Friday 26 March 2010

एक क्षेत्र की जानकारी दूसरे क्षेत्र में काम नहीं आती

कवि प्रभात पाण्डेय जी का एक ई मेल मुझे मिला। उससे कुछ बातें निकलीं जो आप तक पहुंचाने में कोई हर्ज नहीं लग रहा ताकि आप भी उस पर विचार करें।

2010/3/27 Prabhat Pandey
prabhat_lucknow@yahoo.co.in
हिमालय प्रहरी के सम्पादक डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने पत्रिका के मार्च - अप्रैल 2010 अंक के सम्पादकीय में एक घटना का जिक्र किया है जो इस प्रकार है -

किसी प्राथमिक विद्यालय के एक अंकगणित के शिक्षक ने बच्चों से सवाल किया. शिक्षक का सवाल था - कुल तेरह भेड़ मैदान में चर रहीं थी जिसमें से तीन भेड़ गड्ढे में गिर गयीं. बताओ कितनी भेड़ें रह गयीं. कक्षा के एक बच्चे को छोड़ कर सभी ने कहा - दस. बच्चों के उत्तर से शिक्षक संतुष्ट हुए. कक्षा का एक बच्चा अपना हाथ उठाये चुपचाप बैठा रहा. शिक्षक ने उससे पूछा - क्या तुम कुछ कहना चाहते हो. बच्चा बोला - मास्टर जी, एक भी भेड़ नहीं बची. शिक्षक ने रंज होते हुए कहा - आज तुमने अपना परिचय दे ही दिया. बस यही कहने के लिए तब से हाथ उठाये बैठे हो. बच्चा बोला - मास्टर जी, मैं ठीक कह रहा हूँ. मेरे घर में भेड़ हैं. मैं उन्हें मैदान में चराने जाता हूँ. जब कभी झुंड की एक भेड़ गड्ढे में गिर जाती है तो बाकी सभी भेड़ें उसके पीछे गड्ढे में गिर जाती हैं.
प्रश्न यह कि कौन सा उत्तर सही था और क्यों - जो एक को छोड़ बाकी बच्चों ने दिया या वो जो उस बच्चे ने दिया जो भेड़ चराता था.
प्रश्न यह भी कि क्या यह घटना हमें कुछ और इंगित करती है.
मेरा उत्तर था-यह प्रसंग यह बताता है कि अनुभव से प्राप्त ज्ञान की भी सीमाएं हो सकती हैं। विधा का ज्ञान दूसरे क्षेत्र में लागू किया जाये तो उसके नतीजे गलत भी हो सकते हैं। गणित और मनोविज्ञान दोनों अलग-अलग शास्त्र हैं। छात्र गणित के उत्तर मनोविज्ञान से देने की कोशिश कर रहा था। छात्र मनोविज्ञान में पास हो जायेगा लेकिन गणित में कभी पास नहीं होगा। एक क्षेत्र की समस्या का हल दूसरे क्षेत्र के हल से नहीं खोजा जा सकता। हम वही कोशिश करते हैं और विफल हो जाते हैं। और बच्चे के जवाब से संतुष्ट लोगों की इस देश में बहुतायत है।
एक क्षेत्र विशेष के मूल्यों को दूसरे क्षेत्र में प्रयोग मुसीबत में डालते हैं और सफलता को संदिग्ध बना देते हैं।
-राम को लोकजीवन और आध्यात्म जगत से निकाल कर राजनीति में किया गया प्रयोग देश के लिए सर्वनाशी साबित हो रहा है।-फ्रायड ने मनोविश्लेषण के लिए जब अपनी ही बेटी के क्रिया कलापों को चुना तो लोकजीवन में उसकी निन्दा हुई। -यौन जीवन की चर्चा जब हम खुले मंच पर करते हैं तो वह निन्दनीय बन जाता है।-कामयाबी को ही नैतिक जीवन की कसौटी मानना व्यावहारिक जीवन में सराहनीय होता है किन्तु मूल्यों के क्षेत्र में कामयाबी का कोई महत्व नहीं है और विफल लोग समाज के आदर्श बन सकते हैं।

Wednesday 24 March 2010

सामाजिक जीवन में बदलाव के लिए अदालत का क्यों करें इन्तजार!

भारतीय समाजिक जीवन में तेजी से बदलाव आ रहे हैं। मेरा खयाल बदवाव की गतिशीलता में तेजी का कारण मीडिया की लोगों तक व्यापक पहुंच और व्यवसाय के भूमंडलीकरण रहा है। एक देश के मूल्य तेजी से दूसरे देश के मूल्य को प्रभावित कर रहे हैं। आने वाले समय में विश्व स्तर पर मिली-जुली संस्कृति का ही बोलबाला हो जायेगा। जीवन शैली और मूल्य में कोई भी नयापन हमें नहीं चौंकायेगा। और यह जो भारत में एक साथ कई कई दौर के एक साथ जी रहे हैं उसमें और वैविध्य आयेगा। भविष्य की फिल्म भारत में बनने लगी हैं। भारत दुनिया के भविष्य के एजेंडे तय करने में लगा है ऐसे में अदालतों के फैसले यदि युगानुकूल आते हैं तो यह समाज के स्वास्थ्य के लिए संतोषप्रद है। दरअसल न्याय या दंड की अवधारणा से जुड़े मुद्दे ही किसी समाज की आधुनिकता या पिछड़ेपन का सूचक हैं। जिन पंचायतों में आनर किलिंग की घटनाएं घटती हैं वे कबीला कल्चर से अभी बाहर नहीं निकला पाये हैं और उससे निजात दिलाने के लिए आधुनिक समाज को हस्तक्षेप भी करना चाहिए। खैर ...
देश की उच्चतम न्यायालय ने विवाह पूर्व यौन सम्बन्धों और सहजीवन की वकालत करने वाले लोगों के अनुकूल व्यवस्था देते हुए 23 मार्च 2010 को कहा कि किसी महिला और पुरुष के बगैर शादी किये एक साथ रहने को अपराध नहीं माना जा सकता। प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति के. जी. बालकृष्णन, न्यायमूर्ति दीपक वर्मा और न्यायमूर्ति बी. एस. चौहान के पीठ ने कहा, 'दो बालिग लोगों का एक साथ रहना आखिर कौन सा गुनाह है। क्या यह कोई अपराध है? एक साथ रहना कोई गुनाह नहीं है। यह कोई अपराध नहीं हो सकता।' न्यायालय ने कहा कि यहां तक कि पौराणिक कथाओं के मुताबिक भगवान कृष्ण और राधा भी साथ-साथ रहते थे। सहजीवन या विवाह पूर्व यौन सम्बन्धों पर रोक के लिए कोई कानून नहीं है। न्यायालय ने यह व्यवस्था दक्षिण भारतीय अभिनेत्री खुशबू की विशेष अनुमति याचिका पर सुनवाई के दौरान अपना फैसला सुरक्षित करते हुए दी है। शिकायतकर्ताओं के वकील का कहना था कि विवाह पूर्व यौन सम्बन्धों के कथित समर्थन वाली खुशबू की टिप्पणियों से युवाओं का मन भटकेगा नतीजतन मर्यादाओं और नैतिक मूल्यों का पतन होगा। पीठ ने देश के नागरिकों को जीवन जीने और स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार देने वाले संविधान के 21वें अनुच्छेद का हवाला देते हुए कहा, 'कृपया हमें बताएं कि ऐसा आचरण किस धारा के तहत अपराध है। साथ रहना जीवन का अधिकार है।
मैंने इस विषय पर दो दशक पहले उपन्यास लिखा था 'अनचाहे दरवाज़े पर'। उस समय इस उपन्यास को साहित्यिक हलके ने रुचि के साथ देखा लेकिन कोई भी प्रतिक्रिया मुझे नहीं प्राप्त हुई। लोगों ने यह जरूर कहा कि वे उसे दुबारा पढ़ गये हैं किन्तु उस पर सार्वजनिक टिप्पणियों से उसे पढऩे वाले बचे। त्रिलोचन जी ने अलबत्त्ता मुझसे यहां तक कहा था कि ऐसा नायिका हिन्दी साहित्य में नहीं है मैं दिल्ली वालों को यह उपन्यास दिखाऊंगा।
साहित्य भी यदि अपने समाज की सीमाओं से बंधा रहेगा तो प्रतिक्रिया कौन देगा? क्या समाज को दिशा देने वाले चिन्तकों को अपनी राय व्यक्त करने से पहले अदालतों का इन्तजार करना चाहिए? मैं समझता हूं साहित्य व संस्कृति से जुड़े लोगों को उन रास्तों का संधान करना चाहिए जहां समाज को सहज और स्वाभाविक जीवन मुहैया कराया जा सके। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.करुणानिधि ने उच्चतम न्यायालय की इस टिप्पणी का स्वागत किया है। करुणानिधि ने कहा कि विवाह पूर्व यौन संबंधों का उल्लेख संगम साहित्य काल में भी मिलता है।
मुझे यकीन है कि इस तरह का जीवन अधिक मानवीय मूल्यों से जुड़ा है क्योंकि इसमें जिम्मेदारियों के प्रति कोई कानूनी बाध्यता नहीं है। कानूनी मान्यताओं ने वैवाहिक रिश्ते का काफी हद तक मशीनीकरण कर दिया है और दोनों पक्ष रिश्ते के खूबसूरत पहलुओं की लगातार अनदेखी करते जीते हैं।
पारिवारिक रिश्तों के प्रति अधिकारों और जिम्मेदारियों की जितनी बात कानूनन मान्य है क्या उतने का ही निर्वाह हम व्यावहारिक जीवन में करते हैं। कानूनन तो दहेज को जुर्म करार दिया जा चुका है। फिर भी बेटी के पिता बेटे के बेचने वालों की फितरत को जानते हुए अपने जीवन की ज्यादातर पूंजी बेटी के लिए जुटाते रहते हैं और उसे बेटी पर न्यौछावर कर देते हैं। किस किताब में लिखा है कि अपनी औलाद को महंगी से महंगी तालीम देना कानूनन मज़बूरी है फिर भी लोग कर्ज लेकर भी आलौदों को पढ़ाते लिखाते हैं। उनकी सेहत के लिए चिन्तित रहते हैं वक्त पढ़ने पर मां-बाप अपनी संतान के लिए जान देने से भी पीछे नहीं हटते। मतलब यह कि रिश्तों में कानून भी होता किन्तु उसका दायरा ज्यादातर सुरक्षा और नियमन से जुड़ा होता है। रिश्तों की गर्माहट, उसे स्वस्थ बनाने के उपक्रमों से नहीं। आज के दौर में हम पाते हैं कि एकल परिवारों का प्रचलन तेजी से बढ़ा है ऐसे में दूर के रिश्तेदारों से सम्पर्क केवल रस्मी होता है उनकी तुलना में दोस्ती के रिश्ते अधिक करीबी होते हैं। अनुभव यह बताता है कि जिन सम्बंधों में कानूनी बाध्यता नहीं होती वे अधिक संवेदना से भरे होते हैं। स्त्री पुरुष के सहजीवन में यदि कानूनी बाध्यताएं न हों तो भी बेहतर जीवन जिया जा सकता है बल्कि तब जीवन और बेहतर होने की संभावना हो सकती है। यदि इन रिश्तों के प्रति समाज का नजरिया बदलता है तो समाज यह भी दबाव बना सकता है आर्थिक सुरक्षा के कानूनी अधिकार भी बनें और ऐसे रिश्ते से पैदा हुई संतान की जिम्मेदारी की नियमन भी हो। फिलहाल तो अदालत का फैसला ऐतिहासिक महत्व का है। बहुत से देश ऐसे हैं दुनिया में जहां लीव इन रिलेशन को सामाजिक मान्यता है। शहरी जीवन की आपाधापी में यदि ऐसे रिश्ते भारत में भी हैं तो उस पर हायतौबा मचाने की कोई आवश्यकता नहीं है।

Saturday 20 March 2010

हमारे लोकाचारों को बख्श दें बहन जी!!


मायावती ने मूर्तियों स्थापित की तो हंगामा हो गया। मायावती ने नोटों की माला पहनी और हंगामा हो गया। अपने देश में हम जिसे पसंद करते हैं उनकी मूर्तियां बनाने, उन्हें पूजने, उन्हें याद करने, उनके प्रति श्रद्धा ज्ञापित करने की प्रथा रही है। दक्षिण भारत में तो बाकायदा अपने चाहने वालों के मंदिर तक बना लिये जाते हैं।
इसी प्रकार अपनी पसंद लोगों को माला पहनाने की भी प्रथा है। जिसमें फूल की माला के साथ-साथ नोट गुंथी हुई माला भी शामिल है। हमारे यहां घर परिवारों में हर संस्कार में रुपयों को लेन देने को कभी बुरा नहीं समझा गया। रुपये का लेन देन हमारे पारिवारिक व्यवहार और लोकाचार का अभिन्न अंग है। फिर प्रश्न यह है कि जब मायावती से ये मामले जुड़ते हैं तो विवाद क्यों खड़ा हो जाता है।
उसका कारण यह है कि हमारे जो भी रीति रिवाज हैं उनके पालन में मुख्य उद्देश्य लोकाचार के प्रति सम्मान व्यक्त करना रहा है हथियार बनाना नहीं। मायावती ने अपने कृत्य से लोकाचार को अपनी स्थापना के हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया है। वरना मायावती के दो दो बार लाखों-करोड़ों की माला पहनने के बाद भाजपा के नेता व क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू की तस्वीरें मीडिया में दिखायी दी। दस-दस के नोट उनके गले में पड़ी माला में दिख रहे थे। कुल मिलाकर दो सौ रुपये भी नहीं रहे होंगे। इसका मतलब यह नहीं है कि सिद्धू जी के प्रशंसकों की निगाह में उनकी औकात सौ-दो सौ की ही है मायावती के प्रशंसकों की निगाह में मायावती की करोड़ों में। हमें डर यह है कि पता नहीं मायावती हमारे किन किन रिवाजों को ताम झाम के साथ अपनाने वालीं और उनसे हमारी तमाम प्रथाओं पर लोगों की सवालिया नजरें उठेंगी।
यह जरूर है कि हमारे यहां साधु-संतों ने व्यक्ति पूजा का जो दोहन किया है उस पर समाज की निगाह नहीं गयी। मायावती कर रही हैं तो प्रश्न इसलिए उठ रहे हैं क्योंकि वे सीधे सीधे सत्ता में और राजनीति में। इसलिए उनके कामकाज का सीधा प्रभाव हमारी व्यवस्था के ढांचे पर पड़ेगा।
भले मायावती की मूर्तियों, जन्म दिन पर मिले कीमती तोहफों और करोड़ों समझी जाने वाली मालाओं की आयकर तथा अन्य सम्बंद्ध विभागों द्वारा जांच की जा रही है लेकिन यदि भ्रष्टाचार स्थापित न भी हो पाया तो भी कई सामाजिक व्यवहारों के भौंडे प्रदर्शन से तो हम शर्मसार हैं ही। कन्याधन के नाम पर विवाह के समय दी जाने वाला आर्थिक सहयोग दहेज नाम की एक बड़ी चुनौती बना हुआ है जिससे समाज तबाह है। विवाह के समय तामझाम को जो भोंडा प्रदर्शन होता रहा है वह कम शर्मनाक नहीं है। इस क्रम में मायावती के चाहने वालों के कारनामों ने इजाफा किया है। यदि इस पर अंकुश नहीं लगा तो यह सार्वजनिक जीवन का एक वीभत्स माडल बन जायेगा।
संसद की एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति ने विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं, समाज सुधारकों और प्रख्यात हस्तियों के बुतों से अटे पड़े संसद भवन परिसर में भविष्य में और प्रतिमाओं की स्थापना पर पूरी तरह रोक लगाने का फैसला किया है। लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार की अध्यक्षता वाली संसद भवन परिसर में राष्ट्रीय नेताओं और सांसदों की मूर्तियों या पोट्र्रेट स्थापित करने संबंधी समिति ने पिछले दिनों हुई अपनी एक महत्वपूर्ण बैठक में संसद भवन परिसर में अब और मूर्तियों की स्थापना न करने के प्रस्ताव को स्वीकृत किया है। केवल अपवाद के तौर पर कुछ बेहद दुर्लभतम मूर्ति या चित्र लगाने की अनुमति दी जा सकती है। प्रस्ताव संसद की हेरिटेज कमेटी के पास भी जायेगा।
अच्छा होता कि इस पर हेरिटेज कमेटी भी अपनी सहमति दे देती जो संसद इमारत की देखभाल की जिम्मेदारी संभालती है। बैठक में यह फैसला किया गया कि संसद भवन में अब केवल प्रतीकात्मक रूप से चित्रों का अनावरण मात्र किया जायेगा। संसद भवन में मूर्तियों की स्थापना पर प्रतिबंध लगाने के प्रस्ताव की पिछले काफी समय से मांग की जा रही थी। संसद भवन में 50 से अधिक मूर्तियां और इतनी ही संख्या में विभिन्न राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर के नेताओं के चित्र लगे हैं। संसद भवन परिसर में स्थापित की जाने वाली मूर्तियों के निर्माण में औसतन प्रति फुट एक लाख रुपये तक का खर्च आता है और एक प्रतिमा नौ से दस फुट लंबी होती है। इस फैसले से जनता का पैसा अनावश्यक कार्यों में खर्च होने से बच जायेगा।
आम-जनता के पैसे का दुरुपयोग मूर्तियां स्थापित करने के बाद तो सरकार और सामाजिक क्षेत्र से जुड़े लोगों को भी मूर्तियों की स्थापना के विरोध में आगे आना चाहिए। फिर वे चाहे जिसकी हों। प्रतीक जब विकृत हो जायें तो उनके औचित्य पर विचार जरूरी है। संसद भवन भवन परिसर ही नहीं देश भर में लोगों को सम्मान देने के नये प्रतीक गढऩे होंगे। और हो सके तो मालाओं से भी बचा जाये। चाहे वह फूल की हों या नोटों की। देश की मुद्रा के दुरुपयोग पर रोक तो यूं भी लगनी चाहिए।

Friday 12 March 2010

शलाका पुरुष के साथ एक शाम





यह एक सार्थक दिन था। जो कवि केदारनाथ सिंह के साथ गुज़रा। 8 मार्च 2010 सोमवार। अपराह्न चार बजे के करीब मैं पहुंचा था उनकी बहन के यहां हावड़ा, बी गार्डेन के पास बीई कालेज के गेट के पास स्थित उनके घर पर। केदार जी ने अपनी मां से मिलवाया था। केदार जी की मां पर लिखी कविताएं मुझे याद थीं, पर 95 साल की उनकी मां से मिलने या कहिए उन्हें देखने का यह पहला अनुभव था। अब केदार जी उन्हें क्या और कैसे समझाते कि मैंने केदार जी पर शोध किया है, सो उन्होंने भोजपुरी में उनसे कहा- 'मैंने इन्हें पढ़ाया है। और ये पास हो गये हैं आपको देखने आये हैं।'
बात उनसे दो घंटे से अधिक देर तक चलती रही। मेरी लिखने पढ़ने की भावी योजनाओं के बारे में उन्होंने पूछा था विचार व्यक्त किया था कि मैं इस बात पर गौर कर रहा हूं कि क्या भोजपुरी को भाषा से इतर भोजपुरी संस्कृति की शिनाख्त नहीं की जानी चाहिए। क्योंकि बहुत से ऐसे लोग हैं जो भोजपुरी में नहीं हिन्दी में लिखते हैं लेकिन उनकी रचनाओ में भोजपुरी संस्कृति है। वह भोजपुरी संस्कृति किन तत्वों से बनी है, उसकी विशेषताएं क्या हैं और उसका जीवट क्या है इसकी अलग से शिनाख्त होनी चाहिए। भोजपुरी को भाषा बनाने की कवायद तो चल रही है किन्तु भोजपुरी संस्कृति को सिरे से परिभाषित किये जाने की भी महती आवश्यकता है। मैंने उन्हें बताया कि मैं सोच रहा हूं कि 'भोजपुरी संस्कृति का स्वरूपः कबीर से केदार तक' पर पूरी एक किताब ही लिख मारूं और यह भी कि मैं इसमें कविताओं को केन्द्रीय धुरी के तौर रेखांकित करना चाहता हूं। उन्होंने इस विषय पर लगभग सकारात्मक प्रतिक्रिया दी।
इसी बीच भारतीय भाषा परिषद के निदेशक और आलोचक डॉ.विजय बहादुर सिंह की चर्चा चल निकली। और केदार जी ने उन्हें फोन लगाने को कहा। जब केदार जी से उनकी बात हुई तो सहसा अगली योजना बनी डॉ.कृष्ण बिहारी मिश्र के यहां जाने की। विजय जी ने बताया कि वे बीमार चल रहे हैं सो उन्हें देख आया जाय। चालीस मिनट बाद हम भारतीय भाषा परिषद में थे विजय जी के यहां और अगले पंद्रह मिनट में कृष्ण बिहारी जी के घर की संकरी सीढ़ियां चढ़ रहे थे।
बात उनकी संकरी सीढ़ियों और घर की हालत को लेकर ही शुरू हुई और केदार जी इस बात से मुतमइन होना चाहते थे कि यह वही कमरा है न जिसमें वे लगभग दो दशक पहले उनसे मिलने आये थे। कृष्ण बिहारी जी ने बताया कि सीढ़ियों और कमरे की पुताई तक की सार्वजनिक चर्चा लेखों और मंचों में भी होती रही है। केदार जी ने बताया कृष्ण बिहारी जी और वे बलिया में आसपास के गांव के हैं और वे जब बनारस में रहकर पढ़ते थे कई बार एक साथ ट्रेन पकड़ते थे। उन्होंने अपनी पुरानी यादों को ताजा किया जिसके क्रम में वाक्यपदीयम के भाष्यकार की भी चर्चा छिड़ी जिसके बारे में केदार जी ने हिन्दुस्तान दैनिक में अपने कालम में लिखा था और जो उनके निबंधों के संग्रह 'कब्रिस्तान में पंचायत' में संग्रहीत है। कृष्णबिहारी जी ने वह निबंध नहीं देखा था सो पुस्तक भिजवाने का वादा केदार जी ने किया। संस्कृत काव्य 'वाक्यपदीयम्' बलिया की कचहरी में मुकदमे की सुनवाई का इन्तज़ार करते हुए एक वृक्ष के नीचे बैठकर किया गया था। वेदान्त और व्याकरण दर्शन के क्षेत्र में काम करने वाले विद्वान पं.रघुनाथ शास्त्री ने भतृहरि के प्रसिद्ध ग्रंथ 'वाक्यपदीयम्'के भाष्यकार हैं। भाष्य कार्य उन्होंने तब किया जब वे वाराणसी के सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के आचार्य पद से अवकाश ग्रहण कर चुके थे। गांव में प्रतिभाएं अपना काम किस प्रकार और किस अंदाज में करती हैं इसका ज़िक्र किया।
कृष्ण बिहारी जी ने अपनी नयी पुस्तक 'न मेधया' दिखायी जो रामकृष्ण परमहंस पर ही है जिन पर उनकी एक और पुस्तक 'कल्पतरु की उत्सवलीला' आयी थी। और उसी पर उन्हें ज्ञानपीठ प्रकाशन का मूर्तिदेवी पुरस्कार मिला था। उन्होंने बताया 'न मेधया' उस पुस्तक की पूरक है जिसे उन्होंने डेढ़ माह की अल्प अवधि में पूरा किया और वह तुरत-फुरत प्रकाशित होकर आ भी गयी।
वहां पहले से विराजमान थे मित्र परिषद के पदाधिकारी पारसमल बोथरा। विजय बहादुर जी से वे मुखातिब थे और 'सन्मार्ग' में उनके प्रकाशित साक्षात्कार का जिक्र उन्होंने किया और यह भी चर्चा हुई कि विजय जी इधर कविताएं लिखने में फिर रमे हैं और एक कविता तो कई भाषाओं में अनूदित हुई है। कुल मिलाकर यह एक संक्षिप्त लेकिन दिलचस्प और रचनात्मक सद्भभावना से ओतप्रोत मुलाकात थी। याद नहीं कि किस ने कहा पर कहा गया कि भई किसी के मोबाइल में कैमरा हो तो फोटो हो जाये, पर अफसोस कि किसी के भी मोबाइल फोन में यह सुविधा न थी।
हम फिर भारतीय भाषा परिषद के लिए रवाना हो गये थे। कार में एक सैमसंग कंपनी द्वारा टैगोर पुरस्कार दिये जाने की भी चर्चा हुई जिस पर केदार जी पहले ही सार्वजनिक तौर पर अपनी नाराजगी व्यक्त कर चुके थे। उन्होंने बताया कि कंपनियों द्वारा पुरस्कार दिये जाने पर उन्हें आपत्ति नहीं है आपत्ति है उसमें साहित्य अकादमी की संलिप्तता को लेकर। साहित्य अकादमी चूंकि स्वयं भी पुरस्कार प्रदान करती है सो उसे एक निजी कंपनी को अपनी साहित्यिक सेवाएं नहीं देनी चाहिए थी। इससे उसकी गरिमा को ठेस पहुंचती है। और इस सम्बंध में पहले भी अकादमी में नीति निर्धारित की जा चुकी थी कि उसे इन पचड़ों में नहीं पड़ना चाहिए और उसे निजी कंपनियों को अपनी सेवाएं नहीं देनी चाहिए।
परिषद पहुंचे तो लिफ्ट पर मिलीं बंगला कवयित्री खेया सरकार। वे परिषद में किसी संस्था द्वारा आयोजित कवि-सम्मेलन में शामिल होने के लिए गलती से पहुंच गयी थीं, जबकि आयोजन किसी और दिन था। वे विजय जी से परिचित थीं और विजय जी ने हम लोगों से उनका परिचय कराया तो कुछ देर वे हम लोगों के साथ बैठीं।
बंगाला साहित्यकार सुबोध सरकार, सुनील गंगोपाध्याय, महाश्वेता देवी, शंख घोष, शक्ति चट्टोपाध्याय और जय गोस्वामी की चर्चा हुई। विजय जी समकालीन बंगला साहित्यकारों में शंख घोष पर विशेष देते रहे जबकि खेया और मैं जय गोस्वामी पर। मैंने महाश्वेता देवी के गल्प में एकहरेपन की बात उठायी तो केदार जी इससे असहमत थे। केदार जी ने उन दिनों की रोचक चर्चा की जब अशोक वाजपेयी द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम के तरह उन्होंने शक्ति चट्टोपाध्याय की कविताओं का बंगला से हिन्दी अनुवाद किया था।
फिर बात एकाएक भोपाल की चल निकली और केदार जी ने विजय जी से इच्छा जाहिर की कि उन्हें भोपाल में एक छोटा सा फ्लैट दिला दें। भोपाल उन्हें भी इधर भाने लगा है। विजय जी का अपना आवास वहां है ही। विजय ने आश्वस्त किया कि आपको वहां अलग फ्लैट लेने की क्या आवश्यकता है मेरा एक कमरा अब से आपके लिये बुक हुआ, जिस पर केदार जी सहमत थे। और हमें इस अनुबंध का गवाह बनाया गया। यूं भी विजय जी का विदिशा का आवास तो कई और लेखकों का भी पता था। बाबा नागार्जुन, शलभ श्रीराम सिंह और वेणु गोपाल जैसे रचनाकार अरसे तक उनके यहां रहे।
वापसी में कार मुझे सियालदह छोड़ते हुए केदार जी को हावड़ा छोड़ने जाने वाली थी लेकिन केदार जी चाहते थे मैं उन्हें घर छोड़ता हुआ अन्त में सियालदह जाऊं टीटागढ़ के लिए ट्रेन पकड़ने। राह में केदार जी ने मुझे आश्वस्त किया इस बार तो 23 मार्च को दिल्ली में शलाका पुरस्कार लेने के लिए जल्द लौटना है। लेकिन अगली बार कोलकाता आऊंगा तो तीन माह रहूंगा। उसमें से एक सप्ताह तुम्हारे यहां। और एक ऐतिहासिक लम्बा इंटरव्यू तुम्हें दूंगा। तो यह रही एक शाम अपने वरिष्ठ लेखकों के साथ, जिसका मैं साक्षी था।
हालांकि अगले ही दो एक दिन में मीडिया में खबरें आयीं कि केदार जी ने हिंदी अकादमी का शलाका सम्मान ठुकरा दिया है। जिसके कारण तेईस मार्च को होने वाला सम्मान समारोह टल सकता है। दरअसल, वर्ष 2008-09 के पुरस्कारों का फैसला करने वाली अकादमी की उस वक्त की कार्यकारिणी ने शलाका सम्मान के लिए कृष्ण बलदेव वैद का नाम तय किया था। लेकिन वैद को सूचित कर दिए जाने के बावजूद अंतत: जब अकादमी ने वर्ष 2009-10 के पुरस्कारों के साथ ही वर्ष 2008-09 के पुरस्कारों की घोषणा की तो उसमें सिर्फ यह उल्लेख किया गया कि उस वर्ष का शलाका सम्मान किसी को नहीं दिया जा रहा है।
इसे हिंदी के कई लेखकों ने एक लेखक का अपमान करार दिया था। उसके बाद वरिष्ठ आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल ने वैद के साथ हुए बर्ताव के विरोध में साहित्यकार सम्मान लेने से इनकार कर दिया। अगले ही दिन केदारनाथ सिंह ने वर्ष 2009-10 का शलाका सम्मान लेने से इनकार कर दिया। उनके साथ ही रेखा जैन, पंकज सिंह, गगन गिल, विमल कुमार और प्रियदर्शन ने भी विभिन्न श्रेणियों में घोषित पुरस्कार ठुकरा दिया।

Thursday 11 March 2010

ना कहना परोपकार है मान्यवर

अपने देश के सदाचारों में ना नहीं करने की प्रथा भी शामिल है। 'हां' और 'ना' कहने को हमने लिहाज की श्रेणी में रखा है। और जो ना कहते हैं उन्हें बेलिहाज कहकर उनकी निन्दा की जाती है। शिष्टाचार का मामला जब कर्मक्षेत्र में प्रवेश करता है तो नयी मुश्किलें शुरू हो जाती हैं। अक्सर हम पाते हैं कि किसी काम से किसी अधिकारी के पास जाइये तो 'हां' या 'देखते हैं' का सिलसिला चल निकलता है और वह अन्तहीन हो जाता है। देखते देखते को प्राय: देखते ही रह जाना पड़ता है या फिर काफी अरसे बाद ना का सामना करना पड़ता है। इससे दोनों की पक्षों के मन में खटास पैदा हो जाती है। अच्छा होता कि पहले ही ना हो जाती। ना का गम बहुत नहीं होता तकलीफ होती है मामले के अरसे तक लटकने के बाद ना होना।
मोबाइल फोन पर भी काम के सम्बंध में पूछताछ कीजिए तो सुनने को मिलता है कि साहब तो मोबाइल घर पर या कार्यालय में भूल से छोड़ गये हैं। अभी उनसे बात नहीं हो पायेगी। या फिर तकनीकी कुशलता के कारण फोन एंगेज दिखायी देता है। बात हो भी गयी तो मुद्दे पर नहीं होती दूसरी उलझने की आड़ ले ली जाती है। प्यारे भाई ना कहना सीखें। ना कहकर आप लोगों को भला कर रहे हैं इसे समझिये। दिल तोडऩे से न डरें। 'ना' कहना परोपकार है यदि 'ना' ही कहना हो।

Thursday 4 March 2010

अश्लीलता और अंधविश्वास दोनों का विरोध एक साथ न हो

सरकार ने अश्लील और सनसनीखेज न्यूज कार्यक्रम दिखाने वाले 44 चैनलों को नोटिसें दी हैं। यह अच्छा है कि सरकार बेढंगे कार्यक्रम दिखाने को लेकर गंभीर है। लेकिन उसका जागना हमें तो बहुत रास नहीं आया। दो विपरीत ध्रुवों पर एक साथ नहीं चला जा सकता। अंधविश्वास के खिलाफ कारगर कदम उठाये जाने की कोशिश सराहनीय मानी जा सकती है क्योंकि टीवी की एक्सेस दूर दराज के गांवों तक है और टीवी के जरिये अंधविश्वास की बातें प्रचारित की जा सकती हैं। लेकिन यह भी देखना होगा कि उस पर अंकुश की भूमिका कैसी है क्योंकि कथा कहानियों को रोचक बनाने के लिए अंधविश्वास की महत्वपूर्ण भूमिका अहम होती है। अलबत्ता यह सही है कि उसे रियल्टी शो के तौर पर प्रस्तुत नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन जो चैनल एक फार्मूले के तहत भारत की एक या सदी तस्वीर पूरी दुनिया में परोस रहे हैं उसका क्या कीजियेगा। बालिका वधू, न आना इस देस लाडो जैसे धारावाहिक भले समाज सुधार का संदेश देते हों कि भारत की एक नकारात्मक छवि ही दुनिया के सामने पेश करते हैं। नया विकसित हो रहा भारत इन धारावाहिकों में नजर नहीं आता ऐसे में इस जंगल से मुझे बचाओ, स्प्लिटविला 3, बिग बॉस, सच का सामना, इमोशनल अत्याचार जैसे रियल्टी शो ही ऐसे हैं जिनमें आज के भारत की अच्छी बुरी जो भी तस्वीर सामने आती है। सरकार को अश्लीलता पर अंकुश की बचकानी जिद छोड़ देनी चाहिए। अंधविश्वास से लोगों को बचायें और आधुनिक बनने पर अश्लीलता की झिड़की दें दोनों काम एक साथ नहीं हो सकता।
अश्लीलता हर समाज में अलग अलग होती है। उसके सामाजिक परिप्रेक्ष्य किसी कार्य को श्लील या अश्लील बनाते हैं। जो समाज तेजी से विकास कर रहे हैं वहां शुरू शुरू में यह दिक्ततें आती हैं कि उसे खुलापन अश्लील नज़र आता है। खुलेपन और अश्लीलता में भेद किया जाना चाहिए। सच का सामना में यदि यौन सम्बंधों पर भी साफगोई से बात होती है तो वह अश्लीलता की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए। एक उदाहरण नयी फिल्म थ्री इडिएट्स का ले लें। कालेज परिसर में जो बातें दिखायी गयी हैं उसमें कई ऐसी हैं जो आम तौर पर समाज में अश्लीलता की श्रेणी में आ जायेंगी लेकिन वहां वह अश्लील नहीं हैं। हमारे देश में यौन सम्बंधों पर खुलकर बातचीत को अश्लील माना जाता है। कई लोग तो इसी आधार पर हंस जैसी पत्रिका की कहानियों और कई लेखों के निहितार्थ पर भी अश्लीलता का आरोप लगाते हैं। हमारे देश ऐसे दौर से गुजर रहा है जब एक तरफ़ इस पर विचार हो रहा है कि वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता दी जाये या नहीं अथवा समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी में शुमार किया जाना तर्कसंगत होगा या नहीं। महानगरों में लिव इन रिलेशन की स्थितियां हैं ऐसे में यदि खुले तौर पर मुद्दों पर बातचीत होती है तो उसे अश्लील नहीं माना जाना चाहिए। चूंकि यह ऐसा मुद्दा है जिसे अपने देश की स्थितियों में स्पष्ट तौर पर परिभाषित नहीं किया जा सका है इसलिए इसका हवाला देकर कुछ टीवी चैनलों को लांछित करना गलत होगा।
यह वह देश हैं जहां गांवों में औरत के माथे पर से पल्लू का सरक जाना भी अश्लीलता की श्रेणी में आ जाता है और औरतों को जोर से हंसना भी। पल्लू सरक जाने को जघन्य मानकर कविताएं व शेर लिखे जाते हैं। लड़कों के बाल बड़े रखने और औरतों के जिन्स पहनने पर भी आपत्तियां दर्ज करायी जाती हैं। अश्लीलता पर जोर दिया जाने लगा तो तालिबानी नजरिये तक बात जा सकती है। जिस लड़की के साथ पूरी जिन्दगी बसर करनी हो विवाह पूर्व उसे देखने तक की इजाजत बड़ी मुश्किल से कई लोगों को मिलती है बातचीत करना तो दूर की बात है। अच्छा हो कि नैतिक गुरु अश्लीलता पर अपना प्रलाप बंद करें।

Wednesday 3 March 2010

ब्रिटेन में उजागर हुआ हमारा कलंक


ब्रिटेन की संसद वहां के कानून में परिवर्तन लाकर जाति आधारित असमानता को अवैध घोषित करने की प्रक्रिया शुरू कर चुकी है। और पते की बात यह है कि यह हमारे कारनामों के कारण हो हवा रहा है। ब्रिटेन को यह 'ऐतिहासिक' कदम उठाना पड़ रहा है क्योंकि वहां रह रहे एशियाई समुदाय में इस तरह की असमानता के सबूत मिलें हैं।
शिक्षाविदों के समूहों ने इस विषय पर सर्वेक्षण किया था जिसमें पाया गया कि भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश मूल के लोगों में जाति आधारित असमानता पायी गयी है। ब्रिटेन वर्षों से कह रहा था कि ब्रिटेन में ऐसी असमानता नहीं है और इसलिए कानून में भी परिवर्तन नहीं किया जा रहा था लेकिन वहां की सरकार ने हमारे कलंक को स्वीकार कर लिया है और मान लिया है कि उनके देश में भी जाति के आधार पर असमानता है। इस संबंध में एक सर्वेक्षण की रिपोर्ट अगस्त में पेश की गयी।
रिपोर्ट के आधार पर सरकार समानता कानून में संशोधन करने की तैयारी कर रही है ताकि जाति आधारित असमानता को वैसे ही दूर किया जा सके, जैसे लिंग, रंग, धर्म, उम्र और यौन रुके आधार पर असमानता को दूर किया गया है। नेशनल सेक्युलर सोसाइटी के कार्यकारी निदेशक कीथ पोर्टियस ने का कहना है कि सर्वेक्षण में पाया गया कि जाति आधारित असमानता के तहत भारत में लाखों लोगों को 'अछूत' समझा जाता था, इस देश में भी फैल गया है, जिस पर ध्यान ही नहीं गया था। विदेश में हमारे लोगों के कारनामों से कालिख पुत रही है। अपने देश में हम जातिवाद को जड़ से खत्म करने के बदले उसे बरकरार रखने की जुगत में हैं और उसके आधार पर आरक्षण पाने में अपनी ऊर्जा झोंक कर रहे हैं।
भारत यह न सोचे कि जातिगत भेदभाव को चुनाव हथकंडा बनाकर और उस पर राजनीतिक स्वार्थ की रोटियां सेंक कर वह विश्व में अपनी आन बान शान का परचम लहरा सकेगा। आने वाले दिनों में जाति प्रथा जारी रहने पर हम पर दुनिया थूकेगी। मानवाधिकार हनन की यह पराकाष्ठा है।
हमें यह भी गौर करने की जरूरत है कि जातिगत भेदभाव के मामले में हम किन देशोंं के साथ खड़े हैं और इससे दुनिया भर में क्या संदेश जा रहा है। संस्कृति बहुत अच्छी चीज है और कहते हैं कि मनुष्य जहां भी जाता है अपनी संस्कृति ले जाता है और हम ब्रिटेन में अपनी संस्कृति का क्या ले गये हैं यह सामने है।
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