विश्वविद्यालयों में मृत भाषाएं पढ़ी-पढ़ाई जाती हैं, क्योंकि उनकी भाषा शास्त्रीय होती है। शास्त्र मृत भाषाओं की कब्रगाह होते हैं, उसके विपरीत मीडिया की भाषा सबसे टटकी, सबसे ताज़ा होती है। धड़कती हुई। साहित्य भी मृत भाषाओं को उठाता है किन्तु वह उन्हें पुनर्जीवन देता है, उनमें नयी प्राण प्रतिष्ठा करता है नये अर्थ देता है, नया यौवन। सरकारी प्रयास व राजभाषा समितियां जिस भाषा को गढ़ती हैं वे न तो कभी जीवित होती हैं और न उनमें कभी जान आ सकती है। वे भाषाओं के बिजूखा गढ़ते हैं।आज के समय में भाषा के प्रचार-प्रसार के मामले में मीडिया ही पहला दावेदार है। पत्रकार कई बार जान हथेली पर लेकर घटनास्थल से सीधे रिपोर्टिंग करते हैं जहां उनके सामने एकदम नये हालात होते हैं। जिस पर वह तत्काल प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। उस समय उसके पास कोई शास्त्र नहीं होता। शब्दों पर पुनर्विचार का समय नहीं होता। वह जिस भाषा का जिस स्थिति में प्रयोग करता है उस पर कई बार एयरकंडीशन कमरों में बैठकर आराम से काफी पीते हुए टीवी देखते हुए विद्वतजन भाषा की जुगाली करते हुए कहते हैं पत्रकार का लिंग सही नहीं है। वह अंग्रेजी शब्दों का अधिक इस्तेमाल कर रहा है। वाक्य विन्यास सही नहीं है। शब्दों का उच्चारण भी दोषपूर्ण है। कई बार वही स्थितियां प्रिंट मीडिया के लोगों के समक्ष उस समय होती हैं जब डेटलाइन की सीमा पार होती रहती है, प्लेट छूट रही होती है और कोई विस्फोट की खबर फ्लैश होती है।
Monday 28 September 2009
हिन्दी के प्रचार प्रसार में मीडिया की भूमिका
Monday 21 September 2009
पोखरण-2 की सफलताः विवाद, नैतिकता और राष्ट्रीय सुरक्षा के सवाल
लोकतंत्र में विभिन्न संस्थाओं और व्यक्तियों को यह आज़ादी तो होनी चाहिए कि वह तमाम मुद्दों पर निष्पक्षता और बेबाकी के साथ अपनी बात कहे किन्तु क्या इस तकाज़े पर भी विचार नहीं किया जाना चाहिए कि देश की सुरक्षा को ख़तरे में डालने वाले सवालों को सार्वजनिक तौर पर न उछाला जाये।आवश्यकतानुसार देश की सुरक्षा को ख़तरे से बचाने के लिए लोकतांत्रिक सीमाओं को सख्ती से रेखांकित किये जाने की आवश्यकता है। यह नियम अवश्य बनना चाहिए कि देश की आंतरिक सुरक्षा आदि से जुड़ी शख्सियतों को पदमुक्त होने के बाद भी सार्वजनिक बयानों पर संयम बरतें। पूर्व सैन्य प्रमुख वी.पी. मलिक ने कहा कि पोखरण-2 द्वितीय परीक्षण पूरी तरह सफल नहीं बताने के कुछ वैज्ञानिकों के अलग-अलग दावों के बाद सेना का मनोबल प्रभावित हुआ है। आम नागरिक भी इससे असमंजस की स्थिति में हैं। जबकि दुनिया भर की ख़ुफिया एजेंसियां भारत को बार-बार चेतावनी दे रही हैं का भारत में और आतंकी हमले हो सकते हैं, कुछ देशों ने अपने नागरिकों और नेताओं को भारत यात्राओं से दूर रहने की चेतावनी तक दे डाली है।
आज का मीडियाः आतुरता की विवशता
आज मीडिया में आतुरता की नयी विवशताएं पैदा हुई हैं। पहल की जो होड़ हैवह पत्रकारों को ऐसे कदम भी उठाने पर विवश कर रही है जिसके लिए वे मनसे तैयार भी नहीं होते। कार्य और समय सीमा के अत्यधिक दबाव ने उसे कईबार ऐसे हालत पैदा किये हैं कि समाचारों की पुष्टि भी संभव नहीं हो पाती।कोई भी महत्वपूर्ण ख़बर मिस न करने की कवायद उससे ऐसे करवाती है।दूसरी तरफ़ इंटरनेट की विस्तार ने उसे ऐसी ज़गह ला खड़ा किया है कि पत्रकार गुमराह हो जाते हैं। कुछ प्लांटेडख़बर भी सच की शक्ल में सामने आ जाती हैं तो कोई शरारत कुछ खबरों को जनरेट कर उसके मज़े लेता है।विकीपीडिया ने भी इसके प्रति अतिरिक्त सावधानी बरतनी शुरू कर दी है कि कोई ऐसी सूचना सार्वजनिकप्लेटफार्म पर न आ जाये जिससे लोग गुमराह हो जायें। हाल ही में क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर के शेल हाउस कोलेकर ऐसा ही हुआ। एक प्रसिद्ध आर्किटेक्ट के मैक्सिको में बनाये गये एक मकान की तस्वीरों को किसी नेअपने ब्लाग पर सचिन के नये मकान के तौर पर पेश कर दिया फिर शुरू हुई उस खबर और उसकी तस्वीरों कोलपकने की दौड़। कितने ही अख़बारों और वेबसाइटों ने उन तस्वीरों को तेंदुलकर के नाम से प्रकाशित कर दियाऔर बाद में उसकी हक़ीकत सामने आयी। यह तो ग़नीमत है कि यह राष्ट्रहित से जु़ड़ी कोई खबर नहीं थी किन्तुयह ख़तरा तो साफ़ दिखायी दे ही गया कि कोई भी ग़लत ख़बर एक ज़गह से चल निलकती है तो हड़बड़ी में मीडियाउसकी पुष्टि करने के बदले उस झूठ को जोर शोर से प्रचारित करने में जुट जाता है।
जटिल यथार्थ की रोचक अभिव्यक्ति
पुस्तक का नामः कौन बनेगा अरबपति/ लेखक-विकास स्वरूप/अनुवादक-ऋषि माथुर/प्रकाशक-प्रभात पेपरबैक्स,4/19 आसफ अली रोड, नयी दिल्ली-110002/मूल्य-125/संस्करण- 2009
Monday 14 September 2009
कोई और उपाय खोजें जातिवाद खत्म करने का!
भारत साठ सालों में भी यह नहीं समझ पाया है कि आरक्षण देकर जातिवाद को खत्म नहीं किया जा सकता, खास तौर पर तब जब हर चुनाव में जातीय समीकरण को प्रधानता दी जाती रहे.
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने पिछले माह जेनेवा में हुई अपनी बैठक में इस प्रश्न पर व्यापक विचार-विमर्श किया कि क्या जाति को नस्ल के समकक्ष मान लिया जाना चाहिए. भारत का मानना है कि जाति नस्ल नहीं है और जातिगत भेदभाव की समस्या भारत की आंतरिक समस्या है. संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद का यह प्रस्ताव है कि संयुक्त राष्ट्र संघ और उसके विभिन्न संगठन, क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के संबंधित सरकारों के प्रयासों में भागीदारी करें. भारत इसका विरोध कर रहा है. डरबन में 2001 में संरा की ऐसी ही एक कोशिश थी. संरा मानवाधिकार परिषद ने जाति के आधार पर भेदभाव के मामलों को मानवाधिकार उल्लंघन के दायरे में लाने का मन बना लिया है। पिछले दिनों इसके लिए परिषद ने तर्क दिया कि जाति एक ऐसा पहलू है जिसके आधार पर तकरीबन बीस करोड़ लोगों को भेदभाव का शिकार होना पड़ता है।
यह सर्वविदित है कि स्वाधीनता संग्राम के साथ ही जातिगत और लैंगिक समानता की मांग उठने लगी थी. यह मूल्य भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के अभिन्न हिस्से थे. शूद्रों की समानता के पैरोकारों ने मनुस्मृति को जलाया लेकिन अब असमानता कि चिंगारियों को हवा देकर उस पर वोटबैंक की रोटियां सेकीं जा रही हैं.
संविधान सभा के सदस्यों ने आमराय से समान मताधिकार और एक ही मतदाता सूची का प्रावधान करने के साथ ही अछूत कहे जाने वाले दलित वर्गों को बेहतर अवसर उपलब्ध कराने को दस साल के लिए आरक्षण का प्रावधान किया था, ताकि उनकी दशा सुधर सके.संविधान के अनुच्छेद 334 के तहत लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को उनकी आबादी के अनुपात के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की गयी थी.संविधान निर्माताओं ने 'कानून के समक्ष सब बराबर हैं' के बजाय और अधिक सकारात्मक और समावेशी 'कानून के समक्ष समान संरक्षण' रास्ता अपनाया जो आज संरक्षणभोगियों के लिए दूसरों से अधिक सुविधा का सबब बन गया है.
संविधान के 26 जनवरी 1950 को लागू होने के बाद से आरक्षण की अवधि दस दस वर्ष करके पांच बार बढाने के बावजूद कहा जा रहा है कि वह अब तक अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाया है इसलिए आरक्षण दस साल और बढाने की जरूरत है तो यह एक विडम्बना ही है.और यही चलता रहा तो इस बात की क्या गारंटी है कि दस साल बाद वर्ष 2019 में संविधान के अनुच्छेद 334 के प्रावधान को दस साल और बढा़ने की जरूरत नहीं पडे़गी. लोकसभा और राज्य विधान सभाओं में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं एग्लोइंडियन समुदाय के लिए आरक्षण की व्यवस्था दस वर्ष के लिए और बढ़ाने संबंधी संविधान संशोधन विधेयक को 5 अगस्त 2009 को लोकसभा में एक के मुकाबले 375 मतों से पारित कर दिया. राज्य सभा इस विधेयक को पहले ही पारित कर चुकी थी. संविधान के 109 वें संशोधन विधेयक 2009 में अनुसूचित जाति, जनजाति और एग्लो इंडियन समुदाय के लिए विधायिका में आरक्षण की व्यवस्था 25 जनवरी 2010 के बाद दस वर्ष के लिए बढ़ाने का प्रावधान किया गया है. कानून मंत्री वीरप्पा मोइली द्वारा पेश इस विधेयक के जरिए संविधान के अनुच्छेद 334 में संशोधन किया गया है. इस अनुच्छेद में मूल रूप से 60 वर्षों के लिए आरक्षण की व्यवस्था थी, जो 25 जनवरी 2010 को पूरी हो रही है. यहां यह गौरतलब है कि आरक्षण व्यवस्था का फायदा उठाने वाले वर्ग के प्रतिनिधियों, जो जाति की राजनीति के आधार पर नेता बने हुए हैं, ने ही इसका समर्थन नहीं किया बल्कि उन्होंने भी नहीं किया जो सवर्ण समुदाय से हैं, उनके समर्थन का कारण यह कि वे जाति आधारित दबाव समूहों के बीच अलोकप्रिय नहीं होना चाहते. इस विधेयक का किसी भी सदस्य ने विरोध नहीं किया, लेकिन संविधान संशोधन विधेयक होने के कारण मत विभाजन की औपचारिकता पूरी करनी पड़ी.
अब जबकि गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) के लोगों को आधार बनाकर सरकार ने कई योजनाएं शुरू की हैं जिसका लाभ एससी, एसटी वर्ग तक पहुंच रहा है तो ऐसे में जाति पर आधारित आरक्षण की आवश्यकता और औचित्य क्या है यह किसी ने नहीं पूछा. है. क्या महज यह दलील पर्याप्त है कि एससी, एसटी को आरक्षण की सुविधा तो दी गई है लेकिन इस पर ठीक से अमल नहीं हो पाया है. यही वजह है कि आजादी के 60 साल बीतने के बाद भी इन वर्गों के लोगों की स्थिति में काई खास सुधार नहीं आया है.
देश में दलितों को सवर्णों के बराबरी में लाने के लिए शुरू की गयी आरक्षण व्यवस्था आरक्षण से मिली सुविधाओं के कारण जातिवाद को ख़त्म करने में सबसे बड़ी बाधक बन गयी है. जाति के आधार पर राजनीतिक समीकरण तैयार हो गये जिसके कारण अब जाति आधारित आरक्षण ख़त्म करना मुश्किल होता जा रहा है. देश को आज़ाद हुए इतने वर्ष हो चुके हैं कि अब न तो वह लोग रहे जिन्होंने जाति के आधार पर शोषण किया और न वह हैं जिनका शोषण हुआ. अब जो पीढ़ी है उसके साथ विपरीत हो रहा है. समान प्रतिभा रखने वाले छात्र और शिक्षित युवक उन लोगों से आरक्षण के कारण पिछड़ जाते हैं जो आरक्षण की सुविधा पाते हैं. एक नये दलित वर्ग का सृजन सरकार की समानता की अभिप्सा के विरुद्ध है. ऐसे में आरक्षण को समाप्त करने के लिए सरकार में जिस दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता है उसका अभाव दिखायी देता है. दूसरे चुनाव में जातीय समीकरणों के कारण भी सरकार ऐसे अलोकप्रिय कदम उठाने का साहस नहीं जुटा पा रही है.
दलित वर्ग से जुड़ी लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार जाति आधारित आरक्षण को समाप्त करने के सवाल पर कहती हैं कि समाज में जाति आधारित आरक्षण को समाप्त करने से पूर्व जाति प्रथा को समाप्त किया जाना जरुरी है. मीरा कुमार ने बुधवार 9 सितम्बर 2009 को नई दिल्ली में इंडियन वीमन्स प्रेस कोर में प्रेस से मिलिए कार्यक्रम में कहा कि हर व्यक्ति पूछता है कि आरक्षण कब खत्म होगा लेकिन मैं पूछती हूं कि जाति व्यवस्था कब खत्म होगी? क्योंकि जब तक जाति प्रथा खत्म नहीं होती तब तक सामाजिक आरक्षण खत्म नहीं हो सकता. यहां यह याद दिलाना कम विडम्बनापूर्ण नहीं है कि स्वयं मीरा कुमार को लोकसभा अध्यक्ष बनाये जाने को एक दलित के उत्कर्ष के तौर पर देखा गया.
यह गौर करने की बात है कि यदि हमने जाति प्रथा को समाप्त नहीं किया तो इस मुद्दे के अन्तर्राष्ट्रीयण को रोकना मुश्किल हो जायेगा और पाकिस्तान जैसे मुल्कों को भी भारत में जाति के नाम पर भेदभाव अपनाने वाले राष्ट्र की तानाकशी का शिकार होना पड़ेगा. जाति आधारित अन्याय के मामलों को लेकर अंतरराष्ट्रीय दखल बढऩे का अंदेशा बना रहेगा, जो हमारी गरिमा के अनुकूल न होगा.
Sunday 6 September 2009
नेता और जनताः उत्तर दक्षिण का फ़र्क
आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री ड़ॉ.वाईएस राजशेखर रेड्डी की हेलिकाप्टर दुर्घटना में मौत के सदमे या उस ग़म में आत्महत्या की घटना से यह तो जाहिर कर दिया कि आज के दौर में भी राजनीति में ऐसे लोग हैं जिनके लिए उनके चाहने वाले जान दे सकते हैं। या फिर जिनकी मौत के सदमें से उनकी जान जा सकती है। यह भारतीय राजनीति का विरोधाभासी चेहरा है। एक तरफ हमारी संसद और विधानसभाओं में ऐसे नेता भरे पड़े हैं जिनकी काली करतूतों पर हमें शर्म भी आती है हताशा भी होती है। उनके दागदार दामन से लोकतंत्र के औचित्य पर ही कई बार प्रश्न चिह्न लग जाता है कि क्या लोकतंत्र की उपलब्धि यही है। ऐसे ही लोग हम चुनने को विवश हैं। दूसरी तरफ रेड्डी जैसे लोग हैं जिनकी मौत को आम जनता नहीं सह पा रही है।
यू भी दक्षिण भारतीय समाज इस मामले में देश के बाकी हिस्सों से भिन्न है। वहां व्यक्ति के प्रति श्रद्धा निवेदन व्यक्तिपूजा के स्तर तक पहुंच जाया करती है। कई दक्षिणभारतीय अभिनेता ऐसे हैं जिनके बाकायदा मंदिर बने हैं जिसे वहां की जनता ने बनवाया है। रजनीकान्त जैसे अभिनेताओं की फिल्म रिलीज के दौरान उनके कटआउट को दूग्धाभिषेक की खबरें हम पढ़ते रहते हैं।
उसके विपरीत उत्तर भारतीय नेता मायावती हैं, जो आम जनता के हित से जुड़े कोष के पैसे अपनी मूर्तियां बनवाने में खर्च कर रही हैं। उन्हें अपनी उस जनता पर भरोसा नहीं है कि वह उन्हें उचित सम्मान देगी। अपने जन्मदिन पर वसूली अभियान चलते रहने वाली इस नेता को हम रेड्डी के समकक्ष कैसे रख सकते हैं। खैर इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद भी मौतें हुई थीं लेकिन वह क्रुद्ध समर्थकों द्वारा की गयी हत्याओं के कारण हुईं जिनसे विद्वेष फैलता है नेता के प्रति प्यार नहीं दिखायी देता। देश में रेड्डी जैसे नेताओं की उपस्थित हमें निराश होने से बचाती रहती है। उत्तर भारत के नेताओं को सबक सीखने की आवश्यकता है। यह रेड्डी और ममता बनर्जी के व्यक्तित्व का ही करिश्मा है आज भी जो पार्टियों पर भारी है। उन्हें जनता को अपने पीछे लाने के लिए पार्टी के सहारे की ज़रूरत नहीं पड़ती वह व्यक्ति के करिश्मे से लोगों को अचम्भित करते रहे हैं।