Monday 21 November 2011

पश्चिम का सांस्कृतिक आतंक है नोबेल पुरस्कार-केदारनाथ सिंह


कवि केदारनाथ सिंह से डॉ. अभिज्ञात की बातचीत
'क्यों और क्यों हम नोबेल पुरस्कार को इतना महत्व देते हैं। मुझे तो कभी-कभी वह पश्चिम के सांस्कृतिक आतंक की तरह लगता है।' यह कहना है कवि केदारनाथ सिंह का। वे हाल ही में साहित्य अकादमी के कार्यक्रम में शिरकत करने कोलकाता आये थे। इसमें उन्हें अकादमी की 'महत्तर सदस्यता' प्रदान की गयी, जो अकादमी का सर्वोच्च सम्मान है। प्रस्तुत है की गयी लम्बी बातचीत का एक अंश:
प्रश्न: रवीन्द्रनाथ टैगोर के बाद नोबेल साहित्य पुरस्कार के लिए भारत में आप किसे योग्य मानते हैं और हिन्दी के किसी लेखक के लिए क्या संभावना देखते हैं?
उत्तर: कुछ दिन पहले ही मैं चीन गया था। वहां बीजिंग लेखक संघ के अध्यक्ष ने अपनी बातचीत में यह सवाल उठाया था कि हम नोबेल पुरस्कार को इतना महत्व क्यों दें। इस पर मैं उनसे सहमत हूं। पूर्व के प्रतिमान अपने हैं और हमें अपने साहित्य को उसी के आलोक में देखना चाहिए। यदि विश्व स्तर पर साहित्य की श्रेणी बनानी भी हो तो उसके पैमाने अलग-अलग होने चाहिए। अब तक जो राजनीति में 'लुक ईस्ट' की बात कही जा रही है, कही तो किसी और संदर्भ में जा रही है किन्तु साहित्य के क्षेत्र में भी यह बात मुझे आज आवश्यक व अर्थपूर्ण लगती है।
भारतीय साहित्यकारों को नोबेल दिये जाने की संभावना की बात की जाये तो इसके योग्य कई हिन्दी लेखक हैं और हो गये हैं। हिन्दी की बात करें तो प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद तथा निराला इसके हकदार हो सकते थे। हिन्दी के अलावा भारत की अन्य भाषाओं में भी कई लेखक हैं जो अपने लेखन की वजह से इसके योग्य माने जा सकते हैं।
प्रश्न: आप जीवन के उत्सव के कवि कहलाना पसंद करेंगे या जीवन की आपदा की अभिव्यक्ति का, क्योंकि ये दोनों ही तत्व आपकी कविता में पूरी शिद्दत से उभर कर आये हैं?
उत्तर: मैं अपने को मूलत: जीवन राग का कवि मानता हूं, जिसमें जीवन का उत्सव भी शामिल है और आने वाली आपदा से संघर्ष भी। वैसे हर सार्थक कवि जीवन राग का कवि ही होता है। मेरे गुरु त्रिलोचन की कविता की एक पंक्ति है-'जीवन मिला है यह, रतन मिला है यह।' ऐसी पंक्तियां जीने की प्रेरणा देती हैं। जीवन मेरी नजर में एक सेलिब्रेशन है। कविता यही तो करती है कि मनुष्य की जिजीविषा को बनाये रखे।
प्रश्न-आपके यहां मनुष्य का संकट और प्रकृति का संकट दोनों समान रूप से विद्यमान है, आप स्वयं किसे अधिक तरजीह देते हैं?
उत्तर: मनुष्य का संकट और प्रकृति का संकट अलग-अलग नहीं है क्योंकि जीवन मूल रूप से प्रकृति ही है। यानी जो इसके विपरीत है वह विकृति है। मैं इस विभाजन को बहुत अर्थवान नहीं मानता। मेरे लिए दोनों एक है।
प्रश्न: साहित्य में अपने या दूसरे किसी के निजी जीवन की अभिव्यक्ति किस स्तर पर होनी चाहिए?
उत्तर: निजी जीवन और साहित्य में अन्तर है पर निजी जीवन सामान्यीकृत होकर साहित्य में आता है। प्रेम में कविता महत्वपूर्ण तत्व रहा है पर जब वह कविता में आता है तो केवल व्यक्तिगत प्रेम नहीं रह जाता। यदि रह जाता है तो साधारणीकरण नहीं होता। साहित्य की यही तो विशेषता है कि वह निजता व सार्वजनीन के बीच की दीवार को ढहा देता है।
प्रश्न: आपके मन में कभी आत्मकथा लिखने का खयाल आया?
उत्तर: नहीं। लेकिन एक इच्छा मेरे मन में बहुत दिनों से पल रही है कि जिस परिवेश में मैं जीता रहा, चाहे गांव हो या शहर, उस परिवेश की कथा लिखूं। 'कथा माने 'फिक्शन' नहीं। मैंने जैसा देखा है वैसा। यह बहुत दिनों से सोच रहा हूं और शायद कभी कर सकूं। इसके लिए गद्य मुझे बार-बार खींचता है। अक्सर लगता है कि हमारा समय गद्य में सार्थक ढंग से उतर पाता है। कविता की तिर्यक पद्धति के विपरीत होती है गद्य की पद्धति। गद्य जीवन को सीधे-सीधे आईना देता है। यही उसकी ताकत है।
प्रश्न: अपने देश में वामपंथी राजनीति के विफल होने के क्या कारण हो सकते हैं?
उत्तर: वामपंथी आंदोलन हमारे यहां ही नहीं पूरी दुनिया में किसी हद तक छिन्न-भिन्न हुआ है लेकिन खत्म हुआ है यह नहीं कहूंगा। पश्चिम में 'इतिहास का अन्तÓ कहकर जिस मुहावरे को उछाला गया था वह भी पुराना पड़ गया है। वामपंथी सत्ता और माक्र्सवाद दोनों अभिन्न नहीं हैं। माक्र्सवाद की सारवस्तु में एक ऐसी सच्चाई है, एक ऐसी गहरी मानवीय सच्चाई कि उसकी सार्थकता लम्बे समय तक रहेगी। माक्र्सवाद लौट-लौट कर कई शक्लों में बार-बार मनुष्य जीवन के साथ किसी न किसी रूप में जुड़ता रहेगा। इस तरह उसकी नियति को प्रभावित करता रहेगा।
प्रश्न: साहित्यकारों के पास इन दिनों विचारधारा का संकट है और वे समाज को दिशा दे पाने में असमर्थ हैं, तो उसकी वजहें क्या हैं?
उत्तर: आज की नियामक शक्ति राजनीति है। साहित्य तो केवल चेतना के निर्माण में योगदान देता है और उसका हिस्सा विचारधारा भी होती है। सम्पूर्ण विचारधारा चेतना का स्थानापन्न नहीं है। साहित्य के व्यापक अनुभव के बाद मैं जो देखता हूं उसके आधार पर कह रहा हूं कि साहित्य आज भी मनुष्य की चेतना के निर्माण में अपनी सक्रिय भूमिका लगातार निभा रहा है। अन्तर यही है कि राजनीति के इतिहास की तरह साहित्य का इतिहास सतह पर दिखायी नहीं पड़ता। वह गहराई में जाकर अपना काम करता है। मनुष्य जीवन के सारभूत अंश को किसी न किसी रूप में प्रभावित करता है।
प्रश्न: हाल ही में क्या पढ़ा और उसमें क्या अच्छा या बुरा लगा?
उत्तर : इधर पढ़ी गयी जिस पुस्तक ने आंदोलित किया है वह है एक दलित आत्मकथा -मुर्दहिया। यह डॉ.तुलसीराम की कृति है, जो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं और स्वयं आजमगढ़ के एक छोटे से गांव में पैदा होने वाले विद्वान हैं। यह आत्मकथा बेबाक ढंग से डायरेक्ट चोट करने वाली भाषा में लिखी गयी है। उसकी भाषा धीरे-धीरे आपको अपने विश्वास में ले लेगी। यह आपको भीतर तक हिला देती है। इधर जो कुछ लिखा गया है उसकी एक उपलब्धि यह कृति भी है।
प्रश्न: क्या आप पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं?
उत्तर: पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करता। बुद्ध में करता हूं। बौद्ध धर्म बहुत आकृष्ट करता है पर जातक कथाएं लोक-कल्पना की तरह लगती हैं और उसे उसी रूप में देखता हूं।
प्रश्न: अपने लिखे में से कौन सी रचना से अधिक संतोष है और क्यों?
उत्तर: साहित्यकार को अपनी कृतियों से पूर्ण संतुष्टि शायद एक कल्पना है। लेखक अपनी कृतियों से कभी संतुष्ट नहीं होता। आंद्रे जीद ने कहीं लिखा है कि मैं अपनी हर कृति के अन्त में एक और वाक्य जोडऩा चाहता हूं वह ये कि- 'मैं जो कुछ कहना चाहता था वह नहीं कह पाया।'
प्रश्न: अण्णा हजारे और जेपी में से कौन अधिक पसंद है और आपको दोनों में बुनियादी फर्क क्या लगता है?
उत्तर: अण्णा हजारे के आंदोलन पर कोई टिप्पणी करना मैं जरूरी नहीं समझता। जेपी से अण्णा की तुलना नहीं हो सकती। जेपी का व्यक्तित्व बहुत बड़ा था। उनके आंदोलन ने भारतीय राजनीति को बहुत दूर तक प्रभावित किया। यह प्रभाव किस-किस रूप में पड़ा यह अलग विचार का मुद्दा है।

Monday 7 November 2011

आज के नैतिक सवालों से मुठभेड़ करता उपन्यास



समीक्षा
साभारःसन्मार्ग, 6 नवम्बर 2011
पुस्तक का नाम: हारिल/लेखक-हितेन्द्र पटेल/ अंतिका प्रकाशन, सी-56/यूजीएफ-4, शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन-2, गाजियाबाद-2010005(उप्र)/मूल्य-सौ रुपये।

हितेन्द्र पटेल का पहला उपन्यास 'हारिल' अपने रचना-शिल्प, कथन और कहने की भंगिमा की उत्कृष्टता के कारण पाठकों पर अपना प्रभाव छोडऩे में कामयाब है। इस कृति में लेखक की जो बात मुझे खास तौर पर रेखांकित करने योग्य लगी, वह है रचना में शब्दों के प्रयोग की सीमा का भान। अतिकथन अच्छी-अच्छी कृतियों के प्रभाव को क्षीण कर देता है। खास तौर पर किसी के पहले उपन्यास में यह खतरे बहुत होते हैं, जिससे यह कृति बची हुई है। घटनाक्रम के ब्यौरों को उन्होंने इतने संतुलित ढंग से रखा है कि वे पाठकों को अनावश्यक कहीं नहीं लगते। यही बात कथा प्रसंगों के निर्वाह में भी कही जा सकती है, बल्कि इस मामले में तो वे और चुस्त-दुरुस्त हैं। वे घटनाओं को उसी मोड़ पर लाकर खत्म कर देते हैं, जहां से कई दिशाएं दिखायी देती हैं और पाठक के पास बस यही विकल्प बचता है कि वह कथासूत्र को अपनी कल्पना के आधार पर मनचाही परिणति तक ले जाये। लेखक का काम वहीं खत्म हो जाता है, जहां वह पाठक का अपनी कथावस्तु के साथ तादात्म्य स्थापित करवा दे। वे घटनाओं को वहां छोड़ते हैं, जहां उनका निहितार्थ है। यह सामान्य पाठकों को पहले-पहल तो आधी-अधूरी कृति का एहसास दिलाता है किन्तु आगे क्या हुआ होगा कि प्यास जगाकर छोड़ देना किसी रचनाकार के वैशिष्ट्य के तौर पर देखना अधिक समीचीन लगता है। यह रचना स्वभाव और कहने का अंदाज कम ही लेखकों के पास है।
हारिल उपन्यास में नैतिक मूल्यों के ह्नास की बात जिस सादगी से उठायी गयी है, वह इस रचना की उपलब्धि है क्योंकि वह उसकी अर्थवत्ता को अनेकार्थता तक ले जाने में सहायक है। लम्बे-चौड़े भाषण, बड़े-बड़े दावे और आक्रांत करने वाली मुद्रा यहां नहीं है। यहां वेधक कटाक्ष हैं, जो हमें अपनी परिपाटी का हिस्सा हो चले समझौतों के प्रति सचेत करते हैं। किस चतुराई और उदात्तता से पूंजी लोगों को अपना गुलाम बनाती है, उसकी गहरी शिनाख्त इस कृति में मिलेगी। प्रकृति, दर्शन, विचार, इतिहास, प्रेम, पूंजीवाद का धूर्त चेहरा इसमें रह- रह कर अपने अपने अलग-अलग रूपों में सामने आता है और हमें चमत्कृत, मोहित और आक्रांत करता है। यह आभास होता है कि यह कृति एक लम्बी तैयारी के साथ लिखी गयी है किन्तु हर शब्द मितव्ययिता के साथ खर्च हुए हैं। एक एक शब्द जरूरी और वाजिब।
एक फ्रीलांसर पत्रकार की यह दास्तान उसके एक पुराने मित्र, मित्र की पत्नी, मित्र की साली और मित्र के पत्नी के प्रेमी के इर्द-गिर्द घूमती है लेकिन इसके बीच वह एकाएक जटिल शहरी सम्बंधों से दूर प्रकृति के करीब पहाड़ पर चला जाता है ताकि अपने भीतर की आवाज को सुन सके। वहां कुछ ऐसे लोग और एक ऐसी दुनिया से उसका साबका होता है, जहां से जीने के नये अर्थ उसे मिलते हैं। बदली हुई जीवन दृष्टि के साथ जब वह तीन माह बाद वह अपनी पुरानी दुनिया में लौटता है तो एक बदली हुई दुनिया उसके सामने होती है। बदली हुई परिस्थितियों का सामना वह जिस प्रकार करता है, क्या वह सही है, उपन्यास के खत्म होने के बाद भी पाठक के पास सवाल बचा रह जाता है, जो नैतिक भी है और टाला जाने वाला भी नहीं है। आज की नैतिकता से मुठभेड़ के लिए यह उपन्यास अलग से जाना जायेगा। पाठक को भी इस उपन्यास से गुजरने के बाद चीजों को अपने देखने-समझने के नजरिये में बदलाव महसूस हो सकता है।


Tuesday 31 May 2011

सौ के पार, सुरों की बहार


साभारः कुरजां संदेश, , प्रवेशांक-मार्च अगस्त 2011
सम्पादकीय सलाहकार-ईशमधु तलवार/ सम्पादक-प्रेमचंद गांधी, ई-10, गांधीनगर, जयपुर-302015, मूल्य-100/-
हिन्दुस्तानी संगीत के ग्वालियर घराने को जिन्होंने नयी ऊंचाइयां दी हैं उनमें एक महत्वपूर्ण नाम है उस्ताद अब्दुल राशिद खान का। तानसेन की 24 वीं पीढ़ी के इस गायक ने उम्र की बंदिशों को धता बताते हुए एक सौ दो बसंत ही नहीं देखे बल्कि वे इस उम्र में बंदिशें लिखते और उनकी धुन तैयार करते हैं और मंचों पर अपनी गायकी के फन का लोहा भी मनवा लेते हैं। इस उम्र में भी न तो उनकी आवाज़ पर उम्र ने अपनी कोई छाप छोड़ी है और ना ही होशोहवास पर। शरीर की झुर्रियां, सफेद लखदख बाल अलबत्ता उनकी उम्र की गवाही देते हैं लेकिन इस बात का प्रमाण भी देते हैं कि वे उम्र की सीमाओं का अतिक्रमण कर रहे हैं।
उनके जीवन इस बात की मिसाल है कि उम्र से कोई बूढ़ा नहीं होता। और सौ की उम्र भी कुछेक असमर्थताएं जरूरत पैदा करती है लेकिन हर तरह से लाचार नहीं बनाती। वे अब भी संगीत के साधकों को रोजाना संगीत की चार-पांच घंटे तालीम देते हैं और वे मानते हैं कि इस दरम्यान उनका अपना रियाज़ भी होता चलता है। उनका उच्चारण अब भी बिल्कुल साफ है और आवाज़ बुलंद, जो ग्वालियर घराने की गायकी की विशिष्ट पहचान है।
ग्वालियर घराने की गायकी की विशेषता बताते हुए वे कहते हैं ग्वालियर घराने की गायकी में शब्दावली की स्पष्टता पर बहुत ज़ोर दिया जाता है। दूसरी विशेषता है खुली आवाज़। वे बताते हैं यह विशेषताएं मुझे भी विरासत में मिली हैं। मैं भी अपने पूर्वजों की तरह ध्रुपद धमार गाता था। लेकिन जब ध्रुपद लुप्त होने लगा तो खयाल की ओर आ गया। मैं ध्रुपद धमार गाता हूं, खयाल, ठुमरी, टप्पा, दादरा भी।
लम्बी उम्र के सम्बंध में पूछने पर वे कहते हैं इसमें मेरा अपना कोई योगदान नहीं है। मैं एक सामान्य दिनचर्चा में ही जीता हूं। मेरे परिवार में लोगों ने अमूमन लम्बी उम्र पायी है। मेरे वालिद ने 92 साल की उम्र पायी थी, मेरे दादा 104 के थे, परदादा 107 के। मेरी भाभी 110 तक गयीं। यह ईश्वरीय देन है। हमारी सांसों का रखवाला अल्लाह है।
उस्ताद खुद ही बंदिशें लिखते हैं और उन्हें रागों में ढालते हैं। जैसी की शास्त्रीय संगीत की परिपाटी है उन्होंने भी ब्रजभाषा में ही अपनी बंदिशें लिखी हैं जिनमें से हज़ार बंदिशों को उन्हीं की आवाज़ में संगीत रिसर्च एकेडमी ने रिकार्ड किया है। कुछ बंदिशों को बीबीसी लंदन ने भी रिकार्ड किया है। उन्होंने अपनी बंदिशों को नाम दिया है रसन पिया।
उन्होंने बताया कि मेरे पूर्वजों में से मेरे परदादा उस्ताद चांद खान ने चार लाख बंदिशें लिखीं तैयार की थीं, इसलिए यह मेरे परिवार में नया काम नहीं है। मैं बचपन में रचता और उन्हें सुनाया करते, फिर उन्होंने ही हमारा नाम रख दिया—रसन और कहा कि बंदिशों में डाला करो लेकिन शब्द ऐसे हों कि राग का चेहरा ही सामने आ जाये।
नया काम किया है मेरे पौत्र ने। तानसेन के बाद हमारे वंश में पीढ़ी दर पीढ़ी गवैये ही पैदा हुए पर मेरे पौत्र अपवाद है। मेरा बेटा रईस खान भी गाता है किन्तु मेरा पौत्र बिलाल खान का तबले की ओर रुझान है पर हमने ऐतराज़ नहीं किया।
गुरु शिष्य की परम्परा का ज़िक्र छिड़ने पर उन्होंने बताया कि हमारे खानदान में किसी को बाहर से संगीत सीखने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई। हमारी वंश परम्परा में यह इल्म सीना ब सीना आया। ये हुआ कि बेटा हमेशा बाप से अच्छा हो और अच्छा न हो तो बराबर तो हो..।
पहले की महफिलों में संगीत सुनने वाले संगीत के जानकार होते थे। रियासतों में वास्तविक कद्रदानों की महफिल में गायन होता था। कोई गवैया ग़लत गाता था तो वहीं उसी वक्त़ रोक कर कहा जाता था ऐसे नहीं ऐसे। लेकिन अब तो म्यूज़िक कन्फ्रेंस होते हैं गाने वाला गा लेता तो लोग तालियां बजाकर छुट्टी पा लेते हैं कोई ग़लती पर उंगली नहीं रखता। सीखने का ढर्रा यह निकल आया है कि किसी का कैसेटे या सीडी लगा लिया। खीसने की ज़रूरत नहीं। उसी की नकल उतार ली और गाने बैठ गये।
पिछली यादों में खाते हुए उस्ताद कहते हैं कि भारतीय संगीत के अंग्रेज़ भी कायल थे। नेहरू जी ने अपने एक भाषण में कहा था कि हिन्दुस्तान से अंग्रेज़ बहुत कुछ ले गये लेकिन संगीत नहीं ले जा पाये। जिस आदमी को संगीत से लगाव नहीं वह बगैर दुम का पशु होता है।
संगीत रिसर्च अकादमी से अपने सम्बंधों के बारे में वे कहते हैं मैं यहां बीस साल से हूं। देश में यही एक संस्थान है जहां गुरु-शिष्य परम्परा चल रही है। होनहार लोगों को यह एकादमी अपना शिष्य बनाती है और यहीं रहकर जब तक वह योग्य नहीं बन जाता संगीत सिखाया जाता है। यहां तो डायरेक्टर हैं रवि माथुर वे गुणियों के कद्रदान हैं। वरना मैं तो उत्तर प्रदेशे के रायबरेली के सलोन का रहने वाला हूं। सलोन पहले कस्बा हुआ करता था अब तो शहर जैसा हो गया है। अपने घर का रास्ता पहचानना मुश्किल होता जा रहा है। वहीं के दरगाह शरीफ में मैंने गुरुमंत्र लिया और हाजी हाफिज मौलाना हजरत शाह मोहम्मद नईम ? साहब सलोनी की दुआ से मैं कुछ भी हूं, हूं।
वे कहते हैं मेरे वालिद को लगता था कि मैं गा बजा नहीं पाऊंगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मेरी संगीत का तालीम बाईस साल चली।
अपने शिष्यों में जिन्हें वे जिक्र लायक समझते हैं वे हैं शुभमय भट्टाचार्य, पम्पा बनर्जी, पियाली मलाकार, रूपाली कुलकर्णी और डॉ.हेमराज चंदेल।
तानसेन की अपनी खानदानी परम्परा के बारे में पूछने पर वे बताते हैं कि तानसेन किसी का नाम नहीं बल्कि उपाधि है जो अकबर बादशाह ने दी थी। वाकया हूं है कि ग्वालियर के राजा राम गौड़ थे। वहीं के थे मकरंद पाण्डेय जो हजरत गौस ग्वालियरी की पड़ी सेवा करते थे। पाण्डेय जी की कई गायें थीं सो वे हजरत को दूध मुफ्त में रोज पहुंचा दिया करते थे। एक रोज हजरत ने पूछा पाण्डेय तुमने बहुत सेवा की बोलो मुझसे क्या चाहते हो?
पाण्डेय जी की उम्र हो गयी थी 72 के आसपास। उन्होंने कहा बाबा सब कुछ है मेरे पास पर संतानहीन हूं। हजरत ने दुआ की और बाबा को संतान हुई। सात बरस बीते। बाबा ने एक दिन पूछा सब खैरियत तो है, पाण्डेय जी ने कहा बाबा, औलाद तो हुई लेकिन वह बोलता ही नहीं है। बाबा उस समय फल खा रहे थे वही जूठा फल बच्चे को पकड़ा दिया और बच्चे ने जो पहला शब्द कहा वह था बाबा।
पाण्डेय जी पहले तो खुश हुए फिर कहा आपने इसे अपना जूठा खिला दिया अब आप ही इसे अपने पास रखो। बालक उन्हीं के पास रहने लगा। उसे मुसलमान बनाया गया नाम रखा गया-अली खां। वह ज़माना बाबा हरिदास स्वामी का था, जो वृंदावन में रहते थे। एक बार वे यहां हजरत गौस ग्वालियरी से मिलने आये। बालक को देखा तो कहा इसे हमें दे दीजिए हम इसे संगीत सिखायेंगे। बालक अली खां उनके साथ कई बरस रहे। संगीत की परम्परागत तालीम ली। जब पारंगत हो गये तो उनसे कहा गया कि अपनी विद्या को दुनिया में फैलाओ। फिर लौट आये। वे रीवां नरेश की गोविन्दगढ़ रियासत में मुलाजिम हुए। उस समय बादशाह अकबर संगीत के प्रेमी थे। वे एक बार रीवां नरेश के यहां आये तो उन्होंने उनका गाना सुना और उन्हें रीवां नरेश से मांग लिया। बादशाह अकबर ने उन्हें तानसेन की टाइटल दी और उन्हें अपना नवां वजीर बनाया। तानसेन के चार बेटे हुए-रहीम सेन, सूरत सेन, तानतरंग और बिलासखान। उस्ताद अब्लुल राशिद खान बताते हैं हमारे वंश का सिलसिला सूरत सेन से चला।
सूरत सेन के चार बेटे थे-कमाल रंग, जमाल सेन, अहमद शाह और रुस्तम खान। उस समय प्रतापगढ़ रियासत में कोई गायक नहीं था। राजा की बुआ ग्वालियर में ब्याही थीं। राजा कालाकांकर वहां से चारों गवैयों को अपने यहां ले आये। जिनमें से दो मानिकपुर के राजा ताजसुख हुसैन के यहां चले गये। जब रियासतें खत्म हुई तो बाकी दो भी मानिकपुर से बी मिल सलौन आ गये। हमारी परम्परा सलोन से जुड़ गयी। सलोन रायबरेली जिले में है। वे कहते हैं कि रायबरेली जिला सोनिया गांधी का क्षेत्र है मैं जल्द ही उनसे मिलूंगा और गुजारिश करूंगा का सलोन में एक संगीत विद्यालय बनाने का इन्तज़ाम वे करवायें।
उस्ताद कहते हैं इस प्रकार मेरा पितृपक्ष हिन्दू और मातृपक्ष मुसलमान है। एक साझी विरासत हमारी है। यह पूछने पर कि संगीत से उन्हें क्या मिला, कहते हैं मेरे लिए तो यह अल्लाह को महसूस करने का यह मार्ग है।

Friday 27 May 2011

विवेकानंद के जीवन के कुछ और आयाम



तहलका ३० अप्रैल 2011
पुस्तक समीक्षा
विवेकानंदः जीवन के अनजाने सच/लेखक-शंकर/प्रकाशक-पेंगुइन बुक्स इंडिया, यात्रा बुक्स, 203 आशादीप, 9 हेली रोड, नयी दिल्ली-110001, मूल्य-199/-
स्वामी विवेकानन्द के जीवन के कई आयाम अब तक अनुद्घाटित हैं। उनके प्रकाशित पत्रों और सैकड़ों पुस्तकों से उनके दर्शन व जीवन को समझने में सहूलियत होती है फिर भी उनके जीवन के कई कोने ऐसे हैं जिन पर रोशनी नहीं पड़ी है और जिनके उजागर होने से उनको देखने समझने के हमारे नजरिये में परिवर्तन होता है। ख्यातिलब्ध बंगला साहित्यकार शंकर ने उन पर लम्बे अरसे तक शोध करने और लगभग दो सौ पुस्तकों से अपनी बात को पुष्ट करने का प्रमाण जुटाने के बाद 'विवेकानंद: जीवन के अनजाने सच’ पुस्तक लिखी है। इसमें उन्होंने विवेकानंद को जिस रूप में पेश किया है वह उन्हें बहुत करीब से समझने में हमारी मदद करता है। विवेकानंद के व्यक्तित्व के उस ताने-बाने को उन्होंने परखने की कोशिश की है जिनसे उनका व्यक्तित्व न सिर्फ बनता है बल्कि निखरता है। इस पुस्तक में उन्होंने उन्हें एक महामानव के जीवन संघर्ष की उन स्थितियों को ही नहीं उजागर किया है जो उनके विकास में सहायक हुआ है बल्कि उन विसंगतियों की भी चर्चा की है जो उनके संन्यासी जीवन के विकास में बाधक बनती दिखायी देती हैं।
शंकर ने विवेकानन्द के जीवन के ऐसे प्रसंगों को इसमें प्रस्तुत किया है जिनकी या तो चर्चा बहुत कम हुई है या फिर हुई भी है तो उसके पूरे मर्म को समझने में वह अपर्याप्त रही। यह अनायास नहीं है कि उन्होंने इस पुस्तक का नाम ही 'जीवन के अनजाने सच' इसलिए रखा क्योंकि वे उन्हीं प्रसंगों पर अधिक जोर दिया है और उस विषय पर उन्होंने गहन अध्ययन प्रस्तुत किया है जिनके आधार पर विवेकानन्द की बहुमुखी प्रतिभा पर भी प्रकाश पड़ा है। इस पुस्तक के बिना यह जानना मुश्किल था कि उन्होंने जितना वेदों का प्रचार किया उससे कम प्रचार भारतीय व्यंजनों का नहीं किया। 'सम्राट-संन्यासी सूपकार' अध्याय में शंकर ने लिखा है कि वे न सिर्फ तरह-तरह के व्यंजनों को खाने के बेहद शौकीन थे बल्कि पाक कला में भी उन्हें विशेष महारथ हासिल थी। विदेशों में भी कई बार अपने करीबी लोगों को घर जाकर खुद खाना बनाकर खिलाया भोजन प्रसंग में विवेकानंद के चाय व आइसक्रीम के प्रति लगाव की विशेष चर्चा है। शंकर कहते हैं-'स्वामी जी जिनके भी घर में मेहमान बनते थे, उन लोगों को अपना भी एकाध व्यंजन पकाकर खिलाने को उत्सुक रहते थे।' शंकर इस अध्याय में कहते हैं-'उत्तरी कैलिफोर्निया के रसोईघर में शेफ यानी रसोइया विवेकानंद। बेहद अद्भुत दृश्य होता था। खाना पकाते-पकाते स्वामी जी दर्शन पर बात करते रहते थे। गीता के अठारहवें अध्याय से उद्धरण देते रहते थे।' विवेकानंद के लिए वेद-उपनिषद का प्रचार प्रसार, मानवता के कल्याण की बातें और व्यंजनों की रेसिपी में कोई फर्क नहीं था। यहां यह भी गौरतलब है कि उनका खान पान शाकाहार तक ही सीमित नहीं था।
इस पुस्तक में जो प्रमुख स्वर उभरा है वह है अपनी मां के प्रति उनका अगाध प्रेम। मां से उनका सम्बंध अंत तक बना रहा और वे इस बात के प्रति भी चिन्तित रहे कि उनकी मौत के बाद उनकी मां की देखभाल और भरण-पोषण ठीक से हो। इस पुस्तक में उनकी पैतृक सम्पत्ति के लेकर चलने वाले लम्बे मुकदमे का भी विस्तार से जिक्र है जिसके कारण उनके परिवार को गरीबी के दिन देखने पड़े और जिन्हें सुलझाने का उन्होंने भरसक किया। अदालत से मुकदमे का समाधान न होते देख उन्होंने छह हजार रुपये देकर अपनी चाची से पैतृक घर का हिस्सा खरीद लिया जिसके लिए उन्हें मठ के फंड से पांच हजार रुपये उधार लेने पड़े। खेतड़ी महाराज से वे पत्र में गुजारिश करते हैं-'मेरी मां के लिए आप जो हर महीने सौ रुपये भेजते हैं, हो सके तो उसे स्थायी रखें। मेरी मौत के बाद भी यह मदद उन तक पहुंचती रहे।'
शंकर के विवेकानंद की उन तमाम बीमारियों का जिक्र किया है जिनसे वे लगातार घिरे रहे। वे अनिद्रा के भी शिकार थे। यह देखकर हैरत होती है कि जिस व्यक्ति को इतनी सारी बीमारियां थीं उसने कैसे दर्शन के क्षेत्र में महती योगदान दिया और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी धाक बनायी। खेतड़ी के राजा अजीत सिंह की चर्चा जिस तरह से शंकर ने की है उससे स्पष्ट है कि विवेकानंद को विदेश भेजने का इन्तजाम उन्होंने ही किया था। विवेकानंद ने इसे खुलेआम स्वीकार किया था कि अगर खेतड़ी के राजा से परिचय न होता तो जो कुछ मामूली सा मैं भारत की उन्नति के लिए कर पाया हूं, वह मेरे लिए असंभव था। पुस्तक का बंगला से अनुवाद सुशील गुप्ता ने किया है।

Sunday 8 May 2011

'मीडिया को अपनी विश्वसनीयता की रक्षा स्वयं करनी होगी

कोलकाता: सदीनामा की ओर से 'मीडिया का समाज और साहित्य पर प्रभावÓ विषय पर राष्ट्रीय परिसंवाद का आयोजन शनिवार की शाम जीवनानंद सभागार, नंदन में किया गया। इसमें वक्ताओं ने मीडिया के व्यवसायीकरण पर चिन्ता जताई और पेड न्यूज जैसी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने की आवश्यकता पर बल दिया। वक्ताओं का कहना था कि मीडिया लोगों के घर में अपनी पैठ बना चुका है और वह मनुष्य के जीवन के हर मामले को निर्देशित करने की ताकत रखता है इसलिए उसका दिशाहीन होना खतरनाक है। मीडिया को अपनी विश्वसनीयता और जनपक्षधरता की रक्षा स्वयं करनी होगी। कोई बाहर दबाव या दिशानिर्देश इस मामले में उतने प्रभावी नहीं होंगे, जितनी स्वयं उसकी नैतिक जिम्मेदारी होगी। लोकतंत्र में मीडिया की शक्ति तभी बढ़ेगी जब वह भरोसेमंद होगा। कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ.इकबाल जावेद ने की। वक्ता थे रतनलाल शाह, प्रो.ललित झा, डॉ.अभिज्ञात, अभीक चटर्जी एवं राजेन्द्र केडिया। कार्यक्रम का संचालन जितेन्द्र जितांशु ने किया। धन्यवाद ज्ञापन प्रभाकर चतुर्वेदी ने किया।
डॉ.इकबाल जावेद ने कहा कि इंटरनेट पर सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों ने जहां रचनात्मक कार्य किये हैं वहीं उसका दुरुपयोग भी धड़ल्ले से हो रहा है। वह यदि अण्णा हजारे के पक्ष में व्यापक समर्थन जुटा सकता है तो किसी शक्तिशाली मुल्क के इशारे पर तहरीर चौक में लोगों को अपनी ही सरकार को बेदखल करने के लिए उकसा भी सकता है। उन्होंने कहा कि मीडिया आज पावरफुल हो गया है और पावरफुल होने के कारण करप्ट भी। राजेन्द्र केडिया ने कहा कि मीडिया झूठे सपने बेचता है। वह लोगों की सोच पर ऐसा हावी होता है कि वह अपने ढंग से एक नयी संस्कृति तैयार करने लगा है। टीवी धारावाहिक यह काम बखूबी करते हैं। अभीक चटर्जी ने कहा कि मीडिया डेमोक्रेटिक डिक्टेटरशिप करता है। लोगोंं को पता नहीं चलता कि वह किस सूक्ष्म तरीके से लोगों को वहीं हांक कर ले जाता है जहां वह ले जाना चाहता है। पूरी मीडिया को आम तौर पर कुछ शक्तिशाली लोग नियंत्रित करते हैं और मीडिया के जरिये लोगों को। प्रो.ललित झा ने कहा कि यह सूचना विस्फोट का युग है। सूचनाओं को किसी खास उद्देश्य से प्लांट किया जाता है लोगों के दिलोदिमाग पर उसे हावी कर दिया जाता है। मीडिया तकनीक से ताकत बन गया है। जिस विश्वग्राम को मीडिया की उपलब्धि के तौर पर पेश किया जाता है वह कंसेप्ट बहुत पहले से हमारे उपनिषदों में मौजूद है। उन्होंने कहा कि मीडिया ने ऐसी स्थितियां पैदा की हैं कि स्त्री उपभोग की वस्तु बन गयी है। वह पुरुषवादी नजरिये से स्वयं को टीवी पर पेश करती है। डॉ.अभिज्ञात ने कहा कि मीडिया को साजिश के तहत बदनाम किया जा रहा है क्योंकि लोकतंत्र में स्वतंत्र मीडिया चौथे स्तम्भ का काम करता है। ऐसे में उसके कद का बढ़ जाना बाकी स्तम्भों के लिए चुनौती है। आज मीडिया चाहे तो किसी सरकार को गिरा दे या किसी की सरकार बना दे। ऐसे में जबकि लोकतंत्र के अन्य पायों में खामियां आ गयी हैं राजनीति नहीं चाहती कि उसे चुनौती देने वाली सत्ता मीडिया निष्कलंकित रहे। मीडिया को अपनी विश्वसनीयता और जनपक्षधरता की रक्षा स्वयं करनी होगी। लोकतंत्र में मीडिया की शक्ति तभी बढ़ेगी जब वह भरोसेमंद होगा। उन्होंने कहा कि बिना मीडिया के आज समाजिक परिवर्तन की कल्पना नहीं की जा सकती और आज का मनुष्य बगैर मीडिया के एक दिन संतोषजनक ढंग से एक दिन नहीं बिता सकता। इसके पूर्व सदीनामा-उन्नयन सम्मान 2011 का सत्र था जिसमें हिन्दी, उर्दू, बंगला एवं अंग्रेजी भाषाओं में बीए की परीक्षा में अधिक अंक प्राप्त करने वाले मेधावी छात्र-छात्राओं को पुरस्कृत किया गया।

Monday 25 April 2011

विमर्श और सपनों के ताने बाने से बुनी कविताएं

समीक्षा
साभार-सन्मार्ग, 24 अप्रैल 2012
भूख धान और चिड़िया/ लेखक-स्वाधीन/प्रकाशक-मंगल प्रकाशन, दिल्ली


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