Monday 21 November 2011

पश्चिम का सांस्कृतिक आतंक है नोबेल पुरस्कार-केदारनाथ सिंह


कवि केदारनाथ सिंह से डॉ. अभिज्ञात की बातचीत
'क्यों और क्यों हम नोबेल पुरस्कार को इतना महत्व देते हैं। मुझे तो कभी-कभी वह पश्चिम के सांस्कृतिक आतंक की तरह लगता है।' यह कहना है कवि केदारनाथ सिंह का। वे हाल ही में साहित्य अकादमी के कार्यक्रम में शिरकत करने कोलकाता आये थे। इसमें उन्हें अकादमी की 'महत्तर सदस्यता' प्रदान की गयी, जो अकादमी का सर्वोच्च सम्मान है। प्रस्तुत है की गयी लम्बी बातचीत का एक अंश:
प्रश्न: रवीन्द्रनाथ टैगोर के बाद नोबेल साहित्य पुरस्कार के लिए भारत में आप किसे योग्य मानते हैं और हिन्दी के किसी लेखक के लिए क्या संभावना देखते हैं?
उत्तर: कुछ दिन पहले ही मैं चीन गया था। वहां बीजिंग लेखक संघ के अध्यक्ष ने अपनी बातचीत में यह सवाल उठाया था कि हम नोबेल पुरस्कार को इतना महत्व क्यों दें। इस पर मैं उनसे सहमत हूं। पूर्व के प्रतिमान अपने हैं और हमें अपने साहित्य को उसी के आलोक में देखना चाहिए। यदि विश्व स्तर पर साहित्य की श्रेणी बनानी भी हो तो उसके पैमाने अलग-अलग होने चाहिए। अब तक जो राजनीति में 'लुक ईस्ट' की बात कही जा रही है, कही तो किसी और संदर्भ में जा रही है किन्तु साहित्य के क्षेत्र में भी यह बात मुझे आज आवश्यक व अर्थपूर्ण लगती है।
भारतीय साहित्यकारों को नोबेल दिये जाने की संभावना की बात की जाये तो इसके योग्य कई हिन्दी लेखक हैं और हो गये हैं। हिन्दी की बात करें तो प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद तथा निराला इसके हकदार हो सकते थे। हिन्दी के अलावा भारत की अन्य भाषाओं में भी कई लेखक हैं जो अपने लेखन की वजह से इसके योग्य माने जा सकते हैं।
प्रश्न: आप जीवन के उत्सव के कवि कहलाना पसंद करेंगे या जीवन की आपदा की अभिव्यक्ति का, क्योंकि ये दोनों ही तत्व आपकी कविता में पूरी शिद्दत से उभर कर आये हैं?
उत्तर: मैं अपने को मूलत: जीवन राग का कवि मानता हूं, जिसमें जीवन का उत्सव भी शामिल है और आने वाली आपदा से संघर्ष भी। वैसे हर सार्थक कवि जीवन राग का कवि ही होता है। मेरे गुरु त्रिलोचन की कविता की एक पंक्ति है-'जीवन मिला है यह, रतन मिला है यह।' ऐसी पंक्तियां जीने की प्रेरणा देती हैं। जीवन मेरी नजर में एक सेलिब्रेशन है। कविता यही तो करती है कि मनुष्य की जिजीविषा को बनाये रखे।
प्रश्न-आपके यहां मनुष्य का संकट और प्रकृति का संकट दोनों समान रूप से विद्यमान है, आप स्वयं किसे अधिक तरजीह देते हैं?
उत्तर: मनुष्य का संकट और प्रकृति का संकट अलग-अलग नहीं है क्योंकि जीवन मूल रूप से प्रकृति ही है। यानी जो इसके विपरीत है वह विकृति है। मैं इस विभाजन को बहुत अर्थवान नहीं मानता। मेरे लिए दोनों एक है।
प्रश्न: साहित्य में अपने या दूसरे किसी के निजी जीवन की अभिव्यक्ति किस स्तर पर होनी चाहिए?
उत्तर: निजी जीवन और साहित्य में अन्तर है पर निजी जीवन सामान्यीकृत होकर साहित्य में आता है। प्रेम में कविता महत्वपूर्ण तत्व रहा है पर जब वह कविता में आता है तो केवल व्यक्तिगत प्रेम नहीं रह जाता। यदि रह जाता है तो साधारणीकरण नहीं होता। साहित्य की यही तो विशेषता है कि वह निजता व सार्वजनीन के बीच की दीवार को ढहा देता है।
प्रश्न: आपके मन में कभी आत्मकथा लिखने का खयाल आया?
उत्तर: नहीं। लेकिन एक इच्छा मेरे मन में बहुत दिनों से पल रही है कि जिस परिवेश में मैं जीता रहा, चाहे गांव हो या शहर, उस परिवेश की कथा लिखूं। 'कथा माने 'फिक्शन' नहीं। मैंने जैसा देखा है वैसा। यह बहुत दिनों से सोच रहा हूं और शायद कभी कर सकूं। इसके लिए गद्य मुझे बार-बार खींचता है। अक्सर लगता है कि हमारा समय गद्य में सार्थक ढंग से उतर पाता है। कविता की तिर्यक पद्धति के विपरीत होती है गद्य की पद्धति। गद्य जीवन को सीधे-सीधे आईना देता है। यही उसकी ताकत है।
प्रश्न: अपने देश में वामपंथी राजनीति के विफल होने के क्या कारण हो सकते हैं?
उत्तर: वामपंथी आंदोलन हमारे यहां ही नहीं पूरी दुनिया में किसी हद तक छिन्न-भिन्न हुआ है लेकिन खत्म हुआ है यह नहीं कहूंगा। पश्चिम में 'इतिहास का अन्तÓ कहकर जिस मुहावरे को उछाला गया था वह भी पुराना पड़ गया है। वामपंथी सत्ता और माक्र्सवाद दोनों अभिन्न नहीं हैं। माक्र्सवाद की सारवस्तु में एक ऐसी सच्चाई है, एक ऐसी गहरी मानवीय सच्चाई कि उसकी सार्थकता लम्बे समय तक रहेगी। माक्र्सवाद लौट-लौट कर कई शक्लों में बार-बार मनुष्य जीवन के साथ किसी न किसी रूप में जुड़ता रहेगा। इस तरह उसकी नियति को प्रभावित करता रहेगा।
प्रश्न: साहित्यकारों के पास इन दिनों विचारधारा का संकट है और वे समाज को दिशा दे पाने में असमर्थ हैं, तो उसकी वजहें क्या हैं?
उत्तर: आज की नियामक शक्ति राजनीति है। साहित्य तो केवल चेतना के निर्माण में योगदान देता है और उसका हिस्सा विचारधारा भी होती है। सम्पूर्ण विचारधारा चेतना का स्थानापन्न नहीं है। साहित्य के व्यापक अनुभव के बाद मैं जो देखता हूं उसके आधार पर कह रहा हूं कि साहित्य आज भी मनुष्य की चेतना के निर्माण में अपनी सक्रिय भूमिका लगातार निभा रहा है। अन्तर यही है कि राजनीति के इतिहास की तरह साहित्य का इतिहास सतह पर दिखायी नहीं पड़ता। वह गहराई में जाकर अपना काम करता है। मनुष्य जीवन के सारभूत अंश को किसी न किसी रूप में प्रभावित करता है।
प्रश्न: हाल ही में क्या पढ़ा और उसमें क्या अच्छा या बुरा लगा?
उत्तर : इधर पढ़ी गयी जिस पुस्तक ने आंदोलित किया है वह है एक दलित आत्मकथा -मुर्दहिया। यह डॉ.तुलसीराम की कृति है, जो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं और स्वयं आजमगढ़ के एक छोटे से गांव में पैदा होने वाले विद्वान हैं। यह आत्मकथा बेबाक ढंग से डायरेक्ट चोट करने वाली भाषा में लिखी गयी है। उसकी भाषा धीरे-धीरे आपको अपने विश्वास में ले लेगी। यह आपको भीतर तक हिला देती है। इधर जो कुछ लिखा गया है उसकी एक उपलब्धि यह कृति भी है।
प्रश्न: क्या आप पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं?
उत्तर: पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करता। बुद्ध में करता हूं। बौद्ध धर्म बहुत आकृष्ट करता है पर जातक कथाएं लोक-कल्पना की तरह लगती हैं और उसे उसी रूप में देखता हूं।
प्रश्न: अपने लिखे में से कौन सी रचना से अधिक संतोष है और क्यों?
उत्तर: साहित्यकार को अपनी कृतियों से पूर्ण संतुष्टि शायद एक कल्पना है। लेखक अपनी कृतियों से कभी संतुष्ट नहीं होता। आंद्रे जीद ने कहीं लिखा है कि मैं अपनी हर कृति के अन्त में एक और वाक्य जोडऩा चाहता हूं वह ये कि- 'मैं जो कुछ कहना चाहता था वह नहीं कह पाया।'
प्रश्न: अण्णा हजारे और जेपी में से कौन अधिक पसंद है और आपको दोनों में बुनियादी फर्क क्या लगता है?
उत्तर: अण्णा हजारे के आंदोलन पर कोई टिप्पणी करना मैं जरूरी नहीं समझता। जेपी से अण्णा की तुलना नहीं हो सकती। जेपी का व्यक्तित्व बहुत बड़ा था। उनके आंदोलन ने भारतीय राजनीति को बहुत दूर तक प्रभावित किया। यह प्रभाव किस-किस रूप में पड़ा यह अलग विचार का मुद्दा है।

Monday 7 November 2011

आज के नैतिक सवालों से मुठभेड़ करता उपन्यास



समीक्षा
साभारःसन्मार्ग, 6 नवम्बर 2011
पुस्तक का नाम: हारिल/लेखक-हितेन्द्र पटेल/ अंतिका प्रकाशन, सी-56/यूजीएफ-4, शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन-2, गाजियाबाद-2010005(उप्र)/मूल्य-सौ रुपये।

हितेन्द्र पटेल का पहला उपन्यास 'हारिल' अपने रचना-शिल्प, कथन और कहने की भंगिमा की उत्कृष्टता के कारण पाठकों पर अपना प्रभाव छोडऩे में कामयाब है। इस कृति में लेखक की जो बात मुझे खास तौर पर रेखांकित करने योग्य लगी, वह है रचना में शब्दों के प्रयोग की सीमा का भान। अतिकथन अच्छी-अच्छी कृतियों के प्रभाव को क्षीण कर देता है। खास तौर पर किसी के पहले उपन्यास में यह खतरे बहुत होते हैं, जिससे यह कृति बची हुई है। घटनाक्रम के ब्यौरों को उन्होंने इतने संतुलित ढंग से रखा है कि वे पाठकों को अनावश्यक कहीं नहीं लगते। यही बात कथा प्रसंगों के निर्वाह में भी कही जा सकती है, बल्कि इस मामले में तो वे और चुस्त-दुरुस्त हैं। वे घटनाओं को उसी मोड़ पर लाकर खत्म कर देते हैं, जहां से कई दिशाएं दिखायी देती हैं और पाठक के पास बस यही विकल्प बचता है कि वह कथासूत्र को अपनी कल्पना के आधार पर मनचाही परिणति तक ले जाये। लेखक का काम वहीं खत्म हो जाता है, जहां वह पाठक का अपनी कथावस्तु के साथ तादात्म्य स्थापित करवा दे। वे घटनाओं को वहां छोड़ते हैं, जहां उनका निहितार्थ है। यह सामान्य पाठकों को पहले-पहल तो आधी-अधूरी कृति का एहसास दिलाता है किन्तु आगे क्या हुआ होगा कि प्यास जगाकर छोड़ देना किसी रचनाकार के वैशिष्ट्य के तौर पर देखना अधिक समीचीन लगता है। यह रचना स्वभाव और कहने का अंदाज कम ही लेखकों के पास है।
हारिल उपन्यास में नैतिक मूल्यों के ह्नास की बात जिस सादगी से उठायी गयी है, वह इस रचना की उपलब्धि है क्योंकि वह उसकी अर्थवत्ता को अनेकार्थता तक ले जाने में सहायक है। लम्बे-चौड़े भाषण, बड़े-बड़े दावे और आक्रांत करने वाली मुद्रा यहां नहीं है। यहां वेधक कटाक्ष हैं, जो हमें अपनी परिपाटी का हिस्सा हो चले समझौतों के प्रति सचेत करते हैं। किस चतुराई और उदात्तता से पूंजी लोगों को अपना गुलाम बनाती है, उसकी गहरी शिनाख्त इस कृति में मिलेगी। प्रकृति, दर्शन, विचार, इतिहास, प्रेम, पूंजीवाद का धूर्त चेहरा इसमें रह- रह कर अपने अपने अलग-अलग रूपों में सामने आता है और हमें चमत्कृत, मोहित और आक्रांत करता है। यह आभास होता है कि यह कृति एक लम्बी तैयारी के साथ लिखी गयी है किन्तु हर शब्द मितव्ययिता के साथ खर्च हुए हैं। एक एक शब्द जरूरी और वाजिब।
एक फ्रीलांसर पत्रकार की यह दास्तान उसके एक पुराने मित्र, मित्र की पत्नी, मित्र की साली और मित्र के पत्नी के प्रेमी के इर्द-गिर्द घूमती है लेकिन इसके बीच वह एकाएक जटिल शहरी सम्बंधों से दूर प्रकृति के करीब पहाड़ पर चला जाता है ताकि अपने भीतर की आवाज को सुन सके। वहां कुछ ऐसे लोग और एक ऐसी दुनिया से उसका साबका होता है, जहां से जीने के नये अर्थ उसे मिलते हैं। बदली हुई जीवन दृष्टि के साथ जब वह तीन माह बाद वह अपनी पुरानी दुनिया में लौटता है तो एक बदली हुई दुनिया उसके सामने होती है। बदली हुई परिस्थितियों का सामना वह जिस प्रकार करता है, क्या वह सही है, उपन्यास के खत्म होने के बाद भी पाठक के पास सवाल बचा रह जाता है, जो नैतिक भी है और टाला जाने वाला भी नहीं है। आज की नैतिकता से मुठभेड़ के लिए यह उपन्यास अलग से जाना जायेगा। पाठक को भी इस उपन्यास से गुजरने के बाद चीजों को अपने देखने-समझने के नजरिये में बदलाव महसूस हो सकता है।


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