Friday 29 January 2010

क्योंकि 'मराठी माणूस' है बाल ठाकरे की दुकान!


शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने ठीक कहा है कि उनके लिए राजनीति और दुकानदारी में कोई फर्क नहीं है। और मराठी को उन्होंने पेटेंट करा रखा है। अबकी उन्होंने उद्योगपति मुकेश अंबानी पर निशाना साधा है। अंबानी ने हाल में कहा था कि मुंबई सभी भारतीयों की है। शिवसेना के मुखपत्र 'सामना' में ठाकरे ने लिखा है कि मराठी लोगों का मुंबई पर उतना ही अधिकार है जितना मुकेश अंबानी का रिलायंस कंपनी पर। ठाकरे ने कहा कि मुंबई महाराष्ट्र की राजधानी है और उसकी राजधानी रहेगी।
अर्थात 'मराठी लोग' ठाकरे के लिए वही हैं जो रिलायंस मुकेश अंबानी के लिए है। तो साहब हर एक को अपनी सीमा रेखा में रहना चाहिए और अंबानी को भी अपनी कंपनी के क्रिया कलापों पर ध्यान देना चाहिए ठाकरे की कंपनी की गतिविधियों पर नहीं।
उल्लेखनीय है कि रिलायंस इंडस्ट्रीज के अध्यक्ष मुकेश अंबानी ने हाल में कहा था कि मुंबई में टैक्सी परमिट के लिए मराठी भाषा का ज्ञान अनिवार्य बनाना 'दुर्भाग्यपूर्ण' है और महानगर सभी भारतीयों का है। लंदन स्कूल ऑफ इकोनामिक्स में विचार विमर्श के दौरान उन्होंने हाल में कहा था कि सबसे पहले हम भारतीय हैं। मुंबई, चेन्नई और दिल्ली सभी भारतीयों की है। यह हकीकत है।
मालूम हो कि इससे पहले बीते साल नवंबर में शिवसेना प्रमुख ठाकरे ने इसी मुद्दे पर क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर को राजनीति से दूर रहने का परामर्श दे चुके हैं। ठाकरे ने तब कहा था, 'सचिन को खुद को क्रिकेट तक सीमित रखना चाहिए और राजनीति की पिच पर दखल नहीं देना चाहिए। यहां ठाकरे ने अपने बयान में साफ कहा कि 'मराठी लोगÓ उनकी 'राजनीति' का हिस्सा हैं।
सचिन तेंदुलकर ने कहा था कि 'मुंबई सभी के लिए है। ठाकरे ने इसकी आलोचना करते हुए कहा था कि सचिन को राजनीति की पिच पर आकर मराठी मानस को आहत करने की कोई जरूरत नहीं है। ठाकरे ने तब लिखा था, 'ऐसी टिप्पणियां करके सचिन मराठी मानस की पिच पर रन आउट हो गए हैं। आप तब पैदा भी नहीं हुए थे जब "मराठी माणूस" को मुंबई मिली और 105 मराठी लोगों ने मुंबई के लिए अपनी जान की कुर्बानी दी।' ठाकरे ने इस बात पर अपनी नाखुशी जाहिर की थी कि 'सचिन क्रीज से बाहर निकल आए और ऐसी टिप्पणियां करके राजनीति की पिच पर आ गए।'
उनके बयानों में बार बार इसका उल्लेख मिलेगा कि मराठी उनकी धरोहर है कभी उसे कंपनी बताते हैं तो कभी राजनीति। कुछ मिलाकर मराठी की दुकान चलाने वाले ठाकरे को स्वयं मराठी लोग कब तक झेलेंगे यह देखना है। क्योंकि मराठी मानुष मुंबई के बाहर भी रहते हैं।

Thursday 28 January 2010

पद्मश्री की कोई मर्यादा है कि नहीं


हिरण के शिकार मामले में अभियुक्त फिल्म अभिनेता सैफ अली खान को भारत सरकार ने 61 वें गणतंत्र दिवस पर पद्मश्री सम्मान प्रदान करने की घोषणा की है। ये सम्मान कला, साहित्य,विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, व्यापार एवं उद्योग, चिकित्सा, शिक्षा, सिनेमा, खेल आदि के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए तीन श्रेणियों-पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्म श्री के तहत प्रदान किए जाते हैं। पद्म पुरस्कारों की मर्यादा देश के आचार-विचार, शिक्षा संस्कृति की सामाजिक स्वीकृति से है। ऐसे में यह पुरस्कार ऐसे ही लोगों को दिये जाने चाहिए जो राष्ट्रीय नीतियों को प्रतिबिम्बित करता हो। सैफ अली खान ने बेशक अपने अभिनय से समाज को बहुत कुछ दिया है फिर भी संगीन माने जाने वाले हिरण के शिकार मामले में उनका अभियुक्त होना यह सवाल तो खड़ा करता ही है कि क्या उन्हें यह सम्मान दिया जाना चाहिए था।
यह सब खामोशी से हवा गया था लेकिन विश्नोई समाज ने मामले को तूल दे दिया है और उसने यह पुरस्कार न लेने की मांग की है। नियमानुसार विशेष परिस्थितियों में ये पुरस्कार वापस भी लिये जा सकते हैं और वापस लिया जाना भी अशोभनीय नहीं होगा। वैसे भी यह प्रश्न वाजिब है क्या उस प्रक्रिया का उचित ढंग से पालन नहीं किया गया जो पद्म पुरस्कारों के लिए जरूरी होती है जिसमें पात्र के सम्बंध में विस्तृत जानकारी ली जाती है। श्री गुरू जम्भेश्वर वन्य जीव सेवा एवं पर्यावरण विकास संस्थान विश्नोई कमाण्डो फोर्स ने सैफ अली का पुतला जलाकर विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया है केन्द्र सरकार से पद्मश्री पुरस्कार न देने की मांग की है। समाज ने सैफ अली से भी नैतिकता के आधार पर यह पुरस्कार नहीं लेने की अपील की है। और वक्त का यह तकाजा है कि सैफ को यह नैतिकता के आधार पर अस्वीकार कर देना चाहिए। यदि वे आरोपों से बरी हो जाते हैं तो उनके लिए सरकारी सम्मानों/पुरस्कारों की कमी कहां होने जा रही है।
एक एवं दो अक्टूबर 1998 की रात जोधपुर जिले के लूणी थाना क्षेत्र में कांकाणी गांव की बागडों की ढाणी के पास दो काले हिरणों के शिकार मामले में सैफ अली खान सहित सलमान खान तथा अभिनेत्री नीलम, तब्बू, सोनाली बेन्द्रे सहित छह अन्य 6 लोगों को अभियुक्त बनाया गया है। इस मामले में वर्ष 2006 में इन लोगों पर भारतीय दण्ड संहिता एवं वन्य जीव संरक्षण कानून की धाराओं के तहत आरोप लगाए गए थे। इसके बाद से निचली अदालत में केवल पेशी आगे बढ़ाई जा रही है और उच्च न्यायालय में याचिका पर सुनवाई चल रही है।
मालूम हो कि गणतंत्र दिवस पर देश के विशिष्ट नागरिक सम्मान पद्म अलंकरणों की घोषणा सोमवार 25 जनवरी को की गयी। इन पुरस्कारों की घोषणा हर साल गणतंत्र दिवस के अवसर पर की जाती है। इस बार राष्ट्रपति ने कुल 130 हस्तियों को इस सम्मान से नवाजे जाने के लिए चुना है। इस बार छह हस्तियों को पद्म विभूषण, 43 को पद्म भूषण तथा 81 को पद्म श्री से सम्मानित किया जाएगा। इनमें 17 महिलाएं शामिल हैं। ये पुरस्कार इस साल मार्च या अप्रैल में राष्ट्रपति भवन में आयोजित समारोह में राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल प्रदान करेंगी।

Tuesday 26 January 2010

नियम बनाने वाले-नियम तोड़ने वाले

बने बनाये नियमों का पालन साधारण मनुष्य करते हैं। नियमों की अवहेलना वे करते हैं जिन्हें यह नहीं पता होता कि नियम तोड़ने से क्या नुकसान होगा या फिर वे जो नियम बनाने के पीछे छिपी चालाकियों को समझते हैं और उसका परवाह नहीं करते। उन पर हंसते हुए नियम तोड़ने का मज़ा लेते हैं। यह दूसरे प्रकार के लोग ही वे लोग हैं जो भविष्य में अपने पक्ष में चालाकीपूर्वक नियम बनायेंगे।बने बनाये नियमों का पालन साधारण मनुष्य करते हैं। नियमों की अवहेलना वे करते हैं जिन्हें यह नहीं पता होता कि नियम तोड़ने से क्या नुकसान होगा या फिर वे जो नियम बनाने के पीछे छिपी चालाकियों को समझते हैं और उसका परवाह नहीं करते। उन पर हंसते हुए नियम तोड़ने का मज़ा लेते हैं। यह दूसरे प्रकार के लोग ही वे लोग हैं जो भविष्य में अपने पक्ष में चालाकीपूर्वक नियम बनायेंगे।

Friday 22 January 2010

टैगोर पुरस्कार प्रकरण: कुछ ज्वलंत प्रश्न

टैगौर के नाम पर बहुराष्ट्रीय कंपनी के पुरस्कार से विवाद पैदा हो गया है। इसके खिलाफ कई प्रमुख साहित्यकारों ने मोर्चा खोल लिया है और जमकर निन्दा की है। उनका मामना है कि इससे साहित्य के निजीकरण की प्रक्रिया शुरू होगी और कम्पनियां साहित्य संस्कृति को नियंत्रित करने का प्रयास करेंगी। चूंकि साहित्यकार बाजार की ताकतों के खिलाफ लिखता है इसलिए इस तरह के आयोजन का विरोध होना चाहिए।उनका यह भी कहना है कि इससे साहित्य अकादमी की स्वायत्तता का उल्लंघन होता है। कुछ का कहना है कि जितना एक कम्पनी दे रही है उतना तो सरकार भी दे सकती थी।
कुल मिलाकर यह कि किसी कम्पनी के टैगौर के नाम पर अपने पैसे नहीं खरचने चाहिए या फिर खरचे भी तो किसी साहित्यकार को वह क्यों दे। किसी साहित्यकार को पुरस्कार-वुरस्कार लेना हो तो उसके लिए सरकार बैठी ही है। लाख-दो लाख किसी लेखक को यूं ही बांट देती है। बातें सुनने में बड़ी भली लग सकती हैं लेकिन जो लोग विरोध कर रहे हैं क्या वे यह स्वीकार करेंगे कि सरकारें जो पुरस्कार देती हैं वे निष्पक्ष होते हैं। उसमें किसी खास संस्कृति के प्रति लगाव व्यक्त नहीं किया जाता। क्या जुगाड़तंत्र से बाहर के लोगों से लिए पुरस्कार की कल्पना की जा सकती है? और इन सबसे बढ़कर किसी प्रतिबद्ध साहित्यकार को किसी भी सरकार से पुरस्कार लेना चाहिए? क्या उससे उसकी प्रतिबद्धता के प्रभावित होने के खतरे नहीं रहते।
पूरी दुनिया मेंं आज बिजनेस के फंडे बदले हैं और बिजनेस एथिक्स का विकास हो रहा है। इसके तहत बहुराष्ट्रीय कंपनियां यह जिम्मेदारी समझने लगी हैं कि उनका मकसद सिर्फ पैसा कमाना नहीं होना चाहिए बल्कि सामाजिक जिम्मेदारियोंं का भी उन्हें निर्वाह करना चाहिए। इसके तहत कंपनियां विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं में भी अपना पैसा खर्च कर रही हैं। यदि अब सैमसंग इसी के तहत अपना कुछ पैसा साहित्य पर खर्च करती है और टैगोर के नाम पर कुछ साहित्यकारों को पुरस्कार देती है तो हाय तौबा मचाने की बहुत आवश्यकता नहीं समझी जानी चाहिए। आखिर कोरिया की बहुराष्ट्रीय कंपनी सैमसंग इंडिया साहित्यकारों के कद का निर्धारण नहीं करने जा रही है। यह काम उसने साहित्य अकादमी को सौंपा है कि वह तय करे कि पुरस्कार किसे दिया जाये। किसी साहित्यकार को टैगोर के नाम पर पुरस्कृत करना टैगोर का अपमान कैसे है और किसी कम्पनी का अपना कार्यक्रम उसके अन्य कार्यक्रमों की तरह की पांच सितारा होटल मेंं हो तो यह अस्वाभाविक कैसे है, आदि प्रश्नों पर विचार किये जाने की आवश्यकता है।
इस सम्बंध में जो समाचार मिले हैं वे इस प्रकार हैं:
साहित्य अकादमी के इतिहास में पहली बार किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी द्वारा पुरस्कार प्रायोजित करने को लेकर विवाद खडा हो गया है। गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगौर की स्मृति में साहित्य अकादमी और कोरिया की बहुराष्ट्रीय कंपनी सैमसंग इंडिया मिलकर 25 जनवरी को राजधानी में आठ भाषाओं के लेखकों को पुरस्कार देने जा रही है। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कई लेखकों ने इस पुरस्कार का विरोध करते हुये इसके समारोह के वहिष्कार की भी घोषणा की है। पुरस्कार में 91 हजार रूपये की राशि प्रशस्ति पत्र एवं प्रतीक चिन्ह शामिल हैं। पुरस्कार कोरिया की प्रथम हिला द्वारा पंचतारा होटल ओबेराय में दिये जायेंगे।
अकादमी के सचिव अग्रहार कृष्णमूर्ति ने बताया कि कोरिया सरकार ने इस पुरस्कार की पहल की है इसलिये वहां की प्रथम महिला यह पुरस्कार दे रही हैं और सैमसंग कंपनी इसे प्रायोजित कर रही है। अकादमी का काम पुरस्कृत लेखकों का चयन करना है और शेष कार्य सैमसंग कपनी को करने हैं। अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखकों ने इस पर भी आपत्ति जतायी है कि ये पुरस्कार पंचतारा होटल में क्यों दिये जा रहे हैं साहित्य का पंचतारा संस्कृ ति से क्या लेना देना।
अकादमी पुरस्कार से सम्मानित वरिष्ठ कवि केदार नाथ सिंह, अशोक वाजपेयी, लीलाधर जगूडी, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, वीरेन डंगवाल और ज्ञानेन्द्र पति ने इसका विरोध किया है। नामवर सिंह, कृष्णा सोबती, जनसंस्कृति मंच के अध्यक्ष मैनेजर पांडेय, जनवादी लेखक संघ के महासचिव मुरली मनोहर प्रसाद सिंह और प्रगतिशील लेखक संघ के प्रसिद्ध आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी भी इस पुरस्कार का विरोध कर चुके हैं। इसके अलावा हिन्दी के करीब 20 लेखकों का एक संयुक्त बयान भी इस पुरस्कार के विरोध में आ चुका है।
जवाहर नेहरू विश्विविद्यालय में भारतीय भाषा केन्द्र के पूर्व अध्यक्ष केदारनाथ सिंह ने कहा कि अकादमी ने मुझे टेलीफोन पर समारोह में आने के लिये निमंत्रित किया था पर मैंने न जाने का फैसला किया है।
यह टैगौर का अपमान है और राष्ट्रीय स्वाभिमान के खिलाफ है कि कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी इस तरह का
पुरस्कार दे। अकादमी के सामने पहले भी इस तरह के कई प्रस्ताव आये थे पर उन्हें नहीं स्वीकार किया गया था। ललित कला अकादमी के अध्यक्ष एवं प्रसिद्ध कवि अशोक वाजपेयी ने कहा कि बहुराष्ट्रीय कंपनी से टैगौर के नाम पर पुरस्कार प्रायोजित करने की क्या जरूरत है। क्या अकादमी के पास इतने पैसे नहीं है। टैगौर के नाम पर इतने पैसे तो सरकार भी दे सकती है1 मुझे समारोह के लिये निमंत्रण पत्र मिला है लेकिन मैं उसमें नहीं जाऊंगा। पब्लिक एजेंडा पत्रिका के संपादक एवं कवि मंगलेश डबराल ने कहा -सैमसंग द्वारा टैगौर के नाम पर पुरस्कार देना साहित्य में निजीकरण की शुरूआत है और इससे अकादमी की स्वायत्तता का भी उल्लंघन होता है। मैंने भी समारोह का बहिष्कार करने का फैसला किया है। कवि वीरेन डगवाल ने कहा सैमसंग कंपनी द्वारा टैगौर के नाम पर पुरस्कार देने का मैं हरगिज समर्थन नहीं कर सकता। मुझे तो समारोह में भाग लेने के लिये कोई निमंत्रण भी नहीं मिला पर अगर मिलता भी तो मैं नहीं जाता। चर्चित कवि ज्ञानेन्द्रपति ने कहा कि यह साहित्य में खतरे की घंटी है। बाजार की ताकतें हर चीज को नियंत्रित करने लगी हैं। उन्होंने कहा -कल कविता भी उनकी शर्तों पर लिखी जायेंगी। मैं तो इसके विरोध में अकादमी को एक चिट्ठी लिखने जा रहा हूं। लीलाधर जगूडी ने कहा -मैंने तो बाजार की ताकतों के खिलाफ कविताएं लिखी हैं। मैं इस पुरस्कार का समर्थन नहीं कर सकता। यह टैगौर का अपमान है। गौरतलब है कि गुरुदेव के जन्म के 150 वर्ष पूरे होने पर अगले साल से यूनेस्को ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कार्यक्रम मनाने का निर्णय लिया है।
भारत सरकार और बंगला देश ने भी संयुक्त रूप से टैगौर का 150 वां साल मनाने का निर्णय लिया है।

नये दौर का नया फंडा उर्फ कामरेड के जूते

दिवंगत नेता ज्योति बसु की कलम और जूते संरक्षित किये जायेंगे ताकी आने वाली पीढ़ी उनसे प्रेरणा ले। कलम की बात तो भाई समझ में आ रही है। उसके बहुत कुछ लिखा गया होगा। बहुत से फैसलों पर मुहर लगी होगी। विचारों की अभिव्यक्ति वामपंथी राजनीति की धुरी है जिसका प्रतीक कलम है। लेकिन जूते। क्या राम जी की खड़ाऊं से प्रेरित मामला है। आखिर परम्परा कहीं न कहीं बड़ी भूमिका निभाती है। दिवंगत कामरेड को अपनी भी राम राम। अभी कुछ दिन पहले ही एकाएक कामरेड प्रकाश करात को भी समझ में आयी कि सम्प्रदाय या धर्म से वामपंथ को परहेज नहीं है बल्कि साम्प्रदायिकता से है। माक्र्सबाबा कह गये हैं धर्म अफीम है। अब करातबाबा का दौर है उन्हें अपना फंडा देने का पूरा हक है।
कथाकार सृंजय जी आजकल आप क्या लिख पढ़ रहे हैं। कभी आपने 'कामरेड का कोट' कहानी लिखी थी अब 'कामरेड के जूते' लिखने की बारी है।
साम्यवाद के प्रवर्तक कार्ल मार्क्‍स ने जोर देकर कहा था-'धर्म लोगों के लिए अफीम के समान है।' मा‌र्क्स ने यह भी कहा था- 'मजहब को न केवल ठुकराना चाहिए, बल्कि इसका तिरस्कार भी होना चाहिए।' दो वर्ष पहले चीनी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी ने अपने संविधान में बदलाव करते हुए धर्म को मान्‍यता दी। अब अपने कामरेडों को भी यह बात समझ में आ रही है तो अच्छी बात है।

Thursday 21 January 2010

राजनीति की एक मर्यादा भी होती है ममता जी!


तृणमूल सुप्रीमो और केन्द्रीय रेल मंत्री ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु की अंतिम यात्रा में शामिल नहीं। उन्होंने इस बात का परिचय दे दिया कि राजनीति उनके लिए लोकतांत्रिक आचार भर नहीं है, जिसका वे सांस्कृतिक सौजन्यतावश पालन करें। दिवंगत नेता बसु की अंतिम यात्रा में लाखों लोगों की ऐतिहासिक शिरकत से उन्हें इस बात का अन्दाजा तो लग ही गया कि वे इतने पापुलर नेता थे कि उस पर तमाम नेताओं को रश्क हो सकता है। स्वयं ममता क्राउड पुलर नेता हैं और इस बात को भली भांति समझती हैं कि जनता जिधर है लोकतंत्र की सारी शक्तियां उसी दिशा में प्रवाहित होती हैं। उन्हें यदि लोकतांत्रिक शक्तियों का इस्तेमाल कर देशवासियों के लिए कुछ करना है तो उन पद्धतियों का सम्मान करना होगा जो लोकतंत्र में गरिमामय मानी जाती हैं।
अब यदि ममता के रुख को माकपा नेता सीताराम येचुरी पश्चिम बंगाल की जनता का अपमान करार देते हैं तो गलत नहीं है। उल्टे यह सिर्फ बंगाल की जनता का ही अपमान कैसे है? क्या बसु जैसे नेता एशिया भर में दूसरा है? जो लोग सीधे-सीधे राजनीति से जुड़े नहीं भी हैं उनके मन में बसु की उपलब्धियों के प्रति सम्मान है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में दो दशक से अधिक अवधि तक मुख्यमंत्री रहने वाले व्यक्ति के प्रति सक्रिय राजनीति से जुड़े व्यक्ति के मन में तनिक भी सम्मान न हो तो यह उसके विवेक पर प्रश्न चिह्न लगाता है। अरे भई। एक क्षेत्र विशेष में कार्यरत हस्तियों के बीच आपसी नातेदारी नाम की कोई चीज तो होती है या नहीं। यूं भी कहा यह जाता है कि योद्धा का कद उसके शत्रु के आधार पर नापा जाता है। ममता की जद्दोजहद का निखार वामपंथी राजनीति के विकल्प के तौर पर ही तो देखा जायेगा लेकिन मर्यादाओं का ध्यान नहीं दिये जाने पर जनता उन्हें अपनी निगाह से गिरा भी सकती है।
किसी शायर ने लिखा है-'मुखालफ़त से मेरी शख्सियत संवरती है। मैं दुश्मनों का बड़ा एहतराम करता हूं।' यह दुश्नन ही हैं जो किसी के कद को बड़ा बनाते हैं। एक मुझसे बातचीत में मेरे प्रिय कवि केदारनाथ सिंह ने मुझे समझाया था कि तुलसी की कविता अन्दाज सबसे जुड़ा इसलिए भी है कि उन्होंने अपनी बात कहने के लिए एक विशिष्ट शैली इजाद की। उन्होंने राम के कद को बढ़ाने के लिए रावण को महिमामंडित किया। क्योंकि वे चाहते थे कि दुनिया देखे कि रामजी ने जिस रावण को परास्त किया है उसका कद कितना बड़ा था।
ममता दी को अपने पास ऐसे लोग ही नहीं रखने चाहिए जो क्रांतिकारी हों बल्कि ऐसे भी सलाहकार रखें जो उन्हें व्यावहारिक मसलों पर उचित सलाह दे सकें। हम और देश की जनता नहीं चाहती कि अग्निकन्या सांप-सीढ़ी का खेल खेलते हुए स्वयं अपनी हरकतों से अपने कद को छोटा कर लें। वे विपक्ष की पुरजोर आवाज तो रही हैं लेकिन उन्हें जनता को यह भी आभास देना होगा कि वे सत्ता की बागडोर भी सही तरीके से संभाल सकती हैं। फिलहाल तो उन्होंने बसु शोकसभा प्रकरण में जो किया उसमें विपक्ष की मर्यादा नहीं दिखी।

Friday 15 January 2010

टूटे सरोद पर मंत्री की माफी, यह हुई न बात!


यह सुखद है कि संगीत के वाद्ययंत्र सरोद के टूटने पर एक देश के मंत्री ने माफी मांगी है। नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल ने सरोद वादक अमजाद अली खान से उनका वादययंत्र क्षतिग्रस्त होने पर माफी मांगी है। अहमदाबाद से विमान में सवार होने के बाद उनका सरोद क्षतिग्रस्त हो गया जिसके चलते उनको मुंबई में ललित कला अकादमी में अपनी प्रस्तुति रद्द करनी पड़ी। खान गुरुवार सुबह यहां पहुंचे और उन्हें शाम को पता चला कि उनका सरोद क्षतिग्रस्त हो गया है। एयर इंडिया के कार्यकारी निदेशक जितेन्द्र भार्गव ने भी माफी मांगी।
शुभ यह है कि हर वस्तु की गरिमा को समझा जाये। हर क्षेत्र की अपनी प्राथमिकताएं और आस्थाएं हैं और उनका महत्व भी।
खान ने अपना प्रस्तावित कार्यक्रम रद्द कर दिया। उन्होने कहा कि क्षतिग्रस्त सरोद को देखने के बाद मेरा दिल टूट गया। चूंकि एयर इंडिया हमारी राष्ट्रीय विमान सेवा है, इसलिए मै कोई दावा नहीं करने जा रहा लेकिन उन्हें संवेदनशील वस्तुओं को और सतर्कता से रखना।
दरअसल हमारे यहां संवेदनशीलता का मामला नकारात्मकता से है। हम उपद्रव से बचने की जुगत को संवेदनशीलता से जोड़ते हैं। कला जगत के प्रति सकारात्मक ढंग की संवेदनशीलता नहीं है। कला-जगत से जुड़े लोगों का मान-सम्मान हो या उनके रुझान। यह सब आम तौर पर समाज में दुय्यम दर्जे की चीजें हैं, जिस पर कोई ध्यान नहीं देता। मुझे याद है प्रतिभा सिंह के संगीत का एक कार्यक्रम कुछ वर्ष पहले कोलकाता के नेताजी इनडोर स्टेडियम में चल रहा था। वहां वे ज्यादातर जिस शायर का कलाम गाने वाली थीं वह थे रज़ा जौनपुरी। लेकिन आयोजकों ने गायिका के मना करने के बावज़ूद रज़ा जौनपुरी को यह कहकर मंच से उतार दिया कि वे जब कुछ बजा ही नहीं रहे हैं तो मंच पर क्यों बैठे हुए हैं? रज़ा के मंच से उतारे जाने से मर्माहत प्रतिभा सिंह ने उसके बाद रज़ा जौनपुरी का लिखा कलाम मंच से गाया था-"तस्वीर मेरी कमरे से बाहर न फेंकिये। सूना लगेगा आपही का घर, न फेंकिये।"

मान लेने क्या सचमुच जीवन-मूल्य है!!

अक्सर मेरे मित्र व मेरे दुनियादार शुभेच्छु मुझे समझाते रहते हैं कि मैं सबसे जिस-तिस बात पर ख़फा रहता हूं और दुनिया भर में हो रही तमाम बातों पर नाराज। यह मेरी सेहत के लिए ठीक नहीं है। और मेरा स्वभाव भी दुनिया भर में बुराई खोजने वाला बनता जा रहा है जो एक नकारात्मक सोच है और जीवन शैली है। एक ने तो संत वाणी ही सुना डाली जिसके शब्द तो मुझे जस-के-तस याद नहीं पर उसका लब्बोलुबाब यह था कि एक ने कही दूसरे ने मानी और इसीलिए दोनों ज्ञानी।
मेरी बेटी एमबीए कर रही है उसने में मुझसे कहा कि पापा मुझे मैनेजमेंट की क्लास में समझाया गया है कि यदि किसी दोस्त के तुम्हारी किसी बात पर बहस हो जाये तो कई बार स्वयं के सही रहने पर भी हार मान लेनी चाहिए क्योंकि यदि तुम बहस में दोस्त से जीत गये तो दोस्त को खो दोगे। इससे अच्छा है बहस में हार कर दोस्त को बनाये रखना।
उनकी बातें मुझे जंचती हैं। मगर क्या यह बात हर क्षेत्र में सही हैं। क्या हम बेहतर जीने की कोशिश में बदतर से समझौते करते रहें तो हमारा जीवन सचमुच बेहतर हो पायेगा? दुनिया के कई शास्त्र असहमति पर ही बने हैं और धर्म भी। यदि पुराने धर्म से असहमति न होती तो नये धर्म नहीं बनते। नये धर्म का जन्म पुराने धर्म से असहमति के कारण ही होता है। शास्त्रार्थ हमारे यहां की प्राचीन रवायत रही है। हमारे जैसे लोग जो साहित्य में कुछ करने-धरने के उपक्रम में जुते हैं उसकी मूल उर्जा और मूल प्रेरणा ही असहमति रही है। बिना आलोचकीय दृष्टि के कोई भी महत्वपूर्ण कार्य नहीं किया जा सकता। जिसकी दृष्टि में जिस स्तर की आलोचनात्मक धार रहती है उसका सृजन उतना ही महत्वपूर्ण और सार्थक माना जाना चाहिए। मैं क्या देश भर के तमाम लोग बरसों से 'हंस' पत्रिका इसलिए भी पढ़ते आये हैं क्योंकि राजेन्द्र यादव की आलोचकीय दृष्टि में बहुत धार और वे असहमतियों की खान हैं जो उनके सम्पादकीय को अर्थवान और पठनीय बनाती है। इधर,'वागर्थ' में डॉ.विजय बहादुर सिंह के सम्पादकीय का तेवर भी कम तीखा नहीं है। जो व्यक्ति भी समाज में जो कुछ चल रहा है उससे सहमत है तो फिर उसे न तो सृजन की आवश्यकता है और न उसके सर्जनात्मकता को कोई मूल्य है। राजनीतिक दल भी एक दूसरे के प्रति आलोचकीय दृष्टि रखते हैं। इधर राजनीति में तो विपक्ष का मूल कार्य सत्ता पक्ष के हर कार्य का विरोध ही बनकर रह गया है। ऐसे में हमें इस बात पर भी विचार करने की आवश्यकता है कि क्या मान लेना सचमुच कोई मूल्य है?
इधर, सूर्य ग्रहण के दिन ज्योतिषियों की वैज्ञानिकों ने खूब खबर ली और उनके दावों को खोखलेपन की लगभग कलई खोल दी। मान लेने पर टिके धंधों की असलियत सामने आनी ही चाहिए।

पिछड़ों को उनके हाल पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए


अक्सर समाजिक कार्यकर्ता इस बात हिमायत करते दिखायी देते हैं कि ग्राम्यवासियों, आदिवासियों और आदिम प्रजाति के लोगों को उनके स्वाभाविक जीवन को जीने देना चाहिए और उसमें आधुनिक जीवन शैली से मेल खाती कोई छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए। सुविधा और आधुनिक जीवन शैली और सुखसुविधाओं के मामले में तथाकथित पिछड़े अथवा उससे वंचित लोगों को आधुनिक और सुविधा सम्पन्न बनाने की कोशिश उनके लिए असुविधानजक है और उनकी मौलिकता छीनने की कोशिश भी। जो लोग प्रकृति के निकट हैं प्रकृति से उन्हें शक्ति मिलती है और वे शहरों में रह रहे सुविधा सम्पन्न लोगों की तुलना में अधिक स्वस्थ हैं। लेकिन वास्तविकता की कसौटी पर यह तर्क थोथे ही साबित होते हैं। ऐसा कहकर आदिवासियों की हिमायत करने वाले उनका ही नुकसान पहुंचा रहे हैं। प्रकृति का रूप कोमल और सुखद प्रायः कम ही होता है और प्रकृति की भयावहता अत्यंत विकराल। मनुष्य की प्रकृति के कहर से बचने की कोशिश बहुत पुरानी है और हमेशा जारी रहेगी।

संयुक्त राष्ट्र ने आदिम प्रजातियों पर हाल ही में जो आंकड़े दिये हैं वे भी उसकी पुष्टि करते हैं और प्रकृति के साहचर्य की वकालत करने वालों के लिए भी चौंकाने वाले हैं। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट कहती है कि दुनिया के कई देशों में रहने वली आदिम प्रजाति के लोगों की आयु-संभाविता शेष जनसंख्या से कहीं कम है यानी वे दूसरों की तुलना में कम जीते हैं। संयुक्त राष्ट्र ने अपने इतिहास में पहली बार आदिम प्रजातियों के बारे में विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की है। रिपोर्ट में कहा गया है कि आस्ट्रेलिया की आदिम प्रजाति और नेपाल में पाई जाने वाली किराती मूल प्रजाति के लोगों की औसत आयु अपने ही देश की दूसरी जनसंख्या से 20 वर्ष कम है। जबकि कनाडा में रह रहीं फर्स्ट नेशन, इनुइत और मेतिस प्रजातियों का अनुमानित जीवन काल अपने देशवासियों से लगभग 17 वर्ष कम है। औसत आयु कम होने के साथ ही इस रिपोर्ट में इस बात का भी उल्लेख है की दुनिया के तमाम देशों में रह रहीं इन आदिम प्रजातियों के लोगों को स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतें भी बनी रहती हैं।
इस रिपोर्ट के बाद यह तो समझ में आ ही जाना चाहिए कि भले आदिवासी यह कहें कि नहीं हमें वहीं रहने दो हम जहां हैं लेकिन उन्हें उनके हाल पर नहीं छोड़ा जा सकता। जो उन्नत हैं उन्हें उनकी बेहतरी के लिए ठोस कदम उठाने की चाहिए। जो अपना भला-बुरा स्वयं नहीं सोच सकते उनके लिए वे क्यों ने सोचें जो सोचने में सक्षम हैं।

Friday 8 January 2010

एक और अदा मनमोहिनी!!!


प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह ने एनआरआई समुदाय को यह साफ कह दिया कि अब भी वे भारत के विकास के हिस्से हैं और उनकी भूमिका की अनदेखी नहीं की जायेगी। सिंह ने प्रवासी भारतीयों को स्वदेश आकर राजनीति में शरीक होने का आह्वान करते हुए कहा है कि अगले आम चुनाव तक उन्हें वोट डालने का अधिकार मिल सकता है। इस दिशा में काम भी चल रहा है। वे चाहेंगे कि क्यों न और अधिक प्रवासी भारतीय स्वदेश आकर राजनीति और सार्वजनिक जीवन में शामिल हों। इसका सीधा मतलब यही निकाला जाना चाहिए कि भारतीय चाहें जहां रहें भारत में उनकी जड़ें न सिर्फ महफूज़ हैं बल्कि वे उसी तरह इस देश का हिस्सा हैं जैसा भारत छोड़ने से पहले थे। इस आश्वस्ति से यह लाभ होगा कि एनआरआई न सिर्फ़ भावात्मक रूप से भारत से अधिक गहराई से जुड़ेंगे बल्कि अपनी कमाई भारत में लगाने पर भी विचार करेंगे, जिससे देश की अर्थव्यवस्था और मज़बूत होगी। सिंह की यह भूमिका मनमोहनी है। तुस्सी ग्रेट हो!
अर्थव्यवस्था अब पूरे विश्व की रीढ़ बन चुकी है और हर रिश्ते में उसकी भूमिका केन्द्रीय होती है। गर्मजोशी भरे उनके निमंत्रण का मतलब चाहे जो निकाला जाये निहितार्थ अर्थव्यवस्था से सम्बंधित निकाला जाना चाहिए। आखिर अर्थशास्त्री की मुस्कान भी अर्थभरी होती है। नरसिंह राव की सरकार के ज़माने से देश की अर्थव्यवस्था के स्वप्नद्रष्टा मनमोहन सिंह ही रहे हैं। वे प्रधानमंत्री न भी रहते थो तो भी उनकी बतायी राह पर देश की अर्थव्यवस्था चलती और अब तो दुनिया भी उन्हें फालो करे तो हैरत नहीं।
मैं मनमोहन जी से मिला था 8-9 वर्ष पहले अमृतसर में। उस समय मैंने सोचा भी न था कि जिसे शख्स से मैं गले मिल रहा हूं वह कभी देश का प्रधानमंत्री होगा। मेरी उनसे मुलाकात हुई थी अपने सहकर्मी हरिहर रघुवंशी के चलते। हम दोनों ही वहां परिवार के बिना एक ही कमरे में रह रहे थे। उसकी वीआईपी बीट थी और वाणिज्य-उद्योग बीट भी मेरे पास थी। रघुवंशी ने पता लगावा लिया था कि डॉ.मनमोहन सिंह अमृतसर आ रहे हैं और कुछ देर के लिए सर्किट हाउस में ठहरेंगे जो वहां वीआईपी लोगों का सरकारी गेस्ट हाउस था। जिस कमरे में वे ठहरे थे किसी को प्रवेश नहीं मिल रहा था। अव्वल तो मीडिया से कहा गया कि मनमोहन सिंह आये ही नहीं हैं। जो कन्फर्म थे उन्हें कहा गया कि वे निजी यात्रा पर आये हैं इसलिए किसी भी कीमत पर किसी से नहीं मिलेंगे। हमने अपने स्तर पर सुरक्षा अधिकारी से अपना कार्ड भिजवाया और रघुवंशी ने कहा कि मनमोहन जी को वह व्यक्तिगत तौर पर जानता है। आखिरकार हम दोनों को मिलने के लिए उन्होंने बुलवा ही लिया। रघुवंशी यह कहते हुए तपाक से उनके गले मिला की वह जब एनडीटीवी में था तो उनसे अक्सर मिलता रहा था। मैंने रघुवंशी को फालो किया और मैं भी उनके गले मिला। मनमोहन जी अपनी बेटी के साथ ननकाना साहिब पाकिस्तान जाने वाले थे। पारिवारिक कारणों से ही अमृतसर आये थे। खैर हम दोनों ने साझे तौर पर उनका इंटरव्यू लिया था जो रघुवंशी के नाम से छपा था। एक इंटरव्यू या बीट पर दो-दो रिपोर्टरों का जाना अनुचित माना जाता इसलिए रघुवंशी के नाम से ही वह रिपोर्ट फाइल की गयी थी। अलबत्ता मैंने कुछ साइड स्टोरीज़ और कर ली थी।
उसी समय जाना कि वे कितने सहज व्यक्ति थे। उनका ज्ञान आक्रांत नहीं करता, सजेस्ट करता है। मार्ग बताता है। एनआरआई को मतदान का अधिकार भारत के लिए एक अच्छे दौर की सूचक बनेगी ऐसा मेरा विश्वास है।

नेहा सावंत की खुदकुशी कुछ कहती है!


पिछले हफ़्ते मुंबई में 11 साल की टीवी चाइल्ड स्टार नेहा सावंत ने फ़ांसी लगा कर अपनी जान दे दी। वह मुंबई में डोंबीवली इस्ट में साई दर्शन अपार्टमेंट में अपने परिवार के साथ रहती थी। नेहा ने टीवी पर बुगी वुगी जैसे डांस रियलिटी शो में भाग लिया था। वह आस-पास के डांस कांपिटिशन में भाग लेती थी और अच्छी डांसर थी। बूगी वुगी के अलावा उसने तीन और टीवी डांस कांपिटिशन में भी भाग लिया था। नेहा अपने घर में परदे के रॉड से लटकी मिली। उसने एक दुपट्टे को ही फ़ांसी का फ़ंदा बनाने के लिए इस्तेमाल किया था। उसकी मां टीचर हैं और पिता नरेंद्र एक प्राइवेट कंपनी में काम करते हैं। माता-पिता ने बताया कि नेहा चूंकि एक बहत अच्छी डांसर थी। इसलिए वह सोसाइटी में काफ़ी लोकप्रिय थी। हमने यह देखा था कि इस कारण से उसकी पढ़ाई प्रभावित होने के कारण हमने उसके बूगी वूगी में भाग लेने पर रोक लगा दी थी। उसकी डांस की क्लासेस भी बंद करा दी गयी थीं। जो उसकी हताशा का कारण बनीं और उसने खुदकुशी जैसे कदम उठा लिया।
यह खुदकुशी उन माता-पिताओं के लिए एक सबक है जो अपने बच्चों को अपना जैविक उत्पाद भर समझते हैं। बच्चों के भविष्य को शत-प्रतिशत अपने ढंग से निर्धारित करने का स्वप्न देखने वालों को यह भी सोचना चाहिए कि आवश्यक नहीं कि जो वे चाहेंगे वही होगा। जो बच्चा है पता नहीं उसमें कौन सा हुनर छुपा हो और वह समाज में क्या कुछ कमाल कर गुजरेगा। बच्चा भी उन्हीं की तरह इस दुनिया में एक स्वतंत्र सत्ता है और एक बच्चा किसी दूसरे बच्चों की तरह भी नहीं हो सकता कि पड़ोसी का बच्चा पढ़ने में अच्छा हो तो आपका भी बच्चा उसी दौड़ में शामिल कर दिया जाये। हमारे यहां तो पढ़ाई लिखायी की पारम्परिक पद्धति है उसके अलावा भी ज्ञान-विज्ञान, कलाओं की स्वतंत्र दुनियाएं भी हैं जिसका अभी या तो ठीक से विकास नहीं हुआ है या जो अभी रचना प्रक्रिया से गुजर रही हैं। मैकाले की शिक्षा पद्दति से बाहर भी शिक्षा की दुनिया हो सकती है। डाक्टर, इंजीनियर, क्लर्क, मैनेजर के अलावा भी रोजगार के कई विकल्प हैं। डिग्री बटोरने और शिक्षा की सुनिश्चित पद्दति से पढ़कर भेड़ों की तरह नौकरी के चक्कर लगाने के बाहर भी बच्चों का भविष्य हो सकता है। दूसरे उपयोगितावाद के बाहर भी जीने और काम करने की आवश्कता होती है। उसकी भी उपयोगिता समाज में होती है। बच्चों के भविष्य निर्धारण में अपने को सुझाव देने और सहयोग करने तक सीमित रखा जाना चाहिए। आखिर नेहा सावंत के माता-पिता नेहा को नृत्य की दुनिया से निकालकर क्या बना लेते? जो वे बनाना चाहते थे क्या उसकी गारंटी थी। बच्चे के अन्दर जो धुन थी क्या उसका स्वागत नहीं किया जाना चाहिए था। बच्चे की रुचियों को देखते हुए यदि उसे विकसित किये जाने का अवसर दिया जाये तो वे वह बन सकते हैं जो उनके अभिभावकों ने सोचा तक न होगा। यह एक बच्ची की निर्मम हत्या का उदाहरण है जो उसके माता-पिता ने की है। ज्यादातर घरों में चुपचाप ऐसी हत्याओं को अंजाम दिया जाता है जहां बच्चों के सपने चुरा लिये जाते हैं, छीन लिये जाते हैं। बदल दिये जाते हैं। और थमा दिया जाता है वह ध्येय जो उनके माता-पिता का होता है।

Saturday 2 January 2010

शशि थरूर जैसों को प्रोत्साहित किये जाने की ज़रूरत


ट्वीटर या दूसरी अन्य नेटवर्किंग वेबसाइट पर जनप्रतिनिधियों के आने की जो पहल विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर ने की वह न सिर्फ़ं स्वागत योग्य है बल्कि अनुकरणीय है। जो लोग जनता के प्रति सीधे जवाबदेह हैं उन्हें जवाब देने में विलम्ब भी नहीं करना चाहिए। अपनी बात कहने के लिए प्रेस कांफ्रेंसों और जनसभाओं का सहारा लेना एक पारम्परिक तरीका है जिसके दिन अब लदने चाहिए। जब इसके सहज सुलभ रास्ते हैं तो उन्हें क्यों नहीं अपनाया जाना चाहिए ताकि उनकी बात लोगों को जल्द से जल्द पहुंचे। इससे यह भी लाभ होगा कि लोगों की प्रतिक्रियाएं भी आयेंगी जिससे कहने वाले को यह पता चलेगा कि वह जिस किसी मुद्दे पर जिस तरह से सोच रहा है उसका लोगों पर क्या असर हो रहा है। हालांकि थरूर को बार-बार नसीहतें मिलती रहीं है कि भारत में सरकार के जो कामकाज की प्रक्रिया है उसमें इस तरह के अन्दाज को पसंद नहीं किया जाता और जो कुछ उन्हें कहना हो उसे सार्वजनिक तौर पर कहें। मंत्रालय में, आला कमान या पार्टी में विविन्न स्तर पर अपनी बात रखें। खास तौर अपनी असहमितियों के बारे में अपनी व्यक्तिगत राय।
दरअसल हमारे यहां लोगों की निजी अभिव्यक्तियों को अब तक बहुत सम्मान के साथ नहीं देखा जाता है चाहे वह जिस क्षेत्र में हो। यही कारण है कि लोगों की बहुत सारी बातों में अपनी कोई निजी राय बनती ही नहीं है क्योंकि उसका अनुकूल वातावरण नहीं है। हम जो कुछ कहते हैं वह भी अपना होते हुए भी सार्वजनिक ही होता है। एक व्यक्ति की बात दूसरे से बहुत जुदा नहीं होती। एक सामूहिक सोच यथास्थितिवाद का पोषक होती है और यह किसी भी समाज को आगे ले जाने में बहुत बड़ी बाधक भी। इसलिए थरूर जैसे व्यक्तियों को समर्थन किया जाना चाहिए जो सार्वजनिक हित के मुद्दों पर अपनी निजी राय व्यक्त करना चाहते हैं। हालांकि इसमें उन जानकारियों के खुलासा हो जाने का खतरा बना रहता है जिसे वक्त से पहले नहीं बताया जाना चाहिए किन्तु फायदों अधिक हैं और कम से कम राजनीतिक छद्माचार से कुछ तो निजात मिलेगी।

3 इडियट्सः चेतन भगत और दो अन्य


चेतन भगत के उपन्यास पर बनी फ़िल्म को लेकर विवाद खड़ा हो गया है, जो अपने आपमें रोचक है। उपन्यास ‘फाइव प्वाइंट समवन’ बेस्टसेलर रह चुका है और उसकी जबर्दस्त बिकी है। इस पर फिल्म बनाने के बाद अब उस पर फिल्म बनाने वाले पछता रहे हैं और विवाद ओझे स्तर पर उतर आया है।
चेतन को तक़लीफ इस बात की है कि उनका नाम फिल्म में सबसे आखिर में जूनियर आर्टिस्टों के बाद यह कहकर दिया गया है कि उसकी कहानी उनके उपन्यास पर आधारित है। उन्हें उनका उचित श्रेय नहीं दिया गया। फ़िल्म की शुरुआत में कहानी के लिए राजकुमार हिरानी और अभिजात जोशी का नाम दिया जा रहा है जबकि चेतन भगत का नाम फ़िल्म के अंत में 'रोलिंग क्रेडिट' में दिया जा रहा है।
फ़िल्म के निर्देशक राजकुमार हिरानी ने कहा कि लेखक चेतन भगत झूठ बोल रहे हैं। उन्होंने अनुबंधों के कागज़ात मीडिया को दिखाते हुए कहा, "हमने चेतन भगत की कहानी चुराई नहीं है, बल्कि हमने उनसे अधिकार ख़रीदे हैं।
इधर, राजकुमार हिरानी ने सबूत के रुप में मीडिया को अनुबंध के वो सभी कागज़ात दिखाए जिसके अनुसार चेतन भगत ने अपनी किताब 'फ़ाइव पॉइन्ट समवन' की कहानी में परिवर्तन के अधिकार निर्माता-निर्देशक को दे दिए थे। हिरानी के अनुसार उन्होंने चार घंटे लगाकर चेतन भगत को फ़िल्म की स्क्रिप्ट सुनाई थी और इसके बाद चेतन भगत ने उस दस्तावेज़ पर भी हस्ताक्षर किए थे जिसमें उन्होंने कहा कि उन्होंने स्क्रिप्ट पढ़ ली है. फ़िल्म में रोलिंग क्रेडिट में जहां चेतन भगत का नाम दिखाया जा रहा है वहां नाम दिखाए जाने की हामी भरी थी। राजकुमार हिरानी ने यह भी कहा कि अनुबंध के अनुसार जो राशि चेतन भगत को दी जानी चाहिए थी वह दे दी गई बल्कि वह राशि भी उन्हें अग्रिम दे दी गई जो क़रार के अनुसार फ़िल्म के सफल होने के बाद दी जानी चाहिए थी।
सवाल यह है कि सब कुछ पहले से तय था और उसका जानकारी चेतन भगत को थी तो फिर वे अब हायतौबा क्यों मचा रहे हैं। वह इसलिए कि पहले वे शर्तें न मानते तो शायद बात फिल्म बनाने तक नहीं पहुंचती। दूसरे यह कि अब फिल्म चूंकि सफल मानी जा रही है और यह भी उम्मीद की जा रही है कि उसकी कहानी पर भी एवार्ड मिल सकता है तो उन्हें लग रहा है कि उस पर उनका कब्जा नहीं होगा। तीसरे यह कि चर्चा बटोरने से उनकी उपन्यास की भी बिक्री बढ़ सकती है और वे बाद भी इन सुर्खियों का लाभ उठा सकते हैं। यह बात दीगर है कि इस तरह के हंगामे के बाद कम ही फिल्मकार होंगे जो किसी किताब पर या किसी साहित्यिक कृति पर फिल्म बनाने की सोचेंगे।
स्वयं चेतन कह रहे हैं कि यह पूरी साजिश सर्वश्रेष्ठ कहानी का पुरस्कार पाने की है। फिल्म पुरस्कार समारोहों में यह फिल्म सर्वश्रेष्ठ कहानी के पुरस्कार की प्रबल दावेदार होगी। लिहाजा मुझे इससे महरूम रखने की कोशिश की जा रही है। फिल्म निर्देशक राजकुमार हिरानी, फिल्म निर्माता विधु विनोद चोपडा़, फिल्म में अभिनय करने वाले आमिर खान तीनों ने इस फिल्म का श्रेय अभिजात जोशी को दिया है उनका कहना है कि फिल्म की स्टोरी पर अभिजात ने तीन साल मेहनत कर उसकी पटकथा तैयार की है। फिल्म में कई ऐसे सीन हैं जिसका उपन्यास से कोई लेना-देना नहीं है। सच तो यही है कि पटकथा और कहानी दोनों एकदम अलग चीजें होती हैं और दोनों की भाषा भी अलग होती है। ऐसा भी होता है कि कई मामूली सी लगती कहानी अच्छी पटकथा के बूते श्रेष्ठ फिल्म बन जाती है और कई अच्छी कहानियां खराब पटकथा से दो कौड़ी की हो जाती हैं। विमल मित्र का उपन्यास साहब बीवी गुलाम और गुलशन नंदा का उपन्यास पढ़ने में उतना अच्छा नहीं था लेकिन पटकथा के कारण उन पर अच्छी फिल्में बनीं जबकि मुझे चांद चाहिए जैसा सशक्त उपन्यास पटकथा के लचर होने कारण लोगों को प्रभावित नहीं कर सका।
फिलहाल चेतन भगत की जो लड़ाई है उसका नैतिकता से ताल्लुक नहीं है बल्कि मामला व्यावसायिक लाभ में हिस्सेदारी का है। अच्छा होगा कि भगत इसे कानूनी तौर पर हल करें। ढिंढोरा पीटकर तो वे अपनी भद्द ही पिटायेंगे वरना फिल्म के नाम के तीन में एक वे स्वयं साबित होंगे बाकी दो विधु विनोद चोपड़ा और राजकुमार हिरानी तो हैं ही।
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...