Monday 28 September 2009

हिन्दी के प्रचार प्रसार में मीडिया की भूमिका


हिन्दी आज विश्व की दूसरी बड़ी भाषा है और उसकी साख दिनों दिन बढ़ती जा रही है। अमरीका जैसे विकसित और विश्व के अगुआ देश में हिन्दी के पठन-पाठन का महत्त्व दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। हिन्दी फिल्म उद्योग विश्व में एक बड़े उद्योग के रूप में स्थापित हुआ है और हिन्दी संगीत को बोलबाला भी बढ़ा है। हिन्दी के समाचार पत्रों की संख्या और उनकी प्रसार संख्या में गुणात्मक परिवर्तन आया है। हिन्दी पत्रिकाओं की तादाद बढ़ी है। यूनिकोड फोंट के विकास के बाद इंटरनेट की दुनिया में क्रांतिकारी परिवर्तन घटित हुआ है और इंटरनेट पर हिन्दी का प्रभुत्त्व दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। हिन्दी टीवी मनोरंजक चैनलों और समाचार चैनलों की बाढ़ सी आ गयी है।

हिन्दी का फलक दिनों दिन विस्तृत होता जा रहा है। इस प्रचार प्रसार में सरकार की भूमिका उतनी बड़ी नहीं है जितनी मीडिया की। इसका उदाहरण अपने पश्चिम बंगाल की स्थित से ही लगा लें। यहां हिन्दी समाचार पत्रों की संख्या बढ़ती जा रही है। पहले जहां सन्मार्ग, विश्वमित्र जैसे गिनती के बड़े समाचार पत्र यहां थे अब वहीं जनसत्ता, प्रभात खबर, राजस्थान पत्रिका, दैनिक जागरण जैसे बड़े मीडिया घरानों के अखबार यहां से निकल रहे हैं और वागर्थ जैसी राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक पत्रिका इसी भारतीय भाषा परिषद से निकल रही है। कहना न होगा कि यह सब निजी प्रयासों से संभव हुआ है सरकार से इन प्रयासों का कोई लेना देना नहीं। एक गैर हिन्दी भाषी प्रांत में हिन्दी को लेकर इतने गंभीर प्रयास इस बात का पुख्ता प्रमाण हैं कि हिन्दी के प्रचार प्रसार में मीडिया एक कारगर भूमिका का निर्वाह कर रहा है। आज हिन्दी फिल्मों, फिल्मी गीतों, ग़ज़लों, टीवी धारावाहिकों, समाचार चैनलों ने हिन्दी को जबरदस्त लोकप्रियता प्रदान की है। गैर हिन्दी भाषी व्यक्ति भी इन कार्यक्रमों को देखकर हिन्दी सीख रहा है और हिन्दी की ताकत को अनायास बढ़ा रहा है। आज जो हिन्दी लोकप्रिय हो रही है वह आम जनता की जुबान वाली हिन्दी है। वह हिन्दी नहीं जिसे सरकारी तंत्र बढ़ावा दे रहा है। हैरत तो तब होती है जब लोगों की जुबान पर चढ़ चुके अंग्रेजी के सामान्य से शब्द सरकारी प्रयासों से हिन्दी में ढल कर लोगों को सामने आ जाते हैं और स्वयं हिन्दीभाषियों के लिए उनका अर्थ समझ पाना मुश्किल होता है। मीडिया देशज शब्दों से परहेज नहीं करता जो लोगों की जुबान पर चढ़े होते हैं उनका वह धड़ल्ले से इस्तेमाल कर उसे हिन्दी का हिस्सा बना देता है दूसरी तरफ अंग्रेजी व अन्य भाषाओं के प्रयोगों से भी गुरेज नहीं रखता तो हिन्दी का न होते हुए भी हिन्दी जन के करीब हैं। लोगों की जुबान ही मीडिया की पाठशाला होती है वह उन्हीं से प्रेरित और मार्गदर्शित होता है और उसे उसी की जुबान में ज्ञान की विविध सरणियों की बातों को ढालता है। सही अर्थों में कहा जाये तो मीडिया ही वह टकसाल है जहां भाषा गढ़ती है और हिन्दी के जो भव्य और विस्तृत रूप निखर कर सामने आया है उसमें मीडिया की महती भूमिका है।
मीडिया ही वह तंत्र है जिसने दुनिया भर को बताया कि हिन्दी के पास बहुत बड़ा बाजार है। और बाजार केन्द्रित व्यवस्था ने हिन्दी की साख को स्वीकार किया है। कहना न होगा कि जैसे जैसे बाजार की भूमिका बढ़ती जायेगी हिन्दी का महत्त्व बढ़ता जायेगा।
प्रसंगवश यहां मीडिया की भाषा की अन्य अन्यत्र इस्तेमाल हो रही भाषा से तुलना ग़लत न होगी।
विश्वविद्यालयों में मृत भाषाएं पढ़ी-पढ़ाई जाती हैं, क्योंकि उनकी भाषा शास्त्रीय होती है। शास्त्र मृत भाषाओं की कब्रगाह होते हैं, उसके विपरीत मीडिया की भाषा सबसे टटकी, सबसे ताज़ा होती है। धड़कती हुई। साहित्य भी मृत भाषाओं को उठाता है किन्तु वह उन्हें पुनर्जीवन देता है, उनमें नयी प्राण प्रतिष्ठा करता है नये अर्थ देता है, नया यौवन। सरकारी प्रयास व राजभाषा समितियां जिस भाषा को गढ़ती हैं वे न तो कभी जीवित होती हैं और न उनमें कभी जान आ सकती है। वे भाषाओं के बिजूखा गढ़ते हैं।
आज के समय में भाषा के प्रचार-प्रसार के मामले में मीडिया ही पहला दावेदार है। पत्रकार कई बार जान हथेली पर लेकर घटनास्थल से सीधे रिपोर्टिंग करते हैं जहां उनके सामने एकदम नये हालात होते हैं। जिस पर वह तत्काल प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। उस समय उसके पास कोई शास्त्र नहीं होता। शब्दों पर पुनर्विचार का समय नहीं होता। वह जिस भाषा का जिस स्थिति में प्रयोग करता है उस पर कई बार एयरकंडीशन कमरों में बैठकर आराम से काफी पीते हुए टीवी देखते हुए विद्वतजन भाषा की जुगाली करते हुए कहते हैं पत्रकार का लिंग सही नहीं है। वह अंग्रेजी शब्दों का अधिक इस्तेमाल कर रहा है। वाक्य विन्यास सही नहीं है। शब्दों का उच्चारण भी दोषपूर्ण है। कई बार वही स्थितियां प्रिंट मीडिया के लोगों के समक्ष उस समय होती हैं जब डेटलाइन की सीमा पार होती रहती है, प्लेट छूट रही होती है और कोई विस्फोट की खबर फ्लैश होती है।

आनन-फानन में भाषा का जो रूप जनता के सामने आता है उसके आधार पर मीडिया की भाषा का मूल्यांकन व्याकरण के नियमों के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए। भाषा का सम्बंध स्थितियों से होता है और उसी में उसका सौन्दर्य भी होता है और भाषा की अर्थवत्ता भी।

Monday 21 September 2009

पोखरण-2 की सफलताः विवाद, नैतिकता और राष्ट्रीय सुरक्षा के सवाल


ऐसे समय में जबकि पूरी दुनिया में यह शोर है कि पाकिस्तान ने गुपचुप तरीके से इतने परमाणु हथियार बना लिये हैं कि वह भारत से कहीं ज्यादा हैं और अमरीका भी इसकी पुष्टि कर रहा है भारत में पोखरण-2 की विफलता को लेकर किये जा रहे सवाल हमें चिन्तित कर रहे हैं। भारत यह कहता रहा है कि हमें जो भी परमाणु परीक्षण करने थे हम कर चुके हैं और आगामी दो दशकों तक अब किसी परीक्षण की आवश्यकता नहीं है और वह परमाणु के गैरसामरिक उपयोगों को लेकर समझौते कर सकता है उस पर भी रुक कर विचार करने की आवश्यकता आन पड़ी है। एक तरफ़ पाकिस्तान के परमाणु के जनक अब्दुल कादिर खान की कारगुजारियों से भारत व दुनिया परेशान थी और और दूसरी तरफ़ पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने यह कहकर और मामले को और हवा दे दी कि अमरीका की ओर से जो भी आर्थिक सहायता उन्हें आतंकियों को नष्ट करने के लिए दी गयी थी उसका इस्तेमाल उन्होंने भारत के ख़िलाफ सुरक्षा में लगाया है। इससे साफ संकेत मिलता है कि भारत के ख़िलाफ पाकिस्तान में चिन्ताजनक रूप से सामरिक तैयारियां हुई हैं या फिर उन तैयारियों का हौव्वा खड़ा किया जा रहा है। दूसरी तरफ़ हमारे कुछ प्रमुख वैज्ञानिकों ने यह आरोप लगाये हैं कि पोखरण-2 परीक्षण के नतीज़े संतोषजनक नहीं थे। पोखरण में हुए दूसरे परमाणु टेस्टों के दौरान थर्मोन्यूक्लियर डिवाइस की टेस्टिंग पर सवाल खड़ा करने वाले रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन के पूर्व वैज्ञानिक के. संथानम ने इस मामले की जांच कराने की मांग की है वहीं, 3 टॉप परमाणु वैज्ञानिकों एम. आर. श्रीनिवासन, पी. के. आयंगर और ए. आर. प्रसाद ने पोखरण-2 परमाणु टेस्टों के लिए संथानम के दावों की जांच की मांग की है। संथानम ने पिछले माह 11 मई 1998 के परमाणु परीक्षण को नाकाम बताया है और कहा है कि भारत सीटीबीटी पर दस्तखत ना करे और उसे न्यूक्लियर टेस्ट करने चाहिए। एपीजे अब्दुल कलाम इस पर झूठ बोलते रहे हैं कि नतीजे संतोषजनक हैं। इससे देश में भारतीय सेना का मनोबल कमज़ोर हो रहा है। भले ही पोखरण-2 को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन तक ने यह दावे किये हैं कि यह परीक्षण सफल था फिर भी इसे मामले की लीपापोती मानने से किसी को रोका नहीं जा सकता। परीक्षण के नतीज़ों की जांच की बात उठायी जा रही है किन्तु इसके क्या होना है। यदि यह पाया गया कि पोखरण-2 विफल था तो क्या इससे देश की सुरक्षा ख़तरे में नहीं पड़ जायेगा। और यदि सफल कहा गया तो भी जांच की निष्पक्षता पर ऊंगली नहीं उठायी जायेगी इसका कौन गारंटी लेगा। नामी वैज्ञानिकों के पैनल ने 1998 के परीक्षणों की समीक्षा की थी जिसमें सी.एन.आर. राव, पी. रामाराव व एम.आर. श्रीनिवासन जैसे प्रतिष्ठित वैज्ञानिक सदस्य थे। परमाणु कार्यक्रम के मुखिया रहे राजा रमन्ना उस समय निकाय से जुड़े थे।
वैज्ञानिक समुदाय में आपसी प्रतिद्वंद्विता के इतने निचले स्तर पर पहुंच जाने के बाद कुछ ज्वलंत प्रश्न हमारे सामने खड़े हो गये हैं और हमारी परमाणु क्षमता पर सवाल लग गये हैं। इससे भारत की दुनिया के एक शक्तिशाली राष्ट्र की छवि धूमिल हो सकती है।
लोकतंत्र में विभिन्न संस्थाओं और व्यक्तियों को यह आज़ादी तो होनी चाहिए कि वह तमाम मुद्दों पर निष्पक्षता और बेबाकी के साथ अपनी बात कहे किन्तु क्या इस तकाज़े पर भी विचार नहीं किया जाना चाहिए कि देश की सुरक्षा को ख़तरे में डालने वाले सवालों को सार्वजनिक तौर पर न उछाला जाये।
आवश्यकतानुसार देश की सुरक्षा को ख़तरे से बचाने के लिए लोकतांत्रिक सीमाओं को सख्ती से रेखांकित किये जाने की आवश्यकता है। यह नियम अवश्य बनना चाहिए कि देश की आंतरिक सुरक्षा आदि से जुड़ी शख्सियतों को पदमुक्त होने के बाद भी सार्वजनिक बयानों पर संयम बरतें। पूर्व सैन्य प्रमुख वी.पी. मलिक ने कहा कि पोखरण-2 द्वितीय परीक्षण पूरी तरह सफल नहीं बताने के कुछ वैज्ञानिकों के अलग-अलग दावों के बाद सेना का मनोबल प्रभावित हुआ है। आम नागरिक भी इससे असमंजस की स्थिति में हैं। जबकि दुनिया भर की ख़ुफिया एजेंसियां भारत को बार-बार चेतावनी दे रही हैं का भारत में और आतंकी हमले हो सकते हैं, कुछ देशों ने अपने नागरिकों और नेताओं को भारत यात्राओं से दूर रहने की चेतावनी तक दे डाली है।
अच्छा हुआ कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने परीक्षण की समीक्षा के लिए वैज्ञानिकों का पैनल नियुक्त करने के सुझाव को यह कह कर खारिज कर दिया है कि मामले की जांच के लिए तटस्थ और स्वतंत्र वैज्ञनिकों का मिलना मुश्किल होगा। मालूम हो कि पोखरण-2 के समय कलाम डिफेंस रिसर्च एंड डिवेलपमेंट ऑर्गनाइजेशन (डीआरडीओ) के हेड थे और संथानम पोखरण-2 का कोऑडिर्नेशन कर रहे थे। पूर्व टॉप अटॉमिक बॉस होमी सेतना संथानम के दावों को सही करार देते हैं। सेतना 1974 में भारत के पहले परमाणु टेस्ट के पीछे गाइडिंग फोर्स माने जाते हैं। अटॉमिक एनर्जी कमिशन के एक अन्य पूर्व चेयरमैन पी.के. आयंगर विफलता के कारणों को गिनाते हुए कहते हैं कि1998 के न्यूक्लियर टेस्ट तत्कालीन सरकार के आदेश पर जल्दबाजी में किए गए थे। तब अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई वाली एनडीए सरकार को सत्ता में आए कुछ ही समय बीता था। पोखरण-2 से दो महीने पहले मार्च 1998 में पहले इंटेलिजेंस को पाकिस्तान द्वारा परमाणु परीक्षण किए जाने की भनक मिली। इसलिए भारत की नई सरकार ने वैज्ञनिकों को जल्दी से न्यूक्लियर टेस्ट करने को कहा। अब अगर वैज्ञानिकों की तरह राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता सामने आये और तत्कालीन भाजपा नीत सरकार की कलई खोलने का दावा करते हुए विभिन्न राजनीतिक दल इसे हवा देने लगें तो भारत की राष्ट्रीय छवि और सुरक्षा का क्या होगा?

आज का मीडियाः आतुरता की विवशता


आज मीडिया में आतुरता की नयी विवशताएं पैदा हुई हैं। पहल की जो होड़ हैवह पत्रकारों को ऐसे कदम भी उठाने पर विवश कर रही है जिसके लिए वे मनसे तैयार भी नहीं होते। कार्य और समय सीमा के अत्यधिक दबाव ने उसे कईबार ऐसे हालत पैदा किये हैं कि समाचारों की पुष्टि भी संभव नहीं हो पाती।कोई भी महत्वपूर्ण ख़बर मिस करने की कवायद उससे ऐसे करवाती है।दूसरी तरफ़ इंटरनेट की विस्तार ने उसे ऐसी ज़गह ला खड़ा किया है कि पत्रकार गुमराह हो जाते हैं। कुछ प्लांटेडख़बर भी सच की शक्ल में सामने जाती हैं तो कोई शरारत कुछ खबरों को जनरेट कर उसके मज़े लेता है।विकीपीडिया ने भी इसके प्रति अतिरिक्त सावधानी बरतनी शुरू कर दी है कि कोई ऐसी सूचना सार्वजनिकप्लेटफार्म पर जाये जिससे लोग गुमराह हो जायें। हाल ही में क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर के शेल हाउस कोलेकर ऐसा ही हुआ। एक प्रसिद्ध आर्किटेक्ट के मैक्सिको में बनाये गये एक मकान की तस्वीरों को किसी नेअपने ब्लाग पर सचिन के नये मकान के तौर पर पेश कर दिया फिर शुरू हुई उस खबर और उसकी तस्वीरों कोलपकने की दौड़। कितने ही अख़बारों और वेबसाइटों ने उन तस्वीरों को तेंदुलकर के नाम से प्रकाशित कर दियाऔर बाद में उसकी हक़ीकत सामने आयी। यह तो ग़नीमत है कि यह राष्ट्रहित से जु़ड़ी कोई खबर नहीं थी किन्तुयह ख़तरा तो साफ़ दिखायी दे ही गया कि कोई भी ग़लत ख़बर एक ज़गह से चल निलकती है तो हड़बड़ी में मीडियाउसकी पुष्टि करने के बदले उस झूठ को जोर शोर से प्रचारित करने में जुट जाता है।

जटिल यथार्थ की रोचक अभिव्यक्ति

विकास स्वरूप का उपन्यास 'कौन बनेगा अरबपती' अंग्रेजी में 'क्यू एंड ए' नाम से प्रकाशित है, जिस पर 'स्लमडाग मिलिनियर' फ़िल्म बनी है जिस पर आस्कर पुरस्कार भी मिले हैं। इस उपन्यास में उन्होंने जिस परिदृश्य को अपनी विषयवस्तु बनायी है, वह भारत का है। इस उपन्यास को पढ़ते हुए जो बात हमारे जेहन में सबसे अधिक आती है वह यह कि लेखक एक जबर्दस्त किस्सागो है और कथात्मकता को रोचक बनाने के लिए जहां वह ठोस यथार्थ से बार-बार टकराता है वहीं चमत्कारों से भी उसे परहेज नहीं है।
उपन्यास में लगातार ऐसे संयोगों का क्रम चलता रहता है जिसका आम ज़िन्दगी में प्राय: कम ही अवसर होता है किन्तु यह कथानक को नयी ऊंचाई देने में सहायक है और पाठक सच और झूठ के चक्कर में न पड़कर कथानक के रोमांचकारी घटनाक्रम के साथ आगे बढ़ता रहता है। कथानक का केन्द्र हालांकि भारत की झुग्गी-झोपडिय़ों में जानवरों की सी जि़न्दगी जी रहे लोग हैं फिर भी रचनाकार अपनी रचनात्मक कुशलता के बूते उस जीवन को भी अनावृत्त करता चलता है, जो बेहतर जि़न्दगी जैसा लगता है। इस क्रम में रचनाकार न तो चर्च के जीवन को बख्शता है न फ़िल्मी दुनिया की चकाचौंध भरी ज़िन्दगी को। फ़िल्म का नाम राम मुहम्मद थामस फादर टिमथी के पास जन्म के कुछ दिन बाद तक रहा था और उसकी क्रम में वह चर्च की कड़वी सच्चाइयों से भी वाक़िफ़ होता है। रियासतों और हवेलियों की हृदयहीनता इसमें है, तो चकलाघर में वेश्यावृत्ति करने को मज़बूर की गयी मध्य प्रदेश के बेडिय़ा कबीले की नीता की ज़िन्दगी की दिल दहला देने वाली सच्चाइयां। इस कबीले के हर परिवार की एक बेटी को वेश्यावृत्ति करनी पड़ती है। रियासतों से जुड़े लोगों की तल्ख हक़ीकत को लेखक ने स्वप्न महल हवेली में रहने वाली स्वप्ना देवी के जीवन के माध्यम से व्यक्त किया है। देवर से अवैध सम्बंध के चलते वह अपने बेटे शंकर की पहचान ही गुप्त नहीं रखती बल्क़ि उसकी हृदयहीनता की हदें तब पार कर जाती हैं जब कुत्ता काटने से रैबीज के शिकार उसके बेटे शंकर की मौत हो जाती है किन्तु वह उसे बचाने के लिए चार लाख रुपये का इंजेक्शन खरीदने के लिए राम मुहम्मद थामस को पैसे नहीं देती, जबकि झोपड़पट्टी का किशोर चार लाख रुपये चोरी करके अपनी प्रेमिका को बचाने ले जाता है किन्तु उन रुपयों को रैबीज का इंजेक्शन ख़रीदने के लिए एक अनजान व्यक्ति को अपने बेटे की ज़िन्दगी बचाने के लिए दे देता है।
पुस्तक का नामः कौन बनेगा अरबपति/ लेखक-विकास स्वरूप/अनुवादक-ऋषि माथुर/प्रकाशक-प्रभात पेपरबैक्स,4/19 आसफ अली रोड, नयी दिल्ली-110002/मूल्य-125/संस्करण- 2009

यह उपन्यास धारावी की झोपड़पट्टी के एक वृहद जीवन का कारुणिक महाआख्यान बन पड़ा है। इसमें कोई संदेह नहीं और उसके बरक्स बाकी जीवन भी है जो किन्हीं मायनों में झोपड़पट्टी के जीवन से अधिक दयनीय और वहां की जीवन-स्थितियों के कारण संवेदनहीन होते जाते लोगों की तुलना में अधिक संवेदनशून्य है, अधिक दयनीय। लेखक ने इसे बार-बार व्यक्त किया है चाहे ट्रेन में डकैती के दौरान डकैत से जूझने की साहसिक घटना हो या झोपड़पट्टी में रहने आये खगोलविद पिता के यौनशोषण से उसकी बेटी को बचाने के लिए किया गया उपक्रम।


उपन्यास में झोपड़पट्टी के जीवन के बरक्स बाकी जीवन पर कटाक्ष है। यह झुग्गी-
झोपड़ी वालों पर व्यंग्य नहीं बल्कि उनके प्रति संवेदनशील मनोभूमि के साथ उसमें रहने वालों के जीवट और उनमें छिपी करुणा, संवेदनशीलता की शिनाख़्त का महती उपक्रम है। यह बात पाठक को अधिक आकृष्ट करती है कि किस्सों की पूरी थान यहां मौजूद है। एक-एक के बाद एक किस्सों की शृंखला है किन्तु उसकी कडिय़ां बड़ी खूबसूरती से जुड़ी हैं कि वे एक बड़े कथानक का हिस्सा बन जाती हैं। यह खूबसूरत कड़ी वे सवाल हैं जो झोपड़पट्टी में रहने वाले 18 वर्षीय किशोर से पूछे जाते हैं। वह अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर उन सवालों के जवाब देता। यह सवाल ही वे दरवाज़े हैं जहां से पाठक बार-बार सुपरिचित हो चले परिवेश से एक नये कथाजगत में प्रवेश करता है और फिर नये अनुभवों में लौट आता है। सबसे बड़ी बात इस उपन्यास की यह है कि कुछेक बातों को छोड़कर दोहराव नहीं है। दोहराव के स्थल वे हैं जहां बाल यौन शोषण है और रह-रह कर झोपड़पट्टी के जीवन का वर्णन है। उपन्यास के अंग्रेजी में होने से यह जरूर हुआ है कि लेखक उस दायरे से बाहर है जो हिन्दी कथाजगत की परिपाटी बन चुका है और लेखक भी बने-बनाये दायरों से बाहर जाने से यह सोचकर प्राय: हिचकते हैं कि उन्हें कहीं लुगदी साहित्य वाला न मान लिया जाये। यह उपन्यास हिन्दी में आता तो शायद वेदप्रकाश शर्मा और सुरेन्द्र मोहन पाठक के बीच कहीं उन्हें स्थान मिलता। क्रिकेट पर सट्टा लगाने वाला सुपारी किलर अहमद, हैती में लौआ को पूजने वाली महिला द्वारा वूडू तंत्र क्रिया से लोगों को यातना देने व हत्या करने की घटना, एक किशोर द्वारा डकैत की रिवाल्वर छीनकर उसे ही गोली मार देने जैसे कारनामे वेदप्रकाश शर्मा और सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यासों में ही संभव हैं। हालांकि हमारे यहां के लुगदी साहित्य में यथार्थ का वैसा विश्वसनीय चित्रण नहीं है जो विकास स्वरूप के यहां संभव हो सका है। उपन्यासकार के पास एक व्यापक दृष्टि है और तथ्यों के मामले में भी वे बेहद चौकन्ने हैं। इस मामले में हम हिन्दी के साहित्यकार मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास 'कुरु कुरु स्वाहा', सुरेन्द्र वर्मा के उपन्यास 'मुझे चांद चाहिए' और उदय प्रकाश के उपन्यास 'और अन्तमें प्रार्थना' का नाम ले सकते हैं, जो विषयवस्तु के विस्तार के लिहाज़ से भी महत्त्वपूर्ण हैं और किस्सागोई से भी ओतप्रोत। हालांकि जिस तरह के रहस्य, रोमांच और जादुई यथार्थवाद का चित्रण विकास स्वरूप ने किया है वह हिन्दी के उस लुगदी साहित्य से मेल खाता है, जो साहित्य की श्रेणी न तो गिना जाता है और ना ही उसकी कोई संभावना नजर आती है। फिर भी अविश्वसनीय घटनाओं को जोडऩे से यथार्थ की विद्रूपता और निखर कर सामने आयी और यह भी संभव हो सका है कि हालात बदलने के लिए करिश्मा ही सही, कोई रास्ता तो निकला। यथार्थ को अविश्वसनीय ढंग से ठेंगा दिखाते हुए भी कहानीपन को बचाने में विकास स्वरूप इस उपन्यास में कामयाब रहे हैं, जो इसकी पठनीयता को बढ़ाता है।

उपन्यास के नायक को नयी दिल्ली के सेंट मैरी के चर्च में पुराने कपड़े दान करने के लिए बनाये गये डिब्बे में कोई छोड़ गया था। वहां से शुरू हुई यतीम बच्चे की जि़न्दगी में कई रोचक मोड़ आये जहां कुछ वर्ष चर्च में गुजारने के बाद वह कभी झोपड़पट्टी की जि़न्दगी जीता तो कभी किसी जासूस के यहां नौकर बन गया। कभी फिल्म अभिनेत्री के यहां काम करता तो कभी बार में शराब सर्व करने लगता। कभी ताजमहल आने वाले पर्यटकों के लिए गाइड बना तो कभी बाल सुधार गृह से भीख मांगने के लिए बच्चों को विकलांग करने वाले गिरोह के हाथों लगा। बार-बार उसका सामना नयी और मुश्किल जीवन स्थितियों से पड़ा। नये लोग नयी स्थितियां उसे सिखाती रहीं। यह बच्चा 18 साल की उम्र में ही अपने अनुभवों से इतना परिपक्व होता चला गया कि उसका जीवन ही उसकी पाठशाला बन गया। वह ऐसे सवालों के जवाब जान गया जिसका जवाब कई बार कोई बहुत पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी आसानी से न दे पाये क्योंकि उसके जीवन में एकरसता नहीं थी, वैविध्य था। और उस वैविध्यपूर्ण जीवन की तहों को यह उपन्यास परत-दर-परत खोलता है। इस तेज़ रफ़्तार उपन्यास की खासियत यह है पाठक को हमेशा यह उत्सुकता रहती है कि जाने अब आगे क्या होने वाला है। विविधता को समेटने के लिए उन्होंने क्विज शो फार्मेट का इस्तेमाल किया है।

Monday 14 September 2009

कोई और उपाय खोजें जातिवाद खत्म करने का!

भारत की सरकार पिछले कई साल से संयुक्त राष्ट्र में यह आधिकारिक तौर पर स्वीकारने से बचती आयी हैं कि देश में जाति प्रथा का अस्तित्व है या नहीं.वर्ष 1965 से भारत ने नस्लीय आधार पर भेदभाव के उन्मूलन के लिए गठित संयुक्त राष्ट्र संघ की समिति की बैठकों में विरोधाभासी रवैया अपना रखा है.संयुक्त राष्ट्र ने पिछले दिनों भारत को फिर चेतावनी दी है कि वह अपने यहां जातिवाद को खत्म करे क्योंकि वह मानवाधिकारों के उल्लंघन के समान है.भारत जातिवाद को लेकर विश्वमंच पर चिन्ता जताता रहा है कि जातिगत भेदभाव गलत है और उसे खत्म करने के लिए वह अपने देश में ठोस कदम उठा रहा है किन्तु इस मुद्दे का अंतर्राष्ट्रीयकरण करना गलत होगा, लेकिन यह ठोस कदम गत साठ सालों में आरक्षण से आगे एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाया है.
भारत साठ सालों में भी यह नहीं समझ पाया है कि आरक्षण देकर जातिवाद को खत्म नहीं किया जा सकता, खास तौर पर तब जब हर चुनाव में जातीय समीकरण को प्रधानता दी जाती रहे.
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने पिछले माह जेनेवा में हुई अपनी बैठक में इस प्रश्न पर व्यापक विचार-विमर्श किया कि क्या जाति को नस्ल के समकक्ष मान लिया जाना चाहिए. भारत का मानना है कि जाति नस्ल नहीं है और जातिगत भेदभाव की समस्या भारत की आंतरिक समस्या है. संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद का यह प्रस्ताव है कि संयुक्त राष्ट्र संघ और उसके विभिन्न संगठन, क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के संबंधित सरकारों के प्रयासों में भागीदारी करें. भारत इसका विरोध कर रहा है. डरबन में 2001 में संरा की ऐसी ही एक कोशिश थी. संरा मानवाधिकार परिषद ने जाति के आधार पर भेदभाव के मामलों को मानवाधिकार उल्लंघन के दायरे में लाने का मन बना लिया है। पिछले दिनों इसके लिए परिषद ने तर्क दिया कि जाति एक ऐसा पहलू है जिसके आधार पर तकरीबन बीस करोड़ लोगों को भेदभाव का शिकार होना पड़ता है।
यह सर्वविदित है कि स्वाधीनता संग्राम के साथ ही जातिगत और लैंगिक समानता की मांग उठने लगी थी. यह मूल्य भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के अभिन्न हिस्से थे. शूद्रों की समानता के पैरोकारों ने मनुस्मृति को जलाया लेकिन अब असमानता कि चिंगारियों को हवा देकर उस पर वोटबैंक की रोटियां सेकीं जा रही हैं.
संविधान सभा के सदस्यों ने आमराय से समान मताधिकार और एक ही मतदाता सूची का प्रावधान करने के साथ ही अछूत कहे जाने वाले दलित वर्गों को बेहतर अवसर उपलब्ध कराने को दस साल के लिए आरक्षण का प्रावधान किया था, ताकि उनकी दशा सुधर सके.संविधान के अनुच्छेद 334 के तहत लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को उनकी आबादी के अनुपात के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की गयी थी.संविधान निर्माताओं ने 'कानून के समक्ष सब बराबर हैं' के बजाय और अधिक सकारात्मक और समावेशी 'कानून के समक्ष समान संरक्षण' रास्ता अपनाया जो आज संरक्षणभोगियों के लिए दूसरों से अधिक सुविधा का सबब बन गया है.
संविधान के 26 जनवरी 1950 को लागू होने के बाद से आरक्षण की अवधि दस दस वर्ष करके पांच बार बढाने के बावजूद कहा जा रहा है कि वह अब तक अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाया है इसलिए आरक्षण दस साल और बढाने की जरूरत है तो यह एक विडम्बना ही है.और यही चलता रहा तो इस बात की क्या गारंटी है कि दस साल बाद वर्ष 2019 में संविधान के अनुच्छेद 334 के प्रावधान को दस साल और बढा़ने की जरूरत नहीं पडे़गी. लोकसभा और राज्य विधान सभाओं में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं एग्लोइंडियन समुदाय के लिए आरक्षण की व्यवस्था दस वर्ष के लिए और बढ़ाने संबंधी संविधान संशोधन विधेयक को 5 अगस्त 2009 को लोकसभा में एक के मुकाबले 375 मतों से पारित कर दिया. राज्य सभा इस विधेयक को पहले ही पारित कर चुकी थी. संविधान के 109 वें संशोधन विधेयक 2009 में अनुसूचित जाति, जनजाति और एग्लो इंडियन समुदाय के लिए विधायिका में आरक्षण की व्यवस्था 25 जनवरी 2010 के बाद दस वर्ष के लिए बढ़ाने का प्रावधान किया गया है. कानून मंत्री वीरप्पा मोइली द्वारा पेश इस विधेयक के जरिए संविधान के अनुच्छेद 334 में संशोधन किया गया है. इस अनुच्छेद में मूल रूप से 60 वर्षों के लिए आरक्षण की व्यवस्था थी, जो 25 जनवरी 2010 को पूरी हो रही है. यहां यह गौरतलब है कि आरक्षण व्यवस्था का फायदा उठाने वाले वर्ग के प्रतिनिधियों, जो जाति की राजनीति के आधार पर नेता बने हुए हैं, ने ही इसका समर्थन नहीं किया बल्कि उन्होंने भी नहीं किया जो सवर्ण समुदाय से हैं, उनके समर्थन का कारण यह कि वे जाति आधारित दबाव समूहों के बीच अलोकप्रिय नहीं होना चाहते. इस विधेयक का किसी भी सदस्य ने विरोध नहीं किया, लेकिन संविधान संशोधन विधेयक होने के कारण मत विभाजन की औपचारिकता पूरी करनी पड़ी.
अब जबकि गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) के लोगों को आधार बनाकर सरकार ने कई योजनाएं शुरू की हैं जिसका लाभ एससी, एसटी वर्ग तक पहुंच रहा है तो ऐसे में जाति पर आधारित आरक्षण की आवश्यकता और औचित्य क्या है यह किसी ने नहीं पूछा. है. क्या महज यह दलील पर्याप्त है कि एससी, एसटी को आरक्षण की सुविधा तो दी गई है लेकिन इस पर ठीक से अमल नहीं हो पाया है. यही वजह है कि आजादी के 60 साल बीतने के बाद भी इन वर्गों के लोगों की स्थिति में काई खास सुधार नहीं आया है.
देश में दलितों को सवर्णों के बराबरी में लाने के लिए शुरू की गयी आरक्षण व्यवस्था आरक्षण से मिली सुविधाओं के कारण जातिवाद को ख़त्म करने में सबसे बड़ी बाधक बन गयी है. जाति के आधार पर राजनीतिक समीकरण तैयार हो गये जिसके कारण अब जाति आधारित आरक्षण ख़त्म करना मुश्किल होता जा रहा है. देश को आज़ाद हुए इतने वर्ष हो चुके हैं कि अब न तो वह लोग रहे जिन्होंने जाति के आधार पर शोषण किया और न वह हैं जिनका शोषण हुआ. अब जो पीढ़ी है उसके साथ विपरीत हो रहा है. समान प्रतिभा रखने वाले छात्र और शिक्षित युवक उन लोगों से आरक्षण के कारण पिछड़ जाते हैं जो आरक्षण की सुविधा पाते हैं. एक नये दलित वर्ग का सृजन सरकार की समानता की अभिप्सा के विरुद्ध है. ऐसे में आरक्षण को समाप्त करने के लिए सरकार में जिस दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता है उसका अभाव दिखायी देता है. दूसरे चुनाव में जातीय समीकरणों के कारण भी सरकार ऐसे अलोकप्रिय कदम उठाने का साहस नहीं जुटा पा रही है.
दलित वर्ग से जुड़ी लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार जाति आधारित आरक्षण को समाप्त करने के सवाल पर कहती हैं कि समाज में जाति आधारित आरक्षण को समाप्त करने से पूर्व जाति प्रथा को समाप्त किया जाना जरुरी है. मीरा कुमार ने बुधवार 9 सितम्बर 2009 को नई दिल्ली में इंडियन वीमन्स प्रेस कोर में प्रेस से मिलिए कार्यक्रम में कहा कि हर व्यक्ति पूछता है कि आरक्षण कब खत्म होगा लेकिन मैं पूछती हूं कि जाति व्यवस्था कब खत्म होगी? क्योंकि जब तक जाति प्रथा खत्म नहीं होती तब तक सामाजिक आरक्षण खत्म नहीं हो सकता. यहां यह याद दिलाना कम विडम्बनापूर्ण नहीं है कि स्वयं मीरा कुमार को लोकसभा अध्यक्ष बनाये जाने को एक दलित के उत्कर्ष के तौर पर देखा गया.
यह गौर करने की बात है कि यदि हमने जाति प्रथा को समाप्त नहीं किया तो इस मुद्दे के अन्तर्राष्ट्रीयण को रोकना मुश्किल हो जायेगा और पाकिस्तान जैसे मुल्कों को भी भारत में जाति के नाम पर भेदभाव अपनाने वाले राष्ट्र की तानाकशी का शिकार होना पड़ेगा. जाति आधारित अन्याय के मामलों को लेकर अंतरराष्ट्रीय दखल बढऩे का अंदेशा बना रहेगा, जो हमारी गरिमा के अनुकूल न होगा.

Sunday 6 September 2009

नेता और जनताः उत्तर दक्षिण का फ़र्क


आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री ड़ॉ.वाईएस राजशेखर रेड्डी की हेलिकाप्टर दुर्घटना में मौत के सदमे या उस ग़म में आत्महत्या की घटना से यह तो जाहिर कर दिया कि आज के दौर में भी राजनीति में ऐसे लोग हैं जिनके लिए उनके चाहने वाले जान दे सकते हैं। या फिर जिनकी मौत के सदमें से उनकी जान जा सकती है। यह भारतीय राजनीति का विरोधाभासी चेहरा है। एक तरफ हमारी संसद और विधानसभाओं में ऐसे नेता भरे पड़े हैं जिनकी काली करतूतों पर हमें शर्म भी आती है हताशा भी होती है। उनके दागदार दामन से लोकतंत्र के औचित्य पर ही कई बार प्रश्न चिह्न लग जाता है कि क्या लोकतंत्र की उपलब्धि यही है। ऐसे ही लोग हम चुनने को विवश हैं। दूसरी तरफ रेड्डी जैसे लोग हैं जिनकी मौत को आम जनता नहीं सह पा रही है।

यू भी दक्षिण भारतीय समाज इस मामले में देश के बाकी हिस्सों से भिन्न है। वहां व्यक्ति के प्रति श्रद्धा निवेदन व्यक्तिपूजा के स्तर तक पहुंच जाया करती है। कई दक्षिणभारतीय अभिनेता ऐसे हैं जिनके बाकायदा मंदिर बने हैं जिसे वहां की जनता ने बनवाया है। रजनीकान्त जैसे अभिनेताओं की फिल्म रिलीज के दौरान उनके कटआउट को दूग्धाभिषेक की खबरें हम पढ़ते रहते हैं।

उसके विपरीत उत्तर भारतीय नेता मायावती हैं, जो आम जनता के हित से जुड़े कोष के पैसे अपनी मूर्तियां बनवाने में खर्च कर रही हैं। उन्हें अपनी उस जनता पर भरोसा नहीं है कि वह उन्हें उचित सम्मान देगी। अपने जन्मदिन पर वसूली अभियान चलते रहने वाली इस नेता को हम रेड्डी के समकक्ष कैसे रख सकते हैं। खैर इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद भी मौतें हुई थीं लेकिन वह क्रुद्ध समर्थकों द्वारा की गयी हत्याओं के कारण हुईं जिनसे विद्वेष फैलता है नेता के प्रति प्यार नहीं दिखायी देता। देश में रेड्डी जैसे नेताओं की उपस्थित हमें निराश होने से बचाती रहती है। उत्तर भारत के नेताओं को सबक सीखने की आवश्यकता है। यह रेड्डी और ममता बनर्जी के व्यक्तित्व का ही करिश्मा है आज भी जो पार्टियों पर भारी है। उन्हें जनता को अपने पीछे लाने के लिए पार्टी के सहारे की ज़रूरत नहीं पड़ती वह व्यक्ति के करिश्मे से लोगों को अचम्भित करते रहे हैं।

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