Sunday 30 August 2009

स्थानीयता का तड़का किसलिए!


स्थानीयता का बोध इधर अत्यंत क़ीमती हो चला है। जीवन के हर क्षेत्र में। जब से भूमंडलीकरण की बात ने तूल पकड़ा तब से स्थानीयता का महत्त्व एकाएक बढ़ गया। सार्वभौमिकता कभी भी स्थानीयता के अभाव में संभव ही नहीं है। सार्वभौमिता को उर्जा स्थानीयता से ही मिलती है। जो स्थानीय नहीं है वह सार्वभौंमिक होने योग्य भी नहीं होगा। यह सार्वभौमिकता को उसके अनुभवों ने सिखाया है। सार्वभौंमिकता वह अमरबेल है जो परजीवी है। इसी प्रकार विश्व बाज़ार में कोई टिके रहना चाहता है तो उसका अपना गांव भी कहीं कहीं होना चाहिए। यह विश्वबाज़ार उन्हीं गांवों की तलाश में रहता है जिस तक वह अपनी एक्सेस या पहुंच चाहता है। बाज़ार अपने लिए स्थान खोजता है और वह गांव ही तो है, वह स्थानीयताएं ही तो हैं जो उसे अपने विस्तार के लिए स्पेस देती हैं। और यह गांव ही है जो विश्वबाज़ार का वास्तविक केन्द्र है। यह अनायास नहीं है कि भारत दुनिया के आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है क्योंकि भारत के पास विश्व बाज़ार के फैलाव के पर्याप्त स्पेस है गांव के रूप में।

हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओं में इधर अख़बारों ने नये स्थानीय संस्करणों की होड़ सी मची हुई है। कुछ राज्यों में तो जिला स्तर पर संस्करण निकलने लगे हैं और वह अख़बार अधिक पन्नों के होने के बावज़ूद स्थानीय ख़बरों से भरे होते हैं। उसका कारण क्या है? यह बाज़ार की स्थानीयता की मांग। विज्ञापनदाता चाहता है आपकी स्थानीय पहुंच। जन-जन तक। सुदूर गांवों तक, क्योंकि गांव के आख़िरी आदमी तक उसे अपने माल ग्राहक चाहिए। अख़बार गांव तक पहुंचेगा तो स्थानीय ख़बरों के आधार पर और अख़बार पहुंचेगा तो विज्ञापन भी पहुंचायेगा।
विज्ञापन माल की ख़रीद के लिए सुदूर गांव तक अपने ग्राहक तैयार करेगा। इस प्रकार पश्चिम का विकसित कोई देश अपने उत्पाद को पूरब के किसी विकासशील या अविसित देश के गांव तक अपना ग्राहक बना लेता है। माल अपने लिए मीडिया के माध्यम से चाहत भी पैदा करता है और रुचि भी तैयार करता है। यही कारण है कि हर स्थानीय भाषा का रुतबा इधर बढ़ा है। वह भोजपुरी भाषा जो अब तक बोली ही बनी हुई है उसका भी फिल्मों और संगीत में एक अच्छा खासा बाज़ार तैयार हो गया है। टीवी चैनलों की भी भोजपुरी में भरमार होने जा रही है और कोई हैरत नहीं कि जोर शोर के साथ कोई बड़ा मीडिया समूह अपना दैनिक अख़बार शुरू कर दे।

इधर हिन्दी के धारावाहिकों में स्थानीयता का तड़का देने की होड़ मची हुई है। राजस्थानी परिदृश्य पर बने धारावाहिक बालिका वधू ने अपनी स्थानीयता के बूते एकता कपूर के धारावाहिकों के साम्राज्य को सिर्फ़ ढहा दिया बल्कि टीवी सीरियलों का स्वरूप ही बदल कर रख दिया। अब कई ऐसे धारावाहिक मैदान में गये हैं जिनमें गुजराती, पंजाबी, भोजपुरी, ब्रजभाषा का तड़का इतना अधिक लग रहा है कि कहना मुश्किल हो गया है कि किस भाषा में धारावाहिक बना है। इससे हो यह रहा है कि विभिन्न भाषाओं के लोगों को वह धारावाहिक स्थानीय टच के कारण लुभा रहा है और एक फार्मूले का रूप ले चुका है। टीवी धारावाहिकों को सुनकर कोई हिन्दी सीखे तो वह असमंजस में पड़ जायेगा। इस स्थानीय टच के चक्कर में टीवी से जिस भारत की तस्वीर सामने रही है वह बड़ी अज़ीब है। एक तरफ़ उस पिछले भारत की तस्वीर है जो अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो, बालिका वधू का एकदम पिछड़ा भारत है दूसरी तरफ़ मुझे जंगल से बचाओ और सच का सामना जैसे अति आधुनिक कन्सेप्ट के रियलिटी शो। यह दोनों ही आज के उस भारत की तस्वीर नहीं है जिस विकसित भारत की बात पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम करते रहे या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह करते हैं।

इस तरह का एक दौर चला था हिन्दी साहित्य में जिसमें बोलियों स्थानीयता को इतना अधिक महत्व दिया जाता था कि मन करता था कि लेखक से कहें कि भाई जब भोजपुरी या अमुक भाषा को इतनी ही तरजीह देने की इच्छा थी तो सीधे भोजपुरी में ही क्यों नहीं लिख दिया लेकिन साहित्य में यह कार्य बाज़ार की मांग पर नहीं हुआ था। अब तो जो कुछ स्थानीयता के नाम पर हो रहा वह शुद्ध व्यापारिक मसला है।

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