Tuesday 21 December 2010

विकीलीक्सः सेंधमारों और हैकरों को हीरो न बनाये मीडिया


विकीलीक्स के कारनामों ने मीडिया को एक गहरी दुविधा में ढकेल दिया है। उसके खुलासों के आगे दुनिया की सारी खबरें फीकी और लगभग सारहीन नज़र आ रही हैं। सनसनी परोसने वालों की विकीलीक्स ने हवा निकाल दी है। सबसे पहले, सबसे आगे, सिर्फ़ हमारे पास जैसे नारों का रंग उतर गया है। एकाएक दुनियाभर का मीडिया संसार जूलियन असांज द्वारा विकीलीक्स डाट ओआरजी वेबसाइट परपरोसी हुई जूठन पर आश्रित हो गया है। इसे सूचनाओं का विस्फोट माना जा रहा है। कई पत्रकार असांज को अपना अगुवा मानने से नहीं हिचक रहे हैं तो कुछ ने उसे नायक मान लिया है। कुछ और उसी की राह पर चलने के लिए बेचैन हैं। कुछ फर्जी विकीलीक्स के खुलासे भी इस बीच सामने आये हैं। इस तरह विकीलीक्स मार्का खुलासों का एक बूम आ गया है।
इंटरनेट पर सूचनाओं का अबाध प्रवाह की दुनिया में यह पहली बड़ी दुर्घटना है। ऐसी दुर्घटना तो होनी ही थी। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब अनसेंसर्ड सूचना परोसना नहीं है। मीडिया का काम केवल खुलासा करना नहीं है। मीडिया यदि व्यक्ति की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की हिमायत करता है तो उसका आशय अबाध अभिव्यक्ति से नहीं है। लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्बंध नैतिकता से भी है। हम किसी हैकर को मीडिया का नायक नहीं मान सकते। गुप्त सूचनाओं को खुलासा भर कर देना पत्रकारिता का धर्म कदापि नहीं है और ना ही यह कोई ऐसा गुण है जिस पर कोई वारी-वारी जाये। कूटनीति की बहुत सी मजबूरियां होती हैं और हर देश में बहुत सी बातें होती हैं जो न सिर्फ दूसरे देश से बल्कि स्वयं अपने भी देश के लोगों से गोपनीय रखनी होती हैं। आवश्यकता पड़ने पर कई गोपनीय बातों को उजागर करने के पूर्व उसके सार्वजनिक होने के प्रभावों पर भी विचार किया जाता है।
विसीलीक्स ने जो गुप्त सूचनाओं पर सेंधमारी की है वह अमरीकी को पूरी दुनिया की निगाह में गिराने के लिए काफी है।यही नहीं इससे उसके अपने मित्र राष्ट्रों से सम्बंध खराब होने का खतरा मंडरा रहा है। आर्थिक मंदी का शिकार इस देश की हालत इन खुलासों से और खराब हो सकती है। कोई ऐसा देश नहीं होगा जो अपने अपने स्तर और अपनी औकात के अनुसार किन्ही कारगुजारियों को अंजाम देने की कोशिश न करता होगा। कमजोर से कमजोर देश भी शक्तिशाली बनने की कोशिश करता है और जिनसे वह संधि करता है अपने फायदे की पहले चिन्ता करता है। हर देश का अपना खुफिया तंत्र होता है और उसकी एजेंसियां देश की कूटनीतिक कार्रवाइयों को अंजाम देती रहती है। अमरीका के गोपनीय केबल संदेशों का खुलासा करके विकीलीक्स ने उसकी पोल खोल दी। और एक हैकर दुनिया का नायक बन गया। ऐसे लोगो का नायक जो अमरीकी की शक्ति के आगे नत हैं, उनसे आगे निकलना चाहते हैं, उसके सताये हुए हैं। अब अमरीका इंटरनेट की अबाध स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने की कोशिश कर रहा है तो यह स्वाभाविक है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हिमायती राष्ट्र का अंकुश के पक्ष में रवैया चिन्ता का विषय नहीं होना चाहिए क्योंकि वह नैतिकता से स्खलित वैचारिक स्वतंत्रता के खिलाफ जो सही है। हमारा देश भारत को भी ऐसी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है क्योंकि हम भी मानते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्बंध नैतिकता से है और उसकी प्रभावोत्पादता से भी। किन्हीं गोपनीय सूचनाओं को उजागर करना कोई बड़ी सूचना क्रांति नहीं है। हमारे यहां सूचना प्राप्त करने का कानून है और कई गोपनीय दस्तावेजों से सम्बंध में एक सुनिश्चित प्रक्रिया से जानकारी प्राप्त की जा सकती है लेकिन उन जानकारियों में हर तरह की जानकारियों तक पहुंच नहीं बनती क्योंकि सरकार ने कुछ मामलों को जनहित और देशहित में उपलब्ध नहीं कराने का निर्णय लिया है।
असांज की खुफियागिरी के तर्ज पर यदि आज की पत्रकारिता चली तो जासूसों की तो निकल पड़ेगी। मुझे यह जानकारी नहीं है कि कितने अखबार अपने यहां जासूसों की नियुक्ति किये हुए हैं। हाल में मीडिया द्वारा स्ट्रिंग आपरेशनों की जानकारी तो है किन्तु उसमें भी किसी ने किसी रूप में जनहित और नैतिकता के प्रश्न जुड़े होते हैं।
अमरीका के खिलाफ खड़ी शक्तियों को लाभ पहुंचाने की गरज से गोपनीय दस्तावेजों के खुलासे के कारण जल्द ही उन लोगों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी बाधित होगी जो किन्हीं नैतिक मूल्यों की लड़ाई इंटरनेट के जरिए लड़ रहे थे। यह भय है कि सस्ता, सुलभ और कारगर हथियार आम लोगों के हाथ से न निकल जाये। स्वाभाविक है कि जो देश इंटरनेट पर आ रही खबरों और विचारों के खुलेपन से अपने देश को बचाना चाहते थे वे लाभान्वित होंगे। ऐसे भी मुल्क हैं जहां अपने ही देश की विसंगतियों को अपने ही देश में अपने ही लोगों द्वारा अभिव्यक्ति करने पर जेल में डाल दिया जाता है, वहां इंटरनेट जैसे शक्तिशाली माध्यम सिरदर्द बना हुआ है। उन्हें इंटरनेट पर भावी पाबंदियों का लाभ मिलेगा।
दरअसल इंटरनेट मीडिया के विस्तार के साथ ही उस पर सीमित अंकुश का तंत्र विकसित किया जाना चाहिए था तथा सूचनाओं के प्रसार की नैतिकता का विकास भी होना चाहिए था। इंटरनेट के दुरुपयोग के खिलाफ कारगर कानून भी बनने चाहिए थे जो नहीं हुआ और उसका नतीजा सामने है। विकीलीक्स को आज भले मीडिया तरजीह दे रहा हो किन्तु यह मीडिया के विनाश का कारण बन जायेगा। एक हैकर के कारनामों से भले ही किसी को लाभ हो मीडिया को चाहिए कि वह उसकी निन्दा करे और उसे नायक न बनने दे। कल को किसी देश के आम नागरिकों के बैंक खातों से लेकर तमाम गोपनीय जानकारियों को रातोंरात लीक कर कोई दुनिया को चौंका कर नायक बनने की कोशिश करेगा तो आप क्या करेंगे।
वर्तमान घटना को अमरीका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकी हमले को रूप में देखा जाना चाहिए। यह किसी राष्ट्र की निजता पर आतंकी हमला है। और इससे जश्न मनाने वाले यह न भूलें कि उनकी निजता भी महफूज नहीं रह जायेगी। कोई भी उपलब्धि तभी उपलब्धि है जो उसे प्राप्त करने के साधन नैतिक हों। यदि गोपनीय सूचनाएं सेंधमारी या हैकिंग करके हासिल की गयी हैं किन्हीं मान्य तरीकों से नहीं तो उन सूचनाओं से चाहे जितने बेहतर नतीजे निकाल लें वह किसी भी प्रकार से मनुष्य जाति के लिए हितकारी नहीं होंगे।
असांज का जीवन कोई आदर्श जीवन नहीं रहा है। कंप्यूर हैक करने की अपनी एक कोशिश के दौरान वह पकड़ा गया था। फिर भी उसने अपना काम और कंप्यूटर के क्षेत्र में अनुसंधान जारी रखा। उसका दावा है कि अपने स्रोतों को सुरक्षित रखने के लिए उसने अलग-अलग देशों से काम किया। अपने संसाधनों और टीमों को भी हम अलग-अलग जगह ले गया ताकि कानूनी रुप से सुरक्षित रह सके। वह आज तक न कोई केस हारा है न ही अपने किसी स्रोत को खोया है।
उल्लेखनीय है कि विकीलीक्स की शुरुआत 2006 में हुई। असांज ने कंप्यूटर कोडिंग के कुछ सिद्धहस्त लोगों को अपने साथ जोड़ा। उनका मक़सद था एक ऐसी वेबसाइट बनाना जो उन दस्तावेज़ों को जारी करे जो कंप्यूटर हैक कर पाए गए हैं। भले यह कहा जा रहा है कि यह असांज के व्यक्तिगत प्रयासों को परिणाम है लेकिन इसमें किन्हीं देशों की बड़ी शक्तियों का हाथ होने की आशंका से इनकार नहीं किया जाना।
विकीलीक्स खुलासों के आधार पर राजनीतिक और सामाजिक अध्ययन के लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध हुई है इसमें कोई दो राय नहीं। उसके खुलासों से किसी देश की नीति और कूटनीति में कितना अन्तर है यह अध्ययन का विषय हो सकता है। नैतिकता की कितनी परतें होती हैं उसके रेशे रेशे को इन खुलासों ने जगजाहिर कर दिया है। लेकिन कोई भी उपलब्धि किस कीमत पर मिली है बिना इसका मूल्यांकन किये बिना हम नहीं रह सकते। दूसरे किसी भी बात के खुलासे के उद्देश्यों को जब तक सामने न रखा जाये हम यह नहीं कह सकते कि भला हुआ या बुरा। उद्देश्य की स्पष्टता के अभाव में केवल खुलासे का थ्रिल पैदा करना या अपनी हैकर प्रतिभा का प्रदर्शन मेरे खयाल से कोई महान कार्य नहीं है।

Sunday 5 December 2010

भाषा का क्रियोलीकरण और अखबारों की भूमिका

सन्मार्ग-6/12/2010







'भाषा का क्रियोलीकरण और अखबारों की भूमिका' विषय पर अपनी भाषा संस्था ने अपने दसवें स्थापना दिवस पर संगोष्ठी 4 दिसम्बर 2010 को आयोजित की। यह भारतीय भाषा परिषद के सभागार में अपराह्न 3.30 बजे शुरू हुई जिसकी अध्यक्षता ललित निबंधकार एवं पत्रकारिता पर ग्रंथ लिखने वाले डॉ.कृष्णबिहारी मिश्र ने की। विषय प्रवर्तन संस्था के महासचिव डॉ. ऋषिकेश राय ने किया और क्रियोल तथा क्रियोलीकरण के अर्थ से लोगों को परिचित कराया। कार्यक्रम का संचालन डॉ.विवेक कुमार सिंह ने किया और धन्यवाद ज्ञापन किया डॉ.वसुमति डागा ने। वक्ता थे ताजा टीवी छपते छपते दैनिक के मालिक सम्पादक विश्वंभर नेवर, जनसंसार साप्ताहिक के सम्पादक गीतेश शर्मा, हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के रीडर डॉ. आलोक पाण्डेय तथा सन्मार्ग दैनिक के वरिष्ठ उपसम्पादक डॉ.अभिज्ञात ।

कुछ तथ्य
क्रियोल भाषा क्या है?
एक क्रियोल या खिचड़ी भाषा, वो स्थिर भाषा होती है जिसका प्रादुर्भाव विभिन्न भाषाओं के मिश्रण से होता है। आमतौर पर एक क्रियोल भाषा के शब्द मूल भाषाओं से सहार्थी होते हैं, लेकिन कई बार मूल भाषा और खिचड़ी भाषा के शब्दों में ध्वन्यात्मक और अर्थ संबंधी एक स्पष्ट परिवर्तन देखा जा सकता है। अब इस बात की आशंका जतायी जा रही है कि हिन्दी का हिंग्लिश बनाना एक तरह से उसका क्रियोलीकरण करना है। और कांट्रा-ग्रेजुअलिज्म के हथकंडों से, बाद में उसे डि-क्रियोल किया जायेगा। डिक्रियोल करने का अर्थ, उसे पूरी तरह अँग्रेज़ी के द्वारा विस्थापित कर देना।
भारत और क्रियोलीकरण
भारत में नगालैंड की 18 बोलियों को मिला कर जो सम्पर्क भाषा बनायी गयी है उसे नगमीज कहते हैं। वह अपने देश की हाल ही में बनी क्रियोल भाषा है जिसकी लिपि रोमन है। कोंकणी को भी रोमन लिपि में लिखे जाने की निर्णय लिया गया है। वहां पुर्जगीज और कोंकणी भाषा का क्रियोल है। गुयाना में 43 प्रतिशत लोग हिन्दी बोलते हैं वहां देवनागरी की जगह रोमन लिपि को चलाया गया है।
कहां बोली जाती है क्रियोल भाषा
हैतियाई क्रियोल भाषा, हैती में तकरीबन पूरी जनसंख्या ८० लाख लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा है। इसके अलावा बहामास, क्यूबा, कनाडा, केमन द्वीप-समूह, डोमिनिकन गणराज्य, फ्रेंच गुयाना, गुआदेलूप, प्युर्तो रिको और संयुक्त राज्य अमेरिका में बसे करीबन दस लाख प्रवासी लोगों द्वारा बोली जाती है। यह भाषा दुनिया में सर्वाधिक प्रचलित क्रियोल भाषा है।
हिन्दी का हिंग्लिश बनाना उसका वैसा ही क्रियोलीकरण है, जैसा पहले फ्रांस या इंगलैंड का उपनिवेश रह चुके कैरेबियाई देशों भाषाएं हैं।
डॉ.अभिज्ञात का मतः
भारत जैसे देश में क्रियोलीकरण का हव्वा खड़ा किया जा रहा है और वस्तुस्थिति को बढ़ाचढ़ा कर पेश किया जा रहा है। हिन्दी अख़बारों में लाइफ स्टाइल या यूथ प्लस के नाम पर फ़ीचर सप्लीमेंट दिये जा रहे हैं उनमें हिंगलिश अर्थात हिन्दी अंग्रेजी की खिचड़ी भाषा दी जा रही है तो इसका मतलब इस बात नहीं निकाला जाना चाहिए कि अख़बार उसी भाषा की दिशा में बढ़ रहा है या यह अंग्रेजी के साम्राज्यवाद का बढ़ावा देने के लिए किसी षड़यंत्र के तहत किया जा रहा है। यह उस युवा पीढ़ी को हिन्दी अख़बार से जोड़ने का उपक्रम है जो हिन्दी भाषी परिवारों में अंग्रेजी पढ़ने वाले युवा हैं। हिन्दी अख़बार दरअसल किसी घर में व्यक्ति विशेष के लिए नहीं आते। दैनिक हिन्दी अखबार पूरे परिवार द्वारा पढ़ा जाता है जिसमें हर आयु व रुचि के लोग होते हैं। यदि उसमें गंभीर समाचार होते हैं तो विश्लेषण परक लेख भी होते हैं। उसी तरह किसी सप्लीमेंट में लतीफे और कविताएं भी होती हैं और कहानिया तथा
सुडोकू भी। पकवान की विधि भी होती है और राशिफल भी। शेयर के रेट भी होते हैं। बच्चों के लिए रंग भरने के लिए चित्र भी होते हैं। अब यदि युवा पीढ़ी के लिए अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी का सप्लीमेंट युवाओं के टेस्ट को ध्यान में रखकर निकलने लगा तो हाय तौबा मच गयी। और कहा जा रहा है कि साहब यह तो हिन्दी का क्रियोलीकरण किया जा रहा है। यहां तक कहा जाने लगा है कि एक मिथ्या 'यूथ-कल्चर' बनाया जा रहा है जिनका कुल मकसद अंग्रेजी भाषा तथा जीवन शैली को उन्माद की तरह उनसे जोड़ा जाये जिसमें भाषा, भूषा और भोजन के स्तर पर वह अंग्रेजी के नये उपनिवेश के शिकंजे में आ जाये। वह परम्परच्युत हो जाये और अपनी-अपनी मातृभाषा को न केवल हेय समझने लगे। इससे पूरी की पूरी युवा पीढ़ी से उसकी भाषा छीन ली जायेगी। हिन्दी का हिंग्लिश बनाना उसका वैसा ही क्रियोलीकरण है, जैसा पहले फ्रांस या इंगलैंड का उपनिवेश रह चुके कैरेबियाई देशों की भाषाएं हैं।

यहां यह गौरतलब है कि जिन देशों में जिन स्थितियों में भाषाओं का क्रियोलीकरण संभव है वैसे हालत फिलवक्त भारत के नहीं हैं। यह भी सही है बाजार के कारण दो भाषाओं के बीच के आदान-प्रदान से भाषा का जो क्रियोलीकरण होता है उसकी जड़ें गहरी नहीं होतीं उस भाषा में साहित्य संस्कृति जैसे मुद्दों पर विचार संभव नहीं। किन्तु यह नहीं भूलना होगा कि भारत में ऊर्दू भाषा फारसी खड़ी बोली के क्रियोल का ही उदाहरण है। और किन्हीं अर्थों में अपनी यह हिन्दी भी खड़ी बोली, भोजपुरी, ब्रजभाषा अवधी जैसी बोलियां का क्रियोल हैं। भारत में विभिन्न भाषाओं और धर्मों के लोग रहते हैं उनके बीच के सांस्कृतिक आदान प्रदान में दरअसल क्रियोल ही है। हमारा देश क्रियोलीकरण की शक्ति का परिचायक है।
हमारे बीच क्रियोलीकरण के मुद्दे विद्वेषपूर्ण ढंग से प्रचारित करने की साजिश क्यों और किससे इशारे पर की जा रही है इस पर भी गौर करने की आवश्यकता है। जिस प्रकार के उदाहरण देकर क्रियोलीकरण की प्रक्रिया को समझाया जा रहा उससे यह प्रवृत्ति जोर पकड़ेगी की हमें अपनी भाषा और संस्कृति में दूसरी भाषा व संस्कृति के दरवाज़े बंद कर लेने हैं या उन्हें खोज खोज कर बाहर का रास्ता दिखाकर शुद्धिकरण करना है तो पूरा देश सांस्कृतिक वैमनस्य में जलने लगेगा। इस आग लगाने की साजिश से भी सावधान रहने की ज़रूरत है। यह गौरतलब है कि क्रियोलीकरण से सजग करने वाले हमारे हितैषियों का मुख्य लक्ष्य भारतीय भाषाओं का अंग्रेजी के साथ क्रियोलीकरण के खिलाफ है। जब क्रियोलीकरण खतरनाक है तो चाहे जिसके किसी के बीच हो वह समान रूप से खतरनाक होगा ऐसा क्यों नहीं कहा जा रहा है। उसका कारण साजिशकर्ता शक्तियों के अपने हित हैं। ये साजिशकर्ता हमें यह याद दिलाना नहीं भूलते कि हिन्दी पत्रकारिता की शुरूआत ही अंग्रेजी को भारत से खदेड़ने की प्रतिबद्धता से हुई थी। वे यह भूल जाते हैं कि उसे समय हमारा देश अंग्रेजी शासन का गुलाम था और अंग्रेजी हम पर हुकूमत करने वालों की भाषा थी इसलिए हुक्मरानों की भाषा का तिरस्कार भी हुक्मरान का तिरस्कार था। वरना अंग्रेजी भाषा से किसी का क्या विरोध होता और क्यों होता। किन्तु आज स्वतंत्र भारत में हम पर हुकूमत करने वालों की भाषा नहीं है बल्कि वह मित्र राष्ट्र की भाषा है। अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने हाल ही भारत दौरा किया है और हमारे मैत्रिपूर्ण सम्बंध और गहराये हैं जो परमाणु समझौते से शुरू हुए थे। भारत और अमरीकी की बढ़ती करीबी एक ऐसे देश को खल रही है जो भारत के समान ही विश्व की उभरती हुई शक्ति के रूप में देखा रहा है। भारत और चीन दोनों के पास बाजार की विपुल संभावनाएं हैं और विश्व के सर्वशक्तिमान देश स्वयं अमरीका ने स्वीकार किया है कि आने वाले दिनों में चीन और भारत की ऐसे देश हैं जिनसे उसे कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ेगा। ऐसे में अमरीका की भारत के साथ करीबी चीन की अपनी कूटनीति के विरोध में जाती है और जवाब में वह हमारे पड़ोसी शत्रुराष्ट्र पाकिस्तान के साथ अपनी करीबी बढ़ाता रहता है। यह स्वाभाविक है कि वह ऐसी चालें चले जिससे भारत के लोग अमरीका से भड़कें।
हाल की ओमाबा की यात्रा के बाद आर्थिक लेन देन और व्यापार की बढ़ती सम्भावनाएं दोनों देशों को सांस्कृतिक स्तर पर भी करीब लायेंगी। ऐसे में अंग्रेजी और रोमन लिपि के प्रति भारतीय लोगों के मन में आशंका के बीज रोपने की साजिश चीन करें तो इसमे कोई हैरत नहीं। इससे एक पंथ दो काज संभव है एक रोमन लिपि के प्रति विद्वेष की भावना पैदा कर दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक करीबी की संभावनाओं को क्षीण करना दूसरे आवश्यकनासुर भारत को भाषाई और सांस्कृतिक वैमनस्य की आग में झोंककर उसकी आंतरिक शक्ति को विखंडित करना। भारत चूंकि साझी संस्कृति का देश है इसलिए सांस्कृतिक अलगाव और संकीर्णता उसके विकास को आसानी से अवरुद्ध कर सकता है। अभी तो भाषा के क्रियोलीणकर का खतरा दिखाया जा रहा है बाद में सांस्कृतिक क्रियोलीकरण तक बात पहुंचेगी और साजिश के तहत इस बात की गणना करायी जाने लगेगी कि भारत की किस भाषा में भारत की ही किस भाषा के कितने शब्द हैं और इससे कैसे एक भारतीय मूल भाषा भाषा ने दूसरी भाऱतीय मूल भाषा को विकृत किया है। हमारी शक्तियों को हमारी विकृति की संज्ञा दी जाने लगेगी और हमारे अवचेतन में उसे बैठा दिया जायेगा। इसलिए दोस्तो यह समझने की जरूरत है कि कहीं चोर दरवाज़े से हमारे को तोड़ने की साजिश तो नहीं रची जा रही है। पहला हमला चौथे स्तम्भ पर किया गया है। और जो देश को तोड़ने वाली ताकतों की शिनाख्त करता है उस मीडिया पर ही अपना निशाना साधा गया है ताकि वह बचाव मुद्रा में रहे और उसे भाषा व संस्कृति की चिन्ता करने वाले प्रबुद्ध वर्ग का भी समर्थन प्राप्त हो सके। प्रबुद्ध वर्ग को यह समझाना बहुत आसान है कि अखबार भाषाई विकृति फैला रहे हैं। लेकिन आरोप लगाने वालों को इरादे कितने संगीन हैं इस पर भी बौद्धिक लोगों को गौर करना पड़ेगा वरना वह दिन दूर नहीं जब क्रियोलीकरण का खतरा दिखाकर देश को परस्पर वैमनस्य की आग में झोंक दिया जायेगा।

इस प्रकार क्रियोल भाषा का संकट वहां का संकट है जहां प्रवासी लोग रहते हैं। वह भी वे प्रवासी जो अपनी जड़ों से किसी हद तक कट चुके हों। और दो या विभिन्न भाषा से जुड़े लोगों का लगातार सम्पर्क बनता है।
इस ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को हम मुगलकालीन परिस्थियों में देखते हैं तो पाते हैं कि फारसी और खड़ी बोली हिन्दी के क्रियोल से हमारे यहां दो नयी भाषाओं ने जन्म लिया। फारसी व्याकरण व शब्दों व खड़ी बोली से उर्दू बनी और खड़ी बोली और संस्कृत व्याकरण से हिन्दी। कहना न होगा कि आज की जो हिन्दी है वह किसी हद तक क्रियोल ही है। जिसमें भोजपुरी, मगही, ब्रज भाषा, राजस्थानी, हरियाणवी आदि के शब्द मिले हुए हैं और मराठी, गुजराती, पंजाबी आदि के भी कई शब्द हैं।
यहां देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में जाने वाले हिन्दी भाषी लोग वहां की भाषा के शब्दों को भी हिन्दी में समाहित कर लेते हैं। और हिन्दी के शब्द वहां की भाषा को दे देते हैं। यहां कई बंगला के शब्दों को हम धड़ल्ले से हिन्दी में भी प्रयोग कर लेते हैं। साहित्य की दुनिया में भले ऐसे प्रयोग कम हों लेकिन बोलचाल वाले इससे कतई परहेज नहीं करते। बंगला वाले भी हमारी भोजपुरी के शब्दों के अपनाते हैं। हमारा देश मिली जुली संस्कृतियों और कई भाषाओं का देश है। और यहां की भाषा पर दूसरी भाषाएं भी स्वाभाविक तौर पर प्रभाव डाल सकती हैं तो इसे हम अपनी खूबी मानते हैं।
ध्यान रहे कि क्रियोल के बहाने भाषा के नाम पर फसाद की तैयारी चल रही है। क्या हम भाषा के नाम पर सिरे से फसाद को तैयार हैं। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि आज हम यह कहकर विरोध शुरू करें कि अंग्रेजी के शब्द हिन्दी को भ्रष्ट कर रहे हैं और कल कहें कि हमारी हिन्दी को बंगला भ्रष्ट कर रही है और बंगला कहे कि हमारे शब्दों को हिन्दी डस रही है। यदि हम अंग्रेजी के प्रयोग को उसका साम्राज्यवादी ढर्रा कहेंगे तो कल को हिन्दी पर भी हमारे देश की दूसरी भाषाएं ऐसा आरोप लगा सकती हैं। भाषाओं पर बांध बनाकर ऊर्जा पैदा नहीं की जा सकती। भाषा प्रवाह का नाम है। प्रयोग ही भाषा को जीवंतता प्रदान करता है। भाषा अपने पाठक खोकर अपना शुद्ध रूप भले बचा ले लेकिन जो भाषा को अपनी अस्मिता का प्रश्न नहीं मानते बल्कि स्वयं की अभिव्यक्ति का साधन मानते हैं वे आवश्यकता के अनुसार भाषा को बदलेंगे तो उन्हें कोई नहीं रोक सकता। क्या हम चाहकर भी आज पत्र लेखन को बचा पाये। नहीं। टेलीफोन के प्रचार प्रसार ने उसे खतरे में डाल दिया है। ईमेल और एसएमएस ने इसमें योगदान किया। हम खतों को बचाने के लिए लोगों के हाथ से टेलिफोन, ईमेल, एसएमएस पर प्रतिबंध नहीं लगा सकते। जो इनसे बचेंगे वे स्वयं दरकिनार कर दिये जायेंगे।
पाण्डुलिपियां खतरे में हैं। आज लेखक सीधे कम्प्यूटर पर लिख रहे हैं। वह सुविधाजनक हो गया है। अब हाथ से लिखने में दिक्कत हो रही है। हस्ताक्षर के अलावा लिखित प्रयोग कम ही बचे हैं। हस्तलिपियां खतरे में हैं। शिलालेखों और ताम्रपत्रों पर लेखन जैसे खत्म हो गया संभव हैं आज लिखने का ढर्रा भी लुप्त हो जाये। अभिव्यक्ति के तरीके बदलेंगे। भाषा बदलेगी। अंदाज बदलेगा। तालमेल बिठाना होगा। क्रियोल की समस्या प्रवासी समुदायों की समस्या है। हमारे देश में यदि विभिन्न भाषाओं के लोग आयेंगे हमारा सम्पर्क होता तो भाषा का क्रियोलीकरण संभव है। हम दूसरे देश में जायेंगे तो यही होगा। यह मुल्क प्रवासी नहीं होने जा रहा। हमारी जड़ें गहरी हैं। दूसरे देश की समस्या को अपने यहां लागू करने का कोई अर्थ नहीं है।
मिश्रित भाषा में कुछ सफे अखबार दे रहे हैं कुछ पत्रिकाएं भी संभव है आयें। लेकिन वे गहरे सरोकारों वाली पत्रिकाएं नहीं हैं। वे लाइफ स्टाइल से जुड़ी होती हैं या उन बच्चों युवाओं को सम्बोधित होती हैं तो अंग्रेजी पढ़े लिखे हैं। कोई अखबार हर तरह के पाठक को बांधे रखना चाहता है या जुड़ना चाहता है तो इसके लिए इस तरह के प्रयोग हो रहे हैं। यह प्रयोग बहुत सफल नहीं होंगे क्योंकि क्रियोल भाषा के लिए दोनों भाषाओं की जानकारी आवश्यक है। लेकिन प्रयोग का होना गलत नहीं है। कोई अखबार लतीफे भी छापता है तो वह पूरा अखबार लतीफा नहीं बनाना चाहता। विविधता अखबार में होती है होनी भी चाहिए।
यह शिगूफा हिन्दी में कहां से आया
यह इंदौरियन्स की करतूत है। 14 सितम्बर 2010 को हिन्दी दिवस के अवसर पर सबसे पहले विरोध का श्रीगणेश किया इन्दौर के बुद्धिजीवियों ने। समाजवादी चिंतक अनिल त्रिवेदी, कथाकार चित्रकार प्रभु जोशी एंड कम्पनी ने यह हव्वा खड़ा किया है। उसका कोई मतलब नहीं है। अखबार की कापियां जलाने से बदलाव नहीं आने जा रहा है।
चीन की मंदारिन भाषा के बाद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अधिक बोली जाने वाली हिन्दी भाषा को खत्म करने की कोशिशें कोई कर ले। इससे कुछ होना नहीं है।
'क्रियोलीकरण' एक ऐसी युक्ति है, जिसके जरिये धीरे-धीरे खामोशी से भाषा का ऐसे खत्म किया जाता है कि उसके बोलने वाले को पता ही नहीं लगता है कि यह सामान्य और सहज प्रक्रिया नहीं, बल्कि सुनियोजित षडयंत्र है।
यह कहना गलत है कि उसके पीछे अंग्रेजी भाषा का साम्राज्यवादी एजेण्डा है। अंग्रेजी तो भारत में हिन्दी और भारतीय भाषाओं की जूतियां उठाने आ रही है। अंग्रेजी जानने वालों यहां धंधा करना है तो ग्राहक की भाषा में बात करनी होगी। अंग्रेजी बोलकर वे अपना माल नहीं बेच पायेंगे। ओबामा आये थे हमारे यहां अपने लोगों के लिए काम मांगने। वे अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। चीन और भारत के आगे पानी भरेगी अंग्रेजी रानी। हिन्दी में अग्रेजी शब्द आने से हमें चिन्ता नहीं है। हिन्दी सब हजम कर जायेगी। हिन्दी ने अंग्रेजी को अपनी शर्तों पर अपनाया है और अपनायेगी। वे हमारी हिन्दी का खराब करेंगे हम उनकी अंग्रेजी को लालू की स्टाइल में बोलउसकी ऐसा तैसी कर देंगे। हिन्दलिश से न डरे। अर्ध शिक्षित व नव धनाढ्यों की चाल लड़खड़ाती ही है। इनसे किसी को खतरा नहीं होता। ऐसे लोग आते जाते रहते हैं। ये दिखावटी लोग सब कुछ होने के फेर में कुछ नहीं होते और किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करते। बाजार के लिए ये लोग सबसे मुफीद होते हैं इन्हें बाजार दूहता है। बाजार से न डरें। बाजार से तरक्की होती है। जिसका बाजार नहीं रहता वह लुप्त हो जाता है चाहे वह कोई सम्पदा हो।
देश में 14 सितम्बर 2010 को हिन्दी दिवस के अवसर पर सबसे पहले विरोध का श्रीगणेश किया इन्दौर के बुद्धिजीवियों समाजवादी चिंतक अनिल त्रिवेदी और कवि तपन भट्टाचार्य, प्रभु जोशी, जीवन सिंह ठाकुर, प्रकाश कांत शामिल हुए। इनका कहना है-'भूमण्डलीकरण के सबसे बड़े हथियार 'अंग्रेजी के नवसाम्राज्यवाद' का स्वागत जितने अधिक उत्साह से हमारे प्रिण्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने किया, उसके पहले तमाम भारतीय भाषाओं, जिन्हें अंग्रेज नॉन-स्टेडर्ण्ड और वर्नाकुलर लैंग्विज कह के निरादृत करते थे-उनको नष्ट करने की खामोशी से की गई साजिश का नाम है - भाषा का 'क्रियोलीकरण' जिसके अंतर्गत हिन्दी में 'शामिल शब्दावलि' की आड़ में अंग्रेजी के शब्दों की धीरे-धीरे इतनी तादाद बढ़ाई जा रही थी कि वह हिन्दी न रह कर 'हिंग्लिश' होने लगी। 'क्रियोलीकरण' की प्रक्रिया का पहला चरण होता है, मूल भाषा के शब्दों का धीरे-धीरे अंग्रेजी के शब्दों से विस्थापन। हिन्दी के दैनंदिन शब्दों को बहुत तेजी से हटाकर उनके स्थान पर अंग्रेजी के शब्द लाये जा रहे हैं। मसलन, छात्र-छात्राओं की जगह स्टूडेण्ट्स/ माता-पिता की जगह पेरेण्ट्स/ अध्यापक की जगह टीचर्स/ विश्वविद्यालय की जगह यूनिवर्सिटी/ परीक्षा की जगह एक्झाम/ अवसर की जगह अपार्चुनिटी/ प्रवेश की जगह इण्ट्रेन्स/ संस्थान की जगह इंस्टीटयूशन/ चौराहे की जगह स्क्वायर रविवार-सोमवार की जगह सण्डे-मण्डे/ भारत की जगह इण्डिया। इसके साथ ही साथ पूरे के पूरे वाक्यांश भी हिन्दी की बजाय अंग्रेजी के छपना/ जैसे आऊट ऑफ रीच, बियाण्ड एप्रोच, मॉरली लोडेड कमिंग जनरेशन/ डिसीजन मेकिंग/ रिजल्ट ओरियण्टेड प्रोग्राम/हिन्दी को देवनागरी के बजाय रोमन में छापना शुरू कर दीजिये। बीसवीं शताब्दी में सारी अफ्रीकी भाषाओं को अंग्रेजी क सम्राज्यवादी आयोजना के तरह इसी तरह खत्म किया गया और अब बारी भारतीय भाषाओं की है। इसलिए, 'हिन्दी हिंग्लिश', 'बांग्ला', 'बांग्लिश', 'तमिल', 'तमिलिश' की जा रही है। हम यह प्रतिरोध हिन्दी के साथ ही साथ तमाम भारतीय भाषाओं के 'क्रिओलीकरण' के विरूध्द है, जिसमें, गुजराती-मराठी, कन्नड़, उडिय़ा, असममिया, सभी भाषाएँ शामिल हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के धूर्त दलालों के दिशा निर्देश में संसार की इस दूसरी बड़ी बोले जाने वाली भाषा से उसकी लिपि छीन कर, उसे रोमन लिपि थमाने की दिशा में हिन्दी के कई अखबार जुट गए हैं।'
क्या आप इंदौरियंस से सहमत हैं?

Thursday 18 November 2010

पत्रकारिता की रीढ़ होते हैं सवाल

(एक कालेज में पत्रकारिता की क्लास लेने का आफर मिला। पढ़ाने का कभी न तो सोचा था न अवसर मिला। झिझक थी कि कहीं ऐसा न हो मुद्दे से बहक जाऊं। सो एक खाका तैयार कर लिया। यह बात दीगर है डेढ़ घंटे आसानी से बीत गये यह नोट देखने की जरूरत नहींं पड़ी। वह नोट आपसे शेयर कर रहा हूं।)
सवाल पूछना दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है क्योंकि सही सवाल समस्या के निदान की पहली कड़ी है या कहें कि आधा जवाब है। आदमी की पहचान उसके सवालों से की जा सकती है। और किसी भी समाज के अध्ययन के लिए उस दौर के सवालों को देखा जाना चाहिए कि वह दौर किन सवालों से जूझ रहा था। सवाल ही उस दौर की समस्याओं को नहीं दर्शाता बल्कि यह भी बतलाता है कि लोग उससे जूझने के लिए किन विकल्पों पर विचार कर रहे थे। इसलिए किसी की बौद्धिकता को कुंद करना है तो सवाल की इजाजत न दें। कुछ दिन में प्रश्न उठना बंद हो जायेगा।
पत्रकारिता में सबसे अहम कड़ी होती है सवालों की। क्या, कब, क्यों, कहां, कैसे आदि पांच सवालों पर पत्रकारिता की बुनियाद टिकी हुई है और यह दृढ़ता से माना जाता है कि कोई समाचार यदि इन पांच सवालों से नहीं जूझता है तो उसमें कमी है। हिन्दी पत्रकारिता में इंट्रो में इन पांचों का होना लगभग अनिवार्य माना जाता है। ताकि शुरुआती दो तीन पंक्तियां पढ़कर ही पाठक को संक्षेप में घटना का पता चल जाये। जरूरी पांच प्रश्नों का मामला दरअसल हार्ड न्यूज से जुड़ा हुआ है फिर भी प्रश्नों की उपयोगिता दूसरे आलेखों में कम नहीं है। आज की पत्रकारिता में फीचर या आलेखों का महत्व दिनों दिन बढ़ता जा रहा है जिसमें सवाल प्रमुख भूमिका निभाते हैं। इसमें केवल उन्हीं पांच सवालों से काम नहीं चलता है। इसमें जिस पत्रकार, साक्षात्कारकर्ता या आलेख के लेखक के पास जितने अधिक सवाल होंगे वह उतना ही कामयाब होगा। क्योंकि वस्तुस्थिति और बहुआयामी संभावना से पाठकों को परिचित करना पत्रकारिता के प्रमुख उद्देश्यों में से एक है।
अधिक सवाल का आशय यहां इस बात से कतई नहीं है कि प्रश्न उलजुलूल हों। प्रश्न का उत्तर देने वाले से गहरा ताल्लुक होना अनिवार्य है या फिर आप जिस मुद्दे पर उसकी प्रतिक्रिया चाहते हैं वह उसे उजागर करने में अपनी भूमिका निभाये।
किसी का साक्षात्कार करने के पूर्व इंटरव्यू देने वाले के अध्ययन, पद, कार्य अनुभव आदि की जानकारी पहले ही प्राप्त कर लेना सहायक होता है ताकि असम्बंध प्रश्न पूछने के बाद झेंप का सामना न करना पड़े। किसी प्रसिद्ध व्यक्ति से वे सवाल नहीं पूछने चाहिए जो जगजाहिर हों। उनसे नयी योजनाओं के बारे में पूछा जा सकता है। उसने पिछले कार्यों से क्या सीखा यह जाना जा सकता है। बड़े बड़े लोगों की छोटी छोटी बातें भी लोग पढऩा पसंद करते हैं कि इसलिए उनसे मामूली बातें भी पूछी जा सकती हैं बशर्ते असम्बद्ध न हों। यहां यह गौरतलब है कि पहले से तैयार प्रश्नावली किसी हद तक ही इंटरव्यू लेने में सहायक होती है। मिले हुए जवाबों में भी सवाल निकलते हैं जो इस कला को महत्व देगा उसका इंटरव्यू और अच्छा होगा। किसी विशेषीकृत विषय पर प्रश्न पूछते समय इस विषय के प्रचलित शब्दों के अर्थ मालूम होना चाहिए। हर क्षेत्र विशेष में कुछ खास शब्द प्रचलित होते हैं जिनका सामान्य अर्थ निकलने पर गलती हो जाती है। उनके पारिभाषिक अर्थ होते हैं। विषय की गहरी जानकारी न होने पर उन शब्दों से बचना चाहिए। या फिर जानते हैं तो वह बातचीत में अधिक सहायक होते हैं।
विषय पर गहरे प्रश्न ही पूछे जायें ऐसा नहीं है। जिस मीडिया से लिए साक्षात्कार लिया जा रहा है उसकी आवश्यकता को समझते हुए कुछ रोचक सवाल भी पूछे जाने चाहिए ताकि इंटरव्यू पढऩे वाले को वह सरस लगे। किसी के कहे शब्दों को तोड़ मरोड़ कर पेश नहीं करना चाहिए वरना सभी पक्षों के लिए मुश्किल खड़ी हो सकती है। यह जरूर है कि आप चाहें तो इंटरव्यू देने वाले को बातों में उलझाकर वह बातें उसी के मुंह से कहलवा लें जिस कहने से वह बचना चाहता है। आपके इंटरव्यू को चॢचत कर दे। ऐसे प्रश्नों के मामूली ढंग से पूछें ताकि उत्तर देने वाला चौकस न हो जाये। इंटरव्यू लेने के पूर्व थोड़ी देर इधर उधर की हल्की फुल्की बातें करें जिससे आपके साथ उत्तर देने वाले का तालमेल बन जाये। यह तालमेल भरा रिश्ता इंटरव्यू के समय काम आयेगा।

Friday 8 October 2010

दिल को छूती उदासी

sanmarg 10/10/2010


चांदनी रात का घाट/लेखिका-अनुपमा बसुमतारी/असमिया से हिन्दी अनुवाद-दिनकर कुमार/प्रकाशक-बुक फैक्ट्री, पूर्वांचल प्रिंट्स, उलुबाड़ी, गुवाहाटी/मूल्य-100 रुपये।
समकालीन असमिया कविता को जो लोग नया रूपाकार देने में जुटे हैं उनमें एक महत्वपूर्ण नाम अनुपमा बसुमतारी का भी है। असम की आंचलिक विशिष्टताओं को, उसके वैभव और सौन्दर्य के साथ अपनी कविताओं में उन्होंने व्यक्त किया है। इनमें कवयित्री के निजी संदर्भ भी शामिल हैं जिसके कारण इस संग्रह की कविताएं एक ऐसे अनुभव जगत का साबका पाठकों से कराती हैं जो सम्मोहक भी और विश्वसनीय भी। कैंसर से पीडित बहन, पिता, दादी, तेजी ग्रोवर इन कविताओं में निजी संदर्भों और बिम्बों के साथ उपस्थित हैं और एक अनाम व्यक्ति जिसकी चाहत इन कविताओं में बार- बार झांकती है और जिसके बिछोह के कारण एक अकेलापन भी इन कविताओं में है, जो पाठक को उदास करता रहता है। एक कविता में उसकी बानगी देखें-'मैं अब सागर से अधिक मरुभूमि को चाहती हूं/ चांदनी से अधिक चाहती हूं धूप में दमक रहे बालू के स्तूप को/रोशनी से अधिक अंधेरा और आनंद से अधिक विषाद।' इन कविताओं में समुद्र और नदी की लगातार उपस्थिति है और उदासी और कविता की गहराई को और गहरा करते हैं। यह कविताएं पाठक के मन में अपनी एक खास जगह बनाने में कामयाब हैं।
नारी अस्मिता से जुड़े सवालों के कारण यह कविताओं को वैचारिक स्तर भी हमें प्रभावित उद्वेलित करती हैं।
अनुपमा की छह कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं तथा दो दशकों के अपने लेखकीय जीवन में तमाम पत्र पत्रिकाओं में भी उनकी रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं। यह पुस्तक उनकी प्रतिनिधि रचनाओं का एक ऐसा संकलन है जिसमें उनकी काव्य प्रतिभा की समग्रता का एहसास कराता है। कवयित्री के लिए कविता अमृत स्वर है।
इन कविताओं का अनुवाद दिनकर कुमार ने किया है, जो स्वयं एक समर्थ रचनाकार हैं साथ ही साथ असमिया से हिन्दी के एक विख्यात अनुवादक भी हैं। उन्होंने लगभग चालीस पुस्तकों का अनुवाद किया है। इस संग्रह के अनुवाद में उन्होंने इस बात का विशेष ध्यान रखा है कि कविताएं अर्थ को तो व्यक्त करें पर असम की मिट्टी की खुशबू भी उसमें बची रहे। साथ ही वह कहने का अन्दाज भी जो किसी कवि को दूसरे अलग और विशिष्ट बनाता है।

Thursday 23 September 2010

युवाओं को दायित्वबोध के प्रति जाग्रत करती कविता



तुम जो सचमुच भारत भाग्य विधाता हो/लेखक-विजय बहादुर सिंह/प्रकाशक-सदीनामा प्रकाशन, एच-5, गवर्नमेंट क्वार्टर्स, बजबज, कोलकाता-700137/मूल्य-70 रुपये

प्रख्यात आलोचक-कवि विजय बहादुर सिंह की लम्बी कविता पुस्तक 'तुम जो सचमुच भारत भाग्य विधाता हो' हिन्दी कविता की एक विलक्षण कविता है जिसमें अपने देश की तल्ख स्थितियों की बेबाक अभिव्यक्त है। इस कविता में जहां व्यंग्य और कटाक्ष हैं वहीं आह्वान भी स्थितियों को बदलने का। अपनी अभिव्यक्त शैली और कहन के अन्दाज के कारण यह कविता जहां धूमिल की कविताओं के करीब है वहीं चिन्ताओं के कारण वह मुक्तिबोध की 'अंधेरे मेंÓ की काव्य विरासत को आगे बढ़ाती है। रमेश कुंतल मेघ इसे राजकमल चौधरी की मुक्तिप्रसंग, राजीव सक्सेना की आत्मनिर्वासन के विरुद्ध तथा धूमिल की पटकथा कविता के क्रम की एक कड़ी के रूप में देखते हैं।
इस कविता में जहां अपनी विरासत से जुड़े राम, कृष्ण हैं वहीं विरासत को बचाने की चिन्ता में जीने- मरने वाले गांधी जी, मंगल पाण्डे, बिस्मिल, भगत सिंह जैसे लोगों के अवदान को याद करते हुए उनसे हालत में बदलने की शक्ति अॢजत करने का आह्वान है। युवाओं के प्रति जो आस्था इस कविता में व्यक्त की गयी है वह आकृष्ट करती है। यह कविता उन्हें झकझोरती है और उनके दायित्व का उन्हें बोध कराती है-'किसी पल चाहकर देखना/ पाओगे कि कोई न कोई चिनगारी/तुम्हारी अपनी ही राख में दबी पड़ी है/तुम्हारी चेतना की लाश/ तुम्हारे अपने ही बेसुध अस्तित्व के पास कहीं गड़ी है।'
आधुनिक भारत की निर्माण का स्वप्न भी इसमें है और इस स्वप्न को पूरा करने में बाधक बनी शक्तियों पर हमला भी। मौजूदा राष्ट्रीय चरित्र के पतन का दंश इसमें बार बार उभर कर आया है।
यह कविता 'वागर्थÓ के जनवरी 2010 के अंक में सम्पादकीय के तौर पर प्रकाशित हुई थी। जिस पर देश भर में व्यापक प्रतिक्रिया हुई और कई नामचीन लेखकों ने लिखित प्रतिक्रियाएं भी दीं। उनमें से इस पुस्तक में कमल किशोर गोयनका, रमेश कुंतल मेघ, गिरिराज किशोर, शशिप्रकाश चौधरी, महावीर अग्रवाल की प्रतिक्रियाएं भी प्रकाशित हैं, जिसके आलोक में इन कविताओं का पढऩा इसके अर्थ और व्याप्ति को नया संदर्भ देता है। कमल किशोर गोयनका ने तो इस कविता को आत्मा से निकला हुआ शंखनाद बताया है। इस कविता से प्रभावित होकर चांस पत्रिका के सम्पादक सुरेन्द्र कुमार सिंह ने एक और कविता लिखी है, वह भी इसमें संकलित है।
यह अनायास नहीं है कि कई भारतीय भाषाओं में इस कविता का अनुवाद हुआ है जिसमें से बंगला, मराठी, उडिय़ा, डोगरी, पंजाबी, नेपाली और उर्दू में अनुवाद इस संग्रह में प्रकाशित किया गया है। इस प्रकार एक ही रचना का विविध भाषाओं में अनुवाद की पुस्तक का प्रकाशित होना भाषाई आदान प्रदान के लिहाज से अनुकरणीय और सराहनीय है। जिसके लिए इसके संकलनकर्ता जितेन्द्र जितांशु बधाई के पात्र हैं।

Monday 13 September 2010

हिन्दी दिवस पर कुछ यक्ष प्रश्न

प्रकाशितः देशबंधु, दैनिक 11, Sep, 2011, Sunday













Sanmarg-19/9/2010

हिन्दी के बारे में यह मातम मनाने की आवश्यकता बिल्कुल नहीं है कि उसकी गरिमा को उन शब्दों से ठेस पहुंच रही है जो मूलतः हिन्दी के हैं ही नहीं। वे अंग्रेज़ी, मराठी, बंगला, पंजाबी या दूसरी भारतीय या विदेशी भाषाओं से आयातित हैं। दूसरी भाषाओं के मेल-जोल से जो भाषा बन रही है वह भ्रष्ट है और उससे हिन्दी के मूल स्वरूप को क्षति पहुंचेगी। इधर जोर शोर से कहा जा रहा है कि अब तो भाषा प्रयोग में आ रही है वह हिंग्लिश है हिन्दी या इंग्लिश नहीं। इस स्थिति से दुखी होने की बजाय हमें यह समझना चाहिए कि जिस किसी भाषा में बदलाव दिखायी दे वही जीवन्त भाषा है। भाषा में परिवर्तन का विरोध उसकी जीवंतता का विरोध है। जो भाषा जितनी परिवर्तनशील है समझें कि वह उतनी ही जीवन्त है। यह प्रवाह ही है जो वास्तविक ऊर्जा का स्रोत होता है।
हिन्दी को अगर ख़तरा है तो हिन्दी को बचाने की सुपारी लेने वालों से। वे जो उसके व्याकरण को लेकर चिन्तित हैं वे उसे जड़ बनाने पर तुले हुए हैं। हिन्दी की पूजा करने वाले, हिन्दी को भजने वाले चाहते हैं कि हिन्दी पर चढ़ावा चढ़ता रहे और वे उसकी आरती के थाल के चढ़ावे पर खाते कमाते रहें। भाषा में कोई नयी प्रयोग हुआ नहीं कि हायतौबा मचाते हैं। दीवार पर लगे पोस्टरों, नेमप्लेट, विजिटिंग कार्ड, अखबार की खबरों, विज्ञापनों हर कहीं हिन्दी को शुद्ध रूप में देखना चाहते हैं और रोते-बिसुरते रहते कि हिन्दी तो गयी। जबकि अशुद्ध बोलना, लिखना और उसका व्यापक इस्तेमाल यह बताता है कि हिन्दी का प्रयोग वे लोग कर रहे हैं जिनका हिन्दी पर न तो व्यापक अधिकार न अध्ययन न ही वह उनकी भाषा है। इस तरह के प्रयोग आम लोगों के प्रयोग है और उन्हें यह करने देना चाहिए। हिन्दी का हव्वा खड़ा करके हिन्दी को लोकप्रिय नहीं बनाया जा सकता। हिन्दी को हिन्दी अधिकारियों और हिन्दी के शिक्षकों ने जितना लोकप्रिय नहीं किया है उससे अधिक लोकप्रिय फिल्मों और उसके गीतों ने किया है। आम प्रचलन ही हिन्दी को विकसित करेगा। लोगों को हिन्दी गलत बोलने दें गलत लिखने दें। आते आते भाषा उन्हें आ ही जायेगी और शुद्ध नहीं भी आयी तो कोई बात नहीं। भाषा का विस्तार तो हुआ। यह बहुत है।
हिन्दी को बढ़ावा दिया है जो व्यापार करते हैं। उन्हें हिन्दीभाषी प्रदेशों में अपना माल बेचना है तो उत्पाद की प्रशंसा, उत्पाद की जानकारी हिन्दी में देनी है। वे हिन्दी अख़बारों में विज्ञापन देते हैं जिससे हिन्दी के अखबार फल-फूल रहे हैं। हिन्दी के टीवी कार्यक्रमों में विज्ञापन देते हैं तो मनोरंजन उद्योग बढ़ रहा है। ये अखबार, ये टीवी चैनल सिर्फ़ विज्ञापन परोस कर ज़िन्दा नहीं रह सकते। उन्हें जनत के दुखदर्द से जुड़ना पड़ता है। इसके बिना जनता उन्हें नहीं अपनायेगी फिर विज्ञापन भी उन तक नहीं पहुंचेगे। इसलिए अखबारों व टीवी की यह मज़बूरी है कि वे यदि विज्ञापन को जनता तक पहुंचाना चाहते हैं तो जनता की आवाज़ बनें, उनकी पसंद का खयाल रखें, उन्हें वह दें जो वह चाहती है। उन्हं यदि मुनाफा कमाना है तो जनदर्दी बनना ही होगा। मज़बूरी में जनदर्दी नेता ही नहीं बनते धंधेबाज भी बनते हैं। मतलब यह कि उपयोगिता किसी भाषा के विकास की तर को तीव्र करती है और प्रगति के लिए रदस पहुंचाती है। हिन्दी का उपयोग आप बढ़ा दें तो उसका महत्व अपने आप बढ़ जायेगा। हिन्दी में रोज़गार बढ़ेगा, व्यापार बढ़ेगा तो रुतबा अपने आप बढ़ेगा। आप बस हिन्दी पर भरोसा की किजिए, हिन्दी का सम्मान कीजिए वह आपको सम्मान दिलायेगी। हिन्दी को अपनाकर हिन्दी की सामूहिक शक्ति को बढ़ायें। यह सामूहिक शक्ति ही बड़ी बात है। इसलिए हम विभिन्न भाषाओं वाले देश में अपनी-अपनी भाषा बोलते रहें पर सामूहिक शक्ति का परिचायक हिन्दी को बनायें और उसे भी मज़बूती दें। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक अरब से अधिक लोगों की जुबान हिन्दी बने, उनकी अस्मिता और उनके सम्मान की प्रतीक बने तो देंखे हिन्दी का जादू। दुनिया के सिर चढ़कर बोलेगा।
-अंग्रेजी के जो शब्द आम जनता के प्रचलन में आ गये हैं उनके लिए हिन्दी के नये शब्दों को गढ़ने का काम बंद होना चाहिए। बल्कि उन्हें हिन्दी में प्रयोग के लिए बढ़ावा देना चाहिए। लोगों की हिचक दूर करना चाहिए कि वे अंग्रेजी के शब्द का हिन्दी में प्रयोग धड़ल्ले से करें। इतना करें कि वह ऐसा रचबस जाये कि वह हिन्दी का ही लगने लगे। हिन्दी का विकास चाहते हैं तो नये शब्द गढ़ने बंद कीजिए और दूसरी भाषा के शब्दों को हिन्दी के स्वभाव के अनुरूप अपना लीजिए। समस्या खत्म हो जायेगी। हिन्दी को मेल मिलाप की भाषा बनने से एकदम गुरेज नहीं है।
हिन्दी को खतरा उन लोगों से भी है जो चाहते हैं कि हिन्दी की बोलियों का विकास रुक जाये। वे यदि भाषा का दर्जा पाने की कोशिश करती हैं तो उन्हें लगने लगता है कि हिन्दी का क्या होगा? हिन्दी कैसे रहेगी। यदि उसकी बोलियां स्वतंत्र भाषा हो गयीं तो फिर हिन्दी का क्या रह जायेगा। उन्हें लगता है कि भोजपुरी, राजस्थानी, अवधी, ब्राजभाषा, मगही यदि भाषा बन गयी तो हिन्दी कमज़ोर हो जायेगी। वे यह भी मानते हैं कि मैथिली जैसी भाषा की स्वतंत्र पहचान मिलने से हिन्दी कमज़ोर हुई है। तात्पर्य यह कि उनका मानना है कि हिन्दी का वर्चस्व इसलिए है कि हिन्दी इसलिए प्रमुख भाषा बनी हुई है क्योंकि कई बोलियों को स्वतंत्र भाषा का दर्जा नहीं मिला है। यदि उन्हें भी भाषा का दर्जा मिल गया तो कोई हिन्दी का नामलेवा नहीं रह जायेगा। इसी आधार पर कुछ मासूम लोग यह दावा तक कर बैठते हैं कि हिन्दी अगले बीस सालों में मर जायेगी क्योंकि हिन्दी की तमाम बोलियां भाषा बन जायेंगी। मैं उन लोगों से विनम्रता पूर्वक कहना चाहता हूं कि हिन्दी की बोलियां भी यदि भाषा बन गयीं तो हिन्दी और मज़बूत होकर उभरेगी। उसका कारण यह है कि हिन्दी की बोली समझी जाने वाली भाषाओं के समर्थन के कारण दक्षिण भारत की भाषाएं या बालियां हिन्दी को अपने से दूर समझती थीं। हिन्दी की बोलियों को स्वतंत्र भाषा बन जाने के बाद दक्षिण की भाषाओं से हिन्दी का विभेदीपूर्ण रवैया खत्म हो जायेगा और वे भी हिन्दी को तटस्थ तौर पर स्वीकार करने लगेंगी। आखिर हमें एकसूत्रता में बांधने के लिए कोई भाषा तो चाहिए ही। और चूंकि भारतीय भाषाओं में हिन्दी को जानने समझने वाले सबसे ज्यादा है स्वाभाविक तौर पर वही सबकी पहली पसंद और प्राथमिकता है। कहना न होगा कि हिन्दी ही भारत में वह भाषा है जिसमें सबसे अधिक प्रांतों की स्मृतियां जुड़ी हैं और सबसे अधिक भारतीय भाषाओं के शब्द उसमें शामिल हैं। हिन्दी हमारी सर्वाधिक साझी स्मृति की भाषा है इसलिए साझी विरासत भी। बोलियों से स्वतंत्र भाषा होने से यह साझी विरासत और मज़बूत होगी। आज की हिन्दी अगर खड़ी बोली का विकास है तो इस अर्थ में वह किसी की भाषा नहीं है और इसलिए वह सबकी भाषा है। उसमें देश की तमाम बोलियों का नवनीत है। दूसरे जो हिन्दी भाषी नहीं हैं वे हिन्दी को क्यों नहीं अपनायेंगे, आख़िर अंग्रेज़ी जिनकी भाषा नहीं है क्या वे उसे पढ़ते-लिखते समझते नहीं हैं और क्या अंग्रेज़ी की जो मज़बूत स्थिति है उसमें गैर अंग्रेजीभाषी लोगों को योगदान नहीं है।
बोलियों के विकास से हिन्दी का महत्व और समझ में आयेगा। यह नहीं भूलना होगा कि रवीन्द्रनाथ टैगोर से लेकर महात्मा गांधी तक जिन लोगों ने हिन्दी को भारत की भाषा बनाने की हिमायत की थी वे हिन्दी भाषा नहीं थे। उनका मानना तो बस इतना था कि जिसमें देश के बहुसंख्य लोगों की बात हो उसे ही इस देश की राष्ट्रभाषा की गरिमा प्रदान की जाये। यही लोकतंत्र का तकाजा है। वह सामर्थ्य उन्होंने हिन्दी में देखी थी। उसी में एकसूत्रता की शक्ति पायी थी।
(यह आलेख लेखक के केन्द्रीय संदर्भ पुस्तकालय, कोलकाता की ओर से 14 सितम्बर 2010 को हिन्दी पखवाड़ा के अन्तर्गत आयोजित कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर दिये गये वक्तव्य का हिस्सा है। इस कार्यक्रम में विशेष अतिथि राष्ट्रीय पुस्तकालय, कोलकाता के निदेशक स्वपन चक्रवर्ती एवं अध्यक्ष केन्द्रीय संदर्भ पुस्तकालय के पुस्तकाध्यक्ष डॉ.केके कोच्चुकोशी थे। कार्यक्रम का संचालन पुस्तकालय की उप सम्पादक अंचना श्रीवास्तव ने किया।)

Tuesday 7 September 2010

तुम्हारी सम्पदा कोई छीन ले इससे अच्छा है परोपकार करो और बांट दो

अर्थ व्यवस्था के नियमों के बाहर होते हैं परोपकार के कामकाज। लेकिन इससे आॢथक असमानता को पाटने में अवश्य कुछ मदद मिल सकती है। बशर्ते परोपकार किसी अंधविश्वास के तहत न किया जा रहा हो। हमारे यहां मंदिरों में अकूत खजाने पड़े हुए हैं और उसका उपभोग निठल्ले करते हैं। इन मंदिरों में चढऩे वाले चढ़ावे अंधविश्वास से प्रेरित होते हैं जो अभिलाषाओं की पूॢत की चाह में पूरी होने पर ऋण के तौर पर चढ़ाये जाते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपनी सम्पन्नता और खुशहाली के लिए ईश्वरीय शक्तियों के प्रति आभारी होते हैं और आभार स्वरूप वे दान करते हैं। चाहे वह नगदी हो, आभूषण हो या जमीन। कुछ दान कर्मकांडों की वजह से भयस्वरूप भी लोग करते रहते हैं किन्तु इसके पीछे परोपकार की भावना नहींं होती है और ना ही दान देने वाला यह सोचता है कि हमारी दी गयी दौलत का उपयोग सही तरीके से हो रहा है नहीं। पंडे पुजारी महंतों की चांदी कटती कटती है। मंदिरों में आने वाले चढ़ावों और संचित सम्पदा का परोपकार के कारर्यों मेंं खर्च करने की व्यवस्था की जाये तो इस देश के हजारों लोगों को आसानी से भुखमरी से बचाया जा सकता है।
आॢथक असमानता दूर करने में माक्र्सवाद की थ्योरी है वह किसी हद तक ही कारगर है क्योंकि वह वर्ग संघर्ष पर आधारित है। वह छीनने के नकारात्मक भाव पर टिकी है और उसमें हिंसा मूल अस्त्र है। उसकी विसंगतियां भी सामने आती हैं क्योंकि समानता एक यूटोपिया है। इन विसंगतियों को जार्ज आरवेल ने अपनी किताब एनीमल फार्म में उजागर किया है। परोपकार के सम्बंध में सभी धर्मों की धारणाएं किसी हद तक सकारात्मक हैं जिनमें फेरबदल कर आज की नैतिकताओं से जोड़े जाने की आवश्यकता है।
आॢथक असमानता को मिटाने के लिए जहां माक्र्सवाद पर जोर दिया जाता रहा है वहीं पूंजीवाद ने परोकार के अस्त्र से उस खायी को पाटने की कोशिशें शुरू की हैं। इससे हिंसा वह रूप नहीं दिखायी देगा जो माक्र्सवाद के चलते दिखायी देता है। आॢथक दूरी को पाटने के लिए पूंजीवादी रवैये का विकास वक्त की मांग है। जिसमें बिल गेट्स और वारेन बफे लगे हुए हैं। इसका अनुसरण कर ही माक्र्सवादी रवैये के विकास को रोका जा सकता है। औद्योगिक जगत में बिजनेस एथिक्स का विकास इन्हीं उद्देश्यों से किया जा रहा है। अब वह दिन दूर नहीं जब हर चौथा पूंजीपति परोपकार की बातें करता नजर आयेगा और जमकर माल कमाने वाले समाज सुधार से जुड़े तमाम कार्यक्रमों के सर्वेसर्वा नजर आयेंगे। वह जिनके पास दुनिया की तमाम पूंजी एकत्रित हो रही है गरीबों को भुखमरी से जूझ रहे लोगों के लिए कार्यक्रम भी उन्हीं द्वारा संचालित होंगे। यदि ऐसा नहीं हुआ तो बगावत होगी और निशाना वे ही बनेंगे। बेहतर रास्ता है परोपकार का। इसमें भूखों ने छीन लिया से बेहतर है हमने भूखों में बांट दिया। चीन के पूंजीपतियों को अमरीका से यह सबक सीखने से नहीं हिचकना चाहिए। चीन के अरबपति परोपकारी कार्यों के लिए अपनी धन संपदा दान देने के इच्छुक नहीं हैं। दुनिया के दो प्रमुख अरबपतियों बिल गेट्स और वारेन बफे ने इन दिनों दुनिया भर के अमीरों से अपनी संपत्ति का एक हिस्सा परोपकारी कार्यों के लिए दान करने को कह रहे हैं। इसी अभियान के तहत गेट्स और बफे ने चीन के 50 सबसे बड़े अमीरों को 29 सितंबर को बीजिंग में एक रात्रि भोज में शामिल होने का आमंत्रण दिया है। पर ज्यादातर चीनी अरबपतियों ने गेट्स और बफे के साथ इस आयोजन में शामिल होने के आमंत्रण को ठुकरा दिया है। उन्हें आशंका है कि इस मौके पर उनसे अपनी संपत्ति दान करने की प्रतिबद्धता ली जा सकती है। अमरीका में अरबपतियों की संख्या 117 है, वहीं चीन में यह 64 है। गेट्स और बफे की यह जोड़ी अब तक दुनिया के 40 अरबपतियों को अपनी आधी संपत्ति दान करने के लिए भरोसे में ले चुकी है। इस संपत्ति का मूल्य 125 अरब डालर बैठता है।
अपने देश की सर्वोच्च न्यायालय कहती है यदि अनाज को गोदामों में नहीं रख सकते तो गरीबों में बांट दो। ठीक कहा गया है। इससे सरकार का मानवीय चेहरा भी बचा रहेगा। स्ट्रेस मैनेजमेंट के ये आधुनिक गुर हैं इन्हें सीखना ही होगा। यदि किसानों के लिए हुए कर्ज की वसूली में अधिक पैसा खर्च होता है तो उससे अच्छा है उनके कर्ज माफ कर दो। यह मौजूदा सम्प्रग सरकार कर चुकी है। उसे ऐसा करना भी चाहिए।

Thursday 12 August 2010

सरस रचनात्मक ताजगी की डगर

Sanmarg-22 August 2010


दिमाग़ में घोंसले/उपन्यास/लेखक-विजय शर्मा/ प्रकाशक-अंतिका प्रकाशन, सी-56/यूजीएफ-4, शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन-2, गाजियाबाद-201005/मूल्य-200 रुपये
अपने पहले ही उपन्यास 'दिमाग में घोंसलेÓ के साथ कथाकार विजय शर्मा यह उम्मीद जगाते हैं कि वे इस दिशा में काफी कुछ करने की सामथ्र्य रखते हैं। उनकी किस्सागोई का अन्दाज अलग है और भाषा चुस्त-दुरुस्त। परिदृश्य के डिटेल्स पर वे बहुत ज्यादा ध्यान देते हैं जो पाठकों को बहुत कुछ नया, अचीन्हा और कई बार कुछ नये अंदाज में जाना पहचाना उपलब्ध कराता है लेकिन इसी कारण कारण उपन्यास में कई बार मुख्य-कथन गौण हो जाता है और पाठक यह भूल जाता है कि वह विभिन्न विषयों पर ललित निबंध पढ़ रहा है या उपन्यास। उपन्यासकार को कथा-सूत्रों के निर्वाह पर भी ध्यान देना चाहिए जिसके बिना रचना की शर्त पूरी नहीं होती। पतंग चाहे जितनी उड़े नियंत्रण तभी रह सकता है जब डोर आपके हाथ में हो। कटने के बाद वह कहां गयी इसका श्रेय पतंग उड़ाने वाले को नहीं जायेगा। हालांकि परिदृश्य के विस्तार के बावजूद उपन्यास की पठनीयता में कोई कमी नहीं आती क्योंकि वे जिस विषय को भी उठाते हैं सरसता के साथ उठाते हैं। कई नये स्थलों की जानकारी तो मिलती ही है विभिन्न विचार सरणियों के अन्तर्विरोधों पर भी उनकी बेलाग टिप्पणियां हमें झकझोरती हैं और अपनी दृष्टि को मांजने में मदद करती हैं और उन्हें नयी धार देती हैं।
इस उपन्यास का नायक ब्रजराज है, जो 14 साल कैदी की जिन्दगी गुजारता है। सामाजिक बदलाव चाहने वाले लोगों के बौद्धिक जगत से जुड़े ब्रजराज को संगत के कारण ही बिना किसी जुर्म के जेल हो जाती है और उस पर कई दफाओं के तहत मामला चलता है, जिसमें खून का संगीन मामला भी था। राज्य के खिलाफ युद्ध किस्म के राजनैतिक मामले तो थे ही। उसे संभवत: उसी के साथी कामरेड सूरज ने गिरफ्तार करवाया था। वे दोनों भाकपा, माकपा के शीर्ष नेताओं के चहेते कार्यकर्ता थे। इस उपन्यास में 1971 के बाद के बंगाल का राजनैतिक सामाजिक इतिहास है और उस दौर की स्थितियों का बेलौस वर्णन, जिसमें नक्सलबाड़ी के उभार और सीपीआईएमएल की गतिविधियों के विस्तार और युवाओं की मानसिक स्थिति का विश्लेषण है, जो इसे कथ्य और तथ्य के लिहाज से महत्वपूर्ण बनाता है किन्तु उपन्यास का 'प्रेम डगरÓ खण्ड ही उनकी औपन्यासिक क्षमता के लिहाज से महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें तथ्य और कथ्य के अलावा कथा-तत्व के रेशे भी हैं जिनके बिना कोई कथानक कथानक नहीं बनता। पूर्वा, गज्जो और विदिशा के साथ नायक ब्रजराज के रोमांस व प्रेम प्रसंग का चित्रण अत्यंत प्रभावशाली है। हालांकि पूर्वा व गज्जो की ब्रजराज के जीवन में वापसी का इन्तजार पाठक को तो बना रहता है किन्तु उपन्यासकार उसे पता नहीं क्यों भूल जाता है। विजय के यहां यह तीनों स्त्री चरित्र गंध, परिदृश्य व स्वाद के साथ जुड़े हैं, जो पाठक की स्मृति में भी प्रवेश कर जाते हैं और उपन्यासकार विजय शर्मा की नायिकाओं के नाम गुम हो जाते हैं और यह सब उन्हें याद करने में सहायक होते हैं। पूर्वा के साथ काजागर का चन्द्रमा और अजवाइन जुड़ी है। पूर्वा के साथ ब्रजराज अपने सम्बंधों को यूफोरिया कह कर सम्बोधित करता है। उसी के अपने शब्दों में-'हम लगातार एक-दूसर के करीब जाने की कोशिश करते थे, लेकिन बीच का वो फिक्स्ड, अलंघ्य फासला कभी नहीं लांघा गया।' गज्जो से जुड़ी ब्रजराज की स्मृतियों में मठरी और नींबू के अचार की गंध बसी है तो विदिशा नींबू नमक का स्वाद।
उपन्यास के कथा विस्तार के लिहाज से सबसे कमजोर पकड़ के बावजूद एक महत्वपूर्ण खण्ड 'उत्तर कथन' है, जो संभवत: उपन्यास से इतर लेखक का एक आलेख है जिसे एकबारगी पाठक उपन्यास का हिस्सा मानकर पढ़ता जाता है और अन्त में अपने को ठगा हुआ सा पाता है। फिर भी यह खण्ड पठनीयता के लिहाज से आकर्षक है और यहीं विजय शर्मा का रचनात्मक कौशल भी उभर कर आता है कि वे बिना तारतम्य वाले अध्याय को भी उपन्यास में जोड़ दें तो उसे भी अन्त तक पढ़ा जा सकता है। इतना ही नहीं एक वर्चुअल शहर 'अबतकनहींआबादपुर, का उन्होंने इस खण्ड में वर्णन किया है जो काफी दिनों के लिए पाठक के दिलोदिमाग पर अपने स्थापत्य का प्रभाव छोड़ जाता है।

Friday 30 July 2010

राहुल महाजन के बहाने इमोशनल अत्याचार पर कुछ बातें


टीवी रियल्टी शो 'इमोशनल अत्याचार' की कलई आखिर खुल ही गयी। अब तक न्यूज मीडिया को पेड न्यूज मामले को सामाजिक कोपभाजन का शिकार बनना पड़ रहा है तो क्या रियल्टी टीवी शो विश्वसनीय हैं। हम जैसे लोगों की सीधी सादी बीवियां इमोशनल अत्याचार की करतूतों को हकीकत मान बैठती हैं और हमें रोज सुनना पड़ता है सारे मर्द ऐसे ही लुच्चे होते हैं। अब पत्नी को कौन समझाये के अंगदवा एक से बढ़कर एक सुन्दर लड़कियों को अपनी अंडरकवर एजेंट बनाकर मर्दों को रिझाने भेज देती हैं जो उनकी मर्दानगी और दिलफेंक तबीयत को खुल्लमखुल्ला चुनौती देती दिखायी देती हैं। वे बस अपनी ओर से आफर नहीं करतीं लेकिन मर्दों से आनन-फानन में दोस्ती गांठती और मिलती जुलती हैं ऐसे में शरीफ से शरीफ व्यक्ति ऊपरवाले की मेहरबानी समझ उनसे कैसे आंखें मूंदे रहे। वे बेचारे जाल में फंस जाते हैं और अंगद बेदी अपने प्रेमी की बेवफाई पर आंसू बहाती उनकी प्रेमिकाओं को सांत्वना दिलाने के लिए अपना कंधा हाजिर रखता है। तो लुच्चा कौन?
पिछले दिनों राहुल महाजन पर इसी इमोशनल अत्याचार टीम ने उनकी पत्नी व मॉडल डिम्पी गांगुली के कहने पर उनका लायल्टी टेस्ट किया। डिम्पी ने राहुल से इमेजिन टीवी के अत्यधिक लोकप्रिय शो 'राहुल दुल्हनियां ले जायेंगे' में शादी की थी।
राहुल को स्वीमिंग पूल में दो-तीन तीन हसीनाएं अंडरकवर एजेंट के तौर पर हसीनाएं उपलब्ध कराई गयीं और हैरत की बात यह थी कि राहुल शरीफ बने रहे। और डिम्पी ने पूरे गर्व से कहा कि राहुल महाजन सुधर गये हैं और उनकी लम्पट छवि मीडिया की गढ़ी हुई है। कलर्स चैनल के रीयलिटी शो 'बिग बॉस' में राहुल की शराफत पायल रोहतगी और मंदिर बेदी के साथ बार-बार उभर कर सामने आयी। अब डिम्पी को राहुल की जमकर धुनाई कर दी तो बात सामने आ रही है कि इमोशनल अत्याचार में राहुल की छवि गढ़ी गयी और संभवत: पेड थी।
22 वर्षीय मॉडल डिम्पी ने एक टीवी चैनल को बताया कि राहुल ने मेरे फोन पर आए एक संदेश का मतलब जानने के लिए मुझे जगाने के बाद गुरुवार की सुबह मेरी पिटाई की। जब मैंने उससे सोने को कहा तो वह गुस्से से आगबबूला हो गया और मुझ पर प्रहार करना शुरू कर दिया। उसने मुझे लात घूंसों से पीटा और मुझे बाल पकड़ कर खींचा।
यह दूसरी बार है जब मादक पदार्थ सेवन के अभियुक्त रह चुके राहुल पर घरेलू हिंसा का आरोप लगा है। उनके बचपन की मित्र उनकी पहली पत्नी श्वेता सिंह ने उन पर शारीरिक प्रताडऩा का आरोप लगाया था। दोनों के बीच 2008 में तलाक हो गया था।
यूं भी हम जैसे पति बेदियों से भयभीत रहे हैं। 'आपकी कचहरी' टीवी शो में किरण बेदी जिस कार्यक्रम को प्रस्तुत करती हैं उससे लोगों का भला कम होता और बुरा अधिक। पत्नियों को यह जानकारी मिलती-रहती है कि अरे यह जुल्म तो हम भी आये दिन होता रहता है, हम तो चुप रहते हैं। हमें अब चुप नहीं रहना चाहिए था।

Thursday 29 July 2010

जानी-पहचानी सी दुनिया में एक संवेदनात्मक ताजगी


पुस्तक-अनहद/लेखक-राजेश रेड्डी/प्रकाशक-डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि., 10-30, ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-2, नयी दिल्ली-110020/मूल्य-95 रुपये।

सुपरिचित गजलकार राजेश रेड्डी की चुनिंदा गजलों का संकलन 'अनहद' उनके प्रशंसकों के लिए कोई नयी रचना की सौगात भले न ले आया हो किन्तु उनकी चॢचत कृतियों उड़ान, आसमान से आगे और वुजूद से बेहतरीन रचनाओं का चयन है, जो उन पाठकों के लिए महत्वपूर्ण है, जो उन्हें संक्षेप में पढ़ाना समझना चाहते हों। इस कृति में उनकी गजलों के विविध शेड्स मिल जायेंगे, जो उन्हें संक्षेप में भी सम्पूर्णता में समझने में का आभास देते हैं।
इस कृति की रचनाओं से गुजरते हुए बराबर यह एहसास बना रहता है कि हम जिस शायर को पढ़ रहे हैं उसमें गजल की पूरी परम्परा का रचाव ही समाहित नहीं है बल्कि यह शायर परम्परा के विकास की सही लीक पर चलते हुए नये को भी उसी क्लासिक ऊंचाई पर ले जाने में समर्थ है, जो नये-पुराने के भेद को मिटा कर सदा नवीन और सदा प्रासंगिक बना रहता है। इस शायर में नये तजुरबे हैं, कहने का ढर्रे में भी नयापन है पर वह नया कहने के लिए नया नहीं कहता इसलिए एक जानी-पहचानी सी दुनिया में एक ताजगी का अहसास कराता है-'थी यही कोशिश मेरी पगड़ी न जाय/बस इसी कोशिश में मेरा सिर गया/बेच डाला हमने कल अपना जमीर/जिन्दगी का आखिरी जेवर गया।'
राजेश रेड्डी की गजलों में व्यवस्था को बदलने की कोशिश तो दिखायी देती है लेकिन संवेदना भी जिसके कारण वह खोखला बनने से बची हुई हैं और विश्वसनीयता को बनाये रखने में कामयाब हैं-'मंजिल मेरी अलग है मेरा रास्ता अलग/इक आम से सफर का मुसाफिर नहीं हूं मैं।' उसका कारण यह है कि वे खोखली क्रांतियों का हस्र जानते हैं-'बिल आखिर बिक ही जाती है बगावत/हर इक बागी का कोई दाम तय है।'
उनकी शायरी केवल विचार से उपजी शायरी नहीं है। वे दुनियादारों की तरह ही नहीं उन फकीरों और संतों की तरह भी सोचते हैं जिनसे गजल की परम्परा का गहरा वास्ता है। वे कहते हैं-'सुन ली मैंने दिमाग की तज्वीज/अब जरा दिल को खटखटा लूं मैं।' राजेश रेड्डी की निगाह समाज की उन तमाम विडम्बनाओं पर है जो आदमी को आदमी बने रहने देने में बाधक हैं, और वे यह भी जानते हैं कि स्वाभिमान की जिन्दगी जीना कितना कठिन है-'मैं सोचता तो हूं कि लूं खुद्दारियों से काम/रहती कहां है पर मेरी गरदन झुके बगैर।'

बड़े सरोकार की संवेदनशील रचनाशीलता

पुस्तक का नाम-समुद्र में नदियां/लेखक-स्वाधीन/प्रकाशक-स्वाधीन साहित्य प्रकाशन समिति, 150/4, एलआईजी, 4 फेज, केपीएचबी कालोनी, हैदराबाद-500072/मूल्य-85 रुपये।

पिछले ढाई दशकों में स्वाधीन ने अपनी कविताओं और गजलों ने अपनी एक विशिष्ट पहचान बना ली है। उनकी रचनाओं में हिन्दू और उर्दू दोनों जुबानों की मिठास और उसके भाषिक संस्कार मिले हुए हैं, जो पाठक को कविता के एक नये आस्वाद से परिचित कराती हैं। स्वाधीन की कविताएं पढ़कर यह भरोसा होता है कि यह बदतर होती दुनिया कभी बेहतर होगी, निराश होने की जरूरत नहीं है। जरूरत है तो बस मिल जुल कर बदलाव की कोशिश करने की। उनकी कविताओं में बदलाव और मुश्किलों से निजात का रास्ता अकेले के प्रयासों से संभव होता नहीं दीखता। वे सामूहिक प्रयासों के हामी रहे हैं और इस संग्रह में भी बदलाव के सामूहिक प्रयासों के प्रति उनकी भरोसा कायम है। मौजूदा दौर में आदर्शों का हश्र देखने के बाद उनकी कविताओं में बदलाव का भरोसा लगभग रोमांटिक लगने लगता है किन्तु वही उन्हें एक सच्चा और बड़ा कवि भी बनाता है। उनकी रचनाओं कब अपना दर्द समूह का दर्द और समूह का दर्द अपना बन जाता है कहना मुश्किल है। एक बानगी देखें- 'इक रोज तुम्हें अपने ही घर याद करेंगे।/बिछड़े हुए आंगन के शजर याद करेंगे।/तुम अपने लहू रंग के परचम तो उठाओ/ ये सुर्ख सबेरों के नगर याद करेंगे।'
व्यक्ति और समूह उनके यहां एक है। माक्र्सवादी प्रतिबद्धता उनकी रचनाओं को रसद पहुंचाती है किन्तु वे विचारों की नारेबाजी करते नहीं दिखायी देते जो उनकी रचनाओं के उथला और इकहरा होने से बचाती है- 'खुद बन गये जब आईने पत्थर कई दिन तक।/ बेचेहरा रहे हम भी तो अक्सर कई दिन तक।/वो अपने वतन के थे, बसाना था उन्हें भी/ मिलते रहे हम उन से बराबर कई दिन तक।'
इस संग्रह में गजलों अलावा कुछ कविताएं भी हैं। वे संवेदनशीलता और वैचारिकता से हमें बांधती हैं-'नदियों के बंटवारे को लेकर/कोर्ट के फैसले के विरुद्ध/लगा दी गयी है पानी में आग/और जला दी गयी हैं बसें.../इस आहूत बंद में/यह जलती हुई कावेरी, कृष्णा और गोदावरी/कहां जाकर करेगी फरियाद?/क्या इन सब की सुनवाई/समुद्र करेगा।/फिलहाल समुद्र में नदियां/अपने अपने हिस्से का पानी तलाश रही हैं/अपनी अपनी नदियों के पक्ष में/रहनुमा खटखटा रहे हैं आंदोलन का द्वार/और पानी में मछलियां/लामबंद हो रही हैं इन के खिलाफ।'

Sunday 25 July 2010

बच्चों के खिलाफ घर से लेकर स्कूल तक गुंडागर्दी पर रोक स्वागतयोग्य




बच्चों पर होने वाली गुंडागर्दी पर रोक लगाने की दिशा में सरकार ने ठोस
कदम उठाने शुरू किये हैं यह स्वागतयोग्य है। अब तक सर्वाधिक प्रताडऩा का
वाला वर्ग बच्चों का ही है, जिनके खिलाफ कारगर तरीके से बहुत कम आवाज़
उठायी जाती है। उसका एक कारण यह है कि भले ही समाज में वंचितों के लिए
न्याय की अवधारणा पर बार बार विचार किया जाता रहा हो किन्तु बच्चों के
शोषण पर प्राय: ध्यान नहीं दिया गया। इस दिशा में बाल श्रमिकों के खात्मे
के लिए किसी हद तक कमज़ोर सी आवाज उठाकर कर्तव्य की इतिश्री मान ली गयी।
जबकि सच यह है कि सुविधा सम्पन्न घरों में भी बच्चों का शोषण उनके जन्म
के साथ ही शुरू हो जाता है। घर से शुरू यह शोषण स्कूलों में भी बदस्तूर
जारी रहता है। बच्चों के शोषण के तौर-तरीके अन्य प्रकार के शोषण से अलग
है इसलिए उसकी भयावहता दिखायी नहीं देती।
कई बार तो बच्चे के जन्म के पहले से ही उसके शोषण का ताना-बाना तैयार
होने लगता है। भ्रूण परीक्षण उसी का एक रूप है जो चिकित्सकीय आवश्यकताओं
से कम और इस इरादे से ज्यादा कराया जाता है कि वह पुत्र शिशु ही तो है न।
अर्थात 'मेरा नाम करेगा रोशन जग में मेरा राज दुलारा ' की कामना वाले लोग
अपना नाम रोशन करने और अपनी मान मर्यादा की रक्षा एवं उसमें इजाफे के लिए
उसे एक कारगर अस्त्र मिल जाता है और उसे मनचाहे तरीके से इस्तेमाल करने
की जुगत में जाते हैं। माता-पिता, कुल-खानदान के लिए संतानें एक ऐसा जीव
होती हैं जिन पर वे अपने सपनों का बोझ लाद देते हैं और उसके जीवन के
लक्ष्य, उसकी जिम्मेदारियां स्वयं निर्धारित कर देते हैं। वह क्या बनेगा
यह बच्चे की अपनी च्वाइस नहीं हुआ करती। उसके लक्ष्य के निर्धारण में
बच्चे की क्षमता गौण होती है और अभिभावक की प्रमुख। भावात्मक दबाव के
बावजूद जब बच्चा उनके चाहे तौर-तरीके नहीं अपनाता और निर्धारित लक्ष्य की
दिशा में ही आगे नहीं बढ़ता तो उस पर प्यार का दावा करने वाले अभिभावक ही
बल प्रयोग करने लगते हैं। अपने बच्चों को पिटाई को मां-बाप इस दावे के
साथ ग्लोरीफाई करते हैं कि वे बच्चे की बेहतरी के लिए ही ऐसा कर रहे हैं।
अपने को सभ्य समझने वाले अभिभावक दुनिया भर का अनुशासन बच्चे पर लागू कर
अपने को गौरवान्वित समझते हैं।
और तो और ऐसे अभिभावकों की कमी नहीं है जो यह मानते है कि स्कूलों में भी
बच्चों की पिटायी हो ताकि वे ठीक से पढ़ें लिखें और अनुशासित हों। कई
बच्चे छोटी कक्षाओं में अनुशासन के नाम पर पिटते हैं और मां-बाप यह सोचकर
प्रसन्न रहते हैं कि उनकी संतान लायक बनायी जा रही है। अक्सर बच्चे स्कूल
से निकलकर कोचिंग पढऩे या घर पर ट्यूशन पढऩे में जोत दिये जाते हैं।
ट्यूशन पढ़ाने वाला शिक्षक भी बच्चों को पीटकर उसके अभिभावक पर अपनी
अच्छी इमेज बनाने में कामयाब रहता है।
यह प्रताडि़त बच्चे ऐसी स्थिति में किससे अपना दुखड़ा रोयें। एक तरह
बस्ते का बोझ, अव्यवहारिक बहुतायत में पाठ्यक्रमों का बोझ और अनुशासन के
नाम पर तमाम बंदिशें। बच्चे का स्वाभाविक जीवन छीनकर उन्हें
प्रतियोगिताओं के योग्य बनाने में जुटे अभिभावकों को जरा भी इस बात का
एहसास नहीं होता कि वे अपनी संतान के साथ कैसी बर्बरता कर रहे हैं। उन पर
निर्धारित लक्ष्य प्राप्ति का मानसिक बोझ इतना होता है कि नतीजे खराब
होने के दु:स्वप्न देखने लगते हैं और सचमुच खराब हो जाने पर आत्महत्या
जैसे कदम उठा बैठते हैं।
स्कूलों में बच्चों की पिटायी आम बात है और इसे नैतिक मानने में
समाजसुधारक होने का दम्भ भरने वाली तमाम इकाइयों को गुरेज नहीं। सामान्य
तबके के स्कूलों में तो शिक्षक पढ़ाने के लिए कम और बच्चों को दंडित करने
के लिए अधिक जाने जाते हैं। बड़ा होने के बाद भी मन में स्कूलों में चाक
से नहीं बेंत से अंकित इबारतें स्पष्ट रहती हैं।
यह तो अच्छा है कि पहले मां-बाप पर बच्चों को पीटने पर बंदिश लगी और अब
स्कूलों में शिक्षकों पर। इस दिशा में और कदम उठाये जाने की आवश्यकता है।
कोलकाता स्थित ला मार्टीनियर स्कूल के आठवीं कक्षा के छात्र द्वारा
आत्महत्या करने के मामले ने इतना तूल पकड़ा कि राष्ट्रीय बाल अधिकार
संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) ने सभी विद्यालयों में अनिवार्य रूप से 'बाल
अधिकार प्रकोष्ठÓ गठित करने की सिफारिश की है। इधर देश भर में कई स्कूलों
में शरीरिक दंड की शिकायतें बढ़ गयी थीं। आयोग ने शारीरिक दंड पर अपनी
सिफारिशें 22 जून 2010 को मानव संसाधन विकास मंत्रालय को पेश कर दी
जिसमें सभी राज्य सरकारों से स्कूलों में अनुशासन एवं दंड से जुड़े
विषयों के लिए प्रणाली को ढांचागत स्वरूप प्रदान करने को कहा गया है। इन
सिफारिशों के साथ कोलकाता के ला मार्टीनियर स्कूल के प्राचार्य एवं उप
प्राचार्य को हटाने की भी सिफारिश की गई है। एनसीपीसीआर की अध्यक्ष शांता
सिन्हा का कहना है कि आयोग ने शारीरिक दंड पर अपनी सिफारिशें मंत्रालय को
पेश कर दी हैं।
आयोग ने अपनी सिफारिशों में कोलकाता स्थित स्कूल के प्राचार्या एवं उप
प्राचार्य के अन्य शिक्षकों द्वारा छात्रों को शारीरिक दंड देने की
अनदेखी करने और स्कूल में भय का माहौल बनाने का भी उल्लेख किया। इसके साथ
ही स्कूल से शरीरिक दंड देने वाले शिक्षकों की वेतन वृद्धि रोकने तथा
शिक्षा के अधिकार कानून के आलोक में शिक्षकों के सेवा नियमों की समीक्षा
करने को भी कहा गया है।
रिपोर्ट के अनुसार सभी राज्य सरकारों से स्कूलों में छात्र, शिक्षक,
स्कूल प्रबंधन और अभिभावक को व्यवस्था से जोडऩे को कहा गया है ताकि
भविष्य में ऐसी घटनाओं को होने से रोका जा सके। आयोग ने अपनी सिफारिशों
में स्कूलों से अनिवार्य एवं मुफ्त शिक्षा के अधिकार कानून पर अमल
सुनिश्चित करने को कहा है। इसमें विशेष तौर पर कानून की धारा 17 का
उल्लेख किया गया है जिसमें सभी प्रकार के शारीरिक दंड का निषेध है और
इसका उल्लंघन करने वाले मामलों में कड़ी कार्रवाई करने को कहा गया है। इस
संबंध में आरटीई की धारा 17 पर अमल के लिए राज्य नियम और दिशा निर्देश
तैयार करने को कहा गया है।
इधर, सरकार एक ऐसा कानून बनाने पर विचार कर रही है जिसके तहत मां बाप ने
अपने बच्चे के साथ क्रूरता की तो उन्हें जेल की हवा भी खानी पड़ सकती है।
यह कानून शिक्षण संस्थानों के अलावा बच्चों के पैरेंट्स, रिश्तेदारों,
पड़ोसियों या उनके मित्रों पर भी लागू हो सकता है। यानी अमरीका की तरह अब
भारत के बच्चों को भी उन पर अत्याचार करने वाले मां-बाप व रिश्तेदारों को
जेल भिजवाने का हक मिल सकता है।
प्रस्तावित कानून यदि अमल में आता है तो पहली बार बच्चे को पीटने पर
अभियुक्तों को एक साल की सजा या 5 हजार का जुर्माना हो सकता है लेकिन
दूसरी बार भी यदि इस तरह का मामला सामने आया तो दोषियों को तीन साल की
जेल और 25 हजार तक का जुर्माना भरना पड़ सकता हैै।
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय इस बिल के मसौदे को शीघ्र ही कैबिनेट में
लाने जा रहा है। महिला एवं बाल विकास मंत्री कृष्णा तीरथ के मुताबिक बिल
के मसौदे पर चर्चा जारी है और जल्द ही इसे कैबिनेट में लाया जायेगा।
कोलकाता में कथित तौर पर प्राचार्य द्वारा बेंत से पिटाई के बाद एक छात्र
की आत्महत्या के बाद सभी ओर से दबाव के बीच लाल मार्टीनियर स्कूल फॉर
बॉयज ने शारीरिक दंड पर पाबंदी लगा दी। स्कूल के प्राचार्य सुनिर्मल
चक्रवर्ती ने स्वीकार किया था कि उन्होंने आठवीं कक्षा के छात्र रूवनजीत
रावला की बेंत से पिटाई की थी। हालांकि उन्होंने इसे आत्महत्या से जोडऩे
से इनकार किया और कहा कि वे परिणाम भुगतने को तैयार हैं। रूवनजीत के पिता
अजय रावला ने चक्रवर्ती के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई थी। विदित हो कि
रूवनजीत ने गत 12 फरवरी को आत्महत्या की थी।

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Thursday 15 July 2010

युवाओं को बहुत कुछ सिखाता है नारायण मूर्ति का जीवन

Sanmarg, 18 July 2010



पुस्तक : कॉरपोरेट गुरु नारायण मूर्ति/ लेखक: एन.चोक्कन/ प्रकाशक-प्रभात पेपरबैक्स, 4/19 आसफ अली रोड, नयी दिल्ली-110002/मूल्य: 95 रुपये

यह पुस्तक प्रमुख सॉफ्टवेयर कंपनी इन्फोसिस के मुख्य संस्थापक एवं उद्योगपति नारायण मूर्ति के जीवन की एक ऐसी विलक्षण तस्वीर पेश करती है, जो देश के उन युवाओं के लिए प्रेरणादायक हो सकती है जो अपने जीवन में नया कुछ कर गुजरने की चाहत रखते हैं। उनका जीवन विपरीत परिस्थितियों से जूझते हुए एक व्यक्ति की कहानी है जिसने अपना मार्ग स्वयं चुना और बनाया है। गरीबी दिन व्यतीत कर रहे हाईस्कूल के अध्यापक पिता की आठ संतानों में से वे एक थे।
आर्थिक तंगी के कारण आईआईटी की प्रवेश परीक्षा पास करने के बावजूद से प्रवेश नहीं ले पाये थे। शादी से पहले उनकी यह स्थिति नहीं थी कि वे अपनी प्रेमिका के साथ घूम-फिर सकें। शुरू में वे वामपंथी विचारधारा के प्रति उनका झुकाव था। यह वामपंथी विचारधारा ही थी जिससे अभिभूत होकर मूर्ति ने पेरिस में बचाया अपना अधिकतर पैसा वहीं लुटाया और खाली हाथ भारत लौट आये थे। हालांकि उन्हें बुल्गेरिया में वामपंथ को लेकर एक कटु अनुभव हुआ और उनकी अवधारणा बदल गयी। और उन्हीं दिनों वामपंथ, समाजवाद और पूंजीवाद के अच्छे पहलुओं पर आधारित एक कंपनी खोलने का निश्चय किया था। वे अब भी यह मानते हैं कि 'आदमी को खूब पैसा कमाना चाहिए और उससे जरूरतमंदों की मदद करनी चाहिए।'
अच्छी खासी नौकरी छोड़कर उन्होंने नौकरीपेशा अपनी पत्नी सुधा से 10 हजार रुपये उधार लिये और 1981 में अपने छह अन्य दोस्तों के साथ पुणे में इन्फोसिस की आधारशिला रखी। इस टीम के सदस्य इस प्रकार थे-एनआर नारायण मूर्ति, नंदन नीलकेनी, के दिनेश, एस गोपालकृष्णन, एनएस राघवन, एसडी शिबुलाल एवं अशोक अरोड़ा। यह सभी पाटनी कंप्यूटर्स में कार्यरत थे। यह टीम आज भी साथ है हालांकि इनमें से केवल अशोक अरोड़ा कुछ कारणोंवश 1989 में अलग हो गये।
शुरू के दस साल कंपनी के लिए कठिनाइयों के रहे लेकिन उन्होंने और उनके सोच के प्रति विश्वास रखने वाले दोस्तों ने सारी बाधाएं पार कीं और आज यह कंपनी दुनिया की एक जानी मानी सॉफ्टवेयर कंपनी है, बेंगलुरु में जिसका मुख्यालय परिसर विश्व का सबसे बड़ा कंप्यूटर सॉफ्टवेयर परिसर है। 90 हजार कर्मचारियों वाली इस कंपनी का राजस्व 2008 में 4.18 अरब अमरीकी डॉलर के पार पहुंच गया।
इस किताब को पढ़ते हुए हमें एक दृढ़ निश्चयी व्यक्ति को करीब से जानने-समझने का मौका मिलता है। हमें यह भी पता चलता है कि यदि इन्फोसिस कंपनी इतनी बुलंदी तक पहुंची तो उसका कारण मूर्ति का वृहत्तर विजन था-'अपने नहीं देश के लिए धन कमाने का।' वे मानते हैं कि 'कोई कंपनी किसी भी तरह से सफल हो सकती है लेकिन अगर उसमें सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना न हो तो वह सफलता पूरी नहीं हो सकती।' दूसरी तरफ उन्हें ऐसी जीवनसंगीनी सुधा मिली थीं जो टाटा कंपनी समूह के अध्यक्ष जे.आर.डी.टाटा की इस सीख पर अमल करने में विश्वास रखती हैं कि 'हमें वह लाभ समाज को लौटा देना चाहिए, जिसे हम उसी से अर्जित करते हैं।' सुधा स्वयं टाटा की कंपनी टेल्को में कुछ अरसे तक कार्यरत थीं, जिसे उन्होंने पारिवारिक व्यस्तताओं के कारण छोड़ दिया था।
1996 में स्थापित इन्फोसिस फाउंडेशन का नेतृत्व सुधा नारायण मूर्ति के हाथ में है, जो स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक विकास के कार्यों को समर्पित है और वार्षिक पांच करोड़ रुपये इन कार्यों पर खर्च होता है।
मूर्ति और नारायण सुधा आज भी बेंगलुरु के जयनगर इलाके के एक अपार्टमेंट में एक साधारण फ्लैट में रहते हैं जहां कोई नौकर नहीं है और ना रसोइया। घर के काम-काज में तब तब मूर्ति भी सुधा का हाथ बंटाते हैं। यही कारण है कि उन्हें 'कॉरपोरेट गांधी' कहा जाता है। वे गांधीजी के जीवन दर्शन से काफी प्रभावित रहे हैं।
इस पुस्तक का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह भारत में औद्योगिक परिदृश्य के बदलाव को भी चित्रित करती है। 1991 के पहले का भारत भी इसमें है जब औपचारिकताओं के नाम पर तमाम बाधाएं पहुंचायी जाती थीं और बाद का परिदृश्य है जब भारत दुनिया में क्रमशः आर्थिक शक्ति बनता गया। 1991 में नरसिंह राव की सरकार में वित्तमंत्री मनमोहन सिंह थे और दोनों के आर्थिक सुधारों का लाभ इन्फोसिस जैसी तमाम कंपनियों को मिला, जो नये तरह का उद्यम लगाने को तत्पर थीं।
यह पुस्तक व्यवसाय से जुड़े लोगों के लिए ही नहीं बल्कि जनसामान्य के लिए भी पठनीय है। इसके लेखक एन. चोक्कन तमिल के जाने माने लेखक है जिनकी तीस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं तथा वे एक सॉफ्टवेयर कंपनी में निदेशक होने के कारण उस दुनिया को करीब से जानते समझते हैं जिसके शीर्ष पुरुषों में मूर्ति का शुमार होता है। पुस्तक का हिन्दी अनुवाद महेश शर्मा ने किया है।

Wednesday 7 July 2010

ममता की ताजपोशी की तैयारी



साभार: सबलोग, मई, 2010



साभार: सबलोग मई, 2010

Tuesday 29 June 2010

अनवरत गत्यात्मकता के विलक्षण कवि नागार्जुन

फोटो कैप्शनः बाएं से अभिज्ञात, नागार्जुन, मंजु अस्मिता, सकलदीप सिंह व अन्य



26 जून से शुरू बाबा नागार्जुन के जन्म शताब्दी वर्ष पर विशेष
(परिचयः नागार्जुन का असली नाम वैद्यनाथ मिश्र है परंतु हिन्दी साहित्य में वे बाबा नागार्जुन के नाम से मशहूर रहे हैं। जन्म : 1911ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन ग्राम तरौनी, जिला दरभंगा में। परंपरागत प्राचीन पद्धति से संस्कृत की शिक्षा। सुविख्यात प्रगतिशील कवि एवं कथाकार। हिन्दी, मैथिली, संस्कृत और बांग्ला में काव्य रचना। मातृभाषा मैथिली में "यात्री" नाम से लेखन। मैथिली काव्य संग्रह "पत्रहीन नग्न गाछ" के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित। छः से अधिक उपन्यास, एक दर्जन कविता संग्रह, दो खण्ड काव्य, दो मैथिली;(हिन्दी में भी अनूदित)। कविता संग्रह, एक मैथिली उपन्यास, एक संस्कृत काव्य "धर्मलोक शतकम" तथा संस्कृत से कुछ अनूदित कृतियों के रचयिता। उनके मुख्य कविता-संग्रह हैं: सतरंगे पंखों वाली, हज़ार-हज़ार बाहों वाली इत्यादि। उनकी चुनी हुई रचनाएं दो भागों में प्रकाशित हुई हैं। निधन : 5 नवम्बर 1998।)

नागार्जुन के साथ हिन्दी कविता का आचरण बदला। कविता सुरुचि सम्पन्न पाठकों की परिधि से निकलकर चायखानों तक आयी। यह बदलाव सहज उपलब्ध हो सका हो ऐसा नहीं है। इसका मूल्य कबीर से लेकर नागार्जुन तक ने चुकाया है। कलाहीनता के आरोप झेलते हुए और वक्तव्यबाज कहलाते हुए भी इन्होंने ऐसा किया। कविता का सड़क और नुक्कड़ पर उतर आना किस-क़दर ख़तरनाक़ हो सकता है यह कहने की आवश्यकता नहीं। समाज के दुःख-सुख, जद्दोजहद को सीधे-सीधे कविता में उसी के सामने लौटाना एक दुस्साहस ही है। मीडिया द्वारा बुनी, रची, सोची गयी साज़िशों और अवसरवादी मानकों ध्वस्त करते हुए सच को अपनी नजर से देखकर उस सीधे पाठकों और श्रोताओं तक पहुंचे यह नागार्जुन के ही बूते का था। जनता को उकसाने के आरोप उन पर बड़ी आसानी से लगाये जा सकते थे, जो इसी माइने में सार्थक भी है-
'आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी
यही हुई है राय जवाहरलाल की
रफ़ू करेंगे फटे-पुराने जाल की
यही हुई है राय जवाहरलाल की
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी

आओ, शाही बैण्ड बजायें
आओ बन्दनवार सजायें
खुशियों से डूबें उतरायें
आओ तुमको सैर करायें
उटकमंड की, शिमला नैनीताल की।' (नागार्जुन, प्रतिनिधि कविताएं, सम्पादक-नामवर सिंह, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ 98)
ऐसे कवियों के लिए जनता एक अमूर्त वस्तु नहीं है:जिसकी अमूर्तता की चिन्ता स्व.विजयदेव नारायणदेव साही को हमेशा रही। ना ही उनके यहां उनका दुःख-दर्द अख़बारों से छनकर आता है। उनका काव्य-संसार लोकगीतों, लोककथाओं में अपना रूप बड़ी अन्तरंगता के साथ तलाश सकता है। यह अन्तरंगता मात्र लोगों केसात ही नहीं, बल्कि प्राणियों और वनस्पतियों से भी है, प्रकृति से भी। यही कारण है कि नागार्जुन को जहां विघटन के कई स्तरों का पता है, वहीं उल्लास के अनन्त अवसरों का भी, जो प्रकृति के बगैर तादात्म्य स्थापित किये संभव नहीं-
'धूप में पसरकर लेटी है
मोटी-तगड़ी, अधेड़, मादा सूअर...
जमना-किनारे
मखमली दूबों पर
पूस की गुनगुनी धूप में
पसरकर लेटी है
वह भी तो मादरे हिन्द की बेटी है
भरे-पूरे बारह थनों वाली!
लेकिन अभी इस वक््त छौनों को पिला रही है दूध
मन-मिज़ाज़ ठीक है
कर रही आराम
अखरती नहीं है भरे-पूरे थनों की खींच-तान
दुधमुंहे छौनों की रग-रग में
मचल रही है आख़िर मां की हो तो जान!' (वही, पृष्ठ 77)
नागार्जुन के अपने लोग गांव के किसान हैं और नगर के श्रमिक। वे इनकी यातनाओं को भी उसी शिद्दत से महसूस कर लेते हैं जिस सदाशयता से उनके हास। यह अद्भुत है कि यह वर्ग किन विषम परिस्थितियों में कैसे और कहां रत्ती-रत्ती खुशी पाता चलता है। नागार्जुन की कविता उल्लास की अनेक परिषाभाएं एक साथ दे सकती है, जो अन्तत्र दुर्लभ है। कई-कई तो अपरिभाषित रह जाने का जोख़िम और माद्दा रखती हैं।
उनकी कविता तटस्थ कविता नहीं है, जो मानवीय सरोकारों से उठ कर आध्यात्म और स्व-मुक्ति की सोचे। वह पक्षधरता की हिमायती है और वह पक्ष है-सर्वहारा का। इस पक्षधरता के लिए वे निरन्तर कटिबद्ध और प्रतिबद्ध रहे हैं-
'प्रतिबद्ध हूं, जी हां प्रतिबद्ध हूं
बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त
संकुचित स्व की आपाधापी के निषेधार्थ।' (वही, पृष्ठ 15)
यही कारण है कि उनका रचना-क्रम जिस पक्ष को प्रारम्भ में साधता है साधता ही चला गया है। इस पक्षधरता के पीछे तत्कालिक उद्वेग न था बल्कि वह वैज्ञानिक सोच था जो शोषित और दमित जनता की मुक्ति में समाज की सम्पन्नता और खुशहाली देखता है। उनका अभिष्ट साहित्यिक नहीं सामाजिक क्रांति है। नागार्जुन का जन यही है जो उनकी ममता, स्नेह और समर्थन का पात्र है। इसके प्रति लिखते हुए नागार्जुन में सहज की कोलमला आ जाती है, एक गहरी संवेदना जिसके भीरत करुणा की अविरल धार है, कहीं-कहीं रुमानियत की हद तक। और यह स्वाभाविक है अपने प्रियजन के पक्ष में लिखते हुए। उनके प्रियजन भारत के किसान, मज़दूर और नवयुवक हैं। अखिल विश्व के संघर्षशील लोग हैं।
शोषक पक्ष की बात आते ही उनका लहज़ा व्यंग्यात्मक हो उठता है जिसकी धार गहरे तक असर करती है। व्यंग्य साहित्य में निचला दर्ज़ा पाते हुए भी नागार्जुन के यहां प्रतिष्ठा पाता है। नागार्जुन व्यंग्य की महत्ता और सिध्दि के कवि हैं। जन-पक्ष में इसका इस्तेमाल होने के कारण व्यंग्य जीवन का सकारात्मक पक्ष ही साबित होगा। कम-से-कम उनके संदर्भ में यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है। उसकी एक बानगी देखें-
'दिल्ली की सर्दी कम होती
तंत्र-मंत्र के हीटर से
अपनी किस्मत आप मिलता लो
योग-सिद्धि की मीटर से
राजघाट में बातें कर लो
यूसुफ से या पीटर से
लोकतंत्र का जूस मिलेगा
नाप-नाप कर लीटर से।' (नागार्जुन, पुरानी जूतियों का कोरस, 1983, पृष्ठ 144)
नागार्जुन की कविता अपने यथार्थबोध के कारण भी याद की जाती है। वे व्यक्तिगत को समष्टिगत यथार्थ की कसौटी पर कसकर ही उसकी हीनता और उत्कृष्टता का निर्धारण करते हैं। व्यक्तिवादी मूल्यों के लिए उनककी कविता में कत्तई गुंजाइश नहीं है किन्तु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि व्यक्ति के रागतत्त्वों और प्रेम तथा शृंगार भाव की उन्होंने उपेक्षा की हो या ये उनके कार्य-प्रदेश में वर्जित रहे हों। ये भाव मानव-मात्र के हैं और सर्वव्यापक भी। नागार्जुन की कविता में रागतत्त्व जिस सहजता और तन्मयता से आये हैं, वे सार्वजनीन हैं। पूरे आदमी की भरपूर ज़िन्दगी से। इन्हें निजी मन की दमित व कुण्ठित कामनाओं का दस्तावेज़ नहीं बनाया गया है और ना ही इसमें डूबकर ज़िन्दगी की वास्तविकताओं को व्यर्थ और सारहीन। उनके यहां राग-तत्त्व जीवन के संघर्ष में प्रेरक और साहचर्य हेतु आया है।
प्रकृति और सौन्दर्यबोध उनकी कविता के महत्त्वपूर्ण सोपान हैं जो एक-दूसरे के पूरक हैं। प्रकृति के प्रति उनका सम्बंद कुछ हद तक रागात्मक ही है। यह उनके सौन्दर्यबोध की क्लासिक ऊंचाई के चलते है। नागार्जुन भविष्य के विश्वास के कवि हैं। वे आस्था के और नये युग के नव निर्माण के लिए नवयुवकों से आशावान रहे। भविष्य के लिए उनके पास जो कुछ था वह दे जाना चाहते थे। एक जीवन्त कवि की एक बड़ी विशेषता यह होती है कि वह आने वाली पीढ़ी को अपनी विरासत बड़े जतन, प्यार और विश्वास के सात दे जाये। वह भी संघर्ष की विरासत। वे एक सीमाबद्ध कवि कदापि नहीं हैं। उसका एक कारण स्थितियों को खुली नज़र से देखने और उसे बिना लाग-लपेट कहने की धड़क थी। तत्कालीन मसलों पर उन्होंने खूब लिखा और ज़रूरत महसूस करने पर उन्हें ताली बजाकर उन्हें नुक्कड़ों पर गाया और नाचा भी है। भले इससे कला का ह्रास हुआ हो, कला निथरी न हो और कई बार कविता कविता रह ही नहीं गयी हो। ऐसी रचनाओं को एक जागरुक और संघर्षशील नागरिक की तत्कालिक आवश्यक प्रतिक्रिया समझ कर संतोष करना पड़ सकता है। संस्कृत साहित्य के व्यापक अध्ययन मनन के कारण एक कलात्मक संस्कार भी नागार्जुन में कहीं-न-कहीं विद्यामान रहा। इसीलिए एक ओर उनकी भाषा, बोध और ज़मीन खुरदुरी है तो दूसरी ओर कई कविताओं में ऐसी कलात्मक ऊंचाइयां और गत्यात्मकता है, जो हतप्रभ और मुग्ध कर देती है।

Sunday 20 June 2010

कलात्मक सुगढ़ता व कथ्यात्मक औदर्य के कविः अज्ञेय


(7 मार्च, 1911-4 अप्रैल, 1987)
जन्मशती वर्ष पर विशेष
अज्ञेय हिन्दी कविता में एक ऐसे बहुआयामी हस्ताक्षर का नाम है जिसकी गहन-गंभीर काव्य-यात्रा एक धैर्यपूर्ण विवेचन की मांग करती है। उनमें जहां कलात्मक सुगढ़ता है वहीं कथ्यात्मक औदर्य भी। उनकी वाम विरोधी अस्तित्ववादी अवधारण सदैव ही प्रगतिशील काव्य-यात्रा से रगड़ खाती हुई भी अपने वैशिष्ट के कारण मूल्यवान और अर्थपूर्ण बनी रही। अपने जीवन-काल में ही अज्ञेय एक मिथक और चुनौती दोनों एक साथ बने रहे तथा उनका प्रभाव हिन्दी-काव्य जगत में सहज स्वीकारणीय रहा। उनकी गहन अध्ययनशीलता और रचनात्मक क्षमता सदैव ही ईर्ष्या की वस्तु रही और सुखद आश्चर्य की भी। अज्ञेय की चिन्तनशीलता और विचार पर सार्त्र, अल्बेयर कामू आदि के वैचारिक चिन्तन का व्यापक प्रभाव रहा, फिर भी अज्ञेय उतने ही परम्परावान हैं जितने कि आधुनिक। यही अन्तर्विरोध उनके व्यक्तित्व को सम्मोहक और रहस्यमय बनाता रहा। कन्हैयालाल नन्दन उनके बारे में लिखते हैं-'कैसी विडम्बना रही है कि एक ओर उनकी रचनाधर्मिता को नये मूल्य गढ़ने में भंजक की भूमिका निभानी पड़ी है तो दूसरी ओर उनके निबन्धों की अनेक पंक्तियों में परम्परा को नये सिरे से पुनर्जीवित करने की ललक का प्रतिबिम्बन भी है।' (कन्हैयालाल नंदन, नवभारत टाइम्स, दिल्ली, 5 अप्रैल 1987)
अज्ञेय ने कविता में उस समय प्रवेश किया जब प्रगतिशील काव्य-धारा ने सिर्फ़ स्थापित थी, बल्कि कविता का पर्याय थी। छायावादी कवि पूर्णतया नकारे जा चुके थे। हर प्रकार के व्यक्तिवादी मूल्यों पर शोक प्रस्ताव स्वीकृत हो चले थे। प्रगतिशीलों में एक नया रूमानवाद था। आदर्शवादी रूमानवाद, जो यथार्थ के रूप में पहचाना जा रहा था। उनकी कविताओं में जोश था, अतिरिक्त उत्साह था, क्रांतिकारी चेतना थी, बुर्जुआ और पूंजीवादी तत्त्वों से लोहा लिया जा रहा था, श्रमिक और किसान जन-नायक थे किन्तु इन सब ख़ूबियों के बावज़ूद बहुत कुछ था, जो गौण था, जो कविता को कविता रहने देने में बाधक था। यहां कला गौण थी। इस कविता में प्रतिबद्धता कम थी, उसका प्रदर्शन अधिक था। कविताएं मार्क्स का वैचारिक काव्यानुवाद भर होकर रह गयीं। समाज सर्वोपरि था। व्यक्ति की आशा-आकांक्षा गौण ही नहीं हेय थी। यह काव्य-युग कला और उसमें व्यक्ति के ह्रास का रहा।
अज्ञेय के पास इन दोनों ख़ामियों का पूरक तत्त्व था। कला और व्यक्ति अज्ञेय की मूल स्थापनाएं बनीं। काव्य-कला के स्तर पर सबसे अधिक प्रयोग हिन्दी साहित्य के इतिहास में रीतिकाल के पश्चात अज्ञेय के रचना-प्रभाव काल में हुए। विवादों के बावज़ूद यह कमोबेश स्वीकार किया जाता है कि प्रयोगवादी काव्य-धारा के प्रवर्तकों में अज्ञेय की सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। उन्होंने न सिर्फ़ सप्तक काव्यों का सम्पादन किया बल्कि आलोचना क्षेत्र में प्रयोगवाद का औचित्य सिद्ध करते हुए उसके महत्त्व व वैशिष्ट को रेखांकित किया। वे उसकी सीमाएं भी जानते थे, अतः शीघ्र ही नयी कविता के आन्दोलन से भी जुड़े और उसमें बहुत कुछ जोड़ा। अपने व्यापक अध्ययन और सतत रचनाशीलता के कारण यह हो पाया। आधुनिकता की दृष्टि से अज्ञेय अग्रदूत कहे जा सकते हैं। अज्ञेय ने क्षण के महत्त्व को स्वीकार कियो, जो क्षणिकता का निषेध करती है और यह नयी कविता की केन्द्रीय दृष्टि रही-
'यह सूरज का जपा-फूल
नैवेद्य चढ़ चला
सागर-हाथों
अम्बा सांस-भर
फिर में यह पूजा-क्षण
तुम को दे दूंगा
क्षण अमोघ है, इतना मैंने
पहले भी पहचाना है
इसलिए सांस को नश्वरता से नहीं बांधता
किन्तु दान भी है, अमोघ, अनिवार्य,
धर्मः
यह लोकालय में धीरे-धीरे जान रहा हूं
(अनुभव के सोपान!)
और
दान वह मेरा तुम्हीं को है।' (.अज्ञेय, कितनी नावों में कितनी बार, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, पांचवां सस्करण, 1986, पृष्ठ 16)
अज्ञेय की कविताओं में व्यक्ति की सत्ता सर्वोपरि है। उसके हर्ष, विषदा, मनोकामनाएं, उसका प्रेम, सब कुछ महिमामण्डित और चिन्तनीय है। व्यक्ति के मन में घटने वाली छोटी-से-छोटी उद्विग्नता सृष्टि और समाज की बड़ी-बड़ी घटनाओं से कत्तई कम नहीं। अज्ञेय की साधना व्यक्ति के रूप में सत्य को पाने की है। शुभ और सुन्दर व्यक्ति और उसकी कामनाओं का ही नाम है। 'अपने अद्वितीय होने का अहंकार उन्हें एक ऐसा गहरा और समृद्ध आत्मविश्वास देता है कि दुनिया की हर चीज़ को वे अपनी निजी कसौटी पर कसकर ही ग्रहण या व्यक्त करना चाहते हैं।'(राजेन्द्र यादव, व्यक्ति युग का समापन, वैचारिकी, सम्पादकः मणिका मोहनी, अप्रैल-जून 1988, पृष्ठ 69)
'दरअसल अज्ञेय जी व्यक्तिवाद नहीं, व्यक्तित्ववाद के लेखक हैं। स्वयं के व्यक्तित्व की स्थापना को उन्होंने सबसे ऊपर रखा। परम्परा, संस्कृति या विचारधारा, हर जगह उनका संघर्ष एक नियामक या कम से कम प्रथम प्रस्तावक की हैसियत बनाने का है। प्रयोग हो या प्रचलन, प्रथमता उनकी पहली शर्त रहीxxxxमैं उनके व्यक्तित्व का सबसे मुख्य तथ्य है। गीता के 'मैं' में तो 'हम' को कोई स्थान नहीं, क्योंकि वह व्यक्ति का विराट् है। अज्ञेय जी का 'हम' उनके 'मैं' का ही व्यक्तिगत विस्तार है। संस्कृति, समाज, देश और काल की बड़ी से बड़ी चिन्ता करते हुए भी अज्ञेय जी स्वयं के व्यक्ति का अतिक्रमण नहीं, सिर्फ़ विस्तार करते रहे हैं।' (शैलेश मटियानी, काल चिन्तक की अकाल यात्रा, वही, पृष्ठ 61)
अज्ञेय की कविता में शून्य और मौन की उपस्थिति बराबर है, जो विस्मयकारी और हिन्दी कविता में प्रायः अनुपलब्ध है। उनका चुप वाचकता से अधिक कहता जान पड़ता है। वह चुप्पी कहे जाने के समानान्तर उपस्थित है, जो कहे जाने से रह जाया करती है या अकथनीय ही बने रह जाने को अभिशप्त है। इस उपक्रम में मौन सन्नाटा कहने का उपक्रम है। अतिरिक्त अर्थ व्यंजकता और रहस्यमयता के साथ, अलौकिक सा। वर्षों पहले की उनकी एक कविता है-'मुझे तीन दो शब्द कि मैं कविता कह पाऊं-इन तीन शब्दों की खोज में उनकी कविता मौन की ओर बढ़ती हुई कविता है। पहला शब्द वह जो जिह्वा पर लाया न जा सके, दूसरा वह जो कहा तो जा सके पर दर्द से ओछा ठहरता हो और तीसरा खरा शब्द वह, जिसे पाकर यह प्रश्न उठाया जा सके कि क्या इसके बिना काम नहीं चलेगा? अर्थात् वे तीन शब्द जिनसे गुजर कर अन्ततः मौन रहा जा सके।' ( डॉ.सुमन राजे, शब्द से मौन तक की यात्रा, वही, पृष्ठ 63)
अज्ञेय की कविता में मौन, सन्नाटे व एकान्तिकता में एक गहरी उदासी छिपी है, जो उनकी अधिकांश कविताओं में झांक-झांक जाती है। उनकी कविताओं में प्रकृति प्रमुख रूप से उनके रागात्मकता के आलम्बन के लिए ही आयी है किन्तु उस पर जहां कहीं भी स्वतंत्र रचना है, वहां वे उस पर रीझें हैं मगर इस रीझ में एक रहस्यमयता है। उनकी कविता में अकेलापन है मगर असहाय अकेलापन नहीं, दम्भ में दिप्त अकेलापन जिसका मामूलीपन भी उसकी खासियत है। उसकी घुटन, निराशा, शंका, कुण्ठा, स्व-केन्द्रियता सब कुछ निरा अपना और स्वाभाविक है। अपने मन की गांठें खोलना, गुत्थियां सुलझाना, आत्मविश्लेषण, यह सब कुछ कविता की ऐतिहासिक और प्रारंभिक जरूरत उन्हें हमेशा महसूस होती रही। उनकी कविता अनेकायामी यथार्थ की तहों की कविता है। यह सच है कि उनमें भावात्मक या संवेदनात्मक अन्तःक्रियाओं से अधिक बौद्धिकता है। स्वर इतना संयमित की आवेग, आक्रोश या संघर्षशीलता उभर नहीं पायी है मगर शिल्प का संतुलन अपनी प्रभविष्णुता से सदैव प्रभावित करता है चाहे वह लम्बी कविता 'असाध्य वीणा' हो या छोटी कविताएं, जो 'हाइकू' शैली में लिखी गयी हैं। अपने मितकथन में गहन वैचारिकता, दार्शनिकता का जैसा प्रयोग वे करते हैं वह एक किस्म के मिथक की सृष्टि करता चलता है। अज्ञेय का काव्य संवेदना से नहीं, बौद्धिकता से अनुशासित है और उसी परिप्रेक्ष्य में उनकी कविता पर विचार समीचीन होगा।
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Thursday 17 June 2010

केटी के परफ्यूम की व्यावसायिक नैतिकता को सलाम!

केटी प्राइस के नाम पर इत्र के अलावा कई और चीज़ें बिकती हैं। रिएलिटी टीवी स्टार कैटी प्राइस के नाम पर बने इत्र को सुपरड्रग स्टोर ने नैतिक कारणों से अपनी दुकानों से हटा लिया है। एक रिपोर्ट में दावा किया गया था कि इस परफ्यूम की बोतलें भारतीय मज़दूर बनाते हैं जिन्हें न्यूनतम मज़दूरी भी नहीं दी जाती है। सुपरड्रग स्टोर की एक प्रवक्ता ने बताया कि इस संबंध में मज़बूत नैतिक नीतियों का पालन करते हुए इस परफ्यूम को स्टोर से हटा लिया गया है। व्यवसाय में हम बहुत ही मज़बूत नैतिक नीतियों का पालन करते हैं। हम चाहते हैं कि हमारे उपभोक्ता कुछ खरीदें तो उन्हें विश्वास हो जो उत्पाद वो खरीद रहे हैं वो नैतिक तरीकों से बनाया गया हो। संडे ऑब्ज़र्वर ने दावा किया है कि भारत के कारखानों में मज़दूरों को प्रति घंटा मात्र 26 पेंस (16 रुपए) ही मज़दूरी मिलती है जो ग़लत है। प्रवक्ता का कहना था कि अब केटी प्राइस के परफ्य़ूम की बॉटलिंग का काम भारत से हटाकर ब्रिटेन और फ्रांस ले आया गया है। भारत में इस परफ्य़ूम की बॉटलिंग का काम प्रगति ग्लास कंपनी करती थी। केटी प्राइस को जॉर्डन के नाम से भी जाना जाता है और उनके नाम पर कई ब्रांडेड उत्पाद बिकते हैं जिनमें बिस्तर, किताबें और स्वीमिंग से जुड़े सामान भी हैं।
यह खबर इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि भारत इधर आउटसोर्सिंग के लिए दुनिया भर में विशेष तौर पर लोकप्रिय हुआ है और कई देश भारत में कम कीमत पर काम कर रहा हैं। गौरतलब यह है कि यहां के पढ़े लिखे लोगों से आनलाइन काम कराने का ठेका लेने वाली भारतीय कम्पनियां विदेश से वहां काम काम वहां के बाजार के भाव के तुलना में कम कीमत पर ही लेतीं बल्कि वे उसमें अपना हिस्सा बहुत अधिक रखकर यहां जिन लोगों से काम कराती हैं वह बहुत ही शर्मनाक होता है। किन्तु बेरोजगारों की फौज वाले भारत में बेकार बैठने की तुलना में जितना मिले उसी में काम करो के मनोभाव के साथ काम कर रही हैं। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि गूगल जैसी कंपनी के अत्यंत महत्वपूर्ण शोधपरक अंग्रेजी आलेखों का अनुवाद भारतीय भाषाओं में 40 पैसे प्रतिशब्द में कराया जा सकता है।
आज जब कि एक देश से दूसरे देश के बीच के सम्बंध का पूरा तानाबाना ही व्यवसायिक हितों से जुड़ा होता है और मित्र और शत्रु राष्ट्र का मुख्य आधार कोई और मूल्य नहीं बल्कि परस्पर व्यवसायिक हित हैं व्यावसायिक नैतिक को विशेष तरजीह दिये जाने की आवश्यकता महसूस की जा रही है। जो भी देश और कंपनियां नैतिकताओं को तरजीह देंगी आगे बढ़ेंगी और यह होना भी चाहिए। पूरी दुनिया को शोषक और शोषित में बांटने वाले माक्र्सवादी सिद्धांतों के सिद्धांतों का काट व्यावसायिक नैतिकता के विकास में ही निहित है। वाजिब कार्य की वाजिब कीमत देना उनमें सबसे महत्वपूर्ण है। आशा है इत्र प्रकरण से अन्य कंपनियां सबक लेंगी। कई कंपनियां पहले भी बच्चों से काम कराने जैसे मामलों की शिकायत पायी जाने पर ऐसे कदम उठा चुकीं हैं किन्तु वाजिब मेहनताना का मुद्दा कुछ हटकर है किन्तु बड़ा मुद्दा है और इसकी परिधि भी व्यापक है। विदेशों ही नहीं अपने घरेलू बाजार में भी इन बातों पर ध्यान दिये जाने की जरूरत है। कम कीमत पर वस्तुएं पाने की होड़ के दौर में इस बात की ओर भी सबका ध्यान आकृष्ट कराया जाना है कि कोई वस्तु कम कीमत पर उपलब्ध क्यों है?
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