Thursday 23 September 2010

युवाओं को दायित्वबोध के प्रति जाग्रत करती कविता



तुम जो सचमुच भारत भाग्य विधाता हो/लेखक-विजय बहादुर सिंह/प्रकाशक-सदीनामा प्रकाशन, एच-5, गवर्नमेंट क्वार्टर्स, बजबज, कोलकाता-700137/मूल्य-70 रुपये

प्रख्यात आलोचक-कवि विजय बहादुर सिंह की लम्बी कविता पुस्तक 'तुम जो सचमुच भारत भाग्य विधाता हो' हिन्दी कविता की एक विलक्षण कविता है जिसमें अपने देश की तल्ख स्थितियों की बेबाक अभिव्यक्त है। इस कविता में जहां व्यंग्य और कटाक्ष हैं वहीं आह्वान भी स्थितियों को बदलने का। अपनी अभिव्यक्त शैली और कहन के अन्दाज के कारण यह कविता जहां धूमिल की कविताओं के करीब है वहीं चिन्ताओं के कारण वह मुक्तिबोध की 'अंधेरे मेंÓ की काव्य विरासत को आगे बढ़ाती है। रमेश कुंतल मेघ इसे राजकमल चौधरी की मुक्तिप्रसंग, राजीव सक्सेना की आत्मनिर्वासन के विरुद्ध तथा धूमिल की पटकथा कविता के क्रम की एक कड़ी के रूप में देखते हैं।
इस कविता में जहां अपनी विरासत से जुड़े राम, कृष्ण हैं वहीं विरासत को बचाने की चिन्ता में जीने- मरने वाले गांधी जी, मंगल पाण्डे, बिस्मिल, भगत सिंह जैसे लोगों के अवदान को याद करते हुए उनसे हालत में बदलने की शक्ति अॢजत करने का आह्वान है। युवाओं के प्रति जो आस्था इस कविता में व्यक्त की गयी है वह आकृष्ट करती है। यह कविता उन्हें झकझोरती है और उनके दायित्व का उन्हें बोध कराती है-'किसी पल चाहकर देखना/ पाओगे कि कोई न कोई चिनगारी/तुम्हारी अपनी ही राख में दबी पड़ी है/तुम्हारी चेतना की लाश/ तुम्हारे अपने ही बेसुध अस्तित्व के पास कहीं गड़ी है।'
आधुनिक भारत की निर्माण का स्वप्न भी इसमें है और इस स्वप्न को पूरा करने में बाधक बनी शक्तियों पर हमला भी। मौजूदा राष्ट्रीय चरित्र के पतन का दंश इसमें बार बार उभर कर आया है।
यह कविता 'वागर्थÓ के जनवरी 2010 के अंक में सम्पादकीय के तौर पर प्रकाशित हुई थी। जिस पर देश भर में व्यापक प्रतिक्रिया हुई और कई नामचीन लेखकों ने लिखित प्रतिक्रियाएं भी दीं। उनमें से इस पुस्तक में कमल किशोर गोयनका, रमेश कुंतल मेघ, गिरिराज किशोर, शशिप्रकाश चौधरी, महावीर अग्रवाल की प्रतिक्रियाएं भी प्रकाशित हैं, जिसके आलोक में इन कविताओं का पढऩा इसके अर्थ और व्याप्ति को नया संदर्भ देता है। कमल किशोर गोयनका ने तो इस कविता को आत्मा से निकला हुआ शंखनाद बताया है। इस कविता से प्रभावित होकर चांस पत्रिका के सम्पादक सुरेन्द्र कुमार सिंह ने एक और कविता लिखी है, वह भी इसमें संकलित है।
यह अनायास नहीं है कि कई भारतीय भाषाओं में इस कविता का अनुवाद हुआ है जिसमें से बंगला, मराठी, उडिय़ा, डोगरी, पंजाबी, नेपाली और उर्दू में अनुवाद इस संग्रह में प्रकाशित किया गया है। इस प्रकार एक ही रचना का विविध भाषाओं में अनुवाद की पुस्तक का प्रकाशित होना भाषाई आदान प्रदान के लिहाज से अनुकरणीय और सराहनीय है। जिसके लिए इसके संकलनकर्ता जितेन्द्र जितांशु बधाई के पात्र हैं।

Monday 13 September 2010

हिन्दी दिवस पर कुछ यक्ष प्रश्न

प्रकाशितः देशबंधु, दैनिक 11, Sep, 2011, Sunday













Sanmarg-19/9/2010

हिन्दी के बारे में यह मातम मनाने की आवश्यकता बिल्कुल नहीं है कि उसकी गरिमा को उन शब्दों से ठेस पहुंच रही है जो मूलतः हिन्दी के हैं ही नहीं। वे अंग्रेज़ी, मराठी, बंगला, पंजाबी या दूसरी भारतीय या विदेशी भाषाओं से आयातित हैं। दूसरी भाषाओं के मेल-जोल से जो भाषा बन रही है वह भ्रष्ट है और उससे हिन्दी के मूल स्वरूप को क्षति पहुंचेगी। इधर जोर शोर से कहा जा रहा है कि अब तो भाषा प्रयोग में आ रही है वह हिंग्लिश है हिन्दी या इंग्लिश नहीं। इस स्थिति से दुखी होने की बजाय हमें यह समझना चाहिए कि जिस किसी भाषा में बदलाव दिखायी दे वही जीवन्त भाषा है। भाषा में परिवर्तन का विरोध उसकी जीवंतता का विरोध है। जो भाषा जितनी परिवर्तनशील है समझें कि वह उतनी ही जीवन्त है। यह प्रवाह ही है जो वास्तविक ऊर्जा का स्रोत होता है।
हिन्दी को अगर ख़तरा है तो हिन्दी को बचाने की सुपारी लेने वालों से। वे जो उसके व्याकरण को लेकर चिन्तित हैं वे उसे जड़ बनाने पर तुले हुए हैं। हिन्दी की पूजा करने वाले, हिन्दी को भजने वाले चाहते हैं कि हिन्दी पर चढ़ावा चढ़ता रहे और वे उसकी आरती के थाल के चढ़ावे पर खाते कमाते रहें। भाषा में कोई नयी प्रयोग हुआ नहीं कि हायतौबा मचाते हैं। दीवार पर लगे पोस्टरों, नेमप्लेट, विजिटिंग कार्ड, अखबार की खबरों, विज्ञापनों हर कहीं हिन्दी को शुद्ध रूप में देखना चाहते हैं और रोते-बिसुरते रहते कि हिन्दी तो गयी। जबकि अशुद्ध बोलना, लिखना और उसका व्यापक इस्तेमाल यह बताता है कि हिन्दी का प्रयोग वे लोग कर रहे हैं जिनका हिन्दी पर न तो व्यापक अधिकार न अध्ययन न ही वह उनकी भाषा है। इस तरह के प्रयोग आम लोगों के प्रयोग है और उन्हें यह करने देना चाहिए। हिन्दी का हव्वा खड़ा करके हिन्दी को लोकप्रिय नहीं बनाया जा सकता। हिन्दी को हिन्दी अधिकारियों और हिन्दी के शिक्षकों ने जितना लोकप्रिय नहीं किया है उससे अधिक लोकप्रिय फिल्मों और उसके गीतों ने किया है। आम प्रचलन ही हिन्दी को विकसित करेगा। लोगों को हिन्दी गलत बोलने दें गलत लिखने दें। आते आते भाषा उन्हें आ ही जायेगी और शुद्ध नहीं भी आयी तो कोई बात नहीं। भाषा का विस्तार तो हुआ। यह बहुत है।
हिन्दी को बढ़ावा दिया है जो व्यापार करते हैं। उन्हें हिन्दीभाषी प्रदेशों में अपना माल बेचना है तो उत्पाद की प्रशंसा, उत्पाद की जानकारी हिन्दी में देनी है। वे हिन्दी अख़बारों में विज्ञापन देते हैं जिससे हिन्दी के अखबार फल-फूल रहे हैं। हिन्दी के टीवी कार्यक्रमों में विज्ञापन देते हैं तो मनोरंजन उद्योग बढ़ रहा है। ये अखबार, ये टीवी चैनल सिर्फ़ विज्ञापन परोस कर ज़िन्दा नहीं रह सकते। उन्हें जनत के दुखदर्द से जुड़ना पड़ता है। इसके बिना जनता उन्हें नहीं अपनायेगी फिर विज्ञापन भी उन तक नहीं पहुंचेगे। इसलिए अखबारों व टीवी की यह मज़बूरी है कि वे यदि विज्ञापन को जनता तक पहुंचाना चाहते हैं तो जनता की आवाज़ बनें, उनकी पसंद का खयाल रखें, उन्हें वह दें जो वह चाहती है। उन्हं यदि मुनाफा कमाना है तो जनदर्दी बनना ही होगा। मज़बूरी में जनदर्दी नेता ही नहीं बनते धंधेबाज भी बनते हैं। मतलब यह कि उपयोगिता किसी भाषा के विकास की तर को तीव्र करती है और प्रगति के लिए रदस पहुंचाती है। हिन्दी का उपयोग आप बढ़ा दें तो उसका महत्व अपने आप बढ़ जायेगा। हिन्दी में रोज़गार बढ़ेगा, व्यापार बढ़ेगा तो रुतबा अपने आप बढ़ेगा। आप बस हिन्दी पर भरोसा की किजिए, हिन्दी का सम्मान कीजिए वह आपको सम्मान दिलायेगी। हिन्दी को अपनाकर हिन्दी की सामूहिक शक्ति को बढ़ायें। यह सामूहिक शक्ति ही बड़ी बात है। इसलिए हम विभिन्न भाषाओं वाले देश में अपनी-अपनी भाषा बोलते रहें पर सामूहिक शक्ति का परिचायक हिन्दी को बनायें और उसे भी मज़बूती दें। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक अरब से अधिक लोगों की जुबान हिन्दी बने, उनकी अस्मिता और उनके सम्मान की प्रतीक बने तो देंखे हिन्दी का जादू। दुनिया के सिर चढ़कर बोलेगा।
-अंग्रेजी के जो शब्द आम जनता के प्रचलन में आ गये हैं उनके लिए हिन्दी के नये शब्दों को गढ़ने का काम बंद होना चाहिए। बल्कि उन्हें हिन्दी में प्रयोग के लिए बढ़ावा देना चाहिए। लोगों की हिचक दूर करना चाहिए कि वे अंग्रेजी के शब्द का हिन्दी में प्रयोग धड़ल्ले से करें। इतना करें कि वह ऐसा रचबस जाये कि वह हिन्दी का ही लगने लगे। हिन्दी का विकास चाहते हैं तो नये शब्द गढ़ने बंद कीजिए और दूसरी भाषा के शब्दों को हिन्दी के स्वभाव के अनुरूप अपना लीजिए। समस्या खत्म हो जायेगी। हिन्दी को मेल मिलाप की भाषा बनने से एकदम गुरेज नहीं है।
हिन्दी को खतरा उन लोगों से भी है जो चाहते हैं कि हिन्दी की बोलियों का विकास रुक जाये। वे यदि भाषा का दर्जा पाने की कोशिश करती हैं तो उन्हें लगने लगता है कि हिन्दी का क्या होगा? हिन्दी कैसे रहेगी। यदि उसकी बोलियां स्वतंत्र भाषा हो गयीं तो फिर हिन्दी का क्या रह जायेगा। उन्हें लगता है कि भोजपुरी, राजस्थानी, अवधी, ब्राजभाषा, मगही यदि भाषा बन गयी तो हिन्दी कमज़ोर हो जायेगी। वे यह भी मानते हैं कि मैथिली जैसी भाषा की स्वतंत्र पहचान मिलने से हिन्दी कमज़ोर हुई है। तात्पर्य यह कि उनका मानना है कि हिन्दी का वर्चस्व इसलिए है कि हिन्दी इसलिए प्रमुख भाषा बनी हुई है क्योंकि कई बोलियों को स्वतंत्र भाषा का दर्जा नहीं मिला है। यदि उन्हें भी भाषा का दर्जा मिल गया तो कोई हिन्दी का नामलेवा नहीं रह जायेगा। इसी आधार पर कुछ मासूम लोग यह दावा तक कर बैठते हैं कि हिन्दी अगले बीस सालों में मर जायेगी क्योंकि हिन्दी की तमाम बोलियां भाषा बन जायेंगी। मैं उन लोगों से विनम्रता पूर्वक कहना चाहता हूं कि हिन्दी की बोलियां भी यदि भाषा बन गयीं तो हिन्दी और मज़बूत होकर उभरेगी। उसका कारण यह है कि हिन्दी की बोली समझी जाने वाली भाषाओं के समर्थन के कारण दक्षिण भारत की भाषाएं या बालियां हिन्दी को अपने से दूर समझती थीं। हिन्दी की बोलियों को स्वतंत्र भाषा बन जाने के बाद दक्षिण की भाषाओं से हिन्दी का विभेदीपूर्ण रवैया खत्म हो जायेगा और वे भी हिन्दी को तटस्थ तौर पर स्वीकार करने लगेंगी। आखिर हमें एकसूत्रता में बांधने के लिए कोई भाषा तो चाहिए ही। और चूंकि भारतीय भाषाओं में हिन्दी को जानने समझने वाले सबसे ज्यादा है स्वाभाविक तौर पर वही सबकी पहली पसंद और प्राथमिकता है। कहना न होगा कि हिन्दी ही भारत में वह भाषा है जिसमें सबसे अधिक प्रांतों की स्मृतियां जुड़ी हैं और सबसे अधिक भारतीय भाषाओं के शब्द उसमें शामिल हैं। हिन्दी हमारी सर्वाधिक साझी स्मृति की भाषा है इसलिए साझी विरासत भी। बोलियों से स्वतंत्र भाषा होने से यह साझी विरासत और मज़बूत होगी। आज की हिन्दी अगर खड़ी बोली का विकास है तो इस अर्थ में वह किसी की भाषा नहीं है और इसलिए वह सबकी भाषा है। उसमें देश की तमाम बोलियों का नवनीत है। दूसरे जो हिन्दी भाषी नहीं हैं वे हिन्दी को क्यों नहीं अपनायेंगे, आख़िर अंग्रेज़ी जिनकी भाषा नहीं है क्या वे उसे पढ़ते-लिखते समझते नहीं हैं और क्या अंग्रेज़ी की जो मज़बूत स्थिति है उसमें गैर अंग्रेजीभाषी लोगों को योगदान नहीं है।
बोलियों के विकास से हिन्दी का महत्व और समझ में आयेगा। यह नहीं भूलना होगा कि रवीन्द्रनाथ टैगोर से लेकर महात्मा गांधी तक जिन लोगों ने हिन्दी को भारत की भाषा बनाने की हिमायत की थी वे हिन्दी भाषा नहीं थे। उनका मानना तो बस इतना था कि जिसमें देश के बहुसंख्य लोगों की बात हो उसे ही इस देश की राष्ट्रभाषा की गरिमा प्रदान की जाये। यही लोकतंत्र का तकाजा है। वह सामर्थ्य उन्होंने हिन्दी में देखी थी। उसी में एकसूत्रता की शक्ति पायी थी।
(यह आलेख लेखक के केन्द्रीय संदर्भ पुस्तकालय, कोलकाता की ओर से 14 सितम्बर 2010 को हिन्दी पखवाड़ा के अन्तर्गत आयोजित कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर दिये गये वक्तव्य का हिस्सा है। इस कार्यक्रम में विशेष अतिथि राष्ट्रीय पुस्तकालय, कोलकाता के निदेशक स्वपन चक्रवर्ती एवं अध्यक्ष केन्द्रीय संदर्भ पुस्तकालय के पुस्तकाध्यक्ष डॉ.केके कोच्चुकोशी थे। कार्यक्रम का संचालन पुस्तकालय की उप सम्पादक अंचना श्रीवास्तव ने किया।)

Tuesday 7 September 2010

तुम्हारी सम्पदा कोई छीन ले इससे अच्छा है परोपकार करो और बांट दो

अर्थ व्यवस्था के नियमों के बाहर होते हैं परोपकार के कामकाज। लेकिन इससे आॢथक असमानता को पाटने में अवश्य कुछ मदद मिल सकती है। बशर्ते परोपकार किसी अंधविश्वास के तहत न किया जा रहा हो। हमारे यहां मंदिरों में अकूत खजाने पड़े हुए हैं और उसका उपभोग निठल्ले करते हैं। इन मंदिरों में चढऩे वाले चढ़ावे अंधविश्वास से प्रेरित होते हैं जो अभिलाषाओं की पूॢत की चाह में पूरी होने पर ऋण के तौर पर चढ़ाये जाते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपनी सम्पन्नता और खुशहाली के लिए ईश्वरीय शक्तियों के प्रति आभारी होते हैं और आभार स्वरूप वे दान करते हैं। चाहे वह नगदी हो, आभूषण हो या जमीन। कुछ दान कर्मकांडों की वजह से भयस्वरूप भी लोग करते रहते हैं किन्तु इसके पीछे परोपकार की भावना नहींं होती है और ना ही दान देने वाला यह सोचता है कि हमारी दी गयी दौलत का उपयोग सही तरीके से हो रहा है नहीं। पंडे पुजारी महंतों की चांदी कटती कटती है। मंदिरों में आने वाले चढ़ावों और संचित सम्पदा का परोपकार के कारर्यों मेंं खर्च करने की व्यवस्था की जाये तो इस देश के हजारों लोगों को आसानी से भुखमरी से बचाया जा सकता है।
आॢथक असमानता दूर करने में माक्र्सवाद की थ्योरी है वह किसी हद तक ही कारगर है क्योंकि वह वर्ग संघर्ष पर आधारित है। वह छीनने के नकारात्मक भाव पर टिकी है और उसमें हिंसा मूल अस्त्र है। उसकी विसंगतियां भी सामने आती हैं क्योंकि समानता एक यूटोपिया है। इन विसंगतियों को जार्ज आरवेल ने अपनी किताब एनीमल फार्म में उजागर किया है। परोपकार के सम्बंध में सभी धर्मों की धारणाएं किसी हद तक सकारात्मक हैं जिनमें फेरबदल कर आज की नैतिकताओं से जोड़े जाने की आवश्यकता है।
आॢथक असमानता को मिटाने के लिए जहां माक्र्सवाद पर जोर दिया जाता रहा है वहीं पूंजीवाद ने परोकार के अस्त्र से उस खायी को पाटने की कोशिशें शुरू की हैं। इससे हिंसा वह रूप नहीं दिखायी देगा जो माक्र्सवाद के चलते दिखायी देता है। आॢथक दूरी को पाटने के लिए पूंजीवादी रवैये का विकास वक्त की मांग है। जिसमें बिल गेट्स और वारेन बफे लगे हुए हैं। इसका अनुसरण कर ही माक्र्सवादी रवैये के विकास को रोका जा सकता है। औद्योगिक जगत में बिजनेस एथिक्स का विकास इन्हीं उद्देश्यों से किया जा रहा है। अब वह दिन दूर नहीं जब हर चौथा पूंजीपति परोपकार की बातें करता नजर आयेगा और जमकर माल कमाने वाले समाज सुधार से जुड़े तमाम कार्यक्रमों के सर्वेसर्वा नजर आयेंगे। वह जिनके पास दुनिया की तमाम पूंजी एकत्रित हो रही है गरीबों को भुखमरी से जूझ रहे लोगों के लिए कार्यक्रम भी उन्हीं द्वारा संचालित होंगे। यदि ऐसा नहीं हुआ तो बगावत होगी और निशाना वे ही बनेंगे। बेहतर रास्ता है परोपकार का। इसमें भूखों ने छीन लिया से बेहतर है हमने भूखों में बांट दिया। चीन के पूंजीपतियों को अमरीका से यह सबक सीखने से नहीं हिचकना चाहिए। चीन के अरबपति परोपकारी कार्यों के लिए अपनी धन संपदा दान देने के इच्छुक नहीं हैं। दुनिया के दो प्रमुख अरबपतियों बिल गेट्स और वारेन बफे ने इन दिनों दुनिया भर के अमीरों से अपनी संपत्ति का एक हिस्सा परोपकारी कार्यों के लिए दान करने को कह रहे हैं। इसी अभियान के तहत गेट्स और बफे ने चीन के 50 सबसे बड़े अमीरों को 29 सितंबर को बीजिंग में एक रात्रि भोज में शामिल होने का आमंत्रण दिया है। पर ज्यादातर चीनी अरबपतियों ने गेट्स और बफे के साथ इस आयोजन में शामिल होने के आमंत्रण को ठुकरा दिया है। उन्हें आशंका है कि इस मौके पर उनसे अपनी संपत्ति दान करने की प्रतिबद्धता ली जा सकती है। अमरीका में अरबपतियों की संख्या 117 है, वहीं चीन में यह 64 है। गेट्स और बफे की यह जोड़ी अब तक दुनिया के 40 अरबपतियों को अपनी आधी संपत्ति दान करने के लिए भरोसे में ले चुकी है। इस संपत्ति का मूल्य 125 अरब डालर बैठता है।
अपने देश की सर्वोच्च न्यायालय कहती है यदि अनाज को गोदामों में नहीं रख सकते तो गरीबों में बांट दो। ठीक कहा गया है। इससे सरकार का मानवीय चेहरा भी बचा रहेगा। स्ट्रेस मैनेजमेंट के ये आधुनिक गुर हैं इन्हें सीखना ही होगा। यदि किसानों के लिए हुए कर्ज की वसूली में अधिक पैसा खर्च होता है तो उससे अच्छा है उनके कर्ज माफ कर दो। यह मौजूदा सम्प्रग सरकार कर चुकी है। उसे ऐसा करना भी चाहिए।
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