापट्टनम से जब वे कोलकाता आते तो महानगर की तमाम उन जगहों पर जाकर अपनी पिछली यादें ताज़ा करते। भले ही वे वहां थोड़ी देर ही टिकते। इसमें कुछ खास लोगों का साहचर्य ही उन्हें पसंद था जिनमें अवधनारायण सिंह, सकलदीप सिंह और मैं। हम चार। इस दौरान वे उन दिनों को जी रहे होते जो कोलकाता के उनके शुरुआती दिन थे। जब वे मैथिली की लघुपत्रिका 'आखर' भी निकाला करते थे और किसी प्रतिष्ठित प्रतिष्ठान में प्रबंधन की नौकरी से भी जुड़े थे। लेकिन किसी पांचवे की उपस्थिति उन्हें असह्य थी। इस प्रकार अनायास ही साहित्य के इतिहास की कई सर्वज्ञात और कई गोपनीय और हाशिये की बातें मेरे सामने उजागर होने लगीं और मेरे साहित्यिक विवेक की दृष्टि और साफ होने लगी। वह रुढ़ियां टूटने लगीं जो सुनी-सुनायी बातों पर आधारित थीं। नागार्जुन, मुद्राराक्षस, मणि मधुकर, राजकमल चौधरी, साढ़ोत्तरी पीढ़ी का साहित्य आंदोलन, अकविता, नक्सलबाड़ी, पुराने नामवर सिंह, शिवदान सिंह चौहान के समय की ‘आलोचना’, शरद देवड़ा, प्रयाग शुक्ल, भगवान सिंह, ज्ञानोदय, शनीचर, पहले के राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, निराला, मतवाला, श्मशानी पीढ़ी, अज्ञेय, कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह यह सब उनकी चर्चाओं के विषय होते जिनमें मेरी भूमिका सिर्फ श्रोता की होती। मैं विस्मत सा सुना करता और उसके निहितार्थ तक पहुंचने का प्रयास करता।
हमारी मित्र मंडली में जो बातें होतीं उसमें उनका व्यंग्यकार और आलोचक मुखर रहता और वे चीज़ों व वस्तुस्थितियों की ऐसी व्याख्या और तलस्पर्शी दृष्टि प्रस्तुत करते जिसे सुनकर अच्छे- अच्छे पानी भरने लगें और बगलें झांकने लगें लेकिन लोगों के साथ औपचारिक मुलाकातों में वे एक सौम्य, मृदुभाषी व्यक्ति बने रहते और कोई ताड़ नहीं सकता था कि वे औपचारिक बातों को कैसा पलीता लगाते हैं और न जाने कहां-कहां इनवरटेड क़ॉमा लगायेंगे।
आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम स्थित चितवालसा जूट मिल से उनकी कोलकाता वापसी की मूल प्रेरणाओं में से संभवतः मैं भी एक था। मैं टीटागढ़ रहता हूं और यहीं की एक जूट मिल माठकल (टीटागढ़ जूट मिल नम्बर 2) में वे आ गये। फिर तो अक्सर मैं या तो उनके कार्यस्थल पर पहुंच जाता या फिर उनके आवास पर। वे भी अक्सर मेरे घर आया-जाया करते थे। हर दूसरेृतीसरे दिन मुलाकातें होतीं और लिखने-पढ़ने से लेकर दुनिया-जहान की चर्चा होती। कई बार भाभी (आशा जी) भी साथ होतीं। एकाध बार उनकी पुत्री मनीषा भी मेरे घर आयी। यह मेरे आर्थिक गर्दिश के दिन थे। मेरी कठोर जीवन-चर्या का उन्हें अवश्य अनुमान लगा होगा, हालांकि कभी उस पर हमारे बीच न तो चर्चा हुई और ना ही उन्होंने मुझसे पूछ कर कभी शर्मिंदा किया। मेरे नाना जी की ठेकेदारी उनके निधन के कारण मुझे अकेले खींचनी पड़ रही थी, जिसमें मेरा मन एकदम नहीं लगता था और इन्हीं कारणों वह वह निरंतर घाटे में चल रही थी। 'नाद प्रकाशन' शुरू किया था, वह भी अनुभव की कमी के कारण अंतिम सांसे ले रहा था और शौकिया 'जनसत्ता' में ट्रिंगर था, जिसमें कमाई नाम मात्र की थी लेकिन एक निरंतर दौड़ थी। और केदारनाथ सिंह पर कलकत्ता विश्वविद्यालय से शोध का दबाव अलग था।
इस बीच जूट मिल प्रबंधन से कीर्त्ति जी का कुछ मतभेद हो गया तो उन्होंने कोलकाता की एक अन्य जूट मिल का कार्यभार संभाल लिया। उसके बाद मुलाकातें कम होती गयीं। कार्य के अत्यधिक दबाव के कारण मैं उनकी नयी मिल में कभी नहीं जा पाया और ना उनके नये आवास पर। मुझसे मिलने अवश्य वे और भाभी दोनों दो-तीन बार 'जनसत्ता' कार्यालय आये।
फिर एक दिन पता चला कि उन्होंने कोलकाता छोड़ दिया है। वे कहते-‘रिटायर होने के बाद कोलकाता तुम्हारे चलते आये थे जब तुम्हीं से मुलाकात नहीं हो पाती तो हम गांव में ही भले। अब अपने गांव की ज़िन्दगी जीनी है। वह निरन्तर अपनी ओर खींच रहा है।’
इस बीच मैं ठेकेदारी व प्रकाशन को गुडबॉय करके रोजीरोटी के फेर में कोलकाता से अमृतसर, जालंधर, इंदौर, जमशेदपुर आदि शहरों की खाक छानकर फिर कोलकाता लौटा तो पाया कि अभी भी जब कभी कीर्त्ति जी कोलकाता आते सकलदीप जी भी बुला लिये जाते और मैं भी पहुंचता। अवधनारायण सिंह अपने गांव चले गये थे सो उनकी अनुपस्थिति खलती रहती। इस बीच मैं जहां भी रहा कीर्त्ति जी के पत्र वहां अवश्य पहुंचे। कई बार फोन भी आते।
अब वे कोलकाता आते हैं तो कॉटन स्ट्रीट वाले कमरे के बदले हावड़ा स्टेशन पर ही ‘यात्री निवास’ में ठहरते हैं। उनका कोलकाता आना अक्सर अपने बच्चों के पास विदेश जाने के लिए फ्लाइट पकड़ने के लिए होता है। हालांकि वे कहते भी हैं कि अब तुम्हारे टीटागढ़ आना मेरे लिए विदेश जाने की तुलना में अधिक कठिन होता जा रहा है। उम्र हो गयी है और घुटनों में दर्द रहने लगा है। हालांकि बीच में उन्होंने बताया कि दिल्ली जाकर घुटने का आपरेशन करवा लिया है और अब स्थिति कुछ ठीक है। यह सुखद लगता है कि उनकी पुस्तकें लगातार आ रही हैं और उनका लिखना-पढ़ना यथावत है। पटना की एक संस्था चेतना समिति ने पांच वर्ष पूर्व उनके नाम पर 11 हजार रुपये का एक पुरस्कार भी स्थापित किया है, जो मैथिली के लेखकों को प्रतिवर्ष दिया जाता है। हाल ही मैं उनकी 'पत्रों के दर्पण में' किताब आयी है। उन्होंने इसके बारे में बताया था कि पत्रों की किताब आनी है लेकिन आपके जो भी पत्र हैं वे बेहद औपचारिक हैं और उनसे आपके जीवन के संघर्षों का कुछ अता-पता नहीं चलता क्यों नहीं एकाध पत्र लम्बा यह लिखकर भेजते कि इधर जीवन में क्या उतार-चढ़ाव आये हैं ताकि पत्र के बहाने ही आपके संघर्षों की चर्चा हो जाये। हालांकि मुझसे यह नहीं हो पाया। उसका शायद एक कारण यह है कि कई समस्याओं से इधर निजात मिल गयी है। 'सन्मार्ग' की व्यवस्थित पत्रकारिता से जुडे रोजगार ने इतना अवसर दे दिया कि मैंने केदारनाथ सिंह पर बीस-बाईस वर्ष पहले शुरू किया गया अधूरा शोधकार्य पूरा कर पीएच-डी की उपाधि कलकत्ता विश्वविद्यालय से हासिल कर ली है। बेटी को एमबीए जैसी खर्चीली पढ़ायी करा पाया और वह यूनाइटेड बैंक आफ इंडिया में प्रोबेशनरी आफिसर हो गयी है। पत्नी प्रतिभा सिंह भोजपुरी गायिका के तौर पर लगभग स्थापित हो चली है और मेरी कई किताबें इधर अच्छे प्रकाशकों ने छापी हैं। पता नहीं मेरे जीवन ने उन्हें कुछ लिखने-सोचने की प्रेरणा दी या नहीं लेकिन मैं उनके लेखन और उसमें निरंतर दिलचस्पी से बेहद प्रभावित हूं। वृद्धावस्था की तमाम समस्याओं के बावजूद लेखन की दुनिया उन्हें तारोताजा रखती है। सप्ताह में एकाध बार अवश्य फोन से उनका हाल-चाल पता चलता रहता है और यह जानकर अच्छा लगता है कि उन पर शोध हो रहा है। यही सोचता हूं कि जिस लेखक को लम्बी आयु मिले उसे वैसा ही जीवन मिले जैसा कीर्त्ति जी को मिला है, लिखते-पढ़ते और उसी की दुनिया का होकर रहने का आनंद। अच्छा लगता है जब एकाएक फोन आता है तुम्हारे लिये सरप्राइज है। बताओ मैं किसके पास बैठा तुम्हें याद कर रहा हूं। लो बात करो, पता चलता है डॉ.बुद्धिनाथ मिश्र हैं। कभी कोलकाता में मेट्रो स्टेशन पर एकाएक मिले डॉ.रामआह्लाद चौधरी कहते हैं-'अभिज्ञात जी आपके एक मित्र पर मुझे बोलना है एक कार्यक्रम में।' पता चलता है कीर्त्तिनारायण मिश्र पर बिहार में कोई भव्य आयोजन है।
वे कई बार छोटी-छोटी बातों के लिए भी फोन करते हैं, जिससे मेरे लिए भी रचनात्मक खुराक मिलती है। एक बार उन्होंने मुझसे पूछा-'पता लगाइयेगा कि क्या बंगाल में अभी भी चवन्नी चलती है?'
मैंने पूछा-'क्यों?'
जवाब था-'बेटी के कई गुल्लख पड़े थे। वह तो सिंगापुर में है। अपने पति के साथ। तो हमने खोला। देखा कि उसमें चवन्नियां भरी पड़ी हैं। वे बड़ी तादाद में हैं और कई गुल्लखों में हैं। उसने बचपन में सिक्के तो डाले लेकिन कभी खोला नहीं। अब उनका क्या करें?'
मैने कहा-'पता करते हैं?' बात मैंने टालने के लिए कही थी।
लेकिन उनकी इसी बात से एक दिन मेरा एक शेर निकल आया-
'मासूम सपनों का सबसे बड़ा खजाना है
मुझसे औलाद की गुल्लख नहीं तोड़ी जाती।'
यह कीर्त्तिनारायण हैं, जिनकी संतान बड़ी हो गयी लेकिन कभी उसे गुल्लख तोड़ने की आवश्यकता नहीं। ऐसे बहुत से लोग हैं जिनके घरों में बच्चों की गुल्लखें कभी तोड़ी नहीं गयीं और जब उनके बड़े होने के बाद कभी टूटीं भीं तो साफ-सफाई के लिए और उनमें मिले पांच-दस के सिक्के और चवन्नियां प्रचलन के बाहर हो चुकी होती हैं। लेकिन हम जैसों का जीवन भी है जिसने वह दिन भी दिखाये जिसमें बच्ची की गुल्लख टूटी तो आटा आया।
यक़ीन नहीं होता कि बाईस साल हो गये हैं हमारे रिश्ते को। हालांकि अब मुलाकात नहीं होती। संभवतः कोलकाता के कॉटन मार्केट वाला कमरा उन्होंने बेच दिया है, जहां कोलकाता आने पर वे ठहरते थे। जहां हमारी कई मुलाकातें हुई हैं। आने से पहले पत्र और फिर फ़ोन आ जाता कि अमुक दिन पहुंच रहा हूं अपने को खाली रखना है और फिर सकलदीप सिंह, अवधनारायण के साथ मिल बैठकर गप्प लड़ानी है। हालांकि अवधनारायण जी कम ही मिलते लेकिन सकलदीप जी और मैं सदैव हाजिर रहते। कमरे में जब मैं पहुंचता तब सकलदीप जी को पहले से वहां पाता। और यदि वे न पहुंचे होते तो थोड़े इन्तजार के बाद सकलदीप सिंह के ठिकाने पर हम दस्तक देने पहुंच जाते। फिर तो पूरा दिन ही साथ बीतता और तरह-तरह की साहित्यिक योजनाएं बनतीं। हालांकि उनमें से बहुत कम पूरी हुईं। एक तो यही कि हम तीनों एक-दूसरे के बारे में बेलौस और जम कर लिखें और इस प्रकार लिखे छह लेखों का एक संग्रह प्रकाशित हो। अब तो हमारे बीच की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी सकलदीप सिंह नहीं रहे। सकलदीप जी से अपनी अन्तिम मुलाकात के दौरान मैंने कीर्त्ति जी से फोन पर बात भी करवाई थी। उस समय वे सपरिवार माउंट आबू में थे और पर्यटन का आनंद ले रहे थे। यह वही मुलाकात थी, जब सकलदीप जी ने मुझसे साफ-साफ कह दिया था कि अब जो साहित्य में मुझे करना था सो कर लिया, अब मैं साहित्य से रिटायर हो गया। हालांकि कीर्त्ति जी से बातचीत के दौरान उनकी आवाज में खोयी हुई चहक जैसे थोड़ी देर के लिए लौटी थी। उन्होंने कहा था-‘मेरा हालचाल वहीं से पूछोगे एक बार आ जाओ मिलने को बहुत मन करता है।’ लेकिन उसके बाद कभी कीर्त्ति जी कोलकाता नहीं आये और उनकी मुलाकात नहीं ही हुई। सकलदीप जी अपने बेटे के साथ गुवाहाटी चले गये फिर पता चला कि वहां से वे गांव गये थे और फिर दुर्गापुर। वहीं बीमार हुए और बेटा इलाज के लिए कोलकाता लाया पर उन्हें बचाया नहीं जा सका। उनकी मौत की खबर भी दूसरों के माध्यम से हम सभी को कई दिन बाद लगी। मैं गुवाहाटी फोन कर सकलदीप जी से बातचीत करता तो वह हर बार ‘कीर्त्ति कैसा है?’ जरूर पूछते। उनके साहित्य से रिटायर होने के संदर्भ में मेरा लेख छपने के बाद अपनी रचनाशीलता पर जो अंतिम बात उन्होंने मुझसे कही थी वह यह कि 'मैं पोयम्स इन बोंस का कवि हूं। मुझे जो कहना था वह मैंने कह दिया और जिसे मेरी कविताओं से जो कुछ मिलता है वह ग्रहण करे।'
मेरा परिचय सकलदीप जी ने ही कीर्त्ति जी से कराया था। सकलदीप जी ने 'संदर्भ' और 'नया संदर्भ' आदि पत्रिकाएं निकाली थीं जिसमें कीर्त्ति जी की रचनाएं अवश्य होती थीं। उन दिनों वे विशाखापट्टनम में थे। जब सकलदीप जी मेरे ज्यादा करीब आ गये तो कीर्त्ति जी से एक कार्यक्रम में परिचय करवाया। फिर तो हमारी तिकड़ी ही बन गयी। कीर्त्ति जी को जब मैथिली के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला तो मुझे अत्यंत प्रसन्नता इसलिए भी हुई थी क्योंकि मैं पहले ही उन्हें महत्वपूर्ण कवि मान चुका था। इस नयी तिकड़ी में हालांकि उम्र के फासले थे। सकलदीप जी सबसे बड़े थे और कीर्त्ति जी मुझसे 25 साल बड़े हैं किन्तु हमारी मित्रता बराबरी की रही भले मैं उन दोनों को ‘भाई साहब’ कहता होऊं। मेरी बातों को उन दोनों ने बराबरी का ही महत्व दिया तो यह प्रगाढ़ता और बड़कपन दोनों का ही परिचायक नहीं है, बल्कि साहित्य की विभिन्न पीढ़ियों के बीच साहचर्य का भी परिचायक है।
-40 ए. ओल्ड कोलकाता रोड, पोस्ट-पातुलिया, टीटागढ़, कोलकाता-700119 मोबाइल-09830277656
परिचयः डॉ.अभिज्ञात के सात कविता संग्रह, दो उपन्यास एवं दो कहानी संग्रह प्रकाशित हैं। उन्हें आकांक्षा संस्कृति सम्मान, कादम्बिनी लघु कथा पुरस्कार, कौमी एकता अवार्ड एवं डॉ.अम्बेडकर उत्कृष्ट पत्रकारिता सम्मान मिला है। सम्प्रति वे ‘सन्मार्ग’ में डिप्टी न्यूज़ एडिटर हैं।

Friday 6 April 2012

150 वीं जयंती पर याद किये गये रवीन्द्रनाथ

स्त्री की नैसर्गिक विशेषताओं के अनुरूप उसके विकास का रास्ता बने-डॉ.अभिज्ञात
कोलकाताः ‘मगरबी बंगाल उर्दू थिएटर एकेडमी’ के तत्वावधान में कोलकाता ‘थिएटर एक्शन ग्रु’ से सहयोग से कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर की 150 वीं जयंति के उपलक्ष्य में एक रंगारंग कार्यक्रम का आयोजन किया गया। कार्यक्रम कोलकाता के सत्यजीत राय आडिटोरियम आईसीसीआर में हुआ। इस कार्यक्रम के पहले सत्र में रवीन्द्रनाथ के जीवन और उनकी रचनाओं के विविध पहलुओं पर चर्चा हुई। जाने माने शिक्षाविद् प्रोफेसर सुलेमान खुर्शीद ने उनके जीवन वृत्त पर प्रकाश डालते हुए उन्हें एक कुशल नाट्यलेखक, कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, चित्रकार और संगीतकार बताया। उन्होंने कहा कि इतना वैविध्य बहुत कम रचनाकारोँ में दिखायी देता है। सन्मार्ग के डिप्टी न्यूज़ एडिटर व साहित्यकार डॉ.अभिज्ञात ने रवीन्द्रनाथ के नारी सम्बंधी विचारों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि रवीन्द्रनाथ ने लगभग सौ साल पहले अपनी अमरीका यात्रा के दौरान एक भाषण में उन्होंने नारी की जिन खूबियों की चर्चा की थी वह तो अब भी विद्यमान हैं और रहेंगी लेकिन उसके विकास के लिए जो मॉडल उन्होंने प्रस्तुत किये थे उस पर दुनिया में अभी काम नहीं हो रहा है यदि वैसे होता तो आज की दुनिया संभवतः आज से बेहतर होती। अभिज्ञात ने कहा कि हमारे विकास का मौजूदा म़ॉडल स्त्री को पुरुष के समकक्ष खड़ा करने का है किन्तु स्त्री के नैसर्गिक स्वभाव के अनुरूप उसे विकास का अवसर नहीं दिया जा रहा है। स्त्री की मौलिक व नैसर्गिक विशेषताओं के अनुरूप उसके विकास के रास्ते प्रशस्त करने की आवश्यकता है। क्या स्त्रियों के स्वभाव के अनुरूप विकसित संसार में कोई पुरुष उनकी बराबरी का दर्जा चाहेगा? यदि नहीं तो फिर पुरुषों के बनाये मानदंड के आधार पर विकसित संसार में स्त्रियों को उनके बराबर लाकर खड़ा करने की कवायद को स्त्रियों के साथ न्याय कहना कहां तक तर्क संगत होगा। स्वयं टैगोर मानते हैं कि आज की सभ्यता में दुनिया पूरी तरह से पौरुषेय है और नारी को हाशिये पर डाल दिया गया है। एक ताक़त की सभ्यता का वर्चस्व है, जिसमें स्त्रियों को एक किनारे ढकेल दिया गया है। इसलिये इस सभ्यता का सन्तुलन बिगड़ा हुआ है और दुनिया युद्ध से जोखिम से जूझती रही है। मनुष्य ने जो शक्ति अर्जित की है वह विनाश की शक्ति है। ये सभ्यता का एकतरफा विका है। वे मानते थे कि स्त्री की समावेशी भूमिका है। और जीवन में एक स्थिरता प्रदान करने की उसमें अद्भुत शक्ति है। हमारी सभ्यता को केवल वृद्धि नहीं, केवल विकास नहीं उसमें एक समन्वय चाहिये। विकास को लय और ताल का संतुलन नारी प्रदान कर सकती है। स्त्रियाँ साधारण चीज़ों में भी सौंदर्य खोज लेती हैं और वस्तुओं को केवल उनकी उपयोगिता के आधार पर महत्व नहीं देंती। दुनिया में जो कुछ भी मानवीय है तो वह स्त्रैण है। घरेलू दुनिया यदि सुन्दर है तो स्त्रियों के कारण। वह उन प्राणियों से भी प्रेम करती है जो अपने असामान्य चरित्र के कारण प्रेमयोग्य नहीं हैं। पुरुष संगठन खड़े करता है किन्तु वह नारी ही है जो समन्यव स्थापित करती है। उन्होंने एक जगह कहा था माता, बहन और सखी के रूप में स्त्रियों का योगदान बहुत बड़ा है किन्तु उसका असली रूप उसकी सजधज की चित्रमयता तथा वाणी और गति की संगीतमयता में प्रकट होता है। नारी क्या है इस जिज्ञासा का समाधान उसके उपयोगी होने में नहीं उसकी आनंददायी मुद्राओं में मिलता है। डॉ.अभिज्ञात ने कहा कि रवीन्द्रनाथ की कहानियों में महिलाएं आत्मोत्सर्ग नहीं करतीं बल्कि वे स्वाभिमान की तलाश करती हैं। वे समझौता वादी नहीं हैं विवेशशील हैं। वे खुली हवा में सांस लेना चाहती हैं।
उर्दू लेखक एवं महानामा इंशा के सम्पादक फे सीन एजाज ने कहा कि कापीराइट से मुक्त होने के बाद रवीन्द्रनाथ की कविताओं का प्रचार प्रसार पहले की अपेक्षा तेजी से हुआ है। उन्होंने इस अवसर पर रवीन्द्रनाथ के कई गीतों का बंगला से उर्दू में अनुवाद पढ़ा। ये अनुवाद उन्होंने स्वयं किये हैं। इसके पूर्व साहित्यकार व रवींद्र के गीतों का उन्हीं की स्वरलिपि में हिन्दी अनुवाद करने वाली डॉ.जलज भादुड़ी ने भी कई गीतों के हिन्दी अनुवाद का पाठ किया और गायन भी। कार्यक्रम का संचालन गजलगो शगुफ्ता यास्मीन ने किया।
कार्यक्रम के दूसरे सत्र में सैयद हैदर अली द्वारा लिखित व निर्देशित 'तपिश' नाटक का मंचन किया गया। यह नाटक रवीन्द्रनाथ की कविताओं और कहानी 'चोखेर बाली' पर आधारित है।

Saturday 10 March 2012

दोहरी भूमिकाओं से हुआ है मेरे व्यक्तित्व का विकास-मृत्युंजय कुमार सिंह


पश्चिम बंगाल के पुलिस महानिरीक्षक मृत्युंजय कुमार सिंह साहित्य और संस्कृति की दुनिया में एक जाने-पहचाने नाम हैं। गंभीर प्रशासनिक कार्यों के साथ-साथ कविता, गायन अनुवाद के क्षेत्र में उनके योगदान से जुड़ा उनका बहुआयामी व्यक्तित्व लोगों को प्रेरित और विस्मित करता है। प्रस्तुत है उनसे डॉ.अभिज्ञात से की गयी लम्बी बातचीत के अंश :

प्रश्न : आप पुलिस प्रशासनिकसेवा जैसे उलझन भरे और तनावपूर्ण दायित्व तथा साहित्य-संस्कृति जैसे कोमल विषय के बीच तालमेल कैसे बिठाते हैं? क्या दोनों के बीच कोई अंतर्विरोध नहीं महसूस होता?
उत्तर : नहीं। उल्टे मैं पुलिस सेवा से जुड़ी अपनी प्रशासनिक जिम्मेदारियों को और गंभीरता से ले पाता हूं। मेरे लिए किसी समस्या का निदान सिर्फ सरकारी ड्यूटी नहीं रह जाता, मैं उससे व्यक्तिगत तौर पर भी अपने को जुड़ा हुआ पाता हूं और संतोषजनक निदान की तलाश करता हूं। मैं अपने कामकाज में उस साहित्यिक संवेदना को छोड़ नहीं पाता, जो मेरे स्वभाव में रची-बसी है। उसका उल्टा भी सच है कि मैं यदि प्रशासनिक कार्यों से सीधे तौर पर करीब से जुड़ा न होता तो स्थितियों को उस तरह से देखने का अवसर नहीं मिलता, जैसा मैं देख और समझ पाता हूं। इससे मेरे अनुभव व संवेदन जगत का विस्तार हुआ है। कई बार ऐसे हालात सामने आये जिसने मुझे लिखने को प्रेरित किया। मेरी कई रचनाएं प्रशासनिक जिम्मेदारियों के निर्वाह के दौरान प्राप्त अनुभवों पर आधारित हैं या उनसे प्रेरित हैं। इस प्रकार मेरे व्यक्तित्व के दोनों पहलू मुझे एक दूसरे के पूरक लगते हैं और एक दूसरे को खुराक पहुंचाते रहते हैं। 12 देशों के बोरोबुदुर सम्मेलन में मैंने भारत का प्रतिनिधित्व किया था। उस आयोजन में मैंने कविता पढ़ी थी- 'बुद्ध हम तुम्हें बेचना चाहते हैं..' जो बेहद पसंद की गयी और इस प्रकार मेरी रचनात्मकता ने मुझे मेरे प्रशासनिक दायित्व के निर्वाह में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। जब मैं आरपीओ था, मेरे समक्ष एक तलाक का मुद्दा आया था। पति-पत्नी के बीच एक बच्चा था- कौस्तुभ। उस बच्चे के भविष्य को लेकर मैं चिंतित हो उठा था। मैंने कौस्तुभ पर कविता भी लिखी थी।
प्रश्न : इन दिनों कालिदास के 'मेघदूत' के आपके काव्यानुवाद की खासी चर्चा है। इसमें आपने किन बातों पर विशेष तौर पर ध्यान दिया?
उत्तर : मूल कृति में कालिदास की भाव-भव्यता और काव्य-सौंदर्य को किस प्रकार बचाये रख कर अनुवाद हो इस पर मैंने विशेष ध्यान दिया। मैंने इस बात को महसूस किया कि छंदों का गद्य में अनुवाद प्रभावी नहीं होगा, इसलिए मैंने उपयुक्त छंद की रचना की। लय के बिना कालिदास के भावों के बिखरे मोतियों के खो जाने की आशंका मुझे थी।
प्रश्न : अनुवाद को आपने प्रासंगिक किस तरह बनाया है और अपनी तरफ से उसमें क्या दिया है?
उत्तर : इस रचना को गुनते समय मुझे यह महसूस हुआ कि इसमें यक्षिणी के विरह पक्ष को उद्घाटित किया गया है, जबकि यक्ष की विरह-वेदना काव्य में अंत:सलिला की तरह बहती रहती है। मैंने इस कृति में यक्ष के विरह-बिंदुओं की खोज की है। अपनी ओर से मैंने मूल छंदों की तरह ही यक्ष के विरह को महत्व देने वाले छंदों को जोड़ा है। यक्ष का परिचय प्रथम पुरुष के रूप में दिया है। मुझे यह आवश्यक लगा था कि मैं कृति के नायक का परिचय पहले दे दूं ताकि मूल कथ्य से पाठक जुडऩे में सहज हो सके, जैसे नाटक के प्रारंभ में पात्र परिचय दिया जाता है। यह मामला कुछ उसी तरह का है। इसके अलावा मैंने पर्यावरण से जुड़े कई प्रश्नों को भी पूरी शिद्दत से इसमें उठाया है।
प्रश्न : कालिदास की कृति का अनुवाद करने की प्रेरणा कहां से मिली?
उत्तर : मेरे संगीतकार मित्र देवज्योति मिश्र ने मुझसे एक फिल्म के लिए मेघ पर छंद लिखने को कहा। वे चाहते थे कि मैं कालिदास के 'मेघदूत' जैसा कुछ लिखूं। इस संदर्भ में मैंने डॉ. उदयभानु सिंह से संपर्क किया। वे मेरी पत्नी के दादाजी तथा संस्कृत के उद्भट विद्वान थे, जो अब नहीं रहे। मेघदूत को समझने के लिए मैंने उनके साथ पढ़ा। मैंने उनसे गुजारिश की कि वे संस्कृत के सामासिक शब्दों को तोड़ दें ताकि मैं उसकी तहों में छिपे अर्थों की भी खोज कर सकूं। मैंने उन्हें कृति पर कोई टिप्पणी करने से मना कर दिया था ताकि उनकी टिप्पणियों और नजरिये का मुझ पर प्रभाव न पड़े और मैं उन अर्थों को स्वत: प्राप्त कर सकूं। इस प्रकार मेघदूत ने मुझे अपने आकर्षण में पूरी तरह से बांध लिया और अनुवाद के जरिये उसके पुनर्सृजन की इच्छा मुझमें जगी। मेघदूत के अनुवाद का कार्य अब पूरा हो चुका है। मैंने हिन्दी और अंग्रेजी, दोनों भाषाओं में यह कार्य किया है। हिन्दी रचना की भूमिका संस्कृत के साधक तथा ज्ञानपीठ सम्मान, पद्मश्री व पद्मभूषण से नवाजे गये डॉ. सत्यव्रत शास्त्री ने लिखी है। अंग्रेजी अनुवाद को ट्रेफर्ड पब्लिकेशंस, यूएसए प्रकाशित कर रहा है। उसके 40 छंदों का अनुवाद इंडोनेशियाई भाषा में आयु उतामी ने किया तथा उन्होंने अक्टूबर 2011 में हुए सालीहारा लिटरेरी फेस्टिवल में उसका पाठ भी किया था।
प्रश्न : जब आप अंग्रेजी हिन्दी दोनों भाषाएं समान रूप से जानते हैं तो फिर अंग्रेजी में क्यों नहीं लिखते? बतौर लेखक अंग्रेजी वालों में स्टारडम है। पैसा और शोहरत दोनों अधिक है।
उत्तर : स्वभावत: मैं अपने को हिन्दी के करीब पाता हूं। मैं जब हिन्दी में लिखने बैठता हूं तो भाव अपने आप शब्द लेकर आते हैं, जबकि अंग्रेजी में मैं अपनी बातों को शब्द पहनाता हूं। इस तरह जब हिन्दी ही मेरी स्वाभाविक रचनात्मक भाषा है तो फिर उसी में क्यों न लिखूं?
प्रश्न : भोजपुरी में भी तो आप लिखते हैं?
उत्तर : भोजपुरी मेरी बोली है जो मेरे उन भावों को भी व्यक्त करती है जिसका किसी और भाषा में अनुवाद करने की मुझे आवश्यकता महसूस नहीं हुई। मुझे भोजपुरी से प्रेम है और वह मेरी निजता की भाषा है। मुझे किसी को प्रदर्शित करने की आवश्यकता नहीं हुई कि मैं भोजपुरी बोलता हूं और अपनी गीतात्मकता को उसमें व्यक्त करता हूं। मैंने भोजपुरी में गीत लिखेे हैं और भोजपुरी गीत गाता भी हूं।
प्रश्न : इन दिनों क्या रच रहे हैं?
उत्तर : द्रोपदी पर लिखना शुरू किया है। यह एक खण्ड-काव्य होगा। इसके 15-20 छंद अब तक लिख चुका हूं। मैं द्रोपदी को आज की नारी की चुनौतियों के साथ जोड़कर देखता हूं और प्रयास कर रहा हूं कि मेरी कृति की द्रोपदी आज की नारी शक्ति का प्रतीक बने। मैंने द्रोपदी को उसके पौराणिक चरित्र से फ्लैश बैक में उठाया है। द्रोपदी के उस रूप को आदर्श के रूप में ग्रहण किया है जब उसकी मृत्यु के दिन करीब आते हैं और वह होमाग्नि में समर्पित होने जाती है। वहीं मैं उसके विश्वरूप को देखता हूं। मैंने कथा को वहीं से शुरू किया है और उसके आलोक में उसके पूर्ववर्ती रूपों को शब्द देना शुरू किया है।
प्रश्न : क्या महाभारत के प्रसंगों पर पहले भी कोई काम किया है?
उत्तर : हां, जब मैं इंडोनेशिया में सेवारत था, महाभारत के चरित्र शिखंडी पर संगीत-नाटक या डांस बैले लिखा था, जिसे नाम दिया था 'शिखंडिनी'। उसमें मेरे साथ दिदिक निनी थोवोक ने काम किया था। वे जावा नृत्य के शिरोमणि समझे जाते हैं, जो ट्रांसजेंडर हैं। उसमें जावनीज नृत्यकारों, कत्थक व छऊ डांसर्स ने मिलकर काम किया था। यह एक घंटे का कार्यक्रम था। इसमें मैंने शिखंडी के प्रारब्ध और नियति के अंतद्र्वंद्व को रेखांकित किया है। मैंने यह भी दिखाया है कि प्राकृतिक नियमों की उपेक्षा करने के कारण कैसे भीष्म जैसा शक्तिशाली चरित्र मानवीय दुर्बलता से उबर नहीं पाता। भारत-इंडोनेशिया के कूटनीतिक संबंधों की 60 वीं वर्षगांठ पर जो ऐेतिहासिक समारोह मनाया गया, उसके उद्घाटन कार्यक्रम का यह प्रमुख हिस्सा था। यहां यह उल्लेखनीय है कि शिखंडी को लेकर इंडोनेशिया और भारत की पौराणिक परंपरा एक ही है। वहां उन्हें श्रीकांडी कहा जाता है। वहां श्रीकांडी की पूजा होती है। शिखंडी ने अर्जुन की पत्नी के रूप में भी अपनी भूमिका निभाई थी और भीष्म पर विजय पाने में अर्जुन की मदद की थी। इंडोनेशिया में मेरी मित्र इबू इला हैं। इबू इला ने चित्रा बनर्जी दिवाकुरनी की पुस्तक 'पैलेस ऑफ इल्यूजन' का अनुवाद किया है। इस उपन्यास को पढऩे और इबू इला के साथ द्रोपदी के चरित्र और व्यक्तित्व पर चर्चा के दौरान यह प्रेरणा और भी बलवती हो उठी।
प्रश्न : आपने अपनी रचनाओं या अनुवाद में जो भी प्रसंग उठाये हैं वे हिन्दू पौराणिक चरित्रों से जुड़े हैं। क्या यह माना जाये कि आप हिंदुत्व के मुद्दों को तरजीह देते हैं?
उत्तर : नहीं। हिंदुत्व मेरा एजेंडा नहीं है। धर्म विशेष की बहुलता वाले संदर्भों का मतलब यह नहीं कि मैं उसे तरजीह देता हूं। यह मेरी सामाजिक पृष्ठभूमि की वजह से स्वाभाविक रूप से आया है। किसी भी रचनाकार के ज्ञान व संवेदना का संबंध अनिवार्यत: उसकी पृष्ठभूमि से होता है। मैंने फिल्म 'चतुरंग' के लिए सूफी गीत लिखे हैं। सूफी गीत या काव्य इस्लामिक परंपरा की रचनाएं हैं, जिनका सरोकार मेरे पालन-पोषण से उतना नहीं रहा जितना कि हिन्दू परंपराओं का। फिर भी अपने परिवेश और जगत में जीते हुए इन परंपराओं के बारे में जो मैंने जाना, वे सब मेरी रचनाओं में परिलक्षित होते हैं। चतुरंग फिल्म के दो सूफी गीत (जिन्हें देवज्योति मिश्र के संगीत निर्देशन में शफकत अमानत अली ने गाये हैं ) मेरे इसी पक्ष का उदाहरण हैं। मेरे प्रथम-काव्य संग्रह 'किरचें' में भी कुछ गजलें हैं, जिनमें उर्दू के ऐसे शब्द और बिंब प्रयुक्त हुए हैं, जो साधारणतया हिंदी लेखकों से अपेक्षित नहीं होते।

आदर्श युवक के सम्मोहक प्रेम के सूत्र में बंधल सामाजिक ताना बना


हरेन्द्र कुमार पाण्डेय का भोजपुरी उपन्यास जुगेसर

जुगेसर के लोकार्पण के अवसर पर बाएं से हरेन्द्र कुमार पाण्डेय, डॉ.केदारनाथ सिंह, महाश्वेता देवी, डॉ.सुब्रत लाहिड़ी एवं हरिराम पाण्डेय

प्रस्तावना

-डॉ.अभिज्ञात
'जुगेसर' उपन्यास एक अइसन व्यापक फलक वाला आधुनिक उपन्यास हऽ जवना में गांव अउर शहर दूनों के सामाजिक परिस्थिति अउर चुनौती के वस्तुपरक ढंग से बहुत व्यापक अर्थ में चित्रण बा। कथानक के पात्र खाली व्यक्ति हउअन बल्कि ऊ मौजूदा समाज के एक अइसन व्यक्ति बनकर आईल बाडऩ जवना में उनका निजीपन के अतिक्रमण भइल बा आ ऊ समाज के लाखोंलाख लोगन के प्रतिनिधित्व करे में समर्थ बाडऩ। उपन्यास के नायक जुगेसर कउनो साधारण युवक ना हउअन बल्कि ऊ एगो अइसन जोशीला, आदर्शवादी अऊर निष्कपट व्यक्ति हउअन जवन समाज में व्याप्त तमाम समस्या से जूझऽता अउर अपना ढंग से प्रतिक्रिया देऽता और एही समाज में अपने जीये के एगो अलग रास्ता बनावऽता। ई रास्ता संघर्ष के नइखे ऊ सहअस्तित्व के सिद्धांत पर चलऽ ता। दोसरा के बदले के तऽ बहुत प्रयास नइखन करऽत लेकिन अपना आचरण के शुचिता के अन्तत: बरकरार रखे में सफल बाड़े। जुगेसर के जीवन अपने आपमें एगो आदर्श युवक के जीवन बा अऊर चुपचाप एगो मॉडल देश-दुनिया के सामने रखऽ ता कि कइसे विपरीत परिस्थिति में बिना समझौता कइले भी व्यक्ति सादगी और बिना भ्रष्टाचार के कवनो रास्ता अपनवले आपन जीवन शुचिता से गुजार सक ता।
जुगेसर साइंस के मेधावी छात्र रहे अउर बिना कवनो जोड़ तोड़ के भी अपना व्यक्तित्व के खूबी के साथ भी तरक्की करत चलऽ जा ता। पद प्रतिष्ठा में जुगेसरसे सफल व्यक्ति भी ओकरा व्यक्ति के आगे नत हो जाता और पाठक के निगाह में बौना भी। सफल व्यक्ति हमेशा समाज के आदर्श व्यक्ति ना होखे ई बात पूरी शिद्दत से हरेन्द्र कुमार जी अपना ये उपन्यास में उठवले बानी तथा ईहो एगा कारण बा जवन ए उपन्यास के सार्थकता प्रदान कर ता।
उपन्यास में खाली सामाजिक ठोस यर्थाथ ही नइखे अपितु एकर प्रमुख विशेषता बा एकर रोचकता। हृदयस्पर्शी एगो प्रेम कथा के सूत्र से ई उपन्यास बंधल बा जवन जुगेसर के दाम्पत्य जीवन में भी बरकरार रहऽ ता, जवन ना सिर्फ युवा पाठकन के बल्कि प्रौढ़ पाठक के भी समान रूप से आकृष्ट करी। स्त्री के व्यक्तित्व के औदात्यपूर्ण चित्रण भी ए उपन्यास के अर्थवान बनावे में समर्थ बा। जुगेसर के प्रेमिका पूजा, जवना से बाद में जुगेसर अपना परिवार के अनिच्छा के बावजूद शहर में विवाह कर ले ता, एक अइसन आदर्श नारी के रूप में उभर के आवऽ तिया जे भारतीय समाज के पारिवारिक ताना-बाना के मजबूत कऽ के आदर्श प्रस्तुत करऽ तिया। प्रेम परिवार से अलगाव करावे ला के प्रचलित धारणा के विपरीत मौका पड़ला पर प्रेम के परिधि केतना विस्तृत हो सकेला पूजा के चरित्र ओकर उदाहरण बा। उपन्यास में प्रेम के द्वंद्व, अंतरजातीय विवाह के समस्या, शिक्षा जगत व राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार आदि समस्या के बखूबी उठावल गइल बा जवन उपन्यास के उपन्यासे नइखे रहे देत बल्कि समाज के मौजूदा स्वरूप पर सार्थक टिप्पणी बन जाता। उपन्यास में प्रेम क कएक गो दृश्य एतना जीवन्त बा कि पढ़त समय पाठक के सामने दृश्य उपस्थित करे में समर्थ बा। हरेन्द्र जी के लेखन शैली एतना सादगी पूर्ण और भाषा एतना सरल-सहज व प्रवाहपूर्ण बा कि कहीं से साहित्यिकता के आतंक नइखे होत बल्कि रोचकता, सरसता व आगे का भइल जाने के जिज्ञासा अन्त तक बनल रह ता। अउर अन्त में उपन्यास पढ़ के आंख छलाछला जाय तो एके उपन्यास दोष न मानल जाव, मन भारी हो जायी लेकिन उपन्यास के कथानक और चरित पाठक के मन में हमेशा-हमेशा खातिर आपन जगह त बनइये ली, ई पूरा विश्वास बा।
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