Monday 28 December 2009

तिवारी प्रकरणः दोनों तरफ है विश्वसनीयता का संकट


एनडी तिवारी के सेक्स स्कैंडल ने देश के चेहरे पर मुस्कान ला दी। 85 साल के तिवारी जी अपने खिलाफ सेक्स स्कैंडल को झूठ बताते हैं। और उनका कहना है कि यह आंध्र में कुछ लोगों की मनगढंत साजिश का परिणाम है। तिवारी की मानें तो आंध्र में तेलंगाना का संघर्ष चल रहा है।
इसको लेकर वहां कुछ लोग राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के संभावित दौरे के सिलसिले में उनसे मिलना चाहते थे लेकिन उन्होंने मिलने से मना कर दिया था। वे लोग किसी प्रकार से राजभवन में अपनी घुसपैठ बनाने की कोशिश में जुट गए। हालांकि उन्होंने कुछ लोगों से मुलाकात भी की थी लेकिन कुछ लोग उनसे नाराज हो गए थे। उन्हीं लोंगों ने यह साजिश रची है। हालात जैसे हैं उससे तो यह लग रहा है कि यह सब साजिश है और सचमुच तिवारी जी को राजनीति से संन्यास लेने के बजाये अपना पक्ष लगातार रखना चाहिए। विश्व राजनीति में यों भी यौन सम्बंधों को लेकर बड़े बड़े मामले होते रहे हैं और उसे किसी के राजनीतिक करियर का समापन नहीं हुआ है। फिलहात तो लोग एक टीवी चैनल द्वारा दिखायी गयी विडियो के मजमून की चर्चा कर लुत्फ ले रहे हैं। किसी बहाने तो लोगों के चेहरे पर रौनक लौटी। बिल क्लिंटन की चर्चा को काफी दिन हुए भारतीय नेताओं की भी इस प्रसंग में चर्चा होती रहनी चाहिए। यह तिवारी का तड़का अच्छा है। रहा सवाल स्कैंडल का तो न तो आज सत्ता का सुख भोगने वालों के पतन की कोई सीमा रह गयी है ना विपक्ष के चारित्रिक पतन की। मीडिया के दुरुपयोग की घटनाएं भी अब आम हो गयी हैं। ऐसे में तिवारी पर लगे आरोपों की विश्वसनीयता संकट में है और सिर्फ नैतिकता की दुहाई देने से काम नहीं चलेगा और ना ही किसी के सत्ता पक्ष में होने से यह सिद्ध हो जाता है कि वही भ्रष्ट होगा।

बड़ा होना स्वार्थी होना नहीं है

पिछले दिनों पेरिस में एक शोध के हवाले से रिपोर्ट प्रकाशित हुई कि जिन लोगों के कई बच्चे होते हैं उनमें सबसे बड़ा बच्चा अधिक स्वार्थी होता है। शोध में जो तर्क दिये गये हैं उसका आधार मनोवैज्ञानिक हैं और कहा गया है कि स्वार्थी होने के पीछे उसकी वह मनोग्रंथी है जो दूसरे बच्चे के जन्म के साथ शुरू होती है। दूसरे बच्चे के आने पर जब उसे पहले जितना प्यार और तवज्जो नहीं मिलती तो वह उपेक्षित महसूस करने लगता है और स्वार्थी हो जाता है। लेकिन भारत में दुनिया का मनोविज्ञान फेल हो जायेगा। हमारे यहां मनोविज्ञान नहीं समाजशास्त्र पर आधारित अध्ययन ही कारगर होगा। यहां तो परिवार की अधिकांश जिम्मेदारियों बड़ी बेटी पर आती है और वह बाकी भाई बहनों की परवरिश से लेकर सेवा सत्कार में अपनी मां और परिवार का सबसे ज्यादा हाथ बंटाती है। दूसरों की अपेक्षा बड़े बेटे को अधिक जिम्मेदारी उठानी पड़ती है और वह पिता की बची जिम्मेदारियों में सबसे अधिक हांथ बंटाता है। अपने भाइयों को पढ़ाने से लेकर कुंवारी बहनों के विवाह तक के मामले में उसकी महती भूमिका होती है और जब उसके छोटे भाई काबिल हो जाते हैं तो बड़ा अपने आपको ठगा हुआ महसूस करता है और उसकी तकलीफ केवल उसकी तकलीफ होती है। इसलिए विदेश सर्वे अपने पल्ले नहीं पड़ रहा है और हमारे लिए वह कोरी गप है।
शोध में कहा गया है कि स्वार्थी होता है घर का बड़ा बच्चा। अगर आपको मदद की जरूरत है, तो इस मामले में आप अपने सबसे बड़े बच्चे से मदद नहीं मांगे। अध्ययन में कहा गया है कि पहले पैदा हुआ बच्चा अपने छोटों के मुकाबले ज्यादा स्वार्थी होने के साथ ही मदद नहीं करने के इच्छुक होते हैं। मोंटपेलियर यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने यह नतीजे निकाले हैं। उनका हमारे भारत में स्वागत है ताकि वे अपने शोध के तर्कों को यहां की कसौटी पर कसकर देखें और अपने को कटेक्ट करें। यहां तो कई बड़े भाई या बहन जिम्मेदारियों के बोझ से ऐसे दबे कि स्वयं उनकी शादी नहीं हुई और वे अपने से छोटों को काबिल बनाने और उनकी जिम्मेदारियों को उठाने में ही खप गये।

गीता कोड़ा की जीत का मतलब


पिछले दिनों मैंने लिखा था कि मधु कोड़ा आर्थिक भ्रष्टाचार के मामले में फंसे हैं और उन्होंने अपनी पत्नी को झारखंड के चुनावी मैदान में उतार दिया है और जैसी अपने देश की राजनीतिक व्यवस्था है वे जीतेंगी। अब जनता को देखो कि उसने भ्रष्टाचार की विजय के मेरे विश्वास को डिगने नहीं दिया। जनता जाने अनजाने व्यवहारिक तौर पर ऐसे लोगों को समाज में नायक बनाये रखती हैं जिनका सैद्धांतिक तौर पर विरोध किया जाता है। मधु कोड़ा की पत्नी गीता कोड़ा की विधानसभा चुनाव में हालिया जीत इसका उदाहरण है। मधु कोड़ा अभी मामलों से बरी नहीं हुए हैं किन्तु उनकी पत्नी की विजय ने बता दिया कि इस देश का जनमत ऐसे लोगों के साथ है। लोकतंत्र की इन विडम्बनाओं का हम क्या करें? राजनीति की लोकतंत्र से बेहतर कोई प्रणाली अभी विकसित नहीं हुई है। ऐसे में इस व्यवस्था की खामियों को दूर करने की कुंजी किसके पास है इस पर विचार करने की आवश्यकता है। मीडिया ने सुर्खियों के बीच उछाला कि हजारों करोड़ रुपये के घोटाले के आरोप में जेल में बंद झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा की पत्नी गीता कोड़ा पहली बार सदन पहुंची हैं और इस बार उन्हें सबसे युवा विधायक बनने का भी गौरव प्राप्त हुआ है। क्या हमें ऐसे गौरव की आवश्यकता है?

आम आदमी के पतन की दास्तान


टीवी धारावाहिक बिग बास में प्रवेश राणा की हार के साथ ही आम आदमी के छवि टूटी है। यह वही आम आदमी है जो विंदू दारा सिंह और पूनम ढिल्लन के सम्पन्न बैगग्राउंड से कुंठित होकर और हताश होकर स्वीमिंग पूल में खाने-पीने की वस्तुएं फेंकने लगा था और उसकी यह हरकत उसे ले डूबी। उसकी हार में बिग बास की स्वयं की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। हम तो इसे फाउल और पक्षपात मानते हैं। खेल वहां फाइनल में बचे तीन प्रतियोगियों के बीच था। राणा ने खाने की चीजें यदि स्वीमिंग पूल में फेंकी तो उसका जवाब बाकी प्रतियोगियों को देना चाहिए था ना कि स्वयं बिग बास को। बिग बास की ओर से एक लघु फिल्म दिखा दी गयी कि कैसे इस देश में लोग भूख से मर रहे हैं और यहां प्रवेश राणा खाने की चीजें बरबाद कर रहा है। इससे उसका नकारात्मक छवि और अधिक उभर कर आयी जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा। नतीजा यह निकला कि एक जोकर विंदू दारा सिंह बिग बास बन बैठा। देखने वाले सभी जानते हैं कि उसके दिमाग में कहीं कुछ कम है। अपने आपमें हमेशा बड़बड़ाता आदमी और महिलाओं के प्रति अशोभनीय टिप्पणी करने वाले विंदू का नायक के तौर पर उभरना नायकों की एक नकारात्मक छवि पेश करता है।

Tuesday 22 December 2009

आम आदमी की ताक़त









टीवी धारावाहिक बिग बास के फाइनल में जब तीन लोग बचे तो एकाएक आम आदमी का जुमला अचानक एक ताकत के रूप में उभरा। प्रवेश राणा, बिन्दु दारा सिंह और पूनम डिल्लन तीनों आम आदमी की दुहाई देने लगे। पिछले दिनों कार्यक्रम के एंकर अमिताभ बच्चन ने प्रवेश राणा को आम आदमी कहा था और जब अंतिम निर्णायक दौर शुरू हुआ तो प्रवेश राणा ने आम आदमी का नारा लगाना शुरू कर दिया ताकि इस देश के लोग आम आदमी के नाम पर उसे एसएमएस से वोट करें। इधर पूनम डिल्लन ने सफाई दी कि सेलिब्रिटी भी आम आदमी ही होते हैं वे आम आदमी से हटकर नहीं होते। और बिन्दु दारा सिंह ने दावा कर दिया कि नहीं प्रवेश तो मिस्टर इंडिया रहे हैं आम आदमी तो वे स्वयं हैं जो लम्बे समय से ट्रगलर हैं। लब्बो लुबाब यह कि आम आदमी अंतिम दौर में बिग बास की मुख्य आकर्षण बन गया। इस देश में आम आदमी एक बड़ी ताकत है और उसे अपने पक्ष में करने की पुरजोर कोशिश होती रही है। यह जो हमारे युवाओं के नायक हैं राहुल गांधी वे खास अंदाज में आम आदमी के करीब पहुंचते रहे हैं। दलितों के घर में खाने तक से गुरेज नहीं करते। कभी मैनेजमेंट गुरु माने जाने वाले लालू प्रसाद आम आदमी की शैली में लोगों के सामने पेश आते रहे हैं ताकि उन्हें अपने पक्ष में कर सकें। अच्छा है कि आम आदमी खास बना हुआ है। लोकतंत्र की यही माया है।

अब चुकाओ सच्चाई की कीमत

सादगी परस्त ममता बनर्जी ने सबसे मलाईदार विभाग रेलमंत्रालय ही चुना था जो लालू प्रसाद की भी पहली पंसद था। लेकिन जैसे ही वे रेल मंत्री बनीं अपने पहले के रेल मंत्री लालू की तारीफ करने के बदले उनकी बुराई खोजनी शुरू की और इस हद तक पहुंचीं कि बाकायदा उनके कार्यकाल पर श्वेत पत्र जारी कर दिया। कहा कि लालू का रेलबजट छलावा था और आंकड़े छलावा हैं। रेलवे को मुनाफा हुआ ही नहीं। लालू खामखाह अपने रेल बजटों पर तालियां बजवाते रहे हैं। जनता ने कहा वाह ममता दी वाह। क्या बात कही आपने। आप ही हैं जनता की असली आवाज। आपने लालू जी के छल को सामने रखा। वाह अभी निकली नहीं थी कि आह वाह कहने वालों के मुंह से आह निकलने जा रही है। इस बात के संकेत मिले हैं कि पांच साल तक जिस लालू जी की वजह से आम लोगों के लिए रेल का किराया नहीं बढ़ रहा था और वह बढ़ने जा रहा है। ममता जी आपकी सच्चाई तो लालू जी से अधिक जनता को भारी पड़ रही है। आपसे तो लालू जी का सच ही भला था।
रहा सवाल संप्रग सरकार का तो लालू ने संप्रग सरकार में रहकर बतौर रेलमंत्री अपनी इमेज को दुरुस्त किया था लोकप्रियता हासिल की थी। बाद में जब उन्होंने पिछले लोकसभा चुनाव में संप्रग सरकार के बनने और मनमोहन सिंह के नेतृत्व पर प्रश्नचिन्ह खड़े किये थे तो यह आवश्यक हो गया था कि कांग्रेस उन्हें आईना दिखाये। उसे एक कटुनिन्दक चाहिए था तो वह ममता के रूप में सामने आया है। दूसरे ऐसा लगता है कि ममता स्वयं अपने ही चलाये तीर से घायल होने जा रही हैं क्योंकि आम जनता की निगाह में रेल किराये में वृद्धि के बाद पहले जितनी प्रिय नहीं रह जायेंगी।

लाखों औरतों के शोषण को नहीं किया जा सकता अनदेखा

अदालत ने पिछले दिनों सरकार से पूछा है कि जब वेश्यावृत्ति को खत्म नहीं कर सकते तो उसे वैध क्यों नहीं कर दिया जाता। प्रश्न कायदे का है और इस पर शोर बरपा है। उम्मीद की जा रही है थी कि औसत लोगों की सोच होती है कि यह अनैतिक काम है और उसे वैध नहीं किया जाना चाहिए। इससे समाज पतित होता है और उस पर अंकुश हट जायेगा तो उसे प्रोत्साहन मिलेगा। बौद्धिक समाज मानता रहा है कि इसमें मजबूर और गरीब महिलाएं आती हैं और समाज के हालत बदलने चाहिए ताकि कोई इस पेशे में न उतरे। समाज को वेश्याओं से हमदर्दी से पेश आना चाहिए उन हालातों दूर करने का प्रयास किया जाना चाहिए तो किसी को वेश्या बनने को मजबूर करते हैं। इससे परे मुक्त मन और आधुनिक सोच के लोगों का मानना वैसा ही है जैसा अदालत ने पूछा है कि जब इसे खत्म नहीं कर सकते तो उसे वैध क्यों नहीं किया जाना चाहिए। हकीकत यह है कि देहव्यापार के अवैध बने रहने के कारण एक ओर पुलिस उनसे यह कहकर वसूली करती है कि अवैध कामकाज हो रहा है दूसरी तरफ अपराध जगत से जुड़े लोग उनसे वसूली करते हैं और भुक्तभोगी पुलिस के पास फरियाद नहीं कर पाते क्योंकि वे स्वयं अवैध गतिविधि से जुड़े हैं। दुतरफा वसूली से त्रस्त यह देह का कारोबार उन संस्थाओं द्वारा भी छला जाता है जो समाज सेवा के नाम पर उनसे हमदर्दी दिखाते हैं और उनके हितों के लिए काम करते दिखायी देते हैं। ये स्वयंसेवी संस्थाएं उनका इस्तेमाल कई स्तरों पर करतीं और चाहती हैं कि समस्या बनी रहे और वे अपने स्वार्थ साधती रहें। सार्वजनिक मंचों पर वेश्यावृत्ति के क्षेत्र में काम करने वाले कई स्वयंसेवी संगठनों ने कहा है कि इस धंधे को नैतिक नहीं बनाया जाना चाहिए। उनके भी यही तर्क हैं कि इससे इस धंधे में लोगों का आना बढ़ेगा। यह सवाल सभी गुटों से पूछा जाना चाहिए कि आप किस परम्परा और संस्कृति का हवाला देकर उसे बंद करना चाहते हैं जबकि वेश्यावृत्ति भारतीय समाज में युगों युगों से किसी न किसी रूप में मान्य रही है। इस पेशे को वैध बना देने से जहां उनका पुलिस और गुंडों से शोषण रुकेगा वहीं उनके व उनके ग्राहकों की स्वास्थ्य समस्याओं के निदान का रास्ता भी खुलेगा। आजाद भारत में नैतिकता की दुहाई देकर एक भी व्यक्ति के शोषण को अनदेखा नहीं किया जा सकता यहां तो बीस-तीस लाख लोगों की समस्या है। इस भय से लोगों को लोगों के शोषण की प्रक्रिया को जारी नहीं रखा जा सकता कि इससे कुछ और लोगों के शोषण के रास्ते खुल सकते हैं। अभी तो चुनौती यह है कि जो शोषण प्रत्यक्ष तौर पर हो रहा है और सीलन भरे कमरे में लाखों औरतों जो जिन्दगी गुजार रही हैं उनके जीवन स्तर को कैसे सुधारा जाये और कैसे उन्हें भयमुक्त किया जाये इस पर गौर करने की आवश्यकता है। पेशा तो यह चल ही रहा है उसका नियमन हो जाने से कम से कम अपहरण करके लाई गयी, जबरन पेशे में उतारी गयी, अवयस्क लड़का पेशे में आगमन जैसी घटनाओं पर कुछ तो अंकुश लगेगा। सरकार उनके स्वास्थ्य परीक्षण को अनिवार्य कर सकेगी ताकि बीमारियों का फैलाव रोका जा सके।

क्या बार बार मिलता है मनुष्य जीवन!


एनडीटीवी इमेजिन' पर चल रहा 'राज-पिछले जनम का' धारावाहिक रियल्टी शो के नाम पर जो झूठ परोस रहा है उस पर कोर्ट ने नोटिस दे दिया है। पुनर्जन्म का कोई वैज्ञानिक आधार अब तक सामने नहीं आया है। इस धारावाहिक में इस तरह का नाटक होता है जैसे कोई व्यक्ति पिछले जन्म में लौट जाता है और उसे पिछले जन्म की घटनाएं याद आती है और इस जन्म की समस्याओं का सम्बंध भी उसके पिछले जन्म से है। अव्वल तो पुनर्जन्म की अवधारणा हिन्दू धर्म में भी है लेकिन इसमें माना गया है कि बड़ी मुश्किल से किसी को मानव जन्म मिलता है जबकि इस धारावाहिक में हर व्यक्ति पिछले जन्म में मनुष्य ही होता है। तो साहब इस तरह वह वैज्ञानिक तथ्यों की तो अनदेखी कर ही रहा है पुनर्जन्म के धार्मिक विश्वासों के साथ भी छेड़छाड़ कर रहा है। रियल्टी के नाम पर इस तरह के कार्यक्रमों को कोई तो मर्यादा रखनी होगी।


Monday 14 December 2009

नये राज्यों का गठनः कोई सर्वमान्य फार्मूला बनाये सरकार

पृथक तेलंगाना राज्य के गठन की प्रक्रिया शुरू करने की केन्द्र सरकार की घोषणा के बाद देश भर में अलग राज्यों की मांग को लेकर घमासान छिड़ गया है। तेलंगाना पृथक राज्य की मांग का आंदोलन 40 साल पुराना है। और आखिरकार आमरण अनशन पर बैठे तेलंगाना राष्ट्र समिति के नेता के चंद्रशेखर राव को 11 वें दिन केन्द्र सरकार ने आश्वस्त कर दिया कि उनकी मांग पर सरकार कार्रवाई आगे बढ़ायेगी।भारत में आज़ादी के बाद राज्यों का जो बंटवारा हुआ वह न तो अंतिम तौर पर संतोषप्रद है और ना ही यथास्थिति रखने योग्य। कई राज्यों का भौगोलिक आकार इतना बड़ा है कि उसमें देश के ही कई राज्य समा जायें। ऐसे में अगर प्रशासनिक सुविधा के लिए छोटे राज्यों का गठन किया जाये तो इसमें किसी को हर्ज़ नहीं होना चाहिए। इससे प्रशासनिक पैठ बढ़ने और आम नागरिक की उस तक पहुंच बढ़ने से लोगों का फायदा ही होगा। देश के 14 राज्य 21 हुए, फिर 25, फिर 28 और अब 29 वें तेलंगाना राज्य बनने की प्रक्रिया पर सहमति बनी है। इससे देश की अखंडता का कोई प्रश्न नहीं जुड़ा है इसलिए इस विघटनाकारी नहीं माना जाना चाहिए।
लेकिन व्यावहारिक तौर पर यह आशंकाएं बलवती हैं कि कुछ ऐसे दल जिनकी आम जनता में कोई पैठ नहीं है इसका लाभ उठाने के लिए अलग राज्य के आंदोलन को हवा दे सकते हैं और कुछ और जुगाड़ू नेताओं को राजनीति में खाने कमाने के ठेक मिल जायेंगे। दूसरी तरफ केन्द्र सरकार यह सोचती है कि किसी अलग राज्य की मांग करने वालों के पीछे कितना जनाधार कितना है, यदि व आधार कमजोर है या प्रतिबद्ध नहीं है तो उसमें टालमटोल हो सकती है और कम हकदार भी अपनी सही रणनीति के बूते अपनी मांग मनवा सकता है। भाषा का दर्जा दिये जाने के मामले में भी यह देखा गया है और करोड़ों लोगों की भाषा भोजपुरी अब तक आश्वासनों पर ही टिकी हुई है और बाकयदा उसे भाषा का दर्जा नहीं मिल पाया है जबकि कई और भाषाएं हैं जिन्हें बोलने वाले कम हैं मगर भाषा का दर्जा उन्हें प्राप्त है। मराठी भी उनमें से एक है जिसे बोलने वाले राज ठाकरे मराठी से काफी अधिक बोली जाने वाली भोजपुरी के लोगों को आंखें दिखाते हैं।भाषा, सामाजिक व आर्थिक स्थिति, सरकार की बेरूखी आदि के मसले ऐसे होते हैं जो किसी अलग राज्य की मांग को पुष्ट करते हैं और जिनके आधार पर आंदोलन छेड़े जाते हैं।
फिलहाल, गृह मंत्रालय के सामने तेलंगाना सहित 10 पृथक राज्यों की मांगें पड़ी हुई है। और आंध्र में तेलंगाना को मिले आश्वासन ने बाकी को एक नयी उत्तेजना से भर दिया है और उन्होंने अपने सोये आंदोलन को सहसा तेज कर दिया है। इससे एकाएक देश भर में अफरातफरी का माहौल बन गया है और जनजीवन एकाएक शुरू होने आंदोलनों से असामान्य। सरकार को चाहिए कि नये राज्यों के गठन के सम्बंध में बाकायता गहन विमर्श अपने स्तर पर कराये और कोई ऐसा नियम बनाये जिसके आधार पर नये राज्यों के गठन की प्रक्रिया शुरू होना ना कि आंदोलनों से प्रेरित होकर। यह आंदोलनों की आवाज़ सुनने का मसला नहीं है बल्कि प्रशासनिक मामला है और उसे प्रशासनिक तौर तरीकों से ही हल किया जाना चाहिए। चूंकि कांग्रेस नीतिगत स्तर पर छोटे राज्यों की हिमायती रही है ऐसे में उसे कोई उलझने पेश नहीं आयेगी और नये राज्यों के गठन का कोई फार्मूला तैयार करना चाहिए। और उस पर अमल करते हुए आगे काम बढ़ना चाहिए। यही उसका सर्वमान्य हल है अन्यथा एक राज्य का गठन अन्य राज्यों की मांग की चिंगारी को हवा देगा और देश के लोग आंदोलनों के कारण त्रस्त। अभी से कई राज्य बंद को झेलने लगे हैं।
सरकार ने तेलंगाना के गठन की प्रक्रिया की जो शर्तें रखीं है वे अभी तो पूरी होती नज़र नहीं आ रही हैं। तेलंगाना के गठन की प्रक्रिया आसान नहीं है। यह काफ़ी जटिल है। सबसे पहले राज्य विधानसभा में आशय का प्रस्ताव पारित कराना होगा। फिर राज्य के बंटवारे का एक विधेयक तैयार होगा और संसद के दोनों सदनों में ये पारित होगा। इसके बाद राष्ट्रपति ये राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए जाएगा। इसके बाद संसाधनों के बंटवारे की कठिन प्रक्रिया शुरू होगी। किन्तु जो तेलंगाना की जो आंधी चली है उस पर अब सरकार को ही काबू पाना है। देखना यह है कि यह सरकार नयी चुनौतियों से कैसे जूझती है और उसके पास नये राज्यों के गठन का क्या ब्लू प्रिंट है?
कुछ नये राज्यों के गठन की मांग इस प्रकार हैः आंध्रप्रदेश में ही ग्रेटर हैदराबाद, बंगाल में गोरखालैंड, महाराष्ट्र में अलग विदर्भ राज्य, उत्तर प्रदेश में हरित प्रदेश, बुंदेलखंड और पूर्वांचल, गुजरात में सौराष्ट्र, असम में बोडोलैंड, पश्चिम बंगाल और असम के कुछ हिस्से को मिलाकर ग्रेट कूच बिहार, बिहार में मिथिलांचल, पूर्वी उत्तरप्रदेश-बिहार-छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्से को मिलाकर भोजपुर, राजस्थान के नौ जिलों को मिलाकर मरुप्रदेश की मांग।

बांझ स्त्री के लिए नहीं है आज की कविता में भी स्थान!

पिछले दिनों मानव प्रकाशन, कोलकाता की ओर से एक गोष्ठी में कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव को सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। नयी पीढ़ी के कवियों में उनका जि़क्र कायदे से होता है। कार्यक्रम का संचालन कर रहे कवि एकान्त श्रीवास्तव ने उनके आग्रह किया कि वे अपने काव्य-पाठ का समापन अपनी प्रसिद्ध कविता 'सोनचिरई' से करें। और उन्होंने इस कविता के पाठ के पूर्व बताया कि यह कविता पहल में प्रकाशित, बहुप्रशंसित और बहुचर्चित है। यह कविता एक भोजपुरी लोकगीत पर आधारित है जिसमें एक बांझ स्त्री को बांझपन की वजह से उसका पति और उसके ससुराल वाले घर से निकाल देते हैं। उसके बाद तो उसे कहीं आश्रय नहीं मिलता। न उसे बाघिन खाती है न सांप डंसता है, धरती माता भी जगह नहीं देती हैं यहां तक कि उसका मां यह कहकर आश्रय देने से इनकार कर देती है कि यदि उसे आश्रय देगी और उसका छाया पड़ी तो उसकी पुत्रवधू बांझ हो जायेगी। लोकगीत का अन्त चाहे जो हुआ हो कवि ने कहा कि उसने उसका अन्त बदल दिया। अन्त में वह नदी के पास उदास खड़ी है कि वहां एक सुदर्शन युवक आता है। वह अपने साथ चलने का आग्रह करता है और वह थोड़ा हिचकती है फिर उसके साथ चली जाती है। वह युवक के साथ एक भरी पूरी ज़िन्दगी गुजारती है और उससे उसके आठ बेटे होते हैं।
यहां कुछ सवाल मन में स्वाभाविक तौर पर उठते हैं। बांझ स्त्री को लोककथा में कहीं जगह नहीं मिली तो यह लोकजीवन की त्रासदी है। दुखद तो यह है कि लोक जीवन के बाहर भी आज के कवि की कविता में भी बांझ स्त्री को ज़गह नहीं मिली। यदि कवि बांझ स्त्री को कविता में जगह देता तो उसे बांझ के तौर पर ही युवक स्वीकार करता, किन्तु उसे मां बनाना स्त्री के बांझपन के प्रति अस्वीकार है। तो क्या एक स्त्री सिर्फ इस जैविक आधार पर कि वह मां नहीं बन सकती उसे लोक, शास्त्र और जीवन में सहानुभूति नहीं मिलनी चाहिए। क्या इस आधार पर आज के किसी कवि को ऐसी कविताओं के लिए सराहना चाहिए कि उसने उन कुरीतियों का समर्थन किया है जो लोकसम्मत हैं। लोक साहित्य से जुड़ा होने भर से क्या किसी रचनाकार को पुरस्कृत किया जाना चाहिए यह विचार किये बिना कि लोक में भी ऐसी बहुत सी बातें हैं जिनका तिरस्कार होना चाहिए। लोक की हर रीति क्या स्वीकार्य होनी चाहिए? क्या आज का लेखक लोक की चाकरी बजाने के लिए बाध्य है? यदि नहीं तो क्या उसे यह विवेकपूर्वक नहीं तय करना चाहिए कि लोककाव्य की किन बातों को लोकमंगलकारी मानकर उसका समर्थन करें और किन्हें अनिष्टकारी मानकर उनका तिरस्कार? मैं तो जहां तक जानता हूं साहित्य उन लोगों की पीड़ा को स्थान देता है जिनके दर्द को कोई आश्रय नहीं देता। फिर आज का प्रमुख कवि इतना निर्मम क्यों है?
जिस लोकगीत पर यह कविता आधारित है वह भोजपुरी सोहर है। जिसके बोल इस प्रकार हैं-
घर में से निकली तिरियवा, जंगल बिच ठाड़ भइली, बाघ से बीनति करे हो, ए बघवा हमरा के भछि भलि लिहत, त जिनगी अकारथ हो।
जंगल से निकलेला बघवा त दुख सुख पूछेला हो ए तिरिया कवना सकठ तोहरा परले त हमसे भछवावेलू।
सासु मोरे कहे ली बंझिनियां, ननद बंसहारन हो, जिनकर बारी बियाही तिन घर से बाहर कइले हो।
जाहू हे तिरिया घरे जाहू अपना भवन जाहू हो, ए तिरिया तोहरा के भछि हम लेबो बघिनियां होइहैं बांझिन हो।

चलल चलल चलि गइली त बिल लागे ठाड़ भइली नाग से बिनती करे ए नगवा हमरा के डंसि भली लिहित त जिनगी अकारथ हो।
बिल से निकलेला नगवा त दुख सुख पूछेला हो, ए तिरिया कवना सकठ तोहरा पड़ले त हमसे भछवावेलू।
सासु मोरे कहे ली बंझिनियां ननद बंसहारन हो, जिनकर बारी बियाही तिन घर से बाहर कइले हो।
जाहू हे तिरिया घरे जाहू अपना भवन जाहू हो ए तिरिया तोहरा के डंसि हम लेबो नगिनियां होइहैं बांझिन हो।

चलल चलल चलि गइली त अम्मा द्वारे खड़ा भइली अम्मां से बिनती करे ए अम्मां हमरा के राखि भली लिहित त जिनगी अकारथ हो।
घर में से निकलेली अम्मां त दुख सुख पूछेला हो ए बेटी कवना सकट तोहरा परले त अम्मां लगे आवेलू हो।
सासु मोरे कहे ली बंझिनियां ननद बंसहारन हो, जिनकर बारी बियाही तिन घर से बाहर कइले हो।
जाहू हे बेटी घरे जाहू अपना भवन जाहू हो ए बेटी तोहरा के राखि हम लेबो त बहूआ होइहैं बांझिन हो।

चलल चलल चलि गइली त शिव द्वारे खड़ा भइली शिव से बिनती करे ए शिव जी हमरो जिनकी हर लिहती त जिनगी अकारथ हो।
धुनि में से उठेले चिहाई शिव दुख सुख पूछेले हो ए तिरिया कवना सकठ तोहरा परले त शिव लगे आवेलू हो।
सासु मोरे कहे ली बंझिनियां ननद बंसहारन हो, जिनकर बारी बियाही तिन घर से बाहर कइले हो।
जाहू हे तिरिया घरे जाहू अपना भवन जाहू हो ए तिरिया आजू से नउवें महिनवां होइहैं नंदलाल हो।
राजवा गिनेला नौमांस रनियां नौ महिनवां नू हो सुकवा उगत बाबू जनमें महलिया उठे सोहर हो।
सासु भेजेली नउनियां त ननद बरिनियां नू हो कि घोड़वा सामी दउरावेले बाबू के जनम भइले हो।
इस सोहर और जितेन्द्र जी की कविता में फर्क बस इतना है कि सोहर में स्त्री शिव जी के पास जाती है और उनसे पुत्र का वरदान मिलता है। पुत्र होने की खबर पाकर स्त्री की ससुसाल के लोग बदल जाते हैं और सम्मान उसे घर ले जाते हैं। और जितेन्द्र जी की कविता में कोई और युवक है। लेकिन स्थितियां नहीं बदलीं। दोनों ही स्थिति में बांझपन का अस्वीकार है। जब कवि स्त्री के हालत में बदलाव नहीं चाहता तो फिर लोकगीत को कविता में ढालने कोई बड़ा कौशल नहीं माना जाना चाहिए।
हैरत तो यह है कि ऐसी बांझ स्त्री को आज भी अस्वीकार करती यह कविता 'पहल' जैसी पत्रिका में प्रकाशित हुई, जो घोषित रूप से प्रगतिशील विचारों की पत्रिका थी और ज्ञानरंजन जैसे समर्थ रचनाकार उसके सम्पादक थे। हैरत यह है कि ऐसे कवि आज की कविता के मुख्य हस्ताक्षर हैं और उन पर तमाम पुरस्कारों की वर्षा भी होती रही है। जितेन्द्र श्रीवास्तव की कुछ प्रमुख कृतियां हैं इन दिनों हलचल, अनभै कथा, असुन्दर सुन्दर (कविता संग्रह) और भारतीय समाज की समस्याएं और प्रेमचन्द, शब्दों में समय (आलोचना पुस्तकें)। वे भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद पुरस्कार, कृति सम्मान, रामचन्द्र शुक्ल पुरस्कार, विजयदेव नारायण साही पुरस्कार तथा रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान से सम्मानित हैं।
यहां यह उल्लेखनीय है कि जब मैंने जितेन्द्र श्रीवास्तव जी से इस काव्य-पाठ के आयोजन में अपनी आपत्तियां दर्ज कीं तो उनका कहना था अब कुछ नहीं किया जा सकता। यह कविता प्रकाशित हो चुकी है। बहुप्रशंसित हुई है और इस पर पोस्टर भी बन चुके हैं। अब यह प्रकाशित होने के बाद मेरी नहीं रह गयी है।
यहां यह गौरतलब है कि रचना के प्रकाशन के बाद जब उसी रचना के लिए वर्षों बाद तक और कई बार आजीवन कोई लेखक सम्मानित होता रहता है और उसका श्रेय लेने से इनकार नहीं करता तो उसी रचना पर अपनी सार्वजिनक असहमति क्यों नहीं व्यक्त कर सकता। अपनी रचना से बाद में असहमत होने के हक़ उससे नहीं छिन जाता और ना ही अपनी रचनाओं में की गयी अपनी गलतियों के लिए क्षमा मांगने का, पर इसके लिए सचमुच बड़ा रचनाकार होना पड़ता है! मार्ग तो खुला है ही।
प्रश्न यह भी है कि साहित्य में यह कौन सी परिपाटी चली है कि बड़ी खामियों के बावजूद कोई रचना गंभीर वैचारिक पत्रिकाओं में भी स्थान पा जाती हैं, प्रशंसित हो जाती है और पुरस्कार भी पा लेती हैं! फिलहाल तो जितेन्द्र श्रीवास्तव विष्णु खरे की टिप्पणियों से आहत-मर्माहत और क्रुद्ध हैं क्योंकि खरे जी ने उनकी 'ज़रूर जाऊंगा कलकत्‍ता' कविता पर कुछ सवाल खड़े किये हैं। उनका क्षोभ इस गोष्ठी में भी सार्वजनिक हुआ। संभव है वे अपनी अन्य कविताओं की विसंगतियों पर भी कभी ध्यान दे पायें।

Sunday 6 December 2009

अपने हाथ से पका कर खाने की बात ही कुछ और है!


इधर चल रहे बिग बॉस और लक्स परफेक्ट ब्राइड जैसे रियल्टी शो की वज़ह से एक लाभ यह हुआ है कि जो भारतीय पुरुष किचन में कामकाज से परहेज रखते थे उनकी विरक्ति कुछ कम हुई है और वे थोड़ा बहुत कामकाज में हाथ बंटाते नज़र आ रहे हैं। भारतीय भोजन की विशेषता यह है कि इसमें पर्याप्त विविधता है और बने बनाये भोजन की तुलना में हम अब भी रोज बनाया भोजन करना ही पसंद नहीं करते बल्कि ज्यादातर घरों में दो से तीन बार रोज भोजन पकता है। ताज़ा बनाओ और उसी समय खाओ की शैली हमें रास आती है और यह हमारी फूड हैबिट का हिस्सा है। चूंकि रियल्टी शो लगातार कैमरे को प्रतिभागियों के इर्द गिर्द रखता है ऐसे में किचन के कामकाज दृश्य में रोचकता प्रदान करता है। अच्छा यह लगता है कि महिला प्रतिभागी ही नहीं बल्कि पुरुष प्रतिभागी भी आटा गूंथने से लेकर सब्जी काटने के काम करते हैं। इन शोज को देखने वाले नये युवाओ में भी किचन क्रेज़ पैदा हो रहा है तो यह अच्छी बात है। भारतीय परिवारों में कई ऐसे पुरुष हैं जो खाना पकाने की कला में निपुण हैं और शौक से खाना पकाते हैं मगर हमने उसे सार्वजनिक स्तर पर चर्चा का विषय नहीं बनाया है और ना ही इसे अपनी खूबी के तौर पर पेश किया है। मेरे पिता अच्छा खाना बना लेते थे लेकिन दूसरों के समक्ष इसकी चर्चा करने में उन्हें काफी झेंप महसूस होती थी और वे स्वयं कभी इसका जि़क्र नहीं करते थे। कई और ऐसे लोग होंगे जो मेरे पिता की तरह ही अपनी इस खूबी के महत्व को रेखांकित नहीं करते होंगे। मेरी तो हमेशा से कोशिश रही है कि मैं कभी कुछ अपनी पत्नी या बेटी की तुलना में अच्छा पका सकूं। क्या आपने कोशिश की है? मुझे यह गंभीरता से लगता है कि प्रत्येक युवा को खाना बनाना तो आना ही चाहिए। उसके अपने फायदे भी हैं और मज़े भी। यह मज़ा अनुभव से ही आता है। अपनी बनायी हुई रोटी पहले मुश्किल से केवल मैं ही खा पाता था और मुश्किल से चबा पाता था लेकिन उसका जायका दूसरों की पकाई रोटी से कभी कम नहीं लगा।

बेटी समाज में आदमी होने की तमीज है!

पिछले दिनों भारत के प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह को व्हाइट हाउस में राजकीय भोज देने के संदर्भ में अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था कि जिन कुछ भारतीय लोगों के साथ भोज करना पसंद करेंगे उनमें पश्चिम बंगाल के राज्यपाल गोपालकृष्ण गांधी भी हैं क्योंकि वे उन्हीं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के पोते हैं जिनके प्रशंसक खुद ओबामा हैं। ओबामा में गोपालकृष्ण से केवल राजनीति और मोहनदास करमचंद गांधी के लिए प्रशंसा को लेकर ही समानता नहीं है बल्कि दोनों ने ही किताबें लिखी हैं और दोनों की ही दो बेटियां हैं। मेरे एक मित्र ने इस पर तपाक से प्रतिक्रिया दी कि इसमें क्या है बेटियों का पिता तो मैं भी हूं। मैंने कहा इसमें नया इतना ही है कि ओबामा को बेटियों का पिता होने पर गर्व है।
जिन दिनों मैं इंदौर में वेबदुनिया में कार्यरत था वरिष्ट कवि चंद्रकान्त देवताले का फोन आया कि वे मुझसे मिलना चाहते हैं। उनसे मैं विशेष तौर पर इसलिए भी मिलना चाहता था क्योंकि उनके किसी कविता संग्रह में उनके परिचय में लिखा था कि वे बेटी के पिता हैं। सचमुच बेटी का पिता होना कोई कोई साधारण बात नहीं है। त्रिलोचन जी ने मुझसे एक निजी बातचीत में कभी कहा था कि केदारनाथ सिंह इसलिए अच्छी कविताएं लिख लेते हैं कि वे कई बेटियों के पिता हैं। बेटी का पिता होना एक ज़िम्मेदार और बेहतरीन इनसान बनने की काबिलियत पैदा करता है। बशर्ते वह उन पिताओं में से न हों जो सोनोग्राफी कराकर बेटियों की भ्रूण हत्याओं का समर्थक हो।
भारत में यदि दहेज जैसे सामाजिक अपराध पर काबू पा लिया जाय तो भारत में भी लोग बेटों की तुलना में बेटी को अधिक पसंद करेंगे। दहेज के कारण प्रताड़ना और हत्या की वारदातें ही चिन्ताजनक नहीं बल्कि उससे अधिक चिन्ताजनक है दहेज से बचने के लिये बेटियों की भ्रूण हत्या। जिसके कारण लिंग अनुपात तेजी से बिगड़ता जा रहा है, जो एक दिन हमारे समाजिक ढांचे को असंतुलित कर देगा।
वरना नये भारत में बेटियों की शक्ति जांची परखी जा चुकी है। बदलती सोच का ही नतीजा है कि पिता के नक्शेकदम चलते-चलते बेटियां भी अब फो‌र्ब्स के पन्नों पर अपनी जगह बनाने लगी हैं। वनिशा मित्तल, ईशा अंबानी और पिया सिंह ऐसे ही कुछ नाम हैं। यह तीनों अमेरिका की प्रसिद्ध बिजनेस पत्रिका फो‌र्ब्स द्वारा जारी अरबपती वारिसों की सूची में शीर्ष तीन स्थानों पर जगह बना चुकी हैं। वनिशा स्टील किंग लक्ष्मी निवास मित्तल, ईशा भारत के सबसे अमीर उद्योगपति मुकेश अंबानी और पिया सिंह दिग्गज रीयल एस्टेट कंपनी डीएलएफ के प्रमुख केपी सिंह की बेटी हैं। पिता से विरासत में मिली अरबों की संपत्ति इनके इस सूची में आने का आधार बनी है। इन सभी के पिता भी दुनिया के सर्वाधिक अमीरों की टाप टेन सूची में विराजमान हैं।
अपने प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह भी तीन बेटियों के ही पिता हैं। उनकी एक बेटी व दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास की प्रोफेसर उपिंदर सिंह को हाल ही में सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए संयुक्त रूप से पहला इंफोसिस पुरस्कार प्रदान करने की घोषणा की गयी है। नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन की अगुवाई वाली सामाजिक विज्ञान पर बनी जूरी ने 50 लाख रुपए के इस पुरस्कार के लिए उपिंदर का चुनाव प्राचीन और मध्यकालीन भारत के इतिहासकार के रूप में उनके योगदान के लिए किया है। उनकी दो अन्य बेटियां हैं दमन सिंह और अमृत सिंह। अमृत सिंह अमेरिका में मानवाधिकार मामलों की संस्था अमेरिकन सिविल लिबर्टीज़ यूनियन (एसीएलयू) की वकील हैं जिन्होंने एक किताब लिखी है जिसमें अमेरिका के बुश प्रशासन को सीधे तौर पर क़ैदियों को प्रताड़ित करने का ज़िम्मेदार ठहराया गया है। 'एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ़ टॉर्चर' नाम की यह किताब उन्होंने एसीएलयू के ही दूसरे वकील जमील जाफ़र के साथ मिलकर लिखी है। यह दोनों ही वकील एसीएलयू की ओर से मानवाधिकार के विभिन्न मामलों में अमेरिकी सरकार के खिलाफ़ मुक़दमे लड़ते रहे हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 28 अप्रैल 2008 को 'सेव द गर्ल चाइल्ड' की राष्ट्रीय बैठक का उद्घाटन करते हुए लड़कियों की रक्षा की भावुक अपील करते हुए कहा था कि उन्हें तीन पुत्रियों का पिता होने पर गर्व है।
इधर, 'न आना इस देश मेरी लाडो', 'अगले जनम मोहें बिटिया ही कीजो' और 'बालिका वधू' जैसे टीवी धारावाहिकों ने लड़कियों पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ़ पुरज़ोर आवाज़ बुलंद की है और समाज में उन पर हो रहे अत्याचारों के प्रति ध्यान आकृष्ट किया है, जो इस बात के प्रति आश्वस्त करता है कि समाज लड़कियों के दर्द को समझेगा और उनकी शक्ति को भी। शहरी निकायों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था करने वाला विधेयक हाल के संसद के शीतकालीन सत्र में पेश किया जा चुका है। लोकसभा में संवैधानिक (112वां संशोधन) विधेयक पेश करते हुए शहरी विकास मंत्री एस.जयपाल रेड्डी ने पंचायतों और नगरपालिकाओं में महिलाओं की आरक्षित सीटें एक तिहाई से बढ़ाकर 50 प्रतिशत करने की घोषणा की और कहा है कि हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, तमिलनाडु, केरल, मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश की सरकारों ने शहरी स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने का समर्थन किया है। संविधान के 74 वें संशोधन के माध्यम से महिलाओं को राजनीति में बराबरी का हक देने के लिए पीवी नरसिंह राव के शासनकाल में (1992 में) पहल हुई थी। हालांकि इसका सपना पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सबसे पहले देखा था। राज्य विधानमंडलों और संसद में महिलाओं को एक-तिहाई आरक्षण का प्रावधान करनेवाले विधेयक को शीघ्र पारित कराने की देश तैयारी कर रहा है। इसके अलावा उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश सहित विभिन्न राज्य सरकारें अपने-अपने स्तर पर लड़कियों के लिए शिक्षा और अन्य मामलों में सबलीकरण के लिए अलग-अलग योजनाएं बनाकर सुविधाएं दे रही हैं। उम्मीद की जाती है कि आने वाले समय में महिलाएं और सबल होंगी और बेटियों हमारे सबके लिए गर्व का विषय होंगी।
और अन्त में इंटरनेट की एक बात। जी हां, ‘बेटियों का ब्लॉग’ एक ऐसा ही ब्लॉग है जहां ब्लॉगर माता-पिता अपनी बेटियों के बारे में बातें लिखते हैं। दरअसल, यह एक सामुदायिक ब्लॉग है जहां एक ही छत के नीचे कई ब्लॉगर माता-पिता इकट्ठा होकर अपनी बेटियों के बारे में तरह-तरह की बातें लिखते हैं। कभी कवि धूमिल ने लिखा था "कविता भाषा में आदमी होने की तमीज़ है" मैं जोड़ना चाहूंगा "बेटी समाज में आदमी होने की तमीज है।"
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