Tuesday 29 June 2010

अनवरत गत्यात्मकता के विलक्षण कवि नागार्जुन

फोटो कैप्शनः बाएं से अभिज्ञात, नागार्जुन, मंजु अस्मिता, सकलदीप सिंह व अन्य



26 जून से शुरू बाबा नागार्जुन के जन्म शताब्दी वर्ष पर विशेष
(परिचयः नागार्जुन का असली नाम वैद्यनाथ मिश्र है परंतु हिन्दी साहित्य में वे बाबा नागार्जुन के नाम से मशहूर रहे हैं। जन्म : 1911ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन ग्राम तरौनी, जिला दरभंगा में। परंपरागत प्राचीन पद्धति से संस्कृत की शिक्षा। सुविख्यात प्रगतिशील कवि एवं कथाकार। हिन्दी, मैथिली, संस्कृत और बांग्ला में काव्य रचना। मातृभाषा मैथिली में "यात्री" नाम से लेखन। मैथिली काव्य संग्रह "पत्रहीन नग्न गाछ" के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित। छः से अधिक उपन्यास, एक दर्जन कविता संग्रह, दो खण्ड काव्य, दो मैथिली;(हिन्दी में भी अनूदित)। कविता संग्रह, एक मैथिली उपन्यास, एक संस्कृत काव्य "धर्मलोक शतकम" तथा संस्कृत से कुछ अनूदित कृतियों के रचयिता। उनके मुख्य कविता-संग्रह हैं: सतरंगे पंखों वाली, हज़ार-हज़ार बाहों वाली इत्यादि। उनकी चुनी हुई रचनाएं दो भागों में प्रकाशित हुई हैं। निधन : 5 नवम्बर 1998।)

नागार्जुन के साथ हिन्दी कविता का आचरण बदला। कविता सुरुचि सम्पन्न पाठकों की परिधि से निकलकर चायखानों तक आयी। यह बदलाव सहज उपलब्ध हो सका हो ऐसा नहीं है। इसका मूल्य कबीर से लेकर नागार्जुन तक ने चुकाया है। कलाहीनता के आरोप झेलते हुए और वक्तव्यबाज कहलाते हुए भी इन्होंने ऐसा किया। कविता का सड़क और नुक्कड़ पर उतर आना किस-क़दर ख़तरनाक़ हो सकता है यह कहने की आवश्यकता नहीं। समाज के दुःख-सुख, जद्दोजहद को सीधे-सीधे कविता में उसी के सामने लौटाना एक दुस्साहस ही है। मीडिया द्वारा बुनी, रची, सोची गयी साज़िशों और अवसरवादी मानकों ध्वस्त करते हुए सच को अपनी नजर से देखकर उस सीधे पाठकों और श्रोताओं तक पहुंचे यह नागार्जुन के ही बूते का था। जनता को उकसाने के आरोप उन पर बड़ी आसानी से लगाये जा सकते थे, जो इसी माइने में सार्थक भी है-
'आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी
यही हुई है राय जवाहरलाल की
रफ़ू करेंगे फटे-पुराने जाल की
यही हुई है राय जवाहरलाल की
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी

आओ, शाही बैण्ड बजायें
आओ बन्दनवार सजायें
खुशियों से डूबें उतरायें
आओ तुमको सैर करायें
उटकमंड की, शिमला नैनीताल की।' (नागार्जुन, प्रतिनिधि कविताएं, सम्पादक-नामवर सिंह, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ 98)
ऐसे कवियों के लिए जनता एक अमूर्त वस्तु नहीं है:जिसकी अमूर्तता की चिन्ता स्व.विजयदेव नारायणदेव साही को हमेशा रही। ना ही उनके यहां उनका दुःख-दर्द अख़बारों से छनकर आता है। उनका काव्य-संसार लोकगीतों, लोककथाओं में अपना रूप बड़ी अन्तरंगता के साथ तलाश सकता है। यह अन्तरंगता मात्र लोगों केसात ही नहीं, बल्कि प्राणियों और वनस्पतियों से भी है, प्रकृति से भी। यही कारण है कि नागार्जुन को जहां विघटन के कई स्तरों का पता है, वहीं उल्लास के अनन्त अवसरों का भी, जो प्रकृति के बगैर तादात्म्य स्थापित किये संभव नहीं-
'धूप में पसरकर लेटी है
मोटी-तगड़ी, अधेड़, मादा सूअर...
जमना-किनारे
मखमली दूबों पर
पूस की गुनगुनी धूप में
पसरकर लेटी है
वह भी तो मादरे हिन्द की बेटी है
भरे-पूरे बारह थनों वाली!
लेकिन अभी इस वक््त छौनों को पिला रही है दूध
मन-मिज़ाज़ ठीक है
कर रही आराम
अखरती नहीं है भरे-पूरे थनों की खींच-तान
दुधमुंहे छौनों की रग-रग में
मचल रही है आख़िर मां की हो तो जान!' (वही, पृष्ठ 77)
नागार्जुन के अपने लोग गांव के किसान हैं और नगर के श्रमिक। वे इनकी यातनाओं को भी उसी शिद्दत से महसूस कर लेते हैं जिस सदाशयता से उनके हास। यह अद्भुत है कि यह वर्ग किन विषम परिस्थितियों में कैसे और कहां रत्ती-रत्ती खुशी पाता चलता है। नागार्जुन की कविता उल्लास की अनेक परिषाभाएं एक साथ दे सकती है, जो अन्तत्र दुर्लभ है। कई-कई तो अपरिभाषित रह जाने का जोख़िम और माद्दा रखती हैं।
उनकी कविता तटस्थ कविता नहीं है, जो मानवीय सरोकारों से उठ कर आध्यात्म और स्व-मुक्ति की सोचे। वह पक्षधरता की हिमायती है और वह पक्ष है-सर्वहारा का। इस पक्षधरता के लिए वे निरन्तर कटिबद्ध और प्रतिबद्ध रहे हैं-
'प्रतिबद्ध हूं, जी हां प्रतिबद्ध हूं
बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त
संकुचित स्व की आपाधापी के निषेधार्थ।' (वही, पृष्ठ 15)
यही कारण है कि उनका रचना-क्रम जिस पक्ष को प्रारम्भ में साधता है साधता ही चला गया है। इस पक्षधरता के पीछे तत्कालिक उद्वेग न था बल्कि वह वैज्ञानिक सोच था जो शोषित और दमित जनता की मुक्ति में समाज की सम्पन्नता और खुशहाली देखता है। उनका अभिष्ट साहित्यिक नहीं सामाजिक क्रांति है। नागार्जुन का जन यही है जो उनकी ममता, स्नेह और समर्थन का पात्र है। इसके प्रति लिखते हुए नागार्जुन में सहज की कोलमला आ जाती है, एक गहरी संवेदना जिसके भीरत करुणा की अविरल धार है, कहीं-कहीं रुमानियत की हद तक। और यह स्वाभाविक है अपने प्रियजन के पक्ष में लिखते हुए। उनके प्रियजन भारत के किसान, मज़दूर और नवयुवक हैं। अखिल विश्व के संघर्षशील लोग हैं।
शोषक पक्ष की बात आते ही उनका लहज़ा व्यंग्यात्मक हो उठता है जिसकी धार गहरे तक असर करती है। व्यंग्य साहित्य में निचला दर्ज़ा पाते हुए भी नागार्जुन के यहां प्रतिष्ठा पाता है। नागार्जुन व्यंग्य की महत्ता और सिध्दि के कवि हैं। जन-पक्ष में इसका इस्तेमाल होने के कारण व्यंग्य जीवन का सकारात्मक पक्ष ही साबित होगा। कम-से-कम उनके संदर्भ में यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है। उसकी एक बानगी देखें-
'दिल्ली की सर्दी कम होती
तंत्र-मंत्र के हीटर से
अपनी किस्मत आप मिलता लो
योग-सिद्धि की मीटर से
राजघाट में बातें कर लो
यूसुफ से या पीटर से
लोकतंत्र का जूस मिलेगा
नाप-नाप कर लीटर से।' (नागार्जुन, पुरानी जूतियों का कोरस, 1983, पृष्ठ 144)
नागार्जुन की कविता अपने यथार्थबोध के कारण भी याद की जाती है। वे व्यक्तिगत को समष्टिगत यथार्थ की कसौटी पर कसकर ही उसकी हीनता और उत्कृष्टता का निर्धारण करते हैं। व्यक्तिवादी मूल्यों के लिए उनककी कविता में कत्तई गुंजाइश नहीं है किन्तु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि व्यक्ति के रागतत्त्वों और प्रेम तथा शृंगार भाव की उन्होंने उपेक्षा की हो या ये उनके कार्य-प्रदेश में वर्जित रहे हों। ये भाव मानव-मात्र के हैं और सर्वव्यापक भी। नागार्जुन की कविता में रागतत्त्व जिस सहजता और तन्मयता से आये हैं, वे सार्वजनीन हैं। पूरे आदमी की भरपूर ज़िन्दगी से। इन्हें निजी मन की दमित व कुण्ठित कामनाओं का दस्तावेज़ नहीं बनाया गया है और ना ही इसमें डूबकर ज़िन्दगी की वास्तविकताओं को व्यर्थ और सारहीन। उनके यहां राग-तत्त्व जीवन के संघर्ष में प्रेरक और साहचर्य हेतु आया है।
प्रकृति और सौन्दर्यबोध उनकी कविता के महत्त्वपूर्ण सोपान हैं जो एक-दूसरे के पूरक हैं। प्रकृति के प्रति उनका सम्बंद कुछ हद तक रागात्मक ही है। यह उनके सौन्दर्यबोध की क्लासिक ऊंचाई के चलते है। नागार्जुन भविष्य के विश्वास के कवि हैं। वे आस्था के और नये युग के नव निर्माण के लिए नवयुवकों से आशावान रहे। भविष्य के लिए उनके पास जो कुछ था वह दे जाना चाहते थे। एक जीवन्त कवि की एक बड़ी विशेषता यह होती है कि वह आने वाली पीढ़ी को अपनी विरासत बड़े जतन, प्यार और विश्वास के सात दे जाये। वह भी संघर्ष की विरासत। वे एक सीमाबद्ध कवि कदापि नहीं हैं। उसका एक कारण स्थितियों को खुली नज़र से देखने और उसे बिना लाग-लपेट कहने की धड़क थी। तत्कालीन मसलों पर उन्होंने खूब लिखा और ज़रूरत महसूस करने पर उन्हें ताली बजाकर उन्हें नुक्कड़ों पर गाया और नाचा भी है। भले इससे कला का ह्रास हुआ हो, कला निथरी न हो और कई बार कविता कविता रह ही नहीं गयी हो। ऐसी रचनाओं को एक जागरुक और संघर्षशील नागरिक की तत्कालिक आवश्यक प्रतिक्रिया समझ कर संतोष करना पड़ सकता है। संस्कृत साहित्य के व्यापक अध्ययन मनन के कारण एक कलात्मक संस्कार भी नागार्जुन में कहीं-न-कहीं विद्यामान रहा। इसीलिए एक ओर उनकी भाषा, बोध और ज़मीन खुरदुरी है तो दूसरी ओर कई कविताओं में ऐसी कलात्मक ऊंचाइयां और गत्यात्मकता है, जो हतप्रभ और मुग्ध कर देती है।

Sunday 20 June 2010

कलात्मक सुगढ़ता व कथ्यात्मक औदर्य के कविः अज्ञेय


(7 मार्च, 1911-4 अप्रैल, 1987)
जन्मशती वर्ष पर विशेष
अज्ञेय हिन्दी कविता में एक ऐसे बहुआयामी हस्ताक्षर का नाम है जिसकी गहन-गंभीर काव्य-यात्रा एक धैर्यपूर्ण विवेचन की मांग करती है। उनमें जहां कलात्मक सुगढ़ता है वहीं कथ्यात्मक औदर्य भी। उनकी वाम विरोधी अस्तित्ववादी अवधारण सदैव ही प्रगतिशील काव्य-यात्रा से रगड़ खाती हुई भी अपने वैशिष्ट के कारण मूल्यवान और अर्थपूर्ण बनी रही। अपने जीवन-काल में ही अज्ञेय एक मिथक और चुनौती दोनों एक साथ बने रहे तथा उनका प्रभाव हिन्दी-काव्य जगत में सहज स्वीकारणीय रहा। उनकी गहन अध्ययनशीलता और रचनात्मक क्षमता सदैव ही ईर्ष्या की वस्तु रही और सुखद आश्चर्य की भी। अज्ञेय की चिन्तनशीलता और विचार पर सार्त्र, अल्बेयर कामू आदि के वैचारिक चिन्तन का व्यापक प्रभाव रहा, फिर भी अज्ञेय उतने ही परम्परावान हैं जितने कि आधुनिक। यही अन्तर्विरोध उनके व्यक्तित्व को सम्मोहक और रहस्यमय बनाता रहा। कन्हैयालाल नन्दन उनके बारे में लिखते हैं-'कैसी विडम्बना रही है कि एक ओर उनकी रचनाधर्मिता को नये मूल्य गढ़ने में भंजक की भूमिका निभानी पड़ी है तो दूसरी ओर उनके निबन्धों की अनेक पंक्तियों में परम्परा को नये सिरे से पुनर्जीवित करने की ललक का प्रतिबिम्बन भी है।' (कन्हैयालाल नंदन, नवभारत टाइम्स, दिल्ली, 5 अप्रैल 1987)
अज्ञेय ने कविता में उस समय प्रवेश किया जब प्रगतिशील काव्य-धारा ने सिर्फ़ स्थापित थी, बल्कि कविता का पर्याय थी। छायावादी कवि पूर्णतया नकारे जा चुके थे। हर प्रकार के व्यक्तिवादी मूल्यों पर शोक प्रस्ताव स्वीकृत हो चले थे। प्रगतिशीलों में एक नया रूमानवाद था। आदर्शवादी रूमानवाद, जो यथार्थ के रूप में पहचाना जा रहा था। उनकी कविताओं में जोश था, अतिरिक्त उत्साह था, क्रांतिकारी चेतना थी, बुर्जुआ और पूंजीवादी तत्त्वों से लोहा लिया जा रहा था, श्रमिक और किसान जन-नायक थे किन्तु इन सब ख़ूबियों के बावज़ूद बहुत कुछ था, जो गौण था, जो कविता को कविता रहने देने में बाधक था। यहां कला गौण थी। इस कविता में प्रतिबद्धता कम थी, उसका प्रदर्शन अधिक था। कविताएं मार्क्स का वैचारिक काव्यानुवाद भर होकर रह गयीं। समाज सर्वोपरि था। व्यक्ति की आशा-आकांक्षा गौण ही नहीं हेय थी। यह काव्य-युग कला और उसमें व्यक्ति के ह्रास का रहा।
अज्ञेय के पास इन दोनों ख़ामियों का पूरक तत्त्व था। कला और व्यक्ति अज्ञेय की मूल स्थापनाएं बनीं। काव्य-कला के स्तर पर सबसे अधिक प्रयोग हिन्दी साहित्य के इतिहास में रीतिकाल के पश्चात अज्ञेय के रचना-प्रभाव काल में हुए। विवादों के बावज़ूद यह कमोबेश स्वीकार किया जाता है कि प्रयोगवादी काव्य-धारा के प्रवर्तकों में अज्ञेय की सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। उन्होंने न सिर्फ़ सप्तक काव्यों का सम्पादन किया बल्कि आलोचना क्षेत्र में प्रयोगवाद का औचित्य सिद्ध करते हुए उसके महत्त्व व वैशिष्ट को रेखांकित किया। वे उसकी सीमाएं भी जानते थे, अतः शीघ्र ही नयी कविता के आन्दोलन से भी जुड़े और उसमें बहुत कुछ जोड़ा। अपने व्यापक अध्ययन और सतत रचनाशीलता के कारण यह हो पाया। आधुनिकता की दृष्टि से अज्ञेय अग्रदूत कहे जा सकते हैं। अज्ञेय ने क्षण के महत्त्व को स्वीकार कियो, जो क्षणिकता का निषेध करती है और यह नयी कविता की केन्द्रीय दृष्टि रही-
'यह सूरज का जपा-फूल
नैवेद्य चढ़ चला
सागर-हाथों
अम्बा सांस-भर
फिर में यह पूजा-क्षण
तुम को दे दूंगा
क्षण अमोघ है, इतना मैंने
पहले भी पहचाना है
इसलिए सांस को नश्वरता से नहीं बांधता
किन्तु दान भी है, अमोघ, अनिवार्य,
धर्मः
यह लोकालय में धीरे-धीरे जान रहा हूं
(अनुभव के सोपान!)
और
दान वह मेरा तुम्हीं को है।' (.अज्ञेय, कितनी नावों में कितनी बार, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, पांचवां सस्करण, 1986, पृष्ठ 16)
अज्ञेय की कविताओं में व्यक्ति की सत्ता सर्वोपरि है। उसके हर्ष, विषदा, मनोकामनाएं, उसका प्रेम, सब कुछ महिमामण्डित और चिन्तनीय है। व्यक्ति के मन में घटने वाली छोटी-से-छोटी उद्विग्नता सृष्टि और समाज की बड़ी-बड़ी घटनाओं से कत्तई कम नहीं। अज्ञेय की साधना व्यक्ति के रूप में सत्य को पाने की है। शुभ और सुन्दर व्यक्ति और उसकी कामनाओं का ही नाम है। 'अपने अद्वितीय होने का अहंकार उन्हें एक ऐसा गहरा और समृद्ध आत्मविश्वास देता है कि दुनिया की हर चीज़ को वे अपनी निजी कसौटी पर कसकर ही ग्रहण या व्यक्त करना चाहते हैं।'(राजेन्द्र यादव, व्यक्ति युग का समापन, वैचारिकी, सम्पादकः मणिका मोहनी, अप्रैल-जून 1988, पृष्ठ 69)
'दरअसल अज्ञेय जी व्यक्तिवाद नहीं, व्यक्तित्ववाद के लेखक हैं। स्वयं के व्यक्तित्व की स्थापना को उन्होंने सबसे ऊपर रखा। परम्परा, संस्कृति या विचारधारा, हर जगह उनका संघर्ष एक नियामक या कम से कम प्रथम प्रस्तावक की हैसियत बनाने का है। प्रयोग हो या प्रचलन, प्रथमता उनकी पहली शर्त रहीxxxxमैं उनके व्यक्तित्व का सबसे मुख्य तथ्य है। गीता के 'मैं' में तो 'हम' को कोई स्थान नहीं, क्योंकि वह व्यक्ति का विराट् है। अज्ञेय जी का 'हम' उनके 'मैं' का ही व्यक्तिगत विस्तार है। संस्कृति, समाज, देश और काल की बड़ी से बड़ी चिन्ता करते हुए भी अज्ञेय जी स्वयं के व्यक्ति का अतिक्रमण नहीं, सिर्फ़ विस्तार करते रहे हैं।' (शैलेश मटियानी, काल चिन्तक की अकाल यात्रा, वही, पृष्ठ 61)
अज्ञेय की कविता में शून्य और मौन की उपस्थिति बराबर है, जो विस्मयकारी और हिन्दी कविता में प्रायः अनुपलब्ध है। उनका चुप वाचकता से अधिक कहता जान पड़ता है। वह चुप्पी कहे जाने के समानान्तर उपस्थित है, जो कहे जाने से रह जाया करती है या अकथनीय ही बने रह जाने को अभिशप्त है। इस उपक्रम में मौन सन्नाटा कहने का उपक्रम है। अतिरिक्त अर्थ व्यंजकता और रहस्यमयता के साथ, अलौकिक सा। वर्षों पहले की उनकी एक कविता है-'मुझे तीन दो शब्द कि मैं कविता कह पाऊं-इन तीन शब्दों की खोज में उनकी कविता मौन की ओर बढ़ती हुई कविता है। पहला शब्द वह जो जिह्वा पर लाया न जा सके, दूसरा वह जो कहा तो जा सके पर दर्द से ओछा ठहरता हो और तीसरा खरा शब्द वह, जिसे पाकर यह प्रश्न उठाया जा सके कि क्या इसके बिना काम नहीं चलेगा? अर्थात् वे तीन शब्द जिनसे गुजर कर अन्ततः मौन रहा जा सके।' ( डॉ.सुमन राजे, शब्द से मौन तक की यात्रा, वही, पृष्ठ 63)
अज्ञेय की कविता में मौन, सन्नाटे व एकान्तिकता में एक गहरी उदासी छिपी है, जो उनकी अधिकांश कविताओं में झांक-झांक जाती है। उनकी कविताओं में प्रकृति प्रमुख रूप से उनके रागात्मकता के आलम्बन के लिए ही आयी है किन्तु उस पर जहां कहीं भी स्वतंत्र रचना है, वहां वे उस पर रीझें हैं मगर इस रीझ में एक रहस्यमयता है। उनकी कविता में अकेलापन है मगर असहाय अकेलापन नहीं, दम्भ में दिप्त अकेलापन जिसका मामूलीपन भी उसकी खासियत है। उसकी घुटन, निराशा, शंका, कुण्ठा, स्व-केन्द्रियता सब कुछ निरा अपना और स्वाभाविक है। अपने मन की गांठें खोलना, गुत्थियां सुलझाना, आत्मविश्लेषण, यह सब कुछ कविता की ऐतिहासिक और प्रारंभिक जरूरत उन्हें हमेशा महसूस होती रही। उनकी कविता अनेकायामी यथार्थ की तहों की कविता है। यह सच है कि उनमें भावात्मक या संवेदनात्मक अन्तःक्रियाओं से अधिक बौद्धिकता है। स्वर इतना संयमित की आवेग, आक्रोश या संघर्षशीलता उभर नहीं पायी है मगर शिल्प का संतुलन अपनी प्रभविष्णुता से सदैव प्रभावित करता है चाहे वह लम्बी कविता 'असाध्य वीणा' हो या छोटी कविताएं, जो 'हाइकू' शैली में लिखी गयी हैं। अपने मितकथन में गहन वैचारिकता, दार्शनिकता का जैसा प्रयोग वे करते हैं वह एक किस्म के मिथक की सृष्टि करता चलता है। अज्ञेय का काव्य संवेदना से नहीं, बौद्धिकता से अनुशासित है और उसी परिप्रेक्ष्य में उनकी कविता पर विचार समीचीन होगा।
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Thursday 17 June 2010

केटी के परफ्यूम की व्यावसायिक नैतिकता को सलाम!

केटी प्राइस के नाम पर इत्र के अलावा कई और चीज़ें बिकती हैं। रिएलिटी टीवी स्टार कैटी प्राइस के नाम पर बने इत्र को सुपरड्रग स्टोर ने नैतिक कारणों से अपनी दुकानों से हटा लिया है। एक रिपोर्ट में दावा किया गया था कि इस परफ्यूम की बोतलें भारतीय मज़दूर बनाते हैं जिन्हें न्यूनतम मज़दूरी भी नहीं दी जाती है। सुपरड्रग स्टोर की एक प्रवक्ता ने बताया कि इस संबंध में मज़बूत नैतिक नीतियों का पालन करते हुए इस परफ्यूम को स्टोर से हटा लिया गया है। व्यवसाय में हम बहुत ही मज़बूत नैतिक नीतियों का पालन करते हैं। हम चाहते हैं कि हमारे उपभोक्ता कुछ खरीदें तो उन्हें विश्वास हो जो उत्पाद वो खरीद रहे हैं वो नैतिक तरीकों से बनाया गया हो। संडे ऑब्ज़र्वर ने दावा किया है कि भारत के कारखानों में मज़दूरों को प्रति घंटा मात्र 26 पेंस (16 रुपए) ही मज़दूरी मिलती है जो ग़लत है। प्रवक्ता का कहना था कि अब केटी प्राइस के परफ्य़ूम की बॉटलिंग का काम भारत से हटाकर ब्रिटेन और फ्रांस ले आया गया है। भारत में इस परफ्य़ूम की बॉटलिंग का काम प्रगति ग्लास कंपनी करती थी। केटी प्राइस को जॉर्डन के नाम से भी जाना जाता है और उनके नाम पर कई ब्रांडेड उत्पाद बिकते हैं जिनमें बिस्तर, किताबें और स्वीमिंग से जुड़े सामान भी हैं।
यह खबर इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि भारत इधर आउटसोर्सिंग के लिए दुनिया भर में विशेष तौर पर लोकप्रिय हुआ है और कई देश भारत में कम कीमत पर काम कर रहा हैं। गौरतलब यह है कि यहां के पढ़े लिखे लोगों से आनलाइन काम कराने का ठेका लेने वाली भारतीय कम्पनियां विदेश से वहां काम काम वहां के बाजार के भाव के तुलना में कम कीमत पर ही लेतीं बल्कि वे उसमें अपना हिस्सा बहुत अधिक रखकर यहां जिन लोगों से काम कराती हैं वह बहुत ही शर्मनाक होता है। किन्तु बेरोजगारों की फौज वाले भारत में बेकार बैठने की तुलना में जितना मिले उसी में काम करो के मनोभाव के साथ काम कर रही हैं। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि गूगल जैसी कंपनी के अत्यंत महत्वपूर्ण शोधपरक अंग्रेजी आलेखों का अनुवाद भारतीय भाषाओं में 40 पैसे प्रतिशब्द में कराया जा सकता है।
आज जब कि एक देश से दूसरे देश के बीच के सम्बंध का पूरा तानाबाना ही व्यवसायिक हितों से जुड़ा होता है और मित्र और शत्रु राष्ट्र का मुख्य आधार कोई और मूल्य नहीं बल्कि परस्पर व्यवसायिक हित हैं व्यावसायिक नैतिक को विशेष तरजीह दिये जाने की आवश्यकता महसूस की जा रही है। जो भी देश और कंपनियां नैतिकताओं को तरजीह देंगी आगे बढ़ेंगी और यह होना भी चाहिए। पूरी दुनिया को शोषक और शोषित में बांटने वाले माक्र्सवादी सिद्धांतों के सिद्धांतों का काट व्यावसायिक नैतिकता के विकास में ही निहित है। वाजिब कार्य की वाजिब कीमत देना उनमें सबसे महत्वपूर्ण है। आशा है इत्र प्रकरण से अन्य कंपनियां सबक लेंगी। कई कंपनियां पहले भी बच्चों से काम कराने जैसे मामलों की शिकायत पायी जाने पर ऐसे कदम उठा चुकीं हैं किन्तु वाजिब मेहनताना का मुद्दा कुछ हटकर है किन्तु बड़ा मुद्दा है और इसकी परिधि भी व्यापक है। विदेशों ही नहीं अपने घरेलू बाजार में भी इन बातों पर ध्यान दिये जाने की जरूरत है। कम कीमत पर वस्तुएं पाने की होड़ के दौर में इस बात की ओर भी सबका ध्यान आकृष्ट कराया जाना है कि कोई वस्तु कम कीमत पर उपलब्ध क्यों है?

Sunday 13 June 2010

अविचल रागात्मक संवेदना के अक्षत कवि-शमशेर बहादुर सिंह


(जन्म शती वर्ष पर विशेष)

परिचयः जन्म: 13 जनवरी 1911-निधन: 12 मई 1993।
जन्म स्थान-देहरादून। प्रमुख कृतियाँ-कुछ कविताएँ (1959), कुछ और कविताएँ (1961), चुका भी हूँ मैं नहीं (1975), इतने पास अपने (1980), उदिता: अभिव्यक्ति का संघर्ष (1980), बात बोलेगी (1981), काल तुझसे होड़ है मेरी (1988)। 1977 में "चुका भी हूँ मैं नहीं" के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार एवं मध्य प्रदेश साहित्य परिषद के "तुलसी" पुरस्कार से सम्मानित। सन् 1987 में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा "मैथिलीशरण गुप्त" पुरस्कार से सम्मानित।

शमशेर बहादुर सिंह अपने काव्य-शिल्प एवं संवेदन-वैशिष्टय के कारण हिन्दी काव्य-परिदृश्य में एक अपूर्व मेधा के रचनाकार दिखायी देते हैं। प्रगतिवादी काव्य-धारा से लेकर प्रयोगवाद, नयी कविता, साठोत्तरी कविता से जनवादी कविता तक साहित्य के अनेक आन्दोलन और प्रवृत्तियां प्रवहमान हुईं किन्तु इनमें अपनी प्रबल काव्य-चेतना के चलते वे इन सबके प्रभाव को अपनी शर्तों और अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर अलग प्रकार से स्वीकारते दिखायी देते हैं। यही नहीं शमशेर का झुकाव उर्दू-फ़ारसी काव्य की ओर भी रहा तथा उन्होंने ग़ज़लें भी लिखीं हैं, इसलिए उलझाव के दोहरे मोर्चे उनके रू-ब-रू उपस्थित रहे होंगे, ऐसा कहने की स्थिति बनती है।
शमशेर की अविचल रागात्मक संवेदना इससे अ-क्षत और अपने तेवर में प्रगाढ़तर होती गयी, जो उनकी लेखकीय जिजीविषा की उद्दाम बनावट और माद्दा का परिचय देती है। शमशेर में जहां नित-नूतनता है वहीं निरन्तर बढ़ाव या उठान भी। नित-नित परिष्कृत होती उनकी शैली अपने वैशिष्ट के चलते एक जीवित मिथक गढ़ती गयी है। शमशेर स्थूल के आग्रही किन्हीं विशेष परिस्थितियों में अपवादवश भले रहे हों, मूलतः सूक्ष्म संवेगों की छटी हुई अनुभूतियों का खाका उनकी कविताओं में विद्यमान हैं-
'शाम का बहता हुआ दरिया कहां ठहरा!
सांवली पलकें नशीली नींद में जैसे झुकें
चांदनी से भरी भारी बदलियां हैं
ख़्वाब में गीत पेंगे लेते हैं
प्रेम की गुइयां झुलाती हैं उन्हें;
-उस तरह का गीत, वैसी नींद, वैसी शाम-सा है
वह सलोना जिस्म।
उसकी अधखुली अंगड़ाइयां हैं
कमल के लिपटे हुए दल
कसे भीनी गंध में बेहोश भौंरे को।'( कुछ कविताएं व कुछ कविताएं और, पृष्ठ 64)
ऐसा होना शुभ है कि शमशेर एक चित्रकार भी रहे। कविता में चित्रों का रचाव कला की संभावना और व्यापकता को अतिरिक्त गहनता, व्यापकता और सूक्ष्मता प्रदान करता है। शमशेर के यहां शब्दों के रंग और उन रंगों के उतार-चढ़ाव भी हैं। दो कलाओं का संयोग एक किस्म के सौन्दर्य-बोध और आस्वाद की सृष्टि से पाठक को सम्पृक्त करता है, जिसको महसूस करने की जितनी सुविधाएं हैं उन्हें व्याख्यायित करने की उतनी कठिनाइयां भी-
'पूरा आसमान का आसमान है
एक इन्द्रधनुषी ताल
नीला सांवला हलका-गुलाबी
बादलों का धुला
पीला धुआं...
मेरा कक्ष, दीवारें, क़िताबें, मैं, सभी
इस रंग में डूबे हुए से
मौन।
और फिर मानो कि मैं
एक मत्स्य-हृदय में
बहुत ही रंगीन
लेकिन
बहुत सादा सांवलापन लिए ऊपर
देखता हूं मौन पश्चिम देश :
लहरों के क्षितिज पर
एक
बहुत ही रंगीन हलकापन
बहुत ही रंगीन कोमलता।
कहां हैं
वो क़िताबें, दीवारें, चेहरे, वो
बादलों की इन्द्रधनुषी हंसियां?
बादलों में इन्द्रधनुषाकार लहरीली
लाल हंसियां
कहां हैं?' (वही, पृष्ठ 49)
यहां यह कह देना समीचीन होगा कि शमशेर की संचालित जीवन-दृष्टि प्रगतिशील है और कला के मानदण्ड में यह दृष्टि उनके 'विजन' को एक रास्ता देती है, दूसरी ओर भटकाव का शिकार नहीं होने देती। शमशेर की 'बैल' कविता श्रम पर लिखी सार्थक नक्काशीदार अद्भुत कविता है, जो कला और दृष्टि के साझे की मिसाल है। शमशेर शहरी स्वभाव के कवि हैं। गांव में उनका मन कम रमा है। नगरबोध के त्रासद अनुभव उनकी कविता में अक्सर पाये जा सकते हैं, आसानी से। एक और सकारात्मक कला पक्ष है उनकी कविता का वह है-प्रेम। प्रगतिशील धारा के आगमन के पश्चात लम्बी अवधि तक प्रेम कविताएं कम लिखी गयीं और जो लिखी गयीं वे सतही और गैर-ईमानदार हैं। अपनी स्वाभाविक और सहज मनोवृत्तियों का स्पर्श उनमें नहीं है और वे हृदय के उद्गारों से नहीं वैचारिकता से ओतप्रोत हैं। केदारनाथ अग्रवाल, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, केदारनाथ सिंह जैसे कुछेक कवि इसके अपवाद हैं। शमशेर के पास प्रेम कविताओं की सम्पन्नता है। उसका कारण शायद यही ठीक जंचता है कि अन्दर से बिना बड़ा हुए बड़ी और निष्कपट कविता संभव नहीं, कम से कम प्रेम कविता तो नहीं ही। शमशेर में वह खरापन है, जो विश्वसनीय है। उनकी आन्तरिक उद्वेगों से उपजी कविताएं भरोसेमंद हैं। वैसी ही भरोसेमंद जैसी मुक्तिबोध की जनसंघर्ष पर लिखी कविताएं।
शमशेर के पास कला और दृष्टि का अनूठा संगम था। कला की दृष्टि से उनकी कविताएं क्लासिक हैं और बोध के स्तर पर वामपंथी प्रगतिशील। अतएव कविता में शमशेर की उपस्थिति ने हिन्दी कविता को अधिकाधिक समृद्ध किया। शमशेर ने अपनी कविताओं के लिए जोख़िमभरा मार्ग चुना। उन्हें 'कवियों का कवि' यूं ही नहीं कहा गया। उन्होंने कला और कविता की स्वायत्त दुनिया की उपस्थिति को कमोबेश स्वीकार किया है और कई महत्त्वपूर्ण रचनाकारों पर कविताएं लिखीं-निराला से लेकर अज्ञेय, त्रिलोचन, मुक्तिबोध, मोहन राकेश, गिन्सबर्ग, गुलाम रसूल संतोष से लेकर प्रभात रंजन तक पर। उनकी कविताओं में एक पठनीय दृष्टि-भंगी है, जो उनके लिखने के ढर्रे के कारण एक अलग आस्वाद का अनुभव कराती हैं या यह कहना ज्यादा ठीक पड़ेगा कि अनुभव का आस्वाद कराती हैं। एक नयी दिशा की ओर जाने वाले अर्थ का संकेत का नाम है-शमशेर की पाठ-प्रक्रिया। यह एक शर्त है उनकी कविता के साथ कि पाठक को उनकी कविता को समझने के लिए ख़ुद भी शामिल होना पड़ता है तथा अपनी ओर से कुछ जोड़-घटाव भी करना पड़ सकता है।
शमशेर एक बिम्ब-समृद्ध कवि हैं। वे ऐन्द्रिक बिम्बों के लिए अलग से पहचाने जा सकते हैं। इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि कवि संसार को अपने संवेगों और क्षमताओं के आधार पर दुनिया को अलग-अलग ग्रहण करता है और उस ग्राह्य में बहुत कुछ काट-छांटकर और उतना ही अपनी ओर से जोड़कर अपने सांचे में ढालकर कला में वापस उलीचता है। इस प्रकार कला गर्भधारण से लेकर प्रजनन तक की एक प्रक्रिया तक से गुज़रती है। शमशेर की कविता इस सच की आधार-शिला पर अपनी पुख़्ता पहचान के साथ उपस्थित है। उन्होंने शब्दों के मुहावरे नहीं गढ़े, किन्तु शब्दों को एक नया आचार दिया है और एक नया व्यवहार भी, जिसके कारण वे विशिष्ट बनते हैं और शमशेर की शैली के सम्मोहक चुम्बकत्व में एक नयी स्थिति में क़ायम रहते हैं, अधर में लटके हुए से, एक नये लोक में मंत्रबद्ध
'चुका भी हूं मैं नहीं
कहां किया मैंने प्रेम
अभी
जब करूंगा प्रेम
पिघले उठेंगे
युगों के भूधर
उफन उठेंगे
सात सागर।
किन्तु मैं हूं मौन आज
कहां सजाये मैंने साज
अभी।'( चुका भी हूं मैं नहीं, द्वितीय संस्करण, 1981, पृष्ठ 111)
शमशेर के बारे में शलभ श्रीराम सिंह का मानना था-
'आज साठोत्तरी कविता के जिन चन्द कवियों की कविताओं को लेकर व्यक्तिवादी रुमानियत और रूपवादी रुझान की बात की जा रही है वस्तुतः वे शमशेर बहादुर सिंह की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले कवि हैं। ध्यान से देखने पर साफ़-साफ़ पता चल जायेगा कि ये कवि व्यक्तिवादी रुमानियत और रूपवादी रुझान के सांचों को तोड़कर भविष्य की मुख्यधारा को गति प्रदान कर रहे हैं।' (शलभ श्रीराम सिंह, समकालीन संचेतना, कलकत्ता, 13 जुलाई 1990, पृष्ठ 2) शमशेर अपनी ग़ज़लों के लिए अलग से पहचाने जाते हैं। हिन्दी के कवियों में ग़ज़ल लेखन की प्रवृत्ति नयी नहीं है। उनके पूर्व भी भारतेन्दु, गया प्रसाद शुक्ल 'सनेही', मैथिलीशरण गुप्त से लेकर सूर्यकान्त त्रिपाठी' निराला' आदि तक ने ग़ज़लें लिखीं। उनके समकालीनों में त्रिलोचन ने भी एक पूरा ग़ज़ल संग्रह 'गुलाब और बुलबुल' प्रकाशित करवाया। हालांकि यह विधा किसी और से उतनी नहीं सध पायी जितनी शमशेर से। शमशेर ने ग़ज़ल के परम्परागत स्वरूप को खण्डित किये बग़ैर उसे आत्मसात किया और ग़ज़ल की अपनी आन्तरिक आवश्यकताओं को पूरा करने में वे सफल भी रहे। 'सन् 1961 में प्रकाशित शमशेर बहादुर सिंह के संग्रह 'कुछ और कविताएं' में उनकी 7 ग़ज़लें संग्रहीत हैंxxxशमशेर के बाद ही सन् 1974-75 में दुष्यंत कुमार का प्रसिद्ध ग़ज़ल संग्रह 'साये में धूप' प्रकाशित हुआ जिसमें उनकी 52 ग़ज़लें संग्रहीत हैं। दुष्यंत भाषा के स्तर पर भारतेन्दु या निराला की परम्परा के कवि नहीं बल्कि शमशेर बहादुर सिंह की परम्परा के कवि हैं। दोनों की ग़ज़लें कई स्थानों पर उर्दू के कठिन शब्दों से भरी हैं परन्तु वे उसे आम बोलचाल की भाषा कहते हैं। जहां तक कथ्य का प्रश्न है दुष्यंत भारतेन्दु व निराला से जुड़ जाते हैं।' (डॉ.हनुमंत नायडू, जलता हुआ सफ़र, मुंबई, 1987, पृष्ठ 14)
यह पहले ही कहा जा चुका है कि शमशेर ने ग़ज़ल के परम्परागत ढांचे को स्वीकारते हुए ही अपनी बात कही है और इस विरासत का मूल्य भी कम नहीं है। शिल्पगत ढांचे को तोड़कर नयी बात कहना किन्ही अर्थों में अपेक्षाकृत सरल है किन्तु परिपाटी के बीच रहकर नया कुछ कर ग़ुजरना कठिन। हिन्दी कवियों में शमशेर की परम्परा का लगभग वैसा ही निर्वाह किया शलभ श्रीराम सिंह ने। यह रास्ता उनकी पहचान को पुख़्ता करने वाला ही साबित हुआ। शमशेर लिखते हैं-
'वही उम्र का एक पल कोई लाये
तड़पती हुई सी ग़ज़ल कोई लाये
हक़ीक़त को लायें तख़ैयुल से बाहर
मेरी मुश्किलों का जो हल कोई लाये।' (कुछ कविताएं व कुछ और कविताएं, 1984, पृष्ठ 18/19)
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Wednesday 2 June 2010

परिवर्तन की आंधी में बंगाल ममता की ताजपोशी को तैयार


स्थानीय निकाय परिणाम
पश्चिम बंगाल में कुल 16 जिले के 81 निकायों में चुनाव हुए।
जिनमें से 36 निकायों पर जीती टीएमसी।
18 पर लेफ्ट विजयी रही।
6 पर कांग्रेस ने जीत हासिल की।
शेष 21 पालिकाओं में किसी एक दल को बहुमत नहीं मिला है।

कोलकाता नगर निगम के चुनाव परिणाम
कुल सीटों (वार्ड) की संख्या 141
सभी 141 वार्डों के नतीजे घोषित
टीएमसी जीती 95 पर।
सीपीएम जीती 33 पर।
कांग्रेस जीती 10 पर।
बीजेपी जीती 3 पर।
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पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्ववाले दल तृणमूल कांग्रेस ने राज्य और देश में वामदलों की साख को करारा धक्का पहुंचाया है। बंगाल में लगातार तीन दशक से अधिक अवधि तक राज करने के बाद वाम दलों को गुरूर हो गया था और वे जनता की भावनाओं को तरजीह देने के बदले उन्हें अपने तौर पर हांकने पर आमादा हो चले थे। यह आवाम के बदले कैडर राज में तब्दील हो गया था। उनकी शेखियां हवाई हो चुकी थीं और दिमाग सातवें आसमान पर। विचारशील पैंतरेबाजियों वाले इन दलों का उनका मानसिक दिवालियापन व बड़बोलापन तब सामने आया जब संप्रग सरकार के गठबंधन को उन्होंने केन्द्र में अपने दिये गये समर्थन को वापस लिया। उन्होंने न तो महंगाई के मुद्दे पर सरकार पर दबाव बनाया ना ही बदहाल बंगाल के लिए पैकेज की ही मांग की। वे लगातार परमाणु समझौते को रद्द किये जाने के तरजीह देते रहे और अन्तः प्रधानमंत्री को बदलने की बिनमांगी सलाह संप्रग को देने के बाद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली। केन्द्र सरकार को में बिना किसी उपलब्धि के चार साल तक बाहर से समर्थन देते रहे। और अंत में किसी भी स्तर पर जाकर सरकार गिराने की विफल कोशिश में मात खायी। इसी कोशिश में बौखलाये वामपंथियों ने तब अपनी इमेज और बिगाड़ ली जब दलित की बेटी होने की एकमात्र क्वालीफिकेशन के आधार पर मायावती को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाने का ख्वाब देखा और उजाकर किया। भ्रष्टाचार के कई आरोपों में लिप्त मायवती को नैतिक समर्थन देने का इरादा जाहिर कर बंगाल के बौद्धिकों की निगाह में वामदल वाले गिरते चले गये।
इसके बाद जो परिस्थितियां बंगाल में पैदा हुई वह उनके संभाले न संभली। कारखाने के लिए भूमि अधिग्रहण पर मुआवजे का मसला हल कर कर पाना यहां की सरकार की नासमझी को उजागर कर गया। टाटा के नैनो के लिए भूमि अधिग्रहण के मसले को ममता बनर्जी ने अपना हथियार बनाया और आम लोगों के प्रतिरोध की आवाज बनकर सामने आयीं। और वाम दलों ने केन्द्र से समर्थन वापस लेने के बाद बंगाल में बिगड़ रहे हालत पर काबू पाने में केन्द्र का समर्थन नहीं मांगा। और यहां जो औद्योगिक वातावरण बुद्धदेव भट्टाचार्य तैयार करना चाहते थे, बिगड़ता चला गया।
गौरतलब यह है कि वामदलों को किसी बुर्जुआ दल ने नहीं हराया है। ना ही किसी विचारधारा वाले दल ने। बल्कि लगभग दिशाहीन दल, जिसका नेतृत्व एक चंचल वृत्ति की महिला ममता बनर्जी के हाथ में है। इसका अर्थ यह निकलता है कि यहां लोगों को परिवर्तन चाहिए था और तृणमूल कांग्रेस के अलावा कोई ऐसा दल यहां सक्रिय नहीं जिसमें किसी भी अर्थ में यहां की सरकार को बदलने की सामर्थ्य तो दूर इच्छाशक्ति तक हो। दूसरे यह कि जिन अंचल के लोगों ने हराया उनमें देहात के वंचित वर्ग के लोग हैं भी और वहां के लोगों ने भी जहां कल-कारखाने तो हैं पर उनमें अधिकतर तालाबंदी है। जबकि भूमि सुधार का मामला वामपंथ के लिए हमेशा से गर्व का मामला रहा है और कल-कारखानों में सशक्त ट्रेड यूनियनों की उपस्थिति यह दर्शाती थी कि वह प्रबंधन से अपनी मांगें मनवा पाने में सक्षम है। वाममोर्चा की मौजूदा विफलता बताती है कि दोनों मोर्चों पर मौजूदा सरकार से मोहभंग ने यहां के राजनैतिक परिवर्तन को रसद ही नहीं पहुंचायी बल्कि यह बदलाव लाने वाले वे लोग हैं जो कभी न कभी वामपंथ के प्रति आस्थावान रहे हैं। और वह मुस्लिम वर्ग भी वाम से खफा हो गया जो धर्म निरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम मतदाताओं का हिमायती बना हुआ था। इस वर्ग के देर से ही समझ में आ गया कि इस सरकार ने मुस्लिम वर्ग का केवल इस्तेमाल किया है, उनके हालत बदलने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है।
इससे यह भी स्पष्ट है कि परिवर्तन चाहने वाली जनता का हौसला बढ़ा है और ममता बनर्जी ने कोई नयी मूर्खता नहीं की तो आगत विधानसभी चुनाव में उनकी विजय तय है। हालांकि इतिहास गवाह है कि यह दौर क्षणिक होता है और विद्रोह के लिए जाने जानी वाली अग्निकन्या अपनी ही खामियों के कारण अपनी उपलब्धियों को न जाने कब खो बैठेगी, इसकी आशंका बराबर बनी रहेगी।
तृणमूल के साथ वे युवा नहीं हैं जो पढ़-लिखकर बंगाल में ही अपना भविष्य संवारना चाहते थे क्योंकि टाटा की दुनिया की सबसे सस्ती कार नैनो का कारखाना बंगाल से हटकर गुजरात के सांणद में शुरू हुआ। उसका दोष ममता के सिर जाता है। यह इक्तफाक की बात है कि जिस दिन स्थानीय निकाय के नतीजे निकले हैं उसी दिन टाटा मोटर्स ने दुनिया की सबसे सस्ती कार नैनो के विनिर्माण कारखाने का उद्घाटन किया। पश्चिम बंगाल से बाहर होने के बाद यहां नया कारखाना स्थापित करने में दो साल का समय लग गया। गुजरात के साणंद में कंपनी के इस कारखाने का उद्घाटन राज्य के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और टाटा समूह के अध्यक्ष रतन टाटा ने किया। नैनो का यह कारखाना 2,000 करोड़ रुपये की लागत से 1,100 एकड़ क्षेत्र पर बना है।
ममता बनर्जी को पश्चिम बंगाल का अगला मुख्यमंत्री का ताज पहनाने को तो आम जनता तैयार है मगर यह ताज कितने दिन रहेगा यह कहना मुश्किल है। लोगों के विश्वास को पलीता औद्योगीकरण के मुद्दे पर ही लगेगा क्योंकि वाम से भड़कने वाले उद्योगपति किसी तरह उन्हें झेल गये और बुद्धदेव भट्टाचार्य के मुख्यमंत्री बनने के बाद उनके मन में वाम के प्रति साफ्ट कार्नर बनना शुरू हुआ था जिस पर ममता बनर्जी के आंदोलनों ने न सिर्फ पानी फेर दिया बल्कि पूरी दुनिया में संदेश गया कि बंगाल में औद्योगीकरण के खिलाफ वातावरण केवल वाम का मुद्दा नहीं है बल्कि वह यहां की फिजाओं में बुरी तरह पसरा हुआ है। देश भर में जिन नक्सलियों की हिंसा से चिन्ता व्याप्त है उनके प्रति ममता बनर्जी और उनके पक्ष में खड़े महाश्वेता देवी जैसे बुद्धिजीवियों की सहानुभूति खतरनाक संकेत देती है जो व्यावसायिक महौल के विपरीत है।
ममता की पटरी से उतरने के बाद बंगाल की राजनीति की ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त होने के बाद फिर वामदलों की मोहताज होगी या दूसरा विकल्प है राहुल गांधी का। यदि उन्होंने बंगाल के विकास में दिलचस्पी दिखायी और जमकर फील्ड वर्क किया तो कांग्रेस के लिए फायदेमंद हो सकता है। हालांकि फिलहाल ममता बनर्जी कह रही हैं कि अगला चुनाव संप्रग के साथ मिल कर लड़ेंगी लेकिन ऐन वक्त पर कौन सी छोटी सी बात उनके ईगो को हर्ट कर जायेगी कहना मुश्किल है। फिर भी बंगाल में राजनीतिक परिवर्तन के इतिहास में उनके प्रयास मील के पत्थर साबित होंगे इसमें शक नहीं। खास तौर पर इसलिए भी कि वे जिस वाममोर्चा से टकरा रही हैं उसके विचार मार्क्स के हैं और जिस कांग्रेस की वे केन्द्र में सहयोगी हैं उसका आजादी के दौर से ही लम्बा चौड़ा इतिहास रहा है और जिसकी बंगाल में ममता के सामने कोई औकात नहीं है। ऐसे में जनता की बदलाव की चाहत ही वह केन्द्रीय मुद्दा है जो ममता को परिवर्तन में सहायक साबित होगा।
इस बार के स्थानीय निकाय चुनाव में राज्य स्तर पर तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस का गठबंधन नहीं हुआ था, जिसके कारण दोनों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा। इन नतीजों का महत्व इसलिए और भी है क्योंकि अगले साल पश्चिम बंगाल में विधान सभा चुनाव होने हैं। कांग्रेस को भी राज्य में गठबंधन के समय कमजोर स्थिति के कारण नरम होकर सीटों का तालमेल करना पड़ेगा। पश्चिम बंगाल की मुख्य विपक्षी पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने ममता बनर्जी के नेतृत्व में राज्य के चुनावों में जीत का सिलसिला बरकरार रखा है। तृणमूल ने 2009 में हुए लोकसभा चुनाव दोनों दल साथ लड़े थे। इस बार के स्थानीय निकाय चुनावी नतीजों से इस बात को साबित कर दिया कि बनर्जी ने कहा कि यह मां-माटी-मानुष की जीत है। उन्होंने यह जनादेश राज्य में राजनीतिक परिवर्तन के लिए दिया है। हालांकि वाम मोर्चे के अध्यक्ष विमान बोस ने कहा कि हम अभी से अगले साल चुनाव तक लोगों का विश्वास जीतने के लिए वाम मोर्चा बहुत मेहनत करेगा। यहां यह गौरतलब है कि स्थानीय निकाय चुनाव कोलकाता और शहरों व कस्बों में हुए हैं, जबकि पश्चिम बंगाल-विधानसभा की 294 सीटों में लगभग दो सौ देहाती अंचल में हैं। वहां पंचायतों में तृणमूल कांग्रेस ने असर तो दिखाया है, पर वाममोर्चा के पास अब भी पंचायती लोकतंत्र का बहुमत है। दो सौ सीटों का यह आंकडा ममता बनर्जी को पूरा करना होगा। ममता बनर्जी कांग्रेस के बगैर वाममोर्चा की सरकार का सफाया कर देंगी, यह अस्पष्ट है।
तृणमूल कांग्रेस की अपनी हैसियत बहुत नहीं है। वह एक क्षेत्रीय पार्टी ही है और ममता बनर्जी को रेल मंत्री होने का फायदा भी इस चुनाव में मिला है। संप्रग ने भी उन्हें मंत्रिमंडल में बहुत तरजीह दी है क्योंकि उन्हें वामदलों से हिसाब चुकता करना है। ममता ने कई नयी रेलगाडियां चलाई हैं और बंगाल को इसमें विशेष तरजीह दी गयी है, जिसको लेकर उन्हें देश भर में पक्षपात के आरोपों का सामना भी करना पड़ा है। वे केन्द्रीय रेल मंत्रालय का लाभ बंगाल विधानसभा चुनाव के लिए कर रही हैं और देर सबेर इस बात को लेकर उनकी निन्दा भी होनी है।
1977 से पहले पश्चिम बंगाल में कांग्रेस का राज था। सिद्धार्थ शंकर रॉय वहां के आखिरी कांग्रेसी-मुख्यमंत्री थे और आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी-विरोधी लहर के बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने पश्चिम बंगाल की सत्ता पर कब्जा कर लिया। तब से 33 साल हो गए, पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा का शासन ही चला आ रहा है। ज्योति बसु ने उम्र के कारण राजनीति से अवकाश ले लिया और उन्होंने बुद्धदेव भट्टाचार्य को वहां की कमान सौंप दी। पार्टी की अपनी गुटबाजी के कारण भट्टाचार्य ममता बनर्जी के आंदोलनों का सामना करने में विफल रहे। कांग्रेस में स्थानीय नेतृत्व का अभाव है, जिसका लाभ ममता बनर्जी को मिला है। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस तृणमूल कांग्रेस के नेतृत्व में तालमेल करके चुनाव लडेगी तो यह परिर्तन की लहर अपना कमाल अवश्य दिखायेगी। और पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस की मिली-जुली सरकार बनेगी। राज्य में पहली महिला मुख्यमंत्री ममता बनेंगी। मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी और राहुल गांधी तीनों ने फिलहाल पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के साथ बने रहने का मन बना लिया है। प्रणब मुखर्जी ने भी तृणमूल से गठबंधन पर मुहर लगा दी है।
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