Monday 28 December 2009

तिवारी प्रकरणः दोनों तरफ है विश्वसनीयता का संकट


एनडी तिवारी के सेक्स स्कैंडल ने देश के चेहरे पर मुस्कान ला दी। 85 साल के तिवारी जी अपने खिलाफ सेक्स स्कैंडल को झूठ बताते हैं। और उनका कहना है कि यह आंध्र में कुछ लोगों की मनगढंत साजिश का परिणाम है। तिवारी की मानें तो आंध्र में तेलंगाना का संघर्ष चल रहा है।
इसको लेकर वहां कुछ लोग राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के संभावित दौरे के सिलसिले में उनसे मिलना चाहते थे लेकिन उन्होंने मिलने से मना कर दिया था। वे लोग किसी प्रकार से राजभवन में अपनी घुसपैठ बनाने की कोशिश में जुट गए। हालांकि उन्होंने कुछ लोगों से मुलाकात भी की थी लेकिन कुछ लोग उनसे नाराज हो गए थे। उन्हीं लोंगों ने यह साजिश रची है। हालात जैसे हैं उससे तो यह लग रहा है कि यह सब साजिश है और सचमुच तिवारी जी को राजनीति से संन्यास लेने के बजाये अपना पक्ष लगातार रखना चाहिए। विश्व राजनीति में यों भी यौन सम्बंधों को लेकर बड़े बड़े मामले होते रहे हैं और उसे किसी के राजनीतिक करियर का समापन नहीं हुआ है। फिलहात तो लोग एक टीवी चैनल द्वारा दिखायी गयी विडियो के मजमून की चर्चा कर लुत्फ ले रहे हैं। किसी बहाने तो लोगों के चेहरे पर रौनक लौटी। बिल क्लिंटन की चर्चा को काफी दिन हुए भारतीय नेताओं की भी इस प्रसंग में चर्चा होती रहनी चाहिए। यह तिवारी का तड़का अच्छा है। रहा सवाल स्कैंडल का तो न तो आज सत्ता का सुख भोगने वालों के पतन की कोई सीमा रह गयी है ना विपक्ष के चारित्रिक पतन की। मीडिया के दुरुपयोग की घटनाएं भी अब आम हो गयी हैं। ऐसे में तिवारी पर लगे आरोपों की विश्वसनीयता संकट में है और सिर्फ नैतिकता की दुहाई देने से काम नहीं चलेगा और ना ही किसी के सत्ता पक्ष में होने से यह सिद्ध हो जाता है कि वही भ्रष्ट होगा।

बड़ा होना स्वार्थी होना नहीं है

पिछले दिनों पेरिस में एक शोध के हवाले से रिपोर्ट प्रकाशित हुई कि जिन लोगों के कई बच्चे होते हैं उनमें सबसे बड़ा बच्चा अधिक स्वार्थी होता है। शोध में जो तर्क दिये गये हैं उसका आधार मनोवैज्ञानिक हैं और कहा गया है कि स्वार्थी होने के पीछे उसकी वह मनोग्रंथी है जो दूसरे बच्चे के जन्म के साथ शुरू होती है। दूसरे बच्चे के आने पर जब उसे पहले जितना प्यार और तवज्जो नहीं मिलती तो वह उपेक्षित महसूस करने लगता है और स्वार्थी हो जाता है। लेकिन भारत में दुनिया का मनोविज्ञान फेल हो जायेगा। हमारे यहां मनोविज्ञान नहीं समाजशास्त्र पर आधारित अध्ययन ही कारगर होगा। यहां तो परिवार की अधिकांश जिम्मेदारियों बड़ी बेटी पर आती है और वह बाकी भाई बहनों की परवरिश से लेकर सेवा सत्कार में अपनी मां और परिवार का सबसे ज्यादा हाथ बंटाती है। दूसरों की अपेक्षा बड़े बेटे को अधिक जिम्मेदारी उठानी पड़ती है और वह पिता की बची जिम्मेदारियों में सबसे अधिक हांथ बंटाता है। अपने भाइयों को पढ़ाने से लेकर कुंवारी बहनों के विवाह तक के मामले में उसकी महती भूमिका होती है और जब उसके छोटे भाई काबिल हो जाते हैं तो बड़ा अपने आपको ठगा हुआ महसूस करता है और उसकी तकलीफ केवल उसकी तकलीफ होती है। इसलिए विदेश सर्वे अपने पल्ले नहीं पड़ रहा है और हमारे लिए वह कोरी गप है।
शोध में कहा गया है कि स्वार्थी होता है घर का बड़ा बच्चा। अगर आपको मदद की जरूरत है, तो इस मामले में आप अपने सबसे बड़े बच्चे से मदद नहीं मांगे। अध्ययन में कहा गया है कि पहले पैदा हुआ बच्चा अपने छोटों के मुकाबले ज्यादा स्वार्थी होने के साथ ही मदद नहीं करने के इच्छुक होते हैं। मोंटपेलियर यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने यह नतीजे निकाले हैं। उनका हमारे भारत में स्वागत है ताकि वे अपने शोध के तर्कों को यहां की कसौटी पर कसकर देखें और अपने को कटेक्ट करें। यहां तो कई बड़े भाई या बहन जिम्मेदारियों के बोझ से ऐसे दबे कि स्वयं उनकी शादी नहीं हुई और वे अपने से छोटों को काबिल बनाने और उनकी जिम्मेदारियों को उठाने में ही खप गये।

गीता कोड़ा की जीत का मतलब


पिछले दिनों मैंने लिखा था कि मधु कोड़ा आर्थिक भ्रष्टाचार के मामले में फंसे हैं और उन्होंने अपनी पत्नी को झारखंड के चुनावी मैदान में उतार दिया है और जैसी अपने देश की राजनीतिक व्यवस्था है वे जीतेंगी। अब जनता को देखो कि उसने भ्रष्टाचार की विजय के मेरे विश्वास को डिगने नहीं दिया। जनता जाने अनजाने व्यवहारिक तौर पर ऐसे लोगों को समाज में नायक बनाये रखती हैं जिनका सैद्धांतिक तौर पर विरोध किया जाता है। मधु कोड़ा की पत्नी गीता कोड़ा की विधानसभा चुनाव में हालिया जीत इसका उदाहरण है। मधु कोड़ा अभी मामलों से बरी नहीं हुए हैं किन्तु उनकी पत्नी की विजय ने बता दिया कि इस देश का जनमत ऐसे लोगों के साथ है। लोकतंत्र की इन विडम्बनाओं का हम क्या करें? राजनीति की लोकतंत्र से बेहतर कोई प्रणाली अभी विकसित नहीं हुई है। ऐसे में इस व्यवस्था की खामियों को दूर करने की कुंजी किसके पास है इस पर विचार करने की आवश्यकता है। मीडिया ने सुर्खियों के बीच उछाला कि हजारों करोड़ रुपये के घोटाले के आरोप में जेल में बंद झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा की पत्नी गीता कोड़ा पहली बार सदन पहुंची हैं और इस बार उन्हें सबसे युवा विधायक बनने का भी गौरव प्राप्त हुआ है। क्या हमें ऐसे गौरव की आवश्यकता है?

आम आदमी के पतन की दास्तान


टीवी धारावाहिक बिग बास में प्रवेश राणा की हार के साथ ही आम आदमी के छवि टूटी है। यह वही आम आदमी है जो विंदू दारा सिंह और पूनम ढिल्लन के सम्पन्न बैगग्राउंड से कुंठित होकर और हताश होकर स्वीमिंग पूल में खाने-पीने की वस्तुएं फेंकने लगा था और उसकी यह हरकत उसे ले डूबी। उसकी हार में बिग बास की स्वयं की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। हम तो इसे फाउल और पक्षपात मानते हैं। खेल वहां फाइनल में बचे तीन प्रतियोगियों के बीच था। राणा ने खाने की चीजें यदि स्वीमिंग पूल में फेंकी तो उसका जवाब बाकी प्रतियोगियों को देना चाहिए था ना कि स्वयं बिग बास को। बिग बास की ओर से एक लघु फिल्म दिखा दी गयी कि कैसे इस देश में लोग भूख से मर रहे हैं और यहां प्रवेश राणा खाने की चीजें बरबाद कर रहा है। इससे उसका नकारात्मक छवि और अधिक उभर कर आयी जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा। नतीजा यह निकला कि एक जोकर विंदू दारा सिंह बिग बास बन बैठा। देखने वाले सभी जानते हैं कि उसके दिमाग में कहीं कुछ कम है। अपने आपमें हमेशा बड़बड़ाता आदमी और महिलाओं के प्रति अशोभनीय टिप्पणी करने वाले विंदू का नायक के तौर पर उभरना नायकों की एक नकारात्मक छवि पेश करता है।

Tuesday 22 December 2009

आम आदमी की ताक़त









टीवी धारावाहिक बिग बास के फाइनल में जब तीन लोग बचे तो एकाएक आम आदमी का जुमला अचानक एक ताकत के रूप में उभरा। प्रवेश राणा, बिन्दु दारा सिंह और पूनम डिल्लन तीनों आम आदमी की दुहाई देने लगे। पिछले दिनों कार्यक्रम के एंकर अमिताभ बच्चन ने प्रवेश राणा को आम आदमी कहा था और जब अंतिम निर्णायक दौर शुरू हुआ तो प्रवेश राणा ने आम आदमी का नारा लगाना शुरू कर दिया ताकि इस देश के लोग आम आदमी के नाम पर उसे एसएमएस से वोट करें। इधर पूनम डिल्लन ने सफाई दी कि सेलिब्रिटी भी आम आदमी ही होते हैं वे आम आदमी से हटकर नहीं होते। और बिन्दु दारा सिंह ने दावा कर दिया कि नहीं प्रवेश तो मिस्टर इंडिया रहे हैं आम आदमी तो वे स्वयं हैं जो लम्बे समय से ट्रगलर हैं। लब्बो लुबाब यह कि आम आदमी अंतिम दौर में बिग बास की मुख्य आकर्षण बन गया। इस देश में आम आदमी एक बड़ी ताकत है और उसे अपने पक्ष में करने की पुरजोर कोशिश होती रही है। यह जो हमारे युवाओं के नायक हैं राहुल गांधी वे खास अंदाज में आम आदमी के करीब पहुंचते रहे हैं। दलितों के घर में खाने तक से गुरेज नहीं करते। कभी मैनेजमेंट गुरु माने जाने वाले लालू प्रसाद आम आदमी की शैली में लोगों के सामने पेश आते रहे हैं ताकि उन्हें अपने पक्ष में कर सकें। अच्छा है कि आम आदमी खास बना हुआ है। लोकतंत्र की यही माया है।

अब चुकाओ सच्चाई की कीमत

सादगी परस्त ममता बनर्जी ने सबसे मलाईदार विभाग रेलमंत्रालय ही चुना था जो लालू प्रसाद की भी पहली पंसद था। लेकिन जैसे ही वे रेल मंत्री बनीं अपने पहले के रेल मंत्री लालू की तारीफ करने के बदले उनकी बुराई खोजनी शुरू की और इस हद तक पहुंचीं कि बाकायदा उनके कार्यकाल पर श्वेत पत्र जारी कर दिया। कहा कि लालू का रेलबजट छलावा था और आंकड़े छलावा हैं। रेलवे को मुनाफा हुआ ही नहीं। लालू खामखाह अपने रेल बजटों पर तालियां बजवाते रहे हैं। जनता ने कहा वाह ममता दी वाह। क्या बात कही आपने। आप ही हैं जनता की असली आवाज। आपने लालू जी के छल को सामने रखा। वाह अभी निकली नहीं थी कि आह वाह कहने वालों के मुंह से आह निकलने जा रही है। इस बात के संकेत मिले हैं कि पांच साल तक जिस लालू जी की वजह से आम लोगों के लिए रेल का किराया नहीं बढ़ रहा था और वह बढ़ने जा रहा है। ममता जी आपकी सच्चाई तो लालू जी से अधिक जनता को भारी पड़ रही है। आपसे तो लालू जी का सच ही भला था।
रहा सवाल संप्रग सरकार का तो लालू ने संप्रग सरकार में रहकर बतौर रेलमंत्री अपनी इमेज को दुरुस्त किया था लोकप्रियता हासिल की थी। बाद में जब उन्होंने पिछले लोकसभा चुनाव में संप्रग सरकार के बनने और मनमोहन सिंह के नेतृत्व पर प्रश्नचिन्ह खड़े किये थे तो यह आवश्यक हो गया था कि कांग्रेस उन्हें आईना दिखाये। उसे एक कटुनिन्दक चाहिए था तो वह ममता के रूप में सामने आया है। दूसरे ऐसा लगता है कि ममता स्वयं अपने ही चलाये तीर से घायल होने जा रही हैं क्योंकि आम जनता की निगाह में रेल किराये में वृद्धि के बाद पहले जितनी प्रिय नहीं रह जायेंगी।

लाखों औरतों के शोषण को नहीं किया जा सकता अनदेखा

अदालत ने पिछले दिनों सरकार से पूछा है कि जब वेश्यावृत्ति को खत्म नहीं कर सकते तो उसे वैध क्यों नहीं कर दिया जाता। प्रश्न कायदे का है और इस पर शोर बरपा है। उम्मीद की जा रही है थी कि औसत लोगों की सोच होती है कि यह अनैतिक काम है और उसे वैध नहीं किया जाना चाहिए। इससे समाज पतित होता है और उस पर अंकुश हट जायेगा तो उसे प्रोत्साहन मिलेगा। बौद्धिक समाज मानता रहा है कि इसमें मजबूर और गरीब महिलाएं आती हैं और समाज के हालत बदलने चाहिए ताकि कोई इस पेशे में न उतरे। समाज को वेश्याओं से हमदर्दी से पेश आना चाहिए उन हालातों दूर करने का प्रयास किया जाना चाहिए तो किसी को वेश्या बनने को मजबूर करते हैं। इससे परे मुक्त मन और आधुनिक सोच के लोगों का मानना वैसा ही है जैसा अदालत ने पूछा है कि जब इसे खत्म नहीं कर सकते तो उसे वैध क्यों नहीं किया जाना चाहिए। हकीकत यह है कि देहव्यापार के अवैध बने रहने के कारण एक ओर पुलिस उनसे यह कहकर वसूली करती है कि अवैध कामकाज हो रहा है दूसरी तरफ अपराध जगत से जुड़े लोग उनसे वसूली करते हैं और भुक्तभोगी पुलिस के पास फरियाद नहीं कर पाते क्योंकि वे स्वयं अवैध गतिविधि से जुड़े हैं। दुतरफा वसूली से त्रस्त यह देह का कारोबार उन संस्थाओं द्वारा भी छला जाता है जो समाज सेवा के नाम पर उनसे हमदर्दी दिखाते हैं और उनके हितों के लिए काम करते दिखायी देते हैं। ये स्वयंसेवी संस्थाएं उनका इस्तेमाल कई स्तरों पर करतीं और चाहती हैं कि समस्या बनी रहे और वे अपने स्वार्थ साधती रहें। सार्वजनिक मंचों पर वेश्यावृत्ति के क्षेत्र में काम करने वाले कई स्वयंसेवी संगठनों ने कहा है कि इस धंधे को नैतिक नहीं बनाया जाना चाहिए। उनके भी यही तर्क हैं कि इससे इस धंधे में लोगों का आना बढ़ेगा। यह सवाल सभी गुटों से पूछा जाना चाहिए कि आप किस परम्परा और संस्कृति का हवाला देकर उसे बंद करना चाहते हैं जबकि वेश्यावृत्ति भारतीय समाज में युगों युगों से किसी न किसी रूप में मान्य रही है। इस पेशे को वैध बना देने से जहां उनका पुलिस और गुंडों से शोषण रुकेगा वहीं उनके व उनके ग्राहकों की स्वास्थ्य समस्याओं के निदान का रास्ता भी खुलेगा। आजाद भारत में नैतिकता की दुहाई देकर एक भी व्यक्ति के शोषण को अनदेखा नहीं किया जा सकता यहां तो बीस-तीस लाख लोगों की समस्या है। इस भय से लोगों को लोगों के शोषण की प्रक्रिया को जारी नहीं रखा जा सकता कि इससे कुछ और लोगों के शोषण के रास्ते खुल सकते हैं। अभी तो चुनौती यह है कि जो शोषण प्रत्यक्ष तौर पर हो रहा है और सीलन भरे कमरे में लाखों औरतों जो जिन्दगी गुजार रही हैं उनके जीवन स्तर को कैसे सुधारा जाये और कैसे उन्हें भयमुक्त किया जाये इस पर गौर करने की आवश्यकता है। पेशा तो यह चल ही रहा है उसका नियमन हो जाने से कम से कम अपहरण करके लाई गयी, जबरन पेशे में उतारी गयी, अवयस्क लड़का पेशे में आगमन जैसी घटनाओं पर कुछ तो अंकुश लगेगा। सरकार उनके स्वास्थ्य परीक्षण को अनिवार्य कर सकेगी ताकि बीमारियों का फैलाव रोका जा सके।

क्या बार बार मिलता है मनुष्य जीवन!


एनडीटीवी इमेजिन' पर चल रहा 'राज-पिछले जनम का' धारावाहिक रियल्टी शो के नाम पर जो झूठ परोस रहा है उस पर कोर्ट ने नोटिस दे दिया है। पुनर्जन्म का कोई वैज्ञानिक आधार अब तक सामने नहीं आया है। इस धारावाहिक में इस तरह का नाटक होता है जैसे कोई व्यक्ति पिछले जन्म में लौट जाता है और उसे पिछले जन्म की घटनाएं याद आती है और इस जन्म की समस्याओं का सम्बंध भी उसके पिछले जन्म से है। अव्वल तो पुनर्जन्म की अवधारणा हिन्दू धर्म में भी है लेकिन इसमें माना गया है कि बड़ी मुश्किल से किसी को मानव जन्म मिलता है जबकि इस धारावाहिक में हर व्यक्ति पिछले जन्म में मनुष्य ही होता है। तो साहब इस तरह वह वैज्ञानिक तथ्यों की तो अनदेखी कर ही रहा है पुनर्जन्म के धार्मिक विश्वासों के साथ भी छेड़छाड़ कर रहा है। रियल्टी के नाम पर इस तरह के कार्यक्रमों को कोई तो मर्यादा रखनी होगी।


Monday 14 December 2009

नये राज्यों का गठनः कोई सर्वमान्य फार्मूला बनाये सरकार

पृथक तेलंगाना राज्य के गठन की प्रक्रिया शुरू करने की केन्द्र सरकार की घोषणा के बाद देश भर में अलग राज्यों की मांग को लेकर घमासान छिड़ गया है। तेलंगाना पृथक राज्य की मांग का आंदोलन 40 साल पुराना है। और आखिरकार आमरण अनशन पर बैठे तेलंगाना राष्ट्र समिति के नेता के चंद्रशेखर राव को 11 वें दिन केन्द्र सरकार ने आश्वस्त कर दिया कि उनकी मांग पर सरकार कार्रवाई आगे बढ़ायेगी।भारत में आज़ादी के बाद राज्यों का जो बंटवारा हुआ वह न तो अंतिम तौर पर संतोषप्रद है और ना ही यथास्थिति रखने योग्य। कई राज्यों का भौगोलिक आकार इतना बड़ा है कि उसमें देश के ही कई राज्य समा जायें। ऐसे में अगर प्रशासनिक सुविधा के लिए छोटे राज्यों का गठन किया जाये तो इसमें किसी को हर्ज़ नहीं होना चाहिए। इससे प्रशासनिक पैठ बढ़ने और आम नागरिक की उस तक पहुंच बढ़ने से लोगों का फायदा ही होगा। देश के 14 राज्य 21 हुए, फिर 25, फिर 28 और अब 29 वें तेलंगाना राज्य बनने की प्रक्रिया पर सहमति बनी है। इससे देश की अखंडता का कोई प्रश्न नहीं जुड़ा है इसलिए इस विघटनाकारी नहीं माना जाना चाहिए।
लेकिन व्यावहारिक तौर पर यह आशंकाएं बलवती हैं कि कुछ ऐसे दल जिनकी आम जनता में कोई पैठ नहीं है इसका लाभ उठाने के लिए अलग राज्य के आंदोलन को हवा दे सकते हैं और कुछ और जुगाड़ू नेताओं को राजनीति में खाने कमाने के ठेक मिल जायेंगे। दूसरी तरफ केन्द्र सरकार यह सोचती है कि किसी अलग राज्य की मांग करने वालों के पीछे कितना जनाधार कितना है, यदि व आधार कमजोर है या प्रतिबद्ध नहीं है तो उसमें टालमटोल हो सकती है और कम हकदार भी अपनी सही रणनीति के बूते अपनी मांग मनवा सकता है। भाषा का दर्जा दिये जाने के मामले में भी यह देखा गया है और करोड़ों लोगों की भाषा भोजपुरी अब तक आश्वासनों पर ही टिकी हुई है और बाकयदा उसे भाषा का दर्जा नहीं मिल पाया है जबकि कई और भाषाएं हैं जिन्हें बोलने वाले कम हैं मगर भाषा का दर्जा उन्हें प्राप्त है। मराठी भी उनमें से एक है जिसे बोलने वाले राज ठाकरे मराठी से काफी अधिक बोली जाने वाली भोजपुरी के लोगों को आंखें दिखाते हैं।भाषा, सामाजिक व आर्थिक स्थिति, सरकार की बेरूखी आदि के मसले ऐसे होते हैं जो किसी अलग राज्य की मांग को पुष्ट करते हैं और जिनके आधार पर आंदोलन छेड़े जाते हैं।
फिलहाल, गृह मंत्रालय के सामने तेलंगाना सहित 10 पृथक राज्यों की मांगें पड़ी हुई है। और आंध्र में तेलंगाना को मिले आश्वासन ने बाकी को एक नयी उत्तेजना से भर दिया है और उन्होंने अपने सोये आंदोलन को सहसा तेज कर दिया है। इससे एकाएक देश भर में अफरातफरी का माहौल बन गया है और जनजीवन एकाएक शुरू होने आंदोलनों से असामान्य। सरकार को चाहिए कि नये राज्यों के गठन के सम्बंध में बाकायता गहन विमर्श अपने स्तर पर कराये और कोई ऐसा नियम बनाये जिसके आधार पर नये राज्यों के गठन की प्रक्रिया शुरू होना ना कि आंदोलनों से प्रेरित होकर। यह आंदोलनों की आवाज़ सुनने का मसला नहीं है बल्कि प्रशासनिक मामला है और उसे प्रशासनिक तौर तरीकों से ही हल किया जाना चाहिए। चूंकि कांग्रेस नीतिगत स्तर पर छोटे राज्यों की हिमायती रही है ऐसे में उसे कोई उलझने पेश नहीं आयेगी और नये राज्यों के गठन का कोई फार्मूला तैयार करना चाहिए। और उस पर अमल करते हुए आगे काम बढ़ना चाहिए। यही उसका सर्वमान्य हल है अन्यथा एक राज्य का गठन अन्य राज्यों की मांग की चिंगारी को हवा देगा और देश के लोग आंदोलनों के कारण त्रस्त। अभी से कई राज्य बंद को झेलने लगे हैं।
सरकार ने तेलंगाना के गठन की प्रक्रिया की जो शर्तें रखीं है वे अभी तो पूरी होती नज़र नहीं आ रही हैं। तेलंगाना के गठन की प्रक्रिया आसान नहीं है। यह काफ़ी जटिल है। सबसे पहले राज्य विधानसभा में आशय का प्रस्ताव पारित कराना होगा। फिर राज्य के बंटवारे का एक विधेयक तैयार होगा और संसद के दोनों सदनों में ये पारित होगा। इसके बाद राष्ट्रपति ये राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए जाएगा। इसके बाद संसाधनों के बंटवारे की कठिन प्रक्रिया शुरू होगी। किन्तु जो तेलंगाना की जो आंधी चली है उस पर अब सरकार को ही काबू पाना है। देखना यह है कि यह सरकार नयी चुनौतियों से कैसे जूझती है और उसके पास नये राज्यों के गठन का क्या ब्लू प्रिंट है?
कुछ नये राज्यों के गठन की मांग इस प्रकार हैः आंध्रप्रदेश में ही ग्रेटर हैदराबाद, बंगाल में गोरखालैंड, महाराष्ट्र में अलग विदर्भ राज्य, उत्तर प्रदेश में हरित प्रदेश, बुंदेलखंड और पूर्वांचल, गुजरात में सौराष्ट्र, असम में बोडोलैंड, पश्चिम बंगाल और असम के कुछ हिस्से को मिलाकर ग्रेट कूच बिहार, बिहार में मिथिलांचल, पूर्वी उत्तरप्रदेश-बिहार-छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्से को मिलाकर भोजपुर, राजस्थान के नौ जिलों को मिलाकर मरुप्रदेश की मांग।

बांझ स्त्री के लिए नहीं है आज की कविता में भी स्थान!

पिछले दिनों मानव प्रकाशन, कोलकाता की ओर से एक गोष्ठी में कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव को सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। नयी पीढ़ी के कवियों में उनका जि़क्र कायदे से होता है। कार्यक्रम का संचालन कर रहे कवि एकान्त श्रीवास्तव ने उनके आग्रह किया कि वे अपने काव्य-पाठ का समापन अपनी प्रसिद्ध कविता 'सोनचिरई' से करें। और उन्होंने इस कविता के पाठ के पूर्व बताया कि यह कविता पहल में प्रकाशित, बहुप्रशंसित और बहुचर्चित है। यह कविता एक भोजपुरी लोकगीत पर आधारित है जिसमें एक बांझ स्त्री को बांझपन की वजह से उसका पति और उसके ससुराल वाले घर से निकाल देते हैं। उसके बाद तो उसे कहीं आश्रय नहीं मिलता। न उसे बाघिन खाती है न सांप डंसता है, धरती माता भी जगह नहीं देती हैं यहां तक कि उसका मां यह कहकर आश्रय देने से इनकार कर देती है कि यदि उसे आश्रय देगी और उसका छाया पड़ी तो उसकी पुत्रवधू बांझ हो जायेगी। लोकगीत का अन्त चाहे जो हुआ हो कवि ने कहा कि उसने उसका अन्त बदल दिया। अन्त में वह नदी के पास उदास खड़ी है कि वहां एक सुदर्शन युवक आता है। वह अपने साथ चलने का आग्रह करता है और वह थोड़ा हिचकती है फिर उसके साथ चली जाती है। वह युवक के साथ एक भरी पूरी ज़िन्दगी गुजारती है और उससे उसके आठ बेटे होते हैं।
यहां कुछ सवाल मन में स्वाभाविक तौर पर उठते हैं। बांझ स्त्री को लोककथा में कहीं जगह नहीं मिली तो यह लोकजीवन की त्रासदी है। दुखद तो यह है कि लोक जीवन के बाहर भी आज के कवि की कविता में भी बांझ स्त्री को ज़गह नहीं मिली। यदि कवि बांझ स्त्री को कविता में जगह देता तो उसे बांझ के तौर पर ही युवक स्वीकार करता, किन्तु उसे मां बनाना स्त्री के बांझपन के प्रति अस्वीकार है। तो क्या एक स्त्री सिर्फ इस जैविक आधार पर कि वह मां नहीं बन सकती उसे लोक, शास्त्र और जीवन में सहानुभूति नहीं मिलनी चाहिए। क्या इस आधार पर आज के किसी कवि को ऐसी कविताओं के लिए सराहना चाहिए कि उसने उन कुरीतियों का समर्थन किया है जो लोकसम्मत हैं। लोक साहित्य से जुड़ा होने भर से क्या किसी रचनाकार को पुरस्कृत किया जाना चाहिए यह विचार किये बिना कि लोक में भी ऐसी बहुत सी बातें हैं जिनका तिरस्कार होना चाहिए। लोक की हर रीति क्या स्वीकार्य होनी चाहिए? क्या आज का लेखक लोक की चाकरी बजाने के लिए बाध्य है? यदि नहीं तो क्या उसे यह विवेकपूर्वक नहीं तय करना चाहिए कि लोककाव्य की किन बातों को लोकमंगलकारी मानकर उसका समर्थन करें और किन्हें अनिष्टकारी मानकर उनका तिरस्कार? मैं तो जहां तक जानता हूं साहित्य उन लोगों की पीड़ा को स्थान देता है जिनके दर्द को कोई आश्रय नहीं देता। फिर आज का प्रमुख कवि इतना निर्मम क्यों है?
जिस लोकगीत पर यह कविता आधारित है वह भोजपुरी सोहर है। जिसके बोल इस प्रकार हैं-
घर में से निकली तिरियवा, जंगल बिच ठाड़ भइली, बाघ से बीनति करे हो, ए बघवा हमरा के भछि भलि लिहत, त जिनगी अकारथ हो।
जंगल से निकलेला बघवा त दुख सुख पूछेला हो ए तिरिया कवना सकठ तोहरा परले त हमसे भछवावेलू।
सासु मोरे कहे ली बंझिनियां, ननद बंसहारन हो, जिनकर बारी बियाही तिन घर से बाहर कइले हो।
जाहू हे तिरिया घरे जाहू अपना भवन जाहू हो, ए तिरिया तोहरा के भछि हम लेबो बघिनियां होइहैं बांझिन हो।

चलल चलल चलि गइली त बिल लागे ठाड़ भइली नाग से बिनती करे ए नगवा हमरा के डंसि भली लिहित त जिनगी अकारथ हो।
बिल से निकलेला नगवा त दुख सुख पूछेला हो, ए तिरिया कवना सकठ तोहरा पड़ले त हमसे भछवावेलू।
सासु मोरे कहे ली बंझिनियां ननद बंसहारन हो, जिनकर बारी बियाही तिन घर से बाहर कइले हो।
जाहू हे तिरिया घरे जाहू अपना भवन जाहू हो ए तिरिया तोहरा के डंसि हम लेबो नगिनियां होइहैं बांझिन हो।

चलल चलल चलि गइली त अम्मा द्वारे खड़ा भइली अम्मां से बिनती करे ए अम्मां हमरा के राखि भली लिहित त जिनगी अकारथ हो।
घर में से निकलेली अम्मां त दुख सुख पूछेला हो ए बेटी कवना सकट तोहरा परले त अम्मां लगे आवेलू हो।
सासु मोरे कहे ली बंझिनियां ननद बंसहारन हो, जिनकर बारी बियाही तिन घर से बाहर कइले हो।
जाहू हे बेटी घरे जाहू अपना भवन जाहू हो ए बेटी तोहरा के राखि हम लेबो त बहूआ होइहैं बांझिन हो।

चलल चलल चलि गइली त शिव द्वारे खड़ा भइली शिव से बिनती करे ए शिव जी हमरो जिनकी हर लिहती त जिनगी अकारथ हो।
धुनि में से उठेले चिहाई शिव दुख सुख पूछेले हो ए तिरिया कवना सकठ तोहरा परले त शिव लगे आवेलू हो।
सासु मोरे कहे ली बंझिनियां ननद बंसहारन हो, जिनकर बारी बियाही तिन घर से बाहर कइले हो।
जाहू हे तिरिया घरे जाहू अपना भवन जाहू हो ए तिरिया आजू से नउवें महिनवां होइहैं नंदलाल हो।
राजवा गिनेला नौमांस रनियां नौ महिनवां नू हो सुकवा उगत बाबू जनमें महलिया उठे सोहर हो।
सासु भेजेली नउनियां त ननद बरिनियां नू हो कि घोड़वा सामी दउरावेले बाबू के जनम भइले हो।
इस सोहर और जितेन्द्र जी की कविता में फर्क बस इतना है कि सोहर में स्त्री शिव जी के पास जाती है और उनसे पुत्र का वरदान मिलता है। पुत्र होने की खबर पाकर स्त्री की ससुसाल के लोग बदल जाते हैं और सम्मान उसे घर ले जाते हैं। और जितेन्द्र जी की कविता में कोई और युवक है। लेकिन स्थितियां नहीं बदलीं। दोनों ही स्थिति में बांझपन का अस्वीकार है। जब कवि स्त्री के हालत में बदलाव नहीं चाहता तो फिर लोकगीत को कविता में ढालने कोई बड़ा कौशल नहीं माना जाना चाहिए।
हैरत तो यह है कि ऐसी बांझ स्त्री को आज भी अस्वीकार करती यह कविता 'पहल' जैसी पत्रिका में प्रकाशित हुई, जो घोषित रूप से प्रगतिशील विचारों की पत्रिका थी और ज्ञानरंजन जैसे समर्थ रचनाकार उसके सम्पादक थे। हैरत यह है कि ऐसे कवि आज की कविता के मुख्य हस्ताक्षर हैं और उन पर तमाम पुरस्कारों की वर्षा भी होती रही है। जितेन्द्र श्रीवास्तव की कुछ प्रमुख कृतियां हैं इन दिनों हलचल, अनभै कथा, असुन्दर सुन्दर (कविता संग्रह) और भारतीय समाज की समस्याएं और प्रेमचन्द, शब्दों में समय (आलोचना पुस्तकें)। वे भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद पुरस्कार, कृति सम्मान, रामचन्द्र शुक्ल पुरस्कार, विजयदेव नारायण साही पुरस्कार तथा रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान से सम्मानित हैं।
यहां यह उल्लेखनीय है कि जब मैंने जितेन्द्र श्रीवास्तव जी से इस काव्य-पाठ के आयोजन में अपनी आपत्तियां दर्ज कीं तो उनका कहना था अब कुछ नहीं किया जा सकता। यह कविता प्रकाशित हो चुकी है। बहुप्रशंसित हुई है और इस पर पोस्टर भी बन चुके हैं। अब यह प्रकाशित होने के बाद मेरी नहीं रह गयी है।
यहां यह गौरतलब है कि रचना के प्रकाशन के बाद जब उसी रचना के लिए वर्षों बाद तक और कई बार आजीवन कोई लेखक सम्मानित होता रहता है और उसका श्रेय लेने से इनकार नहीं करता तो उसी रचना पर अपनी सार्वजिनक असहमति क्यों नहीं व्यक्त कर सकता। अपनी रचना से बाद में असहमत होने के हक़ उससे नहीं छिन जाता और ना ही अपनी रचनाओं में की गयी अपनी गलतियों के लिए क्षमा मांगने का, पर इसके लिए सचमुच बड़ा रचनाकार होना पड़ता है! मार्ग तो खुला है ही।
प्रश्न यह भी है कि साहित्य में यह कौन सी परिपाटी चली है कि बड़ी खामियों के बावजूद कोई रचना गंभीर वैचारिक पत्रिकाओं में भी स्थान पा जाती हैं, प्रशंसित हो जाती है और पुरस्कार भी पा लेती हैं! फिलहाल तो जितेन्द्र श्रीवास्तव विष्णु खरे की टिप्पणियों से आहत-मर्माहत और क्रुद्ध हैं क्योंकि खरे जी ने उनकी 'ज़रूर जाऊंगा कलकत्‍ता' कविता पर कुछ सवाल खड़े किये हैं। उनका क्षोभ इस गोष्ठी में भी सार्वजनिक हुआ। संभव है वे अपनी अन्य कविताओं की विसंगतियों पर भी कभी ध्यान दे पायें।

Sunday 6 December 2009

अपने हाथ से पका कर खाने की बात ही कुछ और है!


इधर चल रहे बिग बॉस और लक्स परफेक्ट ब्राइड जैसे रियल्टी शो की वज़ह से एक लाभ यह हुआ है कि जो भारतीय पुरुष किचन में कामकाज से परहेज रखते थे उनकी विरक्ति कुछ कम हुई है और वे थोड़ा बहुत कामकाज में हाथ बंटाते नज़र आ रहे हैं। भारतीय भोजन की विशेषता यह है कि इसमें पर्याप्त विविधता है और बने बनाये भोजन की तुलना में हम अब भी रोज बनाया भोजन करना ही पसंद नहीं करते बल्कि ज्यादातर घरों में दो से तीन बार रोज भोजन पकता है। ताज़ा बनाओ और उसी समय खाओ की शैली हमें रास आती है और यह हमारी फूड हैबिट का हिस्सा है। चूंकि रियल्टी शो लगातार कैमरे को प्रतिभागियों के इर्द गिर्द रखता है ऐसे में किचन के कामकाज दृश्य में रोचकता प्रदान करता है। अच्छा यह लगता है कि महिला प्रतिभागी ही नहीं बल्कि पुरुष प्रतिभागी भी आटा गूंथने से लेकर सब्जी काटने के काम करते हैं। इन शोज को देखने वाले नये युवाओ में भी किचन क्रेज़ पैदा हो रहा है तो यह अच्छी बात है। भारतीय परिवारों में कई ऐसे पुरुष हैं जो खाना पकाने की कला में निपुण हैं और शौक से खाना पकाते हैं मगर हमने उसे सार्वजनिक स्तर पर चर्चा का विषय नहीं बनाया है और ना ही इसे अपनी खूबी के तौर पर पेश किया है। मेरे पिता अच्छा खाना बना लेते थे लेकिन दूसरों के समक्ष इसकी चर्चा करने में उन्हें काफी झेंप महसूस होती थी और वे स्वयं कभी इसका जि़क्र नहीं करते थे। कई और ऐसे लोग होंगे जो मेरे पिता की तरह ही अपनी इस खूबी के महत्व को रेखांकित नहीं करते होंगे। मेरी तो हमेशा से कोशिश रही है कि मैं कभी कुछ अपनी पत्नी या बेटी की तुलना में अच्छा पका सकूं। क्या आपने कोशिश की है? मुझे यह गंभीरता से लगता है कि प्रत्येक युवा को खाना बनाना तो आना ही चाहिए। उसके अपने फायदे भी हैं और मज़े भी। यह मज़ा अनुभव से ही आता है। अपनी बनायी हुई रोटी पहले मुश्किल से केवल मैं ही खा पाता था और मुश्किल से चबा पाता था लेकिन उसका जायका दूसरों की पकाई रोटी से कभी कम नहीं लगा।

बेटी समाज में आदमी होने की तमीज है!

पिछले दिनों भारत के प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह को व्हाइट हाउस में राजकीय भोज देने के संदर्भ में अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था कि जिन कुछ भारतीय लोगों के साथ भोज करना पसंद करेंगे उनमें पश्चिम बंगाल के राज्यपाल गोपालकृष्ण गांधी भी हैं क्योंकि वे उन्हीं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के पोते हैं जिनके प्रशंसक खुद ओबामा हैं। ओबामा में गोपालकृष्ण से केवल राजनीति और मोहनदास करमचंद गांधी के लिए प्रशंसा को लेकर ही समानता नहीं है बल्कि दोनों ने ही किताबें लिखी हैं और दोनों की ही दो बेटियां हैं। मेरे एक मित्र ने इस पर तपाक से प्रतिक्रिया दी कि इसमें क्या है बेटियों का पिता तो मैं भी हूं। मैंने कहा इसमें नया इतना ही है कि ओबामा को बेटियों का पिता होने पर गर्व है।
जिन दिनों मैं इंदौर में वेबदुनिया में कार्यरत था वरिष्ट कवि चंद्रकान्त देवताले का फोन आया कि वे मुझसे मिलना चाहते हैं। उनसे मैं विशेष तौर पर इसलिए भी मिलना चाहता था क्योंकि उनके किसी कविता संग्रह में उनके परिचय में लिखा था कि वे बेटी के पिता हैं। सचमुच बेटी का पिता होना कोई कोई साधारण बात नहीं है। त्रिलोचन जी ने मुझसे एक निजी बातचीत में कभी कहा था कि केदारनाथ सिंह इसलिए अच्छी कविताएं लिख लेते हैं कि वे कई बेटियों के पिता हैं। बेटी का पिता होना एक ज़िम्मेदार और बेहतरीन इनसान बनने की काबिलियत पैदा करता है। बशर्ते वह उन पिताओं में से न हों जो सोनोग्राफी कराकर बेटियों की भ्रूण हत्याओं का समर्थक हो।
भारत में यदि दहेज जैसे सामाजिक अपराध पर काबू पा लिया जाय तो भारत में भी लोग बेटों की तुलना में बेटी को अधिक पसंद करेंगे। दहेज के कारण प्रताड़ना और हत्या की वारदातें ही चिन्ताजनक नहीं बल्कि उससे अधिक चिन्ताजनक है दहेज से बचने के लिये बेटियों की भ्रूण हत्या। जिसके कारण लिंग अनुपात तेजी से बिगड़ता जा रहा है, जो एक दिन हमारे समाजिक ढांचे को असंतुलित कर देगा।
वरना नये भारत में बेटियों की शक्ति जांची परखी जा चुकी है। बदलती सोच का ही नतीजा है कि पिता के नक्शेकदम चलते-चलते बेटियां भी अब फो‌र्ब्स के पन्नों पर अपनी जगह बनाने लगी हैं। वनिशा मित्तल, ईशा अंबानी और पिया सिंह ऐसे ही कुछ नाम हैं। यह तीनों अमेरिका की प्रसिद्ध बिजनेस पत्रिका फो‌र्ब्स द्वारा जारी अरबपती वारिसों की सूची में शीर्ष तीन स्थानों पर जगह बना चुकी हैं। वनिशा स्टील किंग लक्ष्मी निवास मित्तल, ईशा भारत के सबसे अमीर उद्योगपति मुकेश अंबानी और पिया सिंह दिग्गज रीयल एस्टेट कंपनी डीएलएफ के प्रमुख केपी सिंह की बेटी हैं। पिता से विरासत में मिली अरबों की संपत्ति इनके इस सूची में आने का आधार बनी है। इन सभी के पिता भी दुनिया के सर्वाधिक अमीरों की टाप टेन सूची में विराजमान हैं।
अपने प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह भी तीन बेटियों के ही पिता हैं। उनकी एक बेटी व दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास की प्रोफेसर उपिंदर सिंह को हाल ही में सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए संयुक्त रूप से पहला इंफोसिस पुरस्कार प्रदान करने की घोषणा की गयी है। नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन की अगुवाई वाली सामाजिक विज्ञान पर बनी जूरी ने 50 लाख रुपए के इस पुरस्कार के लिए उपिंदर का चुनाव प्राचीन और मध्यकालीन भारत के इतिहासकार के रूप में उनके योगदान के लिए किया है। उनकी दो अन्य बेटियां हैं दमन सिंह और अमृत सिंह। अमृत सिंह अमेरिका में मानवाधिकार मामलों की संस्था अमेरिकन सिविल लिबर्टीज़ यूनियन (एसीएलयू) की वकील हैं जिन्होंने एक किताब लिखी है जिसमें अमेरिका के बुश प्रशासन को सीधे तौर पर क़ैदियों को प्रताड़ित करने का ज़िम्मेदार ठहराया गया है। 'एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ़ टॉर्चर' नाम की यह किताब उन्होंने एसीएलयू के ही दूसरे वकील जमील जाफ़र के साथ मिलकर लिखी है। यह दोनों ही वकील एसीएलयू की ओर से मानवाधिकार के विभिन्न मामलों में अमेरिकी सरकार के खिलाफ़ मुक़दमे लड़ते रहे हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 28 अप्रैल 2008 को 'सेव द गर्ल चाइल्ड' की राष्ट्रीय बैठक का उद्घाटन करते हुए लड़कियों की रक्षा की भावुक अपील करते हुए कहा था कि उन्हें तीन पुत्रियों का पिता होने पर गर्व है।
इधर, 'न आना इस देश मेरी लाडो', 'अगले जनम मोहें बिटिया ही कीजो' और 'बालिका वधू' जैसे टीवी धारावाहिकों ने लड़कियों पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ़ पुरज़ोर आवाज़ बुलंद की है और समाज में उन पर हो रहे अत्याचारों के प्रति ध्यान आकृष्ट किया है, जो इस बात के प्रति आश्वस्त करता है कि समाज लड़कियों के दर्द को समझेगा और उनकी शक्ति को भी। शहरी निकायों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था करने वाला विधेयक हाल के संसद के शीतकालीन सत्र में पेश किया जा चुका है। लोकसभा में संवैधानिक (112वां संशोधन) विधेयक पेश करते हुए शहरी विकास मंत्री एस.जयपाल रेड्डी ने पंचायतों और नगरपालिकाओं में महिलाओं की आरक्षित सीटें एक तिहाई से बढ़ाकर 50 प्रतिशत करने की घोषणा की और कहा है कि हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, तमिलनाडु, केरल, मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश की सरकारों ने शहरी स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने का समर्थन किया है। संविधान के 74 वें संशोधन के माध्यम से महिलाओं को राजनीति में बराबरी का हक देने के लिए पीवी नरसिंह राव के शासनकाल में (1992 में) पहल हुई थी। हालांकि इसका सपना पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सबसे पहले देखा था। राज्य विधानमंडलों और संसद में महिलाओं को एक-तिहाई आरक्षण का प्रावधान करनेवाले विधेयक को शीघ्र पारित कराने की देश तैयारी कर रहा है। इसके अलावा उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश सहित विभिन्न राज्य सरकारें अपने-अपने स्तर पर लड़कियों के लिए शिक्षा और अन्य मामलों में सबलीकरण के लिए अलग-अलग योजनाएं बनाकर सुविधाएं दे रही हैं। उम्मीद की जाती है कि आने वाले समय में महिलाएं और सबल होंगी और बेटियों हमारे सबके लिए गर्व का विषय होंगी।
और अन्त में इंटरनेट की एक बात। जी हां, ‘बेटियों का ब्लॉग’ एक ऐसा ही ब्लॉग है जहां ब्लॉगर माता-पिता अपनी बेटियों के बारे में बातें लिखते हैं। दरअसल, यह एक सामुदायिक ब्लॉग है जहां एक ही छत के नीचे कई ब्लॉगर माता-पिता इकट्ठा होकर अपनी बेटियों के बारे में तरह-तरह की बातें लिखते हैं। कभी कवि धूमिल ने लिखा था "कविता भाषा में आदमी होने की तमीज़ है" मैं जोड़ना चाहूंगा "बेटी समाज में आदमी होने की तमीज है।"

Monday 30 November 2009

घोड़ा कहिए जनाब


झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा को सोमवार को गिरफ्तार कर लिया गया है। मामला आय से अधिक संपत्ति का है। उन्हें राज्य के विजिलेंस विभाग ने गिरफ्तार किया है। 4000 करोड़ रुपए के हवाला और संपत्ति मामले में प्रवर्तन निदेशालय ने उनको कई बार नोटिस भेजा है, लेकिन अब तक वह पूछताछ से बचते रहे हैं। शुरुआत में कुछ दिन तबीयत खराब हो जाने के कारण वह कई दिनों तक अस्पताल में भर्ती रहे थे, जिसके बाद वह चुनाव प्रचार के बहाने पूछताछ से बचते रहे। फिलहाल कोड़ा निर्दलीय सांसद हैं। आरोपों को सुनकर लगता है कि कोड़ा दरअसल लोकतंत्र का वह घोड़ा हैं जिस पर काबू पाना आसान नहीं है।
लोकतंत्र में ऐसी तमाम व्यवस्थाएं हैं जिससे कोई शातिर चाहे तो आराम से देश को चरता हुआ ऐशो आराम की ज़िन्दगी बसर कर सकता है। यदि आरोपों में सच्चाई तो यही कहा जायेगा कि कोड़ा ने इसे जल्दी पहचान लिया। दरअसल किसी भी देश की शासन व्यवस्था में हमेशा से यह खूबियां रही हैं कि उसमें चोर दरवाजे़ होते हैं जिनसे कोई सत्ताधारी सावधान रहे तो बचकर हर हाल में निकल सकता है। यह दरवाजा किसी ईंट के खिसकाने से खुल जायेगा बस इसका पता होना चाहिए। राजनीति का शास्त्र जन के पश्र में एक छद्म रचता है लेकिन अंततः वह सबल के पक्ष में रास्ते बनाता है। इसी पर तो दुनिया की सारी अदालती व्यवस्थाएं टिकी होती हैं।
अपराधों से बच निकलने के रास्ते हर जगह पहले से ही बने होते हैं उन्हें हर बार नये सिरे से खोजना होता है। उन रास्तों को सबल के पक्ष में उसके वकील खोजते हैं। अगर चोर दरवाजे़ न होते तो एक अदालत में सजा सुनने के बाद वही व्यक्ति उसी कानून व्यवस्था में दूसरी अदालत से कैसे बरी हो जाता है और फिर यदि एक ही संविधान के आधार पर सजा तय होनी है तो सारा निर्णय एक ही अदालत क्यों नहीं करती। और यदि सचमुच न्याय के लिए ही अदालतें हैं तो फिर उसकी कीमत न्याय की फरियाद करने वाले को क्यों चुकानी होती है। क्या यह सच नहीं है कि मामला तब तक ही चलता है जब तक न्याय पाने के अभिलाषी की मुकदमा लड़ने की शक्ति होती है। यदि वह पस्त हो जाता है तो मामला आगे नहीं बढ़ता। देश में ज्यादातर ऐसे लोग हैं जो जीते हुए मुकदमों के बावजूद प्रसन्न नहीं हैं। और अदालतों का चक्कर काटते काटते वे जान चुके होते हैं कि जो न्याय उन्हें मिलेगा वह अर्जित किया हुआ है वह अपने आप मिला न्याय नहीं है।
व्यवस्था की खामियों का लाभ उठाने की नीयत से इस देश में घोड़े जन्म लेते हैं और मुल्क को चर जाते हैं। और समाज में उनकी न तो प्रतिष्टा कम होती है न लोकप्रियता। पूरा देश जानता है कि कोड़ा जिस तरह के मामले में फंसे हैं या स्वयं कोड़ा के शब्दों में कहें तो फंसाये गये हैं उनका बाल बांका नहीं होना है। अलबत्ता दो चार ट्रक मुकदमे के कागजात जरूर तैयार हो जायेंगे जैसा लालू जी के चारा घोटाला प्रकरण में हुआ। झारखंड विधानसभा चुनाव में पश्चिमी ¨सिहभूम की जगन्नाथपुर सीट से उनकी पत्नी प्रत्याशी पत्नी गीता कोड़ा चुनाव लड़ रही हैं। चर्चा का बाजार गर्म है कि उनकी जीत तय है। जनता ऐसे पराक्रमी लोगों को अपना प्रतिनिधि बनाने से गुरेज नहीं करती।
कोड़ा का यह कोई पहला कारनामा नहीं है। सत्ता की खूबियों खामियों का उन्हें पता नहीं होता तो वे कांग्रेस और राजद के सहयोग से निर्दलीय होते हुए भी मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच पाते। ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्होंने उन चोर दरवाजों को खोज लिया है जहां से प्रगति के रास्ते भी खुलते हैं और बच निकलने के रास्ते भी।
देशभर के कई शहरों में कोड़ा और उनके करीबी सहयोगियों के 70 से अधिक ठिकानो पर आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय के छापों में कोई 2000 करोड़ रुपये से अधिक की नामी-बेनामी संपत्ति का पता चला है। इसमे लाइबेरिया से लेकर दुबई, मलेशिया, लाओस, थाईलैंड और सिंगापुर जैसे देशों में संपत्ति खरीदने से लेकर कोयला और स्टील कंपनियों में निवेश तक की सूचना है। उनकी सम्पत्तियों के बारे में जितने मुंह उतनी बातें हैं और हर कोई बढ़ा चढ़ा कर आंकड़े देने में लगा है। पराक्रम के किस्सों में ऐसा होता ही है। कोड़ा का यशगान जारी है। हैरत नहीं कि कोई कोड़ा चालिसा लिख बैठे। देखना यह कि कैसे उन पर आरोपों का पुलिंदा तैयार होता चला जायेगा और कैसे सारी तलवारें कागजी बन कर रह जानी है।

Sunday 29 November 2009

मैं सदैव तुम्हारे साथ हूं, दूर नहीं-लोढ़ा


जीवन वृत्त-एक नज़र
जन्‍म-28 सि‍तम्‍बर 1921। निधनः 21 नवम्बर कीरात लगभग 2.30 बजे जयपुर में। कोलकाता के सेठ आनंदराम जयपुरि‍या कॉलेज में हि‍न्‍दी प्रवक्‍ता के रूप में अध्यापन शुरू किया। 1953 में कलकत्‍ता वि‍.वि‍. के हि‍न्‍दी वि‍भाग में पूर्णकालि‍क शि‍क्षक के पद पर नि‍युक्‍ति‍। सन् 1979-80 के बीच जोधपुर वि‍श्‍ववि‍द्यालय के कुलपति‍। उनके निर्देशन में पचास से ज्‍यादा पीएचडी। 11 मौलि‍क कि‍ताबें प्रकाशित और 14 कि‍ताबें संपादि‍त। साहित्यिक अवदान के लिए मूर्ति देवी पुरस्कार, केंद्रीय हिंदी संस्थान-आगरा से राष्ट्रपति द्वारा सुब्रमण्यम सम्मान, अमरीकन बायोग्राफिकल सोसाइटी अदि ने सम्मानित किया। केके बिरला फाउन्डेशन, भारतीय विद्या भवन, भारतीय भाषा परिषद्, भारतीय संस्कृति संसद जैसी संस्थाओं से सम्बद्ध रहे।

श्रद्धांजलि
हिन्दी का आभिजात्य स्वरूप जिन कुछेक लोगों में दिखायी देता है उनमें प्रो.कल्याणमल लोढ़ा का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। हिन्दी में लिखने-पढ़ने वालों की कुछेक श्रेणिया बनायी जा सकती हैं जिनमें एक तो दीनहीन दिखायी देते हैं जिन्हें देखकर करुणा जैसा भाव पैदा होता है। वे स्वयं इस भाव से हिन्दी लेखन पाठन में जुटे रहते हैं जैसे हिन्दी सेवा मांग रही हो और वे सेवक हों। दूसरी श्रेणी वे रखे जा सकते हैं जो संस्कृत और संस्कृति के बोझ से स्वयं दबे दिखायी देते हैं और बात-बात पर दूसरों की अज्ञानता का खुलासा करना नहीं भूलते। उनके लिए सब कुछ महत्वपूर्ण पहले ही लिखा जा चुका है और अब जो लोग लिखने पढ़ने के लिए बचे हैं उनका काम इतिहास को ढोना है। लिखे हुए का अनुशीलन करना ही रचनात्मकता है और हिन्दी में लिखने का स्वर्णकाल तो कब का चला गया है और यह जो नारीमुक्ति, दलित और वाम लेखन है उसने साहित्य का सर्वनाश कर रखा है। तीसरे वे हैं जिनके पास पश्चिम के कोटेशन हैं। उसकी दो शाखायें है एक जिसमें मार्क्स का चिन्तन मनन उसी प्रकार होता है जैसे कीर्तन में हरे राम हरे कृष्ण होता है। दूसरी शाखा उसकी है जो मार्क्स को खारिज करते हैं किन्तु अवधारणाएं पश्चिमी हैं और यह दोनों ही उद्धरणों के पत्थर हर नयी बात पर उछालकर उसे ध्वस्त करते रहते हैं। उधार की बातें, उधार का चिन्तन उधार की जीवन शैली। कहीं दैन्य तो कहीं दम्भ। संतुलन का सिरे से अभाव। इन सबके बरक्स प्रो.लोढ़ा की शैली एकदम संतुलित, धीर गंभीर थी। वे जो कुछ भी कहते उसमे एक शालीनता और एक गरिमा थी। पूर्व व पश्चिम का अद्भुत सामंजस्य उनके आलेखों में मिलता है। भवभूति व कालिदा सहित दुनिया भर के विद्वानों को वे भी कोट करते थे लेकिन उसे मौजूदा संदर्भों से जोड़कर देखने की लियाकत थी जो उनके विचार को एक मौलिक टच देती थी।
एक बात और यहां उल्लेख करना चाहूंगा कि मंचों पर अपनी उपस्थिति विशेष तौर पर दर्ज कराने का उनका एक सुनिश्चित फंडा था। वे किसी समारोह की अध्यक्षता को तो तैयार हो जाते थे लेकिन कार्यक्रम में पूरे समय तक उपस्थित नहीं रहते थे। दो-एक वक्ताओं को सुनने के बाद वे घड़ी देखने लगते थे और मंच संचालक कहता नजर आता था कि लोढ़ा जी को एक और समारोह में जाना है और उन्हें देर ही रही है इसलिए अध्यक्षीय भाषण अन्त में होने के ट्रेंड को तोड़ते हुए लोढ़ा जी बीच में ही अपना वक्तव्य चल देते थे।
मंचों पर उन्हें भाषण देते कई बार सुनने का अवसर मिला है और उसे किसी न किसी अखबार के लिए कवर करने का भी। कई बार ऐसा भी हुआ है कि कार्यक्रम में पहुंचने में विलम्ब हुआ और उनका वक्तव्य समाप्त हो चुका हो तो बाद में फ़ोन पर भी उनसे पूछने में भी मैं संकोच नहीं करता था कि उन्होंने सभा में क्या कहा था। एक बात गौर करने की यह थी कि मंचीय वक्तव्यों में सामान्य तौर पर उनके कोटेशन फिक्स थे और हर बात को कहने के लिए उसी प्रसंग का जिक्र करते थे जिसमें पाब्लो पिकासो की पेंटिग "गुएर्निका" का जिक्र भी शामिल है, जो स्पेनिश गृह युद्ध में छोटे से कस्बे बास्क को तहस-नहस करने के खिलाफ उनके आक्रोश का प्रतिबिंब थीं।
उन्होंने मीडिया को लिखने-पढ़ने में सहर्ष सहयोग किया है। कई बार ऐसा भी हुआ है कि किसी प्रख्यात रचनाकार की मृत्यु हो गयी हो या फिर कोई अन्य सांस्कृतिक मसले पर प्रतिक्रिया हो उनसे देर रात भी जगाकर प्रतिक्रिया ली गयी है। वे जानते थे मीडिया के कामकाज के तौर-तरीके और उसकी मज़बूरियां। उन्होंने कभी बुरा नहीं माना। कई बार अपने व्यक्तिगत लेखन में भी किसी शब्द के प्रयोग को लेकर मुझे उलझन होती तो उनसे पूछ लेता था। लोढ़ा जी का मुझसे सम्पर्क बनाये रखने का एक कारण मेरा मीडिया से जुड़ा होना भी था। किसी भी समारोह में वे मीडिया के लोगों का काफी ध्यान रखते थे और व्यक्तिगत तौर पर यथासम्भव सम्पर्क भी रखते थे।
मेरे कोलकाता नागपुर से एमए करके आया था इसलिए उनसे पढ़ने का अवसर मुझे नहीं मिला था। जब मैंने पीएचडी के लिए कलकत्ता विश्वविद्यालय से शोध प्रारम्भ किया था उस समय वे पीएचडी कमेटी में थे, आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री और डॉ.प्रबोधनारायण सिंह के साथ। मेरे लिखे को वे पसंद करते थे। मेरी जो भी किताब प्रकाशित होती थी मैं उन्हें भेजता था और उन पर उनकी प्रतिक्रियाएं भी मिलती थीं। पत्राचार को वे पर्याप्त महत्व देते थे और संभवतः सभी के सभी पत्रों का जवाब देते थे। कई बार उनके घर भी मुझे जाने की मौका मिला है। एक अखबार की ओर से उनके जन्म दिन पर उनकी इंटरव्यू लेने भी गया था। कुछेक साहित्यिक समारोहों में मुझे उन्हें उनके घर से आयोजन स्थल पर भी ले जाने या पहुंचाने की जिम्मेदारी उठानी पड़ी इसलिए रास्ते में भी उनसे काफी बातें करने का अवसर मिला। एकाध बार उनकी फटकार भी सुनने का मौका मिला है। मैंने नाद प्रकाशन शुरू किया था और डॉ.सुकीर्ति गुप्ता का कविता संग्रह 'शब्दों से मिलते जुलते हुए' में प्रूफ़ की गल्तियां छूट गयी थीं। वह किताब सुकीर्ति जी ने अपने गुरु लोढ़ा जी को समर्पित की थी। इसलिए किताब़ में प्रूफ की गल्तियों पर उनकी फटकार भी मुझे सुनने को मिली थी। प्रो.लोढ़ा कोलकाता व बाहर के लिखने पढ़ने वालों के सम्बंध में अपने विचार भी शेयर करते थे। मैं उन दिनों खूब पढ़ता था नयी से नयी पत्रिका और लाइब्रेरियों की भी खाक छानता था सो वे नये लिखने-पढ़ने वालों के बारे में पूछते भी थे। यह भी उतना ही सही है कि मैं उनका शिष्यवत कभी नहीं था। ज्यादातर लिखने- पढ़ने वालों के साथ समानता के स्तर पर ही सम्बंध का निर्वाह कर पाता हूं उनके साथ भी मेरा यही व्यवहार था। अपनी असहमतियां व्यक्त करने में मुझे गुरेज नहीं था। उनकी बातचीत के प्रमुख विषय जिन व्यक्तियों से जुड़े होते थे उनमें प्रो.विष्णुकान्त शास्त्री, डॉ.कृष्ण बिहारी मिश्र, डॉ.सुकीर्ति गुप्ता, डॉ.शंभुनाथ प्रमुख थे। और वे यह पसंद करते थे कि उनके साथ हुई बातचीत किसी से शेयर न की जाये। वे सम्बंधों की प्राइवेसी को पर्याप्त तरजीह देते थे। इसलिए कई लोगों को उनका मिला सहयोग कभी चर्चा में नहीं आया पर उन्होंने बहुतेरों की आवश्यकतानुसार मदद की है। वे सकलदीप सिंह के पाश्चात्य साहित्यिक अध्ययन का लोहा भी मानते थे, जो अरसे तक मेरे फ्रैंड-फिलासर-गाइड रहे हैं। हालांकि तुलसी, सूरदास, कबीर, निराला, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, माखनलाल चतुर्वेदी के साहित्यिक अवदान की चर्चा वे अक्सर करते और समकालीन लेखन पर उतनी पकड़ उनकी नहीं थी। प्रसाद की 'कामायनी' उनकी प्रिय कृति थी।
अपने व्यवसाय के डूबने के बाद के दिनों में और कोलकाता के छूटने के हालत बनने पर मैंने एक नाराजगी भरा पत्र उन्हें लिखा था। उसका जवाब भी मिला था। मुद्दा मुझे अब याद नहीं पर उनका पत्र यूं था-
कलकत्ता
03. 01.96
प्रिय अभिज्ञात

तुम्हारा 29.12.96 का पत्र आज मिला। अच्छा लगा। सर्व प्रथम नववर्ष की शुभकामनाएं सपरिवार स्वीकार करो। तुम्हारा उपालम्भ भी मिला। मैं तो सदैव तुम्हारे साथ हूं दूर नहीं। ऐसा क्यों सोचा। तुम्हारे ग्रंथ भी पढ़े हैं-तुममें प्रतिभा है और लगन भी। मैं अपनी सीमा में जो कुछ भी होगा, सहयोग दूंगा। अभी कलकत्ते में ही हूं। फोन न.4642300 है। मिलें तब विस्तृत चर्चा होगी।
सस्नेह
तुम्हारा
कल्याणमल
कल्याणमल लोढ़ा
2ए, देशप्रिय पार्क ईस्ट
कलकत्ता-7200021
पत्र मिलने का बाद जब मैं उनसे मिलने गया था उन्होंने मेरी मदद करने के कुछ उपक्रमों की चर्चा की लेकिन वे मुझे मंजूर नहीं थे। एक अफलातूनी मानसिकता थी उन दिनों जिसके चलते हालत यह बने कि मदद मांगने वाला शर्ते रख रहा था। बात बेनतीजा रही लेकिन यह भाव जीवन भर मन में कायम रहेगा कि वे मेरी मदद करना चाहते थे। मुसीबतजदा व्यक्ति के पास खड़े होने की ज़हमत कम ही बुद्धिजीवी लेते हैं। लोढ़ा जी उनमें से एक थे।
बाद के दिनों में जब कोलकाता मुझसे आखिरकार कुछ अरसे के लिए छूट गया तो लोढ़ा जी से सम्पर्क भी टूट गया। अब उनके देहावसान ने उनकी यादें ताजा कर दीं। उन्हें मेरी श्रद्धांजलि। उनके बाद हिन्दी में एक स्टाइलिश व्यक्तित्व की कमी खलती रहेगी। अंतिम बार उन्हें मैंने देखा था कोलकाता बुक फेयर में, जिसमें उनके साथ थीं मेरी प्रिय कवयित्री नवनीता देवसेन। लोढ़ा जी ने फर की टोपी पहन रखी और उनका खूबसूरत चेहरा बुजुर्गियत की आभा से और दिव्य लग रहा था। वर्ष मुझे याद नहीं पर चेहरा वह चेहरा नहीं भूलेगा।

Monday 16 November 2009

लेखक का सबसे बड़ा पुरस्कार है कि जनता उसे पढ़े-बच्चन

27 नवम्बर को 102वीं जयंती के अवसर पर विशेष
बच्चन की कविता का अवदान
हिन्दी की नयी कविता में बच्चन के योगदान की जितनी चर्चा होनी चाहिए थी वह नहीं हुई.जबकि गीतात्मकता और छंद को छोड़कर नयी कविता के सारे
आधार वही थे, जो बच्चन की कविता के कविताओं के केन्द्रीय तत्व थे. नयी कविता, जिसने भारतीय कविता के मूल स्वभाव को बदल दिया में अनुभूति की प्रामाणिकता पर अधिक बल दिया गया और युग-सत्य और व्यक्ति सत्य के अन्तर्सम्बंध को सहज स्वीकार ही नहीं किया गया बल्कि स्थापित भी किया गया.यहां युग की व्यंजना व्यक्ति द्वारा अनुभूत थी.यहां व्यक्ति और समाज दोनों दो इकाइयां न थीं.अपने सहज उद्गारों को प्रकट करने के लिए शास्त्रीय भाषा के बदले बोल-चाल की भाषा प्रचलन में आयी.हालांकि सुसंस्कृत भाषा से इसका परहेज न था.सम्वेदन का जैसा विकास इस काव्य में है हिन्दी की दूसरी काव्य प्रवृत्तियों में प्रायः नहीं दीख पड़ता.अनुभूति और सम्वेदना के साथ-साथ संगीत का एक आंतरिक पुट भी विद्यमान है.यहां खोखले नारे न थे.उसके बजाय था-एक पराजय बोध, उसकी असहायता जो उसे अन्ततोगत्वा लघु मानव में परिणत कर देती है जो कहीं न कहीं राजनैतिक मोहभंग और आदर्शवाद के खोखलेपन के कारणों से जुड़ा है.उसका सुख भविष्य के प्रति सुस्वप्न बुनने के बजाय क्षण पर टिका है.सार्त्र का अस्तित्ववाद और क्षणवाद इस काव्य की एक सीमा है और इस काव्य का सत्य भी लेकिन ऐसा नहीं है कि हिन्दी के आधुनिक साहित्य में पहली बार यह हुआ है.इसके पहले छायावाद के अवसान-काल में महत्त्वपूर्ण कवि डॉ.हरिवंशराय 'बच्चन' ने अपनी हालावादी कविताओं में इसी अस्तित्ववादी-क्षणवादी अवधारणाओं की पुष्टि की.वहां भी असहायता, निरुपायता और कुण्ठाएं थीं, जो उसके लघु मानव का बोध कराती हैं और भविष्य के प्रति संशंकित दृष्टि से देखते हुए वर्तमान में ही लिप्त हो जाने का संदेश देती हैं.यह अलग बात है कि इस ऐतिहासिक तथ्य की नयी कविता के परिप्रेक्ष्य में चर्चा नहीं की गयी.वैसे डॉ.नगेन्द्र ने इसे वैयक्तिक कविता के परिप्रेक्ष्य में बच्चन, रामेश्वर शुक्ल अंचल और गिरिजाकुमार माथुर आदि के गीतों पर लिखते हुए रेखांकित किया है.(डॉ.नगेन्द्र, आधुनिक हिन्दी कविता की मुख्य प्रवृत्तियां, 1979, पृष्ठ 68) और कहा है कि 'इनमें भारत का चार्वाक दर्शन और ईरान के उमर खैय्याम के रंगीन क्षणवाद का भोगवादी जीवन-दर्शन सहानुभूति सहित मूल रूप में उपलब्ध है! और इन सबका निखार बच्चन में प्राप्त है.इनमें व्याप्त व्यक्तिवाद, आध्यात्मिक नहीं है, भौतिक है.xxxइसका व्यक्तिवाद मान्य आस्थाओं के प्रति संदेह और विद्रोह को लेकर चला है.उसके मूल में एक ओर सूक्ष्म आध्यात्मिक विश्वासों के प्रति संदेह और दूसरी ओर नैतिक और सामाजिक विधान के प्रति विद्रोह का भाव है.अतएव आरम्भ में वह नकारात्मक जीवन दर्शन को लेकर खड़ा हुआ है.बच्चन की कविता में संदेहवाद, भाग्यवाद या नियतिवाद और कहीं-कहीं तो निषेधवाद तक मिलता है.' अंग्रेज़ी के कवियों लुई मैक्नीस, स्पैंडर, आडन इत्यादि के प्रयासों से शुरू काव्यांदोलन न्यू पोयट्री का प्रभाव भी नयी कविता ने ग्रहण किया. नयी कविता ने आंदोलन का रूप उस समय ग्रहण किया जब 1954 में 'नयी कविता' का प्रकाशन हुआ और यहीं से नयी कविता और अज्ञेय की प्रयोगवादी कविता में अलगाव का दावा किया जाने लगा।
'बच्चन' ने दिया था मुझे 'अभिज्ञात' उपनाम
अप
नेीतों से लोग के मन पर गहरी छाप छोड़ने वाले और मधुशाला, मधुबाला और मधुकलश से जीते जी लिजेंड बन जाने वाले गीतकार डॉ.हरिवंशराय बच्चन से मेरा उस उम्र में ही परिचय हो गया था जब मैं साहित्य की उनकी हैसियत को न तो समझ सकता था और ना ही मेरी कोई अपनी पहचान ही थी.मुझमें ब साहित्य रचने की ललक थी और लिखना सीख रहा था.अपने पिता से उनकी खूब चर्चा सुनी थी और उन्हीं से मिलते जुलते लहजे में अपने पिता से 'मधुशाला' और 'मधुबाला' के गीत सुने थे.एकाएक बच्चन जी को पत्र लिखने की सूझी और मुझे हैरत हुई कि उनका ज़वाब भी मिला.यह 1982-83 की बात है मैं उस समय संभवतः कक्षा 11 वीं का छात्र था.फिर से उनसे पत्रों का सिलसिला चल निकला और पत्रव्यवहार का सिलसिला चार-पांच साल तब तक चला जब तक उनकी हस्तलिपि वाले पत्र मुझे मिलते रहे जो सोपान, नयी दिल्ली और प्रतीक्षा, मुंबई के पते से होते थे और मुझे पहले तुमसर-महाराष्ट्र में और बाद में मेरे गांव कम्हरियां,आजमगढ़, उत्तर प्रदेश के पते पर मिलते जब जहां मैं होता, एकाध पत्र कोलकाता के उपनगर टीटागढ़ में भी मिले.कुछ दिनों बाद उनके टाइप किये हुए पत्र आने लगे और वह ग्लैमर ख़त्म हो गया जो उनकी हस्तलिपि को समझने की कोशिश से जुड़ा था और मेरी ज़िन्दगी में भी इतने बदलाव आये कि कई बार पुराने सम्पर्क टूटे-बिखरे.उन दिनों मैं अपने दोस्तों का दिये गये उपनाम 'हृदय बेमिसाल' के नाम से लिखता था और मैंने बच्चन जी से गुजारिश की थी वे मुझे एक अच्छा सा उपनाम दें.और उन्होंने मुझे उपनाम दिया 'अभिज्ञात' साथ में यह भी लिखा था कि 'जब मेरा अभ्यास का लेखन ख़त्म हो जाये तो मैं अभिज्ञात उपनाम अपनाऊं.' और मैंने यही किया नामकरण के अरसे बाद 1991 के आसपास जब मेरा पहला कविता संग्रह 'एक अदहन हमारे अन्दर आया' तो मैंने विधिवत साहित्य में 'अभिज्ञात' उपनाम को अपनाया.इसके कुछ माह पूर्व ही मेरी कहानी 'बुझ्झन' का नाट्य रूपांतर भारतीय भाषा परिषद में किया गया था और पहली बार मैंने इस नाम का इस्तेमाल किया था.वह पत्र दरअसल अब खोजने से भी नहीं मिल रहा है जिसमें उन्होंने यह नाम मुझे दिया था.
पत्रों में युवा साहित्यकारोंके विकास के सूत्र
बच्चन जी के कुछ ही पत्र अब मेरे पास हैं.पहले मैं इस तरह के पत्रों के महत्त्व को भी नहीं समझता था और वे लापरवाही से रखे जाते थे और एक शहर से दूसरे शहर जाने में कई चीज़ें पीछे छूटीं, नष्ट हुई और क्षतिग्रस्त हुई.कुछ हमेशा के लिए खो गयीं तो कुछ के फिर से यकायक मिल जाने की उम्मीद बची है किताबों के मेरे उस ढेर में जिससे लड़कर मैं कई बार हार जाता हूं.फिर भी यह सौभाग्य है कि उनके लगभग दर्ज़न भर पत्र मेरे पास हैं जो किसी तरह महफूज़ रह गये हैं और एक तस्वीर भी जिस पर उन्होंने यह लिखकर भेजा है कि 'मेरी असली तस्वीर मेरी रचनाओं में है.'
इन पत्रों में किसी युवा रचनाकार के लिए साहित्य की दुनिया में काम करने के लिए कुछ आवश्यक सूत्र हैं, जो मेरे लिए तो उपयोगी रहे ही युवा पीढ़ी के तमाम लोगों के लिए भी वे प्रासंगिक हैं.मसलन रचनाएं लौट आयें तो उसे अपनी रचनात्मक ग़लती समझें सम्पादक की नहीं, अस्वीकृत होती रचनाओं से हताश न हों, आपका काम ही आपकी सिफारिश होगा, आपको मौका देने के लिए कोई आपको मौका नहीं देगा बल्कि अपनी सफलता के लिए देगा, लेखक का सबसे बड़ा पुरस्कार है कि जनता उसे पढ़े, जो भी काम करें उसमें पूर्णतया अपने को लगा दें, लेखन के लिए ज़रूरी है मुक्त जीवन अनुभव, व्यापक स्वाध्याय, सतत अभ्यास और सुरुचिपूर्ण साहित्यकारों का सत्संग जिससे उसके सर्जक का विकास होगा, आदि.
बच्चन के पत्र
प्रस्तुत है यहां डॉ.हरिवंशराय बच्चन के कुछ मुझे लिखे कुछ पत्रों के अंश जो मेरे रचनात्मक विकास में सहायक हुए और जो इस बात के गवाह हैं कि कितने धीरज और प्यार से एक महान बुजुर्ग कवि अपनी नयी पीढ़ी को रास्ता बताता है.
पत्र-एक हस्तलिपि
बच्चन
'प्रतीक्षा'
दसवां रास्ता-जुहू
बंबई-उंचास
400049
11.4.83
प्रिय श्री
पत्र के लिए धन्यवाद.
प्रसन्नता है साहित्य के स्वाध्याय सृजन में आपकी रुचि है. मुक्त जीवन अनुभव, व्यापक स्वाध्याय, सतत अभ्यास और सुरुचिपूर्ण साहित्यकारों के सत्संग से आपके सर्जक का विकास होगा. आगे पत्र-व्यवहार का पताः
'सोपान', गुलमोहर पार्क, नई दिल्ली
भवदीय
बच्चन
पत्र-दो(हस्तलिपि)
हरिवंश राय बच्चन
'सोपान'
बी-8, गुलमोहर पार्क, नई दिल्ली -49
प्रिय श्री
पत्र के लिए ध.
वामा मेरे पास नहीं आती. कटिंग भेज सकें तो आपकी कहानी पढ़ूंगा.
कहानी लौट आये तो कहानी का दोष समझें. सम्पादक का नहीं. और अच्छी कहानी भेजें. और पत्रिकाओं में भेजें.
एक समय बर्नार्ड शा के लेख भी लौट आते थे. 10 में 9. वह 100 लेख भेजता था, दस तो छपेगा. शेष सामान्य. शु.का.
बच्चन
पत्रःतीन(टाइप किया हुआ पत्र)
हरिवंश राय बच्चन
'सोपान'
बी-8, गुलमोहर पार्क, नई दिल्ली -49
8 अगस्त, 1986
प्रिय श्री,
आपका पत्र मिला. प्रकाशक से मेरा कोई सम्बंध नहीं है. मैं इस विषय में आपको कोई राय नहीं दे सकता.
भवदीय
बच्चन
(हरिवंशराय बच्चन)
पत्रःचार हस्तलिपि)
दीपावली की बधाई के लिए शुभकामनाएं
बच्चन
1983
'दिन को होली
रात दिवाली
रोज़ मनाती मधुशाला'
पत्रः पांच (हस्तलिपि)
'सोपान', गुलमोहर पार्क, नई दिल्ली
23.10.83
प्रिय श्री हृदय बेमिसाल जी
नमस्ते
पत्र के लिए धन्यवाद. सद्भवना के लिए आभारी हूं. आपकी योजनाओं की सफलताओं के लिए मेरी शुभकामनाएं. अवस्था ( मैं 76 वां पूरा कर रहा हूं) और अस्वस्थता के कारण यात्राएं मेरे लिए कष्टकर हो गयी हैं. सशरीर मैं उपस्थित होने में असमर्थ हूं. क्षमा करेंगे. शेष सामान्य. शुभकामनाएं.
भवदीय
बच्चन
पत्रःछह(हस्तलिपि)
जन्म दिन की बधाई के लिए धन्यवाद. शुभकामनाएं.
बच्चन
83
'सूख रही है
दिन-दिन संगी
मेरी जीवन मधुशाला'
'सोपान'
गुलमोहर पार्क
नयी दिल्ली
पत्रःसात(हस्तलिपि)
हरिवंश राय बच्चन
'सोपान'
बी-8, गुलमोहर पार्क, नई दिल्ली -49
नये साल की बधाई
शु.के लिए सधन्यवाद, शुभकामनाएं.
लेखक का सबसे बड़ा पुरस्कार है कि जनता उसे पढ़े. जो भी काम करें उसमें पूर्णतया अपने को लगा दें.
बच्चन
13.1.85
पत्रःआठ (हस्तलिपि)
'सोपान', बी-8, गुलमोहर पार्क, नई दिल्ली
6.12.83
प्रिय श्री
पत्र के लिए धन्यवाद
अपनी परिस्थितियों और योग्यता क्षमता को देखकर अपने भविष्य की दिशा आपको निश्चित करनी है. किसी भी दिशा में जायं संघर्ष तो करना ही होगा परिणाम की गारंटी कौन दे सकता है. आप समझते है कि फ़िल्मों में आप गीत लिख सकते हैं या फ़िल्मों के लिए कहानी तो आप बंबई जाकर प्रोड्यूसरों और म्यूज़िक डायरेक्टरों से मिलें. उन्हें अपनी योग्यता का सबूत दें. संभव है वे आपको मौका दें. वहां किसी की सिफारिश से काम नहीं होता. आपका काम आपकी सिफारिश होगा. यह पहले से जान लें कि आपको मौका देने को वे आपको नहीं देंगे.
देंगे तो इसलिए कि आपको देकर वे अपने आर्थिक उद्योग में सफल तो हो सकेंगे या नहीं. तरजीह नये के ऊपर जाने-माने को दी जाती है यह भी यथार्थ है और जाने-माने कितने लोग हैं जो अपना स्थान बना चुके हैं पर नये लोग भी अपनी राह बनाते हैं. मैं आपको अपनी शुभकामनाएं दे सकता हूं और कुछ नहीं. आप अपने अभियान में सफल हों.
भवदीय
बच्चन
पत्रःनौ(हस्तलिपि)
'सोपान', गुलमोहर पार्क. नई दिल्ली
8.6.85
प्रिय श्री
आपका कार्ड मिला और कुछ आपकी ओर से नहीं मिला. आशा है आपका काम पसंद किया जायेगा और आगे आपको और काम मिलेगा.
मेरी शुभकामनाएं.
बच्चन


Monday 9 November 2009

सुर संग्राम का बेहतरीन सुर


सुरों का संग्राम हो तो वह अन्य संग्रामों से कैसे अलग होता है यह दिखा दिया महुआ ने। महुआ टीवी चैनल पर भोजपुरी रिएलिटी शो 'सुर-संग्राम' कार्यक्रम में। पटना में इसके ग्रैंड फिनाले में उत्तर प्रदेश और बिहार के कलाकारों की भिड़ंत थी। इसमें विजेता को बतौर इनाम 25 लाख रुपये और उपविजेता को 11 लाख की राशि दी जानी थी। लेकिन शीर्ष दो विजेताओं के गायन से चैनल के मालिक इतने प्रभावित हुए कि दोनों को ही 25 लाख दे दिये। और वह नजीते भी डिक्लियर नहीं किये गये जो उनमें से किसी एक को एक और दूसरे को दो नम्बर का गायक बताते। दोनों ही गरीब परिवार के गायक थे जिसमें से एक मोहन राठौड़ के पिता तो घर-घर जाकर कपड़े बेचते हैं। लोग तो इस बात भी तसल्ली कर लेते कि पुरस्कार की दोनों राशि यानी 25 और 15 को जोड़कर 40 में से आधा-आधा बांट दिया जाता। लेकिन मिसालें ऐसे नहीं बना करतीं। यह लगभग अभूतपूर्व निर्णय था पुरस्कार देने वाले की तरफ से की दोनों को 25-25 लाख दिया जाये। संस्कृति के क्षेत्रों में जो पुरस्कार देने वाले हैं अपनी तमाम उदारताओं और महान मूल्यों के लिए समर्पण की प्रतिबद्धता की शेखियां बघारने के बाद भी ऐसी मिसालें अपने व्यवहार से पेश नहीं करते। ज्ञानपीठ पुरस्कार सहित कई और पुरस्कारों के उदाहरण हैं जब दो लोगों को नम्बर एक का दावेदार समझा गया तो पुरस्कार राशि आधी-आधी बांट दी गयी और कुछ ऐसे उदाहरण भी हैं जिसमें पुरस्कार राशि छोटी थी और एक नम्बर के दो दावेदार थे तो एक को जबरन नम्बर दो घोषित कर पुरस्कार देने जहमत भी नहीं उठायी गयी। जब नम्बर दो के लिए कुछ था ही नहीं तो फिर उसे दो नम्बर को घोषित ही क्यों किया गया यह विचारणीय है! बहरहाल महुआ ने जो सदाशयता दिखायी है वह उदाहरण स्थापित करती है और जब कार्यक्रम भोजपुरी से जुड़ा हो तो भोजपुरी संस्कृति को भी इससे बल मिलता ही है। इसलिए सुर संग्राम सुरों का ही संग्राम था जिसे एक भोजपुरिया सुरीले ने कराया।

Sunday 8 November 2009

पत्रकारिता को नयी भाषा व संवेदना के नये धरातल दिये प्रभाष जी ने


जिन कुछेक लोगों ने हिन्दी पत्रकारिता की विश्लेषणात्मक क्षमता और उसकी रीति-नीति का निरन्तर विस्तार, आविष्कार और परिमार्जन किया उनमें प्रभाष जोशी का नाम प्रमुखता से लिया जायेगा। धार और संवेदना की जैसी जुगलबंदी उनकी भाषा में दिखायी देती है वह हिन्दी पत्रकारिता में विरल होती जा रही है वरना पत्रकारिता की भाषा का इकहरापन चिन्ताजनक है। भाषा का छंद नारों से नहीं नीयत से आता है यह प्रभाष जी जैसों के लेखों से ही जाना जा सकता है। उनके 'कागद कारे' शृंखला के आलेख न तो कभी पुराने पड़ने हैं और ना ही वे कभी अप्रासंगिक होंगे क्योंकि उनमें देश दुनिया का जनमानस लगातार अपनी टोह में लगा हुआ दिखायी देता है। हमारी घनीभूत चिन्ताओं की शक्ल क्या है ही उनमें नहीं दिखायी देती बल्कि यह भी कि उसके निहितार्थ क्या हैं या भी समझाने का महती प्रयत्न दिखायी देता है। मामूली और आम बातें, घटनाएं और लोग उनके आलेखों में आकर जो रूपाकार ग्रहण करते थे वह उन्हें एक सार्थक बहस का बेहद जरूरी हिस्सा बना देता था। मैं अक्सर समय के अभाव में उनका आलेख प्रकाशन के दिन नहीं भी पढ़ पाता था तो कई दिनों तक पुराने अखबार को रखे रहता था कि उनका आलेख पढ़ लूं तो फिर अखबार को रद्दी समूह के कागज़ों में डालूं। अक्सर उनके आलेख उन मुद्दों पर भी रहते तो ज्वलंत प्रश्नों से मुठभेड़ लेते थे उन आलेखों में उनकी खरी नीयत बोलती थी और साफगोई उसमें नया पैनापन देती थी। मुझे क्रिकेट में तो कभी दिलचस्पी नहीं रही फिर भी कभी कभार क्रिकेट पर लिखे लेखों को भी पढ़ने की कोशिश करता। क्रिकेट पर तो हिन्दी में शायद उनके जैसा दूसरा टिप्पणीकार न होगा।
मैंने कभी सोचा न था कि पत्रकार बनूंगा फिर भी अनायास ही पत्रकारिता से शौकिया जुड़ गया जनसत्ता कोलकाता से और स्ट्रिंगर बन गया.। उन दिनों मैं कलकत्ता विश्वविद्यालय से केदारनाथ सिंह पर पीएचडी के लिए शोध कर रहा था और अपने नानाजी के ठेकेदारी के कामकाज में हाथ बंटाता था। पेशे के तौर पर पारिवारिक स्तर पर तय हो चुका था कि नौकरी नहीं कारोबार करना है। उन्हीं दिनों दो एक बार प्रभाष जी को कुछ करीब से देखने का अवसर मिला। ऐसी दो एक सभाओं की कवरेज करने भी गया जिनमें प्रभाष जी वक्ता थे। उनमें एक सभा वह भी है जिसमें पं.विष्णुकान्त शास्त्री कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे थे। उस समय वे संभवतः भाजपा के लोकसभा सांसद भी थे। यह तो नहीं याद है कि सभा का मुख्य विषय क्या है किन्तु प्रभाष जी एनरान पर बोले थे और तत्कालीन भाजपा नीत सरकार की एनरान के मुद्दे पर भूमिका की जम कर मलामत की थी। अध्यक्षीय भाषण में विष्णुकान्त जी ने उनकी बातों का जवाब दिया था और उनके तर्कों को दरकिनार कर दिया था। ऐसा लगा था कि प्रभाष जी के तर्क कुछ कमजोर पड़ गये हैं। विष्णुकान्त जी अध्यक्षीय भाषण देकर सभा की समाप्ति की घोषणा भी कर दी। लेकिन प्रभाष जी विष्णुकान्त जी के तर्कों का फिर से जवाब देने से चूकना नहीं चाहते थे। वे लपक कर फिर माइक के पास पहुंच गये और कहा कि मुझे यह अनुशासन पता है कि अध्यक्षीय भाषण के बाद फिर वक्तव्य नहीं दिया जाता है लेकिन इस अनुशासन से बढ़कर भी कुछ बातें हैं जिसके कारण मैं फिर बोलना चाहूंगा और विष्णुकान्त जी या अन्य किसी और की सहमति की प्रतीक्षा किये बिना ही उन्होंने बची खुची कसर निकाल ली और फिर मंच से उतर कर तेजी से अपनी कार की ओर बढ़े। इधर, कई भाजपा कार्यकर्ताओं को प्रभाष जी का वक्तव्य नागवार लगा और वे उन्हें घेरने का प्रयास करने लगे। वे जब तक कार में बैठते चारों ओर से भाजपा कार्यकर्ताओं ने घेर लिया था और उन्हें अपशब्द भी कहने पर उतारू थे वह तो भी भीड़ का रुख देखकर विष्णुकान्त जी वहां पहुंचे और किसी प्रकार यह कहकर लोगों को गाड़ी के आगे से हटाया कि प्रभाष जी पत्रकार हैं और पत्रकारों को कुछ भी कहने की आजादी होती है, उन्हें कहने दीजिए। आप लोग संयम बरते।
दूसरी एक घटना मुझे याद है जो प्रभाष जी के अभिव्यक्ति की आजादी के प्रति उनके रवैये को स्पष्ट करती है। वह घटना है एक साहित्यक समारोह की है। उसमें प्रख्यात ललित निबन्धकार डॉ.कृष्ण बिहारी मिश्र प्रधान वक्ता थे। मंच से उन्होंने जनसत्ता की भाषा नीति की जमकर आलोचना की थी और नाम लेकर कहा था कि प्रभाष जोशी जैसे पत्रकार अपने आपको कबीर बनते हैं और भाषा से खिलवाड़ कर रहे हैं। पता नहीं पत्रकार किस हेकड़ी में रहते हैं। इस वक्तव्य में कुछेक हर्फ़ इधर उधर हो सकते हैं मगर लब्बोलुबाब यही था। उल्लेखनीय यह है कि वहां मंच पर प्रभाष जी नहीं थे वरना वे उसका जवाब स्वयं देते। मेरी ड्यटी इस कार्यक्रम की रिपोर्टिंग की लगी थी। मैंने जो रिपोर्ट लिखी थी उसमें मैंने इंट्रो ही प्रभाष जी के भाषा सम्बंधी रुझान पर कृष्णबिहारी जी की आपत्ति को बनाया था। मामला संवेदनशील होने के कारण डेस्क ने रिपोर्ट की कापी कोलकाता के स्थानीय सम्पादक श्री श्याम आचार्य तक पहुंचायी और उन्होंने उसे दिल्ली फैक्स किया ताकि उसके प्रकाशन के सम्बंध में प्रभाष जी की राय ली जा सके। और राय हां में थी। वह रिपोर्ट उसी प्रकार प्रकाशित हुई। सचमुच प्रभाष जी ने पत्रकारिता की भाषा को जनभाषा के करीब लाने का न सिर्फ प्रयास किया बल्कि भाषा की शास्त्रीयता की दुहाई देने वालों से इस मोर्चे पर लोहा भी लिया जिसकी यह घटना उदाहरण है।
प्रभाष जी के मालवा अंचल और कुमार गंधर्व पर कई लेख जब तक पढ़ने का मौका मिलता रहा था। जब मैं अमर उजाला, जालंधर से वेबदुनिया डाट काम में कार्यभार संभलाने के लिए इंदौर गया तो इंदौर से पहले ही वह स्टेशन देवास मिला जिसके बारे में मैं पर्याप्त पढ़ चुका था और इंदौर भी मुझे इसलिए भी पहले से परिचित और मोहक लगा। प्रभाष जी के आलेख में वह शक्ति है जो अर्थ ही नहीं पूरी संवेदना को पाठक तक पहुंचाती है। एक ही संस्थान होने के कारण कुछेक बार मुझे वेबदुनिया कार्यालय से नयी दुनिया कार्यालय जाने का मौका मिला था तो वहां भी प्रभाष जी की चर्चा सुनी थी जहां से उन्होंने अपने पत्रकारिता करियर की शुरुआत की थी। वेबदुनिया कार्यालय में भी अक्सर राजेन्द्र माथुर, शरद जोशी आदि के साथ चर्चा होती थी, जिनसे नई दुनिया का प्रगाढ़ रिश्ता था। इन चर्चाओं ने मुझे उनका फैन बना दिया था। पत्रकारिता के तुरतफुरत के भाषिक और प्रतिक्रियाशील व्यवहार को नयी ऊंचाई और दिशा देने में प्रभाष जी के योगदान को मैं नमन करता हूं।

Monday 26 October 2009

बिग बास से लक्स परफेक्ट ब्राइड तकः हमारा समाज, हमारा घर

गनीमत है कि बिग बास जैसे रियल्टी शो के साथ साथ टीवी पर लक्स परेक्ट ब्राइड जैसे कार्यक्रम भी प्रसारित हो रहे हैं, जो हमारे भारतीय समुदाय के देखने लायक हैं। हमें तो बहुत गुमान था कि बिग बी यानि अमिताभ बच्चन बिग बास में आयेंगे तो उसका स्तर सुधरेगा लेकिन हुआ उल्टा। वे कार्यक्रम में भाग लेने वाले प्रतियोगियों से अपने को पुजवाते रहे और दर्शक बोर होते रहे। यह कार्यक्रम बिग बास के बदले बिग बी बनकर रह गया. बिग बास टू में तो गनीमत थी की राहुल महाजन जैसे दिलफेंक और मोनिका बेदी जैसी विवादास्पद हस्तियां थी जिन्हें देखने से सतही सही मनोरंजन तो होता था अबकि तो राखी सावंत की मां जैसे कचरे भी बटोर लिये गये थे। पूनम ढिल्लों जैसी प्रोढ़ नायिकाओं के झेलने की ताकत बहुत कम लोगो में है।

संगीतकार इस्माइल दरबार का रहना न रहना बराबर ही लग रहा है और अब उनके हाथ में चोट लगी है तो और भी अकर्मण्य हो गये हैं। और दारा सिंह का बेटा बिन्दु दिमाग का खाली है। मजे़दार चीज थी कआरके यानी कमाल आर. खान वह भी बिदा कर दी गयी। नवधनाढ्यों के तौर तरीकों की झलक कमाल ने कमाल ढंग से पेश की। नवदौलतियों का ओछापन देखकर लोगों को अपने आस पास के ओछों की याद जरूर आती थी जिनकी चाय अमुक देश से और पानी अमुक देश से आता होगा। जो दोस्तों के लिए काम करने को भी अपनी तौहीन समझते होंगे। खैर मारपीट करके और सबको यह बताकर कि वह मल्टीमीलिनियर है बिग बास से असमय ही निकाल दिया गया चलते चलाते अमिताभ बच्चन को अपनी नयी फिल्म में काम करने का आफर देकर। ऐसे बोरिंग बिग बास के बरक्स लक्स परफेक्ट ब्राइड में वह समाज झांकता है जो हमारे आसपास है। अपने बेटों के लिए वधू खोजती ममीज इसमें हैं जो हमें बताती हैं कि आज के समाज में कैसी लड़कियों को विवाह के लिए आदर्श माना जाता है। इस कार्यक्रम का मजेदार पहलू यह है कि जो जोड़ियां अपने आप युवक युवतियों ने बनायीं हैं उस पर उनके परिवार वालों का ऐतराज है और वे उन्हें दूसरों में भी संभावना तलाश करने की नसीहत दे रही हैं। यही तो हमारे समाज में चल रहा है। वैवाहिक सम्बंध तमाम फायदे नुकसान को तौलकर किये जाते हैं, जिसमें दिल का कोई रोल नहीं होता। किसी अन्य वस्तुओं की तरह ही वैवाहिक रिश्ते परखे जाते हैं इसका आईना है यह रियल्टी शो।

इस धारावाहिक का सकारात्मक पहलू यह है कि कार्यक्रम देखने वाले अभिभावक भी यह समझने पर मजबूर हो गये हैं कि कहीं ऐसा तो नहीं कि जो रिश्ता वे अपने बच्चों के लिए अपने नजरिये से देख रहे हैं वह बच्चों के लिए भी उतना ही आदर्श लगेगा जितना उन्हें लगता है। कुछ अभिभावक तो रिजेक्ट किये हुए रिश्तों में फिर संभावना तलाशने लगे हैं और कह रहे हैं कि भई हमें तो नहीं जंचा लेकिन अपने बेटे या बेटी से भी पूछ लेते हैं क्या पता उन्हें वह जंच जाये। क्योंकि दोनों का नजरिया अलग है यह इस रियल्टी शो ने समझा दिया है। इस शो में शाकाहार का सामाजिक मुद्दा ही उभर कर नहीं आया बल्कि यह भी कि वधू वही परफेक्ट लगती है, जो पूरी परिवार को लेकर चले। और यह भी कि केवल एक पक्ष को ही तालमेल का रुख नहीं अपनाना चाहिए।

Thursday 22 October 2009

लोक तत्त्वः कुछ नोट्स

बाज़ार और उत्पादन

लोकतत्त्व का इधर बाज़ार को ध्यान में रखकर पूरी दुनिया में अध्ययन हो रहा है। वह दुनियाभर के बाज़ारों के लिए ग्लैमर का विषय है। दुनिया भर के बाजार जानना चाहते हैं कि किस देश के किस प्रांत का लोकजीवन क्या है। उनके सपने और आकांक्षाएं क्या हैं क्योंकि यही तो वह है जिसकी ओर उनकी निगाह है। वहां क्या बेचा जा सकता है और वहां से सस्ता क्या उगाहा जा सकता है। कोई दूर दराज के गांव में किसी खास वनस्पति की खेती या बागवानी चाहता है ताकि उसके बूते वह अपने धंधे को सस्ते में और चोखा कर सके। कोई दूर दराज के गांव में यूकेलिप्टस उगवा देता है तो कोई सूर्यमुखी खिला देता है तो कोई गांव की बंजर ज़मीनों पर जट्रोफा की उपज चाहता है ताकि तेल की समस्या से कुछ निजात मिले। दुनिया की प्रयोगशालाएं गांवों पर प्रयोग के लिए आतुर रहती हैं और वह आतुरता बनी हुई है।

चीन के गांव में वह चीज़ें तैयार की जा रही हैं जो भारत के दूरदराज़ के गांव में इस्तेमाल की जा सकें। वहां चीन के ग्रामीणों को यह पता नहीं है कि वह जो कुछ बना रहे हैं उसका कितना घातक असर लोगों की स्वास्थ्य पर पड़ेगा। उन वस्तुओं का टिकाऊपन कितना रहेगा और यूज़ एंड थ्रो वस्तु यूज़ से अधिक थ्रो के ही काम आती है। चीन के गांव का आदमी सस्ते में चीज़े बना रहा है और भारत के गांव का आदमी वह सस्ते में इस्तेमाल कर रहा है। दोनों जगह ही गांव का इस्तेमाल बाज़ार कर रहा है।

महंगा हुआ श्रम

राष्ट्रीय ग्रामीण गारंटी रोजगार योजनाओं से गांवों का जीवन बदल रहा है और लोगों को श्रम की अच्छी कीमत मिल रही है जो पहले संभव नहीं थी। इसका नतीज़ा यह हुआ कि खेतों में काम करने के लिए जो शहर की तुलना में सस्ता श्रम था वह उपलब्ध था। हालांकि गांव से रोजगार की खोज के लिए शहर की ओर जाते लोगों की वज़ह से दिनों दिन काम करने योग्य लोगों की उपलब्धता घटती जा रही थी लेकिन अब और कठिन हो गया जो गांव में हैं उन्हें नरेगा के तयशुदा मानकों के अनुरूप पैसा मिलने के कारण अब खेतिहर श्रमिकों के भाव बढ़ गये हैं जिसके कारण खेती करना और महंगा हो गया है। अब जो खर्च खेती पर हो रहा है उसकी की़मत अनाज से निकलने की गारंटी कहां है। गांव के लोगों को आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भरता की यह जो कीमत देश को चुकानी पड़ेगा वह क्या बड़ी नहीं है। नये हालात में खाद्यानों की उपज कम हो जायेगी। खेती के कार्य में श्रम को बढ़ावा देने की आवश्यकता भी उतनी ही है जितनी ढांचागत सुविधाओं की दोनों का सामंजस्य जरूरी है ऐसा हो कि गांव से शहर तक आवाजाही की सुविधा तो हो जाये लेकिन गांव में कुछ ऐसा तैयार ही हो पाये जो शहर में पहुंचे।

भोजपुरी का बाज़ार

इधर भोजपुरी बोली के भाषा बनने की तैयारियां हो रही हैं और भोजपुरी का बाज़ार उठा है। सस्ते-सुस्ते में बनी भोजपुरी फिल्म ससुरा बड़ा पैसा वाला फिल्म के बाक्स आफिस पर हिट होने का बाद भोजपुरी फिल्मों की बाढ़ गयी। इधर टी सीरिज ने भोजपुरी बाजार को पहले ही अश्लील भोजपुरी गीतों से पहले ही बाजार को पाट रखा था। अश्लीलता और फूहड़ता पर टिका यह भोजपुरी का संगीत फिल्मी बाजार तब और गरम हो उठा जब महुआ जैसे टीवी चैनल भी भोजपुरी में गये। पारा गरम और मिर्ची लागल जैसे अश्लीलता से आतप्रोत कार्यक्रमों के बूते इस चैनल ने बता दिया कि भोजपुरी की औकात क्या है। जो लोग गांवों से काफी पहले शहर गये थे और भोजपुरी बोलना जिनके बच्चों के बस की बात नहीं रह गयी थी वह प्रेरित किये गये कि अपनी भाषा का टीवी चैनल देखें लेकिन जब उन्होंने भोजपुरी की शानदार अश्लील परम्परा का जायजा लिया तो शर्मसार हो उठे। द्विअर्थी गीत ही भोजपुरी गीतों की पहचान बन गयी है। अब अन्य भाषा बोलने वालों के बीच लगा ' तू चोलिया के हूक राजा जी' , 'लहंगा उठा देब रिमोट से', 'मिस काल मार तारू किस देबू का हो/अपनी मसीनिया में पीस देबू का हो' जैसे गीतों में अपनी संस्कृति की पहचान नहीं कराना चाहते। पते की बात यह है कि अश्लीलता की परिधि के आसपास घूमते लोग ही मंच पर यह दावा करते हैं कि भोजपुरी को भाषा बनायी जाये ऐसे में इनको कौन पढ़ा लिखा भोजपुरिया अपना प्रतिनिधित्व सौंपेगा।

लोक-परलोक

गांव से रोजगार की तलाश में शहर आना और बरसों बाद रिटायर होने पर गांव लौटना भारतीय समाज की बहुत बड़ी त्रासदी है। गांव के परिचित माहौल से बाहर शहर के माहौल से तालमेल बिठाने में समय लगता है लेकिन उससे अधिक कठिन है अपने को शहर के सांचे में ढालने के बाद गांव के लोक जीवन से तालमेल बिठा पाना। शहर में अपनी उम्र के कीमत वर्ष बिताने के बाद गांव लौटना पढ़े लिखे व्यक्ति के लिए नर्क में लौटना है। वहां का वातावरण लगातार व्यक्ति को अकेला करता है, निराश और हताश करता है। भ्रष्टाचार और चारित्रिक पतन जो शहर में परदे में है, वह गांव में अपने नग्न रूप में सामने खड़ा हाता है। उपयोगी नहीं हैं तो कुछ नहीं हैं, गांव का मूल्य बन चुका है। गांव से शहर जाकर लौटे आदमी के लिए लोक ही परलोक हो चुका होता है।

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...