Monday 28 December 2009
तिवारी प्रकरणः दोनों तरफ है विश्वसनीयता का संकट
एनडी तिवारी के सेक्स स्कैंडल ने देश के चेहरे पर मुस्कान ला दी। 85 साल के तिवारी जी अपने खिलाफ सेक्स स्कैंडल को झूठ बताते हैं। और उनका कहना है कि यह आंध्र में कुछ लोगों की मनगढंत साजिश का परिणाम है। तिवारी की मानें तो आंध्र में तेलंगाना का संघर्ष चल रहा है।
इसको लेकर वहां कुछ लोग राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के संभावित दौरे के सिलसिले में उनसे मिलना चाहते थे लेकिन उन्होंने मिलने से मना कर दिया था। वे लोग किसी प्रकार से राजभवन में अपनी घुसपैठ बनाने की कोशिश में जुट गए। हालांकि उन्होंने कुछ लोगों से मुलाकात भी की थी लेकिन कुछ लोग उनसे नाराज हो गए थे। उन्हीं लोंगों ने यह साजिश रची है। हालात जैसे हैं उससे तो यह लग रहा है कि यह सब साजिश है और सचमुच तिवारी जी को राजनीति से संन्यास लेने के बजाये अपना पक्ष लगातार रखना चाहिए। विश्व राजनीति में यों भी यौन सम्बंधों को लेकर बड़े बड़े मामले होते रहे हैं और उसे किसी के राजनीतिक करियर का समापन नहीं हुआ है। फिलहात तो लोग एक टीवी चैनल द्वारा दिखायी गयी विडियो के मजमून की चर्चा कर लुत्फ ले रहे हैं। किसी बहाने तो लोगों के चेहरे पर रौनक लौटी। बिल क्लिंटन की चर्चा को काफी दिन हुए भारतीय नेताओं की भी इस प्रसंग में चर्चा होती रहनी चाहिए। यह तिवारी का तड़का अच्छा है। रहा सवाल स्कैंडल का तो न तो आज सत्ता का सुख भोगने वालों के पतन की कोई सीमा रह गयी है ना विपक्ष के चारित्रिक पतन की। मीडिया के दुरुपयोग की घटनाएं भी अब आम हो गयी हैं। ऐसे में तिवारी पर लगे आरोपों की विश्वसनीयता संकट में है और सिर्फ नैतिकता की दुहाई देने से काम नहीं चलेगा और ना ही किसी के सत्ता पक्ष में होने से यह सिद्ध हो जाता है कि वही भ्रष्ट होगा।
बड़ा होना स्वार्थी होना नहीं है
शोध में कहा गया है कि स्वार्थी होता है घर का बड़ा बच्चा। अगर आपको मदद की जरूरत है, तो इस मामले में आप अपने सबसे बड़े बच्चे से मदद नहीं मांगे। अध्ययन में कहा गया है कि पहले पैदा हुआ बच्चा अपने छोटों के मुकाबले ज्यादा स्वार्थी होने के साथ ही मदद नहीं करने के इच्छुक होते हैं। मोंटपेलियर यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने यह नतीजे निकाले हैं। उनका हमारे भारत में स्वागत है ताकि वे अपने शोध के तर्कों को यहां की कसौटी पर कसकर देखें और अपने को कटेक्ट करें। यहां तो कई बड़े भाई या बहन जिम्मेदारियों के बोझ से ऐसे दबे कि स्वयं उनकी शादी नहीं हुई और वे अपने से छोटों को काबिल बनाने और उनकी जिम्मेदारियों को उठाने में ही खप गये।
गीता कोड़ा की जीत का मतलब
पिछले दिनों मैंने लिखा था कि मधु कोड़ा आर्थिक भ्रष्टाचार के मामले में फंसे हैं और उन्होंने अपनी पत्नी को झारखंड के चुनावी मैदान में उतार दिया है और जैसी अपने देश की राजनीतिक व्यवस्था है वे जीतेंगी। अब जनता को देखो कि उसने भ्रष्टाचार की विजय के मेरे विश्वास को डिगने नहीं दिया। जनता जाने अनजाने व्यवहारिक तौर पर ऐसे लोगों को समाज में नायक बनाये रखती हैं जिनका सैद्धांतिक तौर पर विरोध किया जाता है। मधु कोड़ा की पत्नी गीता कोड़ा की विधानसभा चुनाव में हालिया जीत इसका उदाहरण है। मधु कोड़ा अभी मामलों से बरी नहीं हुए हैं किन्तु उनकी पत्नी की विजय ने बता दिया कि इस देश का जनमत ऐसे लोगों के साथ है। लोकतंत्र की इन विडम्बनाओं का हम क्या करें? राजनीति की लोकतंत्र से बेहतर कोई प्रणाली अभी विकसित नहीं हुई है। ऐसे में इस व्यवस्था की खामियों को दूर करने की कुंजी किसके पास है इस पर विचार करने की आवश्यकता है। मीडिया ने सुर्खियों के बीच उछाला कि हजारों करोड़ रुपये के घोटाले के आरोप में जेल में बंद झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा की पत्नी गीता कोड़ा पहली बार सदन पहुंची हैं और इस बार उन्हें सबसे युवा विधायक बनने का भी गौरव प्राप्त हुआ है। क्या हमें ऐसे गौरव की आवश्यकता है?
आम आदमी के पतन की दास्तान
टीवी धारावाहिक बिग बास में प्रवेश राणा की हार के साथ ही आम आदमी के छवि टूटी है। यह वही आम आदमी है जो विंदू दारा सिंह और पूनम ढिल्लन के सम्पन्न बैगग्राउंड से कुंठित होकर और हताश होकर स्वीमिंग पूल में खाने-पीने की वस्तुएं फेंकने लगा था और उसकी यह हरकत उसे ले डूबी। उसकी हार में बिग बास की स्वयं की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। हम तो इसे फाउल और पक्षपात मानते हैं। खेल वहां फाइनल में बचे तीन प्रतियोगियों के बीच था। राणा ने खाने की चीजें यदि स्वीमिंग पूल में फेंकी तो उसका जवाब बाकी प्रतियोगियों को देना चाहिए था ना कि स्वयं बिग बास को। बिग बास की ओर से एक लघु फिल्म दिखा दी गयी कि कैसे इस देश में लोग भूख से मर रहे हैं और यहां प्रवेश राणा खाने की चीजें बरबाद कर रहा है। इससे उसका नकारात्मक छवि और अधिक उभर कर आयी जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा। नतीजा यह निकला कि एक जोकर विंदू दारा सिंह बिग बास बन बैठा। देखने वाले सभी जानते हैं कि उसके दिमाग में कहीं कुछ कम है। अपने आपमें हमेशा बड़बड़ाता आदमी और महिलाओं के प्रति अशोभनीय टिप्पणी करने वाले विंदू का नायक के तौर पर उभरना नायकों की एक नकारात्मक छवि पेश करता है।
Tuesday 22 December 2009
आम आदमी की ताक़त
अब चुकाओ सच्चाई की कीमत
लाखों औरतों के शोषण को नहीं किया जा सकता अनदेखा
क्या बार बार मिलता है मनुष्य जीवन!
Monday 14 December 2009
नये राज्यों का गठनः कोई सर्वमान्य फार्मूला बनाये सरकार
कुछ नये राज्यों के गठन की मांग इस प्रकार हैः आंध्रप्रदेश में ही ग्रेटर हैदराबाद, बंगाल में गोरखालैंड, महाराष्ट्र में अलग विदर्भ राज्य, उत्तर प्रदेश में हरित प्रदेश, बुंदेलखंड और पूर्वांचल, गुजरात में सौराष्ट्र, असम में बोडोलैंड, पश्चिम बंगाल और असम के कुछ हिस्से को मिलाकर ग्रेट कूच बिहार, बिहार में मिथिलांचल, पूर्वी उत्तरप्रदेश-बिहार-छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्से को मिलाकर भोजपुर, राजस्थान के नौ जिलों को मिलाकर मरुप्रदेश की मांग।
बांझ स्त्री के लिए नहीं है आज की कविता में भी स्थान!
घर में से निकली तिरियवा, जंगल बिच ठाड़ भइली, बाघ से बीनति करे हो, ए बघवा हमरा के भछि भलि लिहत, त जिनगी अकारथ हो।जंगल से निकलेला बघवा त दुख सुख पूछेला हो ए तिरिया कवना सकठ तोहरा परले त हमसे भछवावेलू।सासु मोरे कहे ली बंझिनियां, ननद बंसहारन हो, जिनकर बारी बियाही तिन घर से बाहर कइले हो।जाहू हे तिरिया घरे जाहू अपना भवन जाहू हो, ए तिरिया तोहरा के भछि हम लेबो बघिनियां होइहैं बांझिन हो।चलल चलल चलि गइली त बिल लागे ठाड़ भइली नाग से बिनती करे ए नगवा हमरा के डंसि भली लिहित त जिनगी अकारथ हो।बिल से निकलेला नगवा त दुख सुख पूछेला हो, ए तिरिया कवना सकठ तोहरा पड़ले त हमसे भछवावेलू।सासु मोरे कहे ली बंझिनियां ननद बंसहारन हो, जिनकर बारी बियाही तिन घर से बाहर कइले हो।जाहू हे तिरिया घरे जाहू अपना भवन जाहू हो ए तिरिया तोहरा के डंसि हम लेबो नगिनियां होइहैं बांझिन हो।चलल चलल चलि गइली त अम्मा द्वारे खड़ा भइली अम्मां से बिनती करे ए अम्मां हमरा के राखि भली लिहित त जिनगी अकारथ हो।घर में से निकलेली अम्मां त दुख सुख पूछेला हो ए बेटी कवना सकट तोहरा परले त अम्मां लगे आवेलू हो।सासु मोरे कहे ली बंझिनियां ननद बंसहारन हो, जिनकर बारी बियाही तिन घर से बाहर कइले हो।जाहू हे बेटी घरे जाहू अपना भवन जाहू हो ए बेटी तोहरा के राखि हम लेबो त बहूआ होइहैं बांझिन हो।चलल चलल चलि गइली त शिव द्वारे खड़ा भइली शिव से बिनती करे ए शिव जी हमरो जिनकी हर लिहती त जिनगी अकारथ हो।धुनि में से उठेले चिहाई शिव दुख सुख पूछेले हो ए तिरिया कवना सकठ तोहरा परले त शिव लगे आवेलू हो।सासु मोरे कहे ली बंझिनियां ननद बंसहारन हो, जिनकर बारी बियाही तिन घर से बाहर कइले हो।जाहू हे तिरिया घरे जाहू अपना भवन जाहू हो ए तिरिया आजू से नउवें महिनवां होइहैं नंदलाल हो।राजवा गिनेला नौमांस रनियां नौ महिनवां नू हो सुकवा उगत बाबू जनमें महलिया उठे सोहर हो।सासु भेजेली नउनियां त ननद बरिनियां नू हो कि घोड़वा सामी दउरावेले बाबू के जनम भइले हो।
Sunday 6 December 2009
अपने हाथ से पका कर खाने की बात ही कुछ और है!
बेटी समाज में आदमी होने की तमीज है!
Monday 30 November 2009
घोड़ा कहिए जनाब
Sunday 29 November 2009
मैं सदैव तुम्हारे साथ हूं, दूर नहीं-लोढ़ा
जीवन वृत्त-एक नज़रजन्म-28 सितम्बर 1921। निधनः 21 नवम्बर कीरात लगभग 2.30 बजे जयपुर में। कोलकाता के सेठ आनंदराम जयपुरिया कॉलेज में हिन्दी प्रवक्ता के रूप में अध्यापन शुरू किया। 1953 में कलकत्ता वि.वि. के हिन्दी विभाग में पूर्णकालिक शिक्षक के पद पर नियुक्ति। सन् 1979-80 के बीच जोधपुर विश्वविद्यालय के कुलपति। उनके निर्देशन में पचास से ज्यादा पीएचडी। 11 मौलिक किताबें प्रकाशित और 14 किताबें संपादित। साहित्यिक अवदान के लिए मूर्ति देवी पुरस्कार, केंद्रीय हिंदी संस्थान-आगरा से राष्ट्रपति द्वारा सुब्रमण्यम सम्मान, अमरीकन बायोग्राफिकल सोसाइटी अदि ने सम्मानित किया। केके बिरला फाउन्डेशन, भारतीय विद्या भवन, भारतीय भाषा परिषद्, भारतीय संस्कृति संसद जैसी संस्थाओं से सम्बद्ध रहे।
कलकत्ता03. 01.96प्रिय अभिज्ञात
तुम्हारा 29.12.96 का पत्र आज मिला। अच्छा लगा। सर्व प्रथम नववर्ष की शुभकामनाएं सपरिवार स्वीकार करो। तुम्हारा उपालम्भ भी मिला। मैं तो सदैव तुम्हारे साथ हूं दूर नहीं। ऐसा क्यों सोचा। तुम्हारे ग्रंथ भी पढ़े हैं-तुममें प्रतिभा है और लगन भी। मैं अपनी सीमा में जो कुछ भी होगा, सहयोग दूंगा। अभी कलकत्ते में ही हूं। फोन न.4642300 है। मिलें तब विस्तृत चर्चा होगी।सस्नेहतुम्हाराकल्याणमलकल्याणमल लोढ़ा2ए, देशप्रिय पार्क ईस्टकलकत्ता-7200021
Monday 16 November 2009
लेखक का सबसे बड़ा पुरस्कार है कि जनता उसे पढ़े-बच्चन
बच्चन की कविता का अवदान
हिन्दी की नयी कविता में बच्चन के योगदान की जितनी चर्चा होनी चाहिए थी वह नहीं हुई.जबकि गीतात्मकता और छंद को छोड़कर नयी कविता के सारे आधार वही थे, जो बच्चन की कविता के कविताओं के केन्द्रीय तत्व थे. नयी कविता, जिसने भारतीय कविता के मूल स्वभाव को बदल दिया में अनुभूति की प्रामाणिकता पर अधिक बल दिया गया और युग-सत्य और व्यक्ति सत्य के अन्तर्सम्बंध को सहज स्वीकार ही नहीं किया गया बल्कि स्थापित भी किया गया.यहां युग की व्यंजना व्यक्ति द्वारा अनुभूत थी.यहां व्यक्ति और समाज दोनों दो इकाइयां न थीं.अपने सहज उद्गारों को प्रकट करने के लिए शास्त्रीय भाषा के बदले बोल-चाल की भाषा प्रचलन में आयी.हालांकि सुसंस्कृत भाषा से इसका परहेज न था.सम्वेदन का जैसा विकास इस काव्य में है हिन्दी की दूसरी काव्य प्रवृत्तियों में प्रायः नहीं दीख पड़ता.अनुभूति और सम्वेदना के साथ-साथ संगीत का एक आंतरिक पुट भी विद्यमान है.यहां खोखले नारे न थे.उसके बजाय था-एक पराजय बोध, उसकी असहायता जो उसे अन्ततोगत्वा लघु मानव में परिणत कर देती है जो कहीं न कहीं राजनैतिक मोहभंग और आदर्शवाद के खोखलेपन के कारणों से जुड़ा है.उसका सुख भविष्य के प्रति सुस्वप्न बुनने के बजाय क्षण पर टिका है.सार्त्र का अस्तित्ववाद और क्षणवाद इस काव्य की एक सीमा है और इस काव्य का सत्य भी लेकिन ऐसा नहीं है कि हिन्दी के आधुनिक साहित्य में पहली बार यह हुआ है.इसके पहले छायावाद के अवसान-काल में महत्त्वपूर्ण कवि डॉ.हरिवंशराय 'बच्चन' ने अपनी हालावादी कविताओं में इसी अस्तित्ववादी-क्षणवादी अवधारणाओं की पुष्टि की.वहां भी असहायता, निरुपायता और कुण्ठाएं थीं, जो उसके लघु मानव का बोध कराती हैं और भविष्य के प्रति संशंकित दृष्टि से देखते हुए वर्तमान में ही लिप्त हो जाने का संदेश देती हैं.यह अलग बात है कि इस ऐतिहासिक तथ्य की नयी कविता के परिप्रेक्ष्य में चर्चा नहीं की गयी.वैसे डॉ.नगेन्द्र ने इसे वैयक्तिक कविता के परिप्रेक्ष्य में बच्चन, रामेश्वर शुक्ल अंचल और गिरिजाकुमार माथुर आदि के गीतों पर लिखते हुए रेखांकित किया है.(डॉ.नगेन्द्र, आधुनिक हिन्दी कविता की मुख्य प्रवृत्तियां, 1979, पृष्ठ 68) और कहा है कि 'इनमें भारत का चार्वाक दर्शन और ईरान के उमर खैय्याम के रंगीन क्षणवाद का भोगवादी जीवन-दर्शन सहानुभूति सहित मूल रूप में उपलब्ध है! और इन सबका निखार बच्चन में प्राप्त है.इनमें व्याप्त व्यक्तिवाद, आध्यात्मिक नहीं है, भौतिक है.xxxइसका व्यक्तिवाद मान्य आस्थाओं के प्रति संदेह और विद्रोह को लेकर चला है.उसके मूल में एक ओर सूक्ष्म आध्यात्मिक विश्वासों के प्रति संदेह और दूसरी ओर नैतिक और सामाजिक विधान के प्रति विद्रोह का भाव है.अतएव आरम्भ में वह नकारात्मक जीवन दर्शन को लेकर खड़ा हुआ है.बच्चन की कविता में संदेहवाद, भाग्यवाद या नियतिवाद और कहीं-कहीं तो निषेधवाद तक मिलता है.' अंग्रेज़ी के कवियों लुई मैक्नीस, स्पैंडर, आडन इत्यादि के प्रयासों से शुरू काव्यांदोलन न्यू पोयट्री का प्रभाव भी नयी कविता ने ग्रहण किया. नयी कविता ने आंदोलन का रूप उस समय ग्रहण किया जब 1954 में 'नयी कविता' का प्रकाशन हुआ और यहीं से नयी कविता और अज्ञेय की प्रयोगवादी कविता में अलगाव का दावा किया जाने लगा।
'बच्चन' ने दिया था मुझे 'अभिज्ञात' उपनाम
अपने गीतों से लोगों के मन पर गहरी छाप छोड़ने वाले और मधुशाला, मधुबाला और मधुकलश से जीते जी लिजेंड बन जाने वाले गीतकार डॉ.हरिवंशराय बच्चन से मेरा उस उम्र में ही परिचय हो गया था जब मैं साहित्य की उनकी हैसियत को न तो समझ सकता था और ना ही मेरी कोई अपनी पहचान ही थी.मुझमें बस साहित्य रचने की ललक थी और लिखना सीख रहा था.अपने पिता से उनकी खूब चर्चा सुनी थी और उन्हीं से मिलते जुलते लहजे में अपने पिता से 'मधुशाला' और 'मधुबाला' के गीत सुने थे.एकाएक बच्चन जी को पत्र लिखने की सूझी और मुझे हैरत हुई कि उनका ज़वाब भी मिला.यह 1982-83 की बात है मैं उस समय संभवतः कक्षा 11 वीं का छात्र था.फिर से उनसे पत्रों का सिलसिला चल निकला और पत्रव्यवहार का सिलसिला चार-पांच साल तब तक चला जब तक उनकी हस्तलिपि वाले पत्र मुझे मिलते रहे जो सोपान, नयी दिल्ली और प्रतीक्षा, मुंबई के पते से होते थे और मुझे पहले तुमसर-महाराष्ट्र में और बाद में मेरे गांव कम्हरियां,आजमगढ़, उत्तर प्रदेश के पते पर मिलते जब जहां मैं होता, एकाध पत्र कोलकाता के उपनगर टीटागढ़ में भी मिले.कुछ दिनों बाद उनके टाइप किये हुए पत्र आने लगे और वह ग्लैमर ख़त्म हो गया जो उनकी हस्तलिपि को समझने की कोशिश से जुड़ा था और मेरी ज़िन्दगी में भी इतने बदलाव आये कि कई बार पुराने सम्पर्क टूटे-बिखरे.उन दिनों मैं अपने दोस्तों का दिये गये उपनाम 'हृदय बेमिसाल' के नाम से लिखता था और मैंने बच्चन जी से गुजारिश की थी वे मुझे एक अच्छा सा उपनाम दें.और उन्होंने मुझे उपनाम दिया 'अभिज्ञात' साथ में यह भी लिखा था कि 'जब मेरा अभ्यास का लेखन ख़त्म हो जाये तो मैं अभिज्ञात उपनाम अपनाऊं.' और मैंने यही किया नामकरण के अरसे बाद 1991 के आसपास जब मेरा पहला कविता संग्रह 'एक अदहन हमारे अन्दर आया' तो मैंने विधिवत साहित्य में 'अभिज्ञात' उपनाम को अपनाया.इसके कुछ माह पूर्व ही मेरी कहानी 'बुझ्झन' का नाट्य रूपांतर भारतीय भाषा परिषद में किया गया था और पहली बार मैंने इस नाम का इस्तेमाल किया था.वह पत्र दरअसल अब खोजने से भी नहीं मिल रहा है जिसमें उन्होंने यह नाम मुझे दिया था.
पत्रों में युवा साहित्यकारोंके विकास के सूत्र
बच्चन जी के कुछ ही पत्र अब मेरे पास हैं.पहले मैं इस तरह के पत्रों के महत्त्व को भी नहीं समझता था और वे लापरवाही से रखे जाते थे और एक शहर से दूसरे शहर जाने में कई चीज़ें पीछे छूटीं, नष्ट हुई और क्षतिग्रस्त हुई.कुछ हमेशा के लिए खो गयीं तो कुछ के फिर से यकायक मिल जाने की उम्मीद बची है किताबों के मेरे उस ढेर में जिससे लड़कर मैं कई बार हार जाता हूं.फिर भी यह सौभाग्य है कि उनके लगभग दर्ज़न भर पत्र मेरे पास हैं जो किसी तरह महफूज़ रह गये हैं और एक तस्वीर भी जिस पर उन्होंने यह लिखकर भेजा है कि 'मेरी असली तस्वीर मेरी रचनाओं में है.'
इन पत्रों में किसी युवा रचनाकार के लिए साहित्य की दुनिया में काम करने के लिए कुछ आवश्यक सूत्र हैं, जो मेरे लिए तो उपयोगी रहे ही युवा पीढ़ी के तमाम लोगों के लिए भी वे प्रासंगिक हैं.मसलन रचनाएं लौट आयें तो उसे अपनी रचनात्मक ग़लती समझें सम्पादक की नहीं, अस्वीकृत होती रचनाओं से हताश न हों, आपका काम ही आपकी सिफारिश होगा, आपको मौका देने के लिए कोई आपको मौका नहीं देगा बल्कि अपनी सफलता के लिए देगा, लेखक का सबसे बड़ा पुरस्कार है कि जनता उसे पढ़े, जो भी काम करें उसमें पूर्णतया अपने को लगा दें, लेखन के लिए ज़रूरी है मुक्त जीवन अनुभव, व्यापक स्वाध्याय, सतत अभ्यास और सुरुचिपूर्ण साहित्यकारों का सत्संग जिससे उसके सर्जक का विकास होगा, आदि.
बच्चन के पत्र
प्रस्तुत है यहां डॉ.हरिवंशराय बच्चन के कुछ मुझे लिखे कुछ पत्रों के अंश जो मेरे रचनात्मक विकास में सहायक हुए और जो इस बात के गवाह हैं कि कितने धीरज और प्यार से एक महान बुजुर्ग कवि अपनी नयी पीढ़ी को रास्ता बताता है.
पत्र-एक हस्तलिपि
बच्चन
'प्रतीक्षा'
दसवां रास्ता-जुहू
बंबई-उंचास
400049
11.4.83
प्रिय श्री
पत्र के लिए धन्यवाद.
प्रसन्नता है साहित्य के स्वाध्याय सृजन में आपकी रुचि है. मुक्त जीवन अनुभव, व्यापक स्वाध्याय, सतत अभ्यास और सुरुचिपूर्ण साहित्यकारों के सत्संग से आपके सर्जक का विकास होगा. आगे पत्र-व्यवहार का पताः
'सोपान', गुलमोहर पार्क, नई दिल्ली
भवदीय
बच्चन
पत्र-दो(हस्तलिपि)
हरिवंश राय बच्चन
'सोपान'
बी-8, गुलमोहर पार्क, नई दिल्ली -49
प्रिय श्री
पत्र के लिए ध.
वामा मेरे पास नहीं आती. कटिंग भेज सकें तो आपकी कहानी पढ़ूंगा.
कहानी लौट आये तो कहानी का दोष समझें. सम्पादक का नहीं. और अच्छी कहानी भेजें. और पत्रिकाओं में भेजें.
एक समय बर्नार्ड शा के लेख भी लौट आते थे. 10 में 9. वह 100 लेख भेजता था, दस तो छपेगा. शेष सामान्य. शु.का.
बच्चन
पत्रःतीन(टाइप किया हुआ पत्र)
हरिवंश राय बच्चन
'सोपान'
बी-8, गुलमोहर पार्क, नई दिल्ली -49
8 अगस्त, 1986
प्रिय श्री,
आपका पत्र मिला. प्रकाशक से मेरा कोई सम्बंध नहीं है. मैं इस विषय में आपको कोई राय नहीं दे सकता.
भवदीय
बच्चन
(हरिवंशराय बच्चन)
पत्रःचार हस्तलिपि)
दीपावली की बधाई के लिए शुभकामनाएं
बच्चन
1983
'दिन को होली
रात दिवाली
रोज़ मनाती मधुशाला'
पत्रः पांच (हस्तलिपि)
'सोपान', गुलमोहर पार्क, नई दिल्ली
23.10.83
प्रिय श्री हृदय बेमिसाल जी
नमस्ते
पत्र के लिए धन्यवाद. सद्भवना के लिए आभारी हूं. आपकी योजनाओं की सफलताओं के लिए मेरी शुभकामनाएं. अवस्था ( मैं 76 वां पूरा कर रहा हूं) और अस्वस्थता के कारण यात्राएं मेरे लिए कष्टकर हो गयी हैं. सशरीर मैं उपस्थित होने में असमर्थ हूं. क्षमा करेंगे. शेष सामान्य. शुभकामनाएं.
भवदीय
बच्चन
पत्रःछह(हस्तलिपि)
जन्म दिन की बधाई के लिए धन्यवाद. शुभकामनाएं.
बच्चन
83
'सूख रही है
दिन-दिन संगी
मेरी जीवन मधुशाला'
'सोपान'
गुलमोहर पार्क
नयी दिल्ली
पत्रःसात(हस्तलिपि)
हरिवंश राय बच्चन
'सोपान'
बी-8, गुलमोहर पार्क, नई दिल्ली -49
नये साल की बधाई
शु.के लिए सधन्यवाद, शुभकामनाएं.
लेखक का सबसे बड़ा पुरस्कार है कि जनता उसे पढ़े. जो भी काम करें उसमें पूर्णतया अपने को लगा दें.
बच्चन
13.1.85
पत्रःआठ (हस्तलिपि)
'सोपान', बी-8, गुलमोहर पार्क, नई दिल्ली
6.12.83
प्रिय श्री
पत्र के लिए धन्यवाद
अपनी परिस्थितियों और योग्यता क्षमता को देखकर अपने भविष्य की दिशा आपको निश्चित करनी है. किसी भी दिशा में जायं संघर्ष तो करना ही होगा परिणाम की गारंटी कौन दे सकता है. आप समझते है कि फ़िल्मों में आप गीत लिख सकते हैं या फ़िल्मों के लिए कहानी तो आप बंबई जाकर प्रोड्यूसरों और म्यूज़िक डायरेक्टरों से मिलें. उन्हें अपनी योग्यता का सबूत दें. संभव है वे आपको मौका दें. वहां किसी की सिफारिश से काम नहीं होता. आपका काम आपकी सिफारिश होगा. यह पहले से जान लें कि आपको मौका देने को वे आपको नहीं देंगे.
देंगे तो इसलिए कि आपको देकर वे अपने आर्थिक उद्योग में सफल तो हो सकेंगे या नहीं. तरजीह नये के ऊपर जाने-माने को दी जाती है यह भी यथार्थ है और जाने-माने कितने लोग हैं जो अपना स्थान बना चुके हैं पर नये लोग भी अपनी राह बनाते हैं. मैं आपको अपनी शुभकामनाएं दे सकता हूं और कुछ नहीं. आप अपने अभियान में सफल हों.
भवदीय
बच्चन
पत्रःनौ(हस्तलिपि)
'सोपान', गुलमोहर पार्क. नई दिल्ली
8.6.85
प्रिय श्री
आपका कार्ड मिला और कुछ आपकी ओर से नहीं मिला. आशा है आपका काम पसंद किया जायेगा और आगे आपको और काम मिलेगा.
मेरी शुभकामनाएं.
बच्चन
Monday 9 November 2009
सुर संग्राम का बेहतरीन सुर
Sunday 8 November 2009
पत्रकारिता को नयी भाषा व संवेदना के नये धरातल दिये प्रभाष जी ने
जिन कुछेक लोगों ने हिन्दी पत्रकारिता की विश्लेषणात्मक क्षमता और उसकी रीति-नीति का निरन्तर विस्तार, आविष्कार और परिमार्जन किया उनमें प्रभाष जोशी का नाम प्रमुखता से लिया जायेगा। धार और संवेदना की जैसी जुगलबंदी उनकी भाषा में दिखायी देती है वह हिन्दी पत्रकारिता में विरल होती जा रही है वरना पत्रकारिता की भाषा का इकहरापन चिन्ताजनक है। भाषा का छंद नारों से नहीं नीयत से आता है यह प्रभाष जी जैसों के लेखों से ही जाना जा सकता है। उनके 'कागद कारे' शृंखला के आलेख न तो कभी पुराने पड़ने हैं और ना ही वे कभी अप्रासंगिक होंगे क्योंकि उनमें देश दुनिया का जनमानस लगातार अपनी टोह में लगा हुआ दिखायी देता है। हमारी घनीभूत चिन्ताओं की शक्ल क्या है ही उनमें नहीं दिखायी देती बल्कि यह भी कि उसके निहितार्थ क्या हैं या भी समझाने का महती प्रयत्न दिखायी देता है। मामूली और आम बातें, घटनाएं और लोग उनके आलेखों में आकर जो रूपाकार ग्रहण करते थे वह उन्हें एक सार्थक बहस का बेहद जरूरी हिस्सा बना देता था। मैं अक्सर समय के अभाव में उनका आलेख प्रकाशन के दिन नहीं भी पढ़ पाता था तो कई दिनों तक पुराने अखबार को रखे रहता था कि उनका आलेख पढ़ लूं तो फिर अखबार को रद्दी समूह के कागज़ों में डालूं। अक्सर उनके आलेख उन मुद्दों पर भी रहते तो ज्वलंत प्रश्नों से मुठभेड़ लेते थे उन आलेखों में उनकी खरी नीयत बोलती थी और साफगोई उसमें नया पैनापन देती थी। मुझे क्रिकेट में तो कभी दिलचस्पी नहीं रही फिर भी कभी कभार क्रिकेट पर लिखे लेखों को भी पढ़ने की कोशिश करता। क्रिकेट पर तो हिन्दी में शायद उनके जैसा दूसरा टिप्पणीकार न होगा।
मैंने कभी सोचा न था कि पत्रकार बनूंगा फिर भी अनायास ही पत्रकारिता से शौकिया जुड़ गया जनसत्ता कोलकाता से और स्ट्रिंगर बन गया.। उन दिनों मैं कलकत्ता विश्वविद्यालय से केदारनाथ सिंह पर पीएचडी के लिए शोध कर रहा था और अपने नानाजी के ठेकेदारी के कामकाज में हाथ बंटाता था। पेशे के तौर पर पारिवारिक स्तर पर तय हो चुका था कि नौकरी नहीं कारोबार करना है। उन्हीं दिनों दो एक बार प्रभाष जी को कुछ करीब से देखने का अवसर मिला। ऐसी दो एक सभाओं की कवरेज करने भी गया जिनमें प्रभाष जी वक्ता थे। उनमें एक सभा वह भी है जिसमें पं.विष्णुकान्त शास्त्री कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे थे। उस समय वे संभवतः भाजपा के लोकसभा सांसद भी थे। यह तो नहीं याद है कि सभा का मुख्य विषय क्या है किन्तु प्रभाष जी एनरान पर बोले थे और तत्कालीन भाजपा नीत सरकार की एनरान के मुद्दे पर भूमिका की जम कर मलामत की थी। अध्यक्षीय भाषण में विष्णुकान्त जी ने उनकी बातों का जवाब दिया था और उनके तर्कों को दरकिनार कर दिया था। ऐसा लगा था कि प्रभाष जी के तर्क कुछ कमजोर पड़ गये हैं। विष्णुकान्त जी अध्यक्षीय भाषण देकर सभा की समाप्ति की घोषणा भी कर दी। लेकिन प्रभाष जी विष्णुकान्त जी के तर्कों का फिर से जवाब देने से चूकना नहीं चाहते थे। वे लपक कर फिर माइक के पास पहुंच गये और कहा कि मुझे यह अनुशासन पता है कि अध्यक्षीय भाषण के बाद फिर वक्तव्य नहीं दिया जाता है लेकिन इस अनुशासन से बढ़कर भी कुछ बातें हैं जिसके कारण मैं फिर बोलना चाहूंगा और विष्णुकान्त जी या अन्य किसी और की सहमति की प्रतीक्षा किये बिना ही उन्होंने बची खुची कसर निकाल ली और फिर मंच से उतर कर तेजी से अपनी कार की ओर बढ़े। इधर, कई भाजपा कार्यकर्ताओं को प्रभाष जी का वक्तव्य नागवार लगा और वे उन्हें घेरने का प्रयास करने लगे। वे जब तक कार में बैठते चारों ओर से भाजपा कार्यकर्ताओं ने घेर लिया था और उन्हें अपशब्द भी कहने पर उतारू थे वह तो भी भीड़ का रुख देखकर विष्णुकान्त जी वहां पहुंचे और किसी प्रकार यह कहकर लोगों को गाड़ी के आगे से हटाया कि प्रभाष जी पत्रकार हैं और पत्रकारों को कुछ भी कहने की आजादी होती है, उन्हें कहने दीजिए। आप लोग संयम बरते।
दूसरी एक घटना मुझे याद है जो प्रभाष जी के अभिव्यक्ति की आजादी के प्रति उनके रवैये को स्पष्ट करती है। वह घटना है एक साहित्यक समारोह की है। उसमें प्रख्यात ललित निबन्धकार डॉ.कृष्ण बिहारी मिश्र प्रधान वक्ता थे। मंच से उन्होंने जनसत्ता की भाषा नीति की जमकर आलोचना की थी और नाम लेकर कहा था कि प्रभाष जोशी जैसे पत्रकार अपने आपको कबीर बनते हैं और भाषा से खिलवाड़ कर रहे हैं। पता नहीं पत्रकार किस हेकड़ी में रहते हैं। इस वक्तव्य में कुछेक हर्फ़ इधर उधर हो सकते हैं मगर लब्बोलुबाब यही था। उल्लेखनीय यह है कि वहां मंच पर प्रभाष जी नहीं थे वरना वे उसका जवाब स्वयं देते। मेरी ड्यटी इस कार्यक्रम की रिपोर्टिंग की लगी थी। मैंने जो रिपोर्ट लिखी थी उसमें मैंने इंट्रो ही प्रभाष जी के भाषा सम्बंधी रुझान पर कृष्णबिहारी जी की आपत्ति को बनाया था। मामला संवेदनशील होने के कारण डेस्क ने रिपोर्ट की कापी कोलकाता के स्थानीय सम्पादक श्री श्याम आचार्य तक पहुंचायी और उन्होंने उसे दिल्ली फैक्स किया ताकि उसके प्रकाशन के सम्बंध में प्रभाष जी की राय ली जा सके। और राय हां में थी। वह रिपोर्ट उसी प्रकार प्रकाशित हुई। सचमुच प्रभाष जी ने पत्रकारिता की भाषा को जनभाषा के करीब लाने का न सिर्फ प्रयास किया बल्कि भाषा की शास्त्रीयता की दुहाई देने वालों से इस मोर्चे पर लोहा भी लिया जिसकी यह घटना उदाहरण है।
प्रभाष जी के मालवा अंचल और कुमार गंधर्व पर कई लेख जब तक पढ़ने का मौका मिलता रहा था। जब मैं अमर उजाला, जालंधर से वेबदुनिया डाट काम में कार्यभार संभलाने के लिए इंदौर गया तो इंदौर से पहले ही वह स्टेशन देवास मिला जिसके बारे में मैं पर्याप्त पढ़ चुका था और इंदौर भी मुझे इसलिए भी पहले से परिचित और मोहक लगा। प्रभाष जी के आलेख में वह शक्ति है जो अर्थ ही नहीं पूरी संवेदना को पाठक तक पहुंचाती है। एक ही संस्थान होने के कारण कुछेक बार मुझे वेबदुनिया कार्यालय से नयी दुनिया कार्यालय जाने का मौका मिला था तो वहां भी प्रभाष जी की चर्चा सुनी थी जहां से उन्होंने अपने पत्रकारिता करियर की शुरुआत की थी। वेबदुनिया कार्यालय में भी अक्सर राजेन्द्र माथुर, शरद जोशी आदि के साथ चर्चा होती थी, जिनसे नई दुनिया का प्रगाढ़ रिश्ता था। इन चर्चाओं ने मुझे उनका फैन बना दिया था। पत्रकारिता के तुरतफुरत के भाषिक और प्रतिक्रियाशील व्यवहार को नयी ऊंचाई और दिशा देने में प्रभाष जी के योगदान को मैं नमन करता हूं।
Monday 26 October 2009
बिग बास से लक्स परफेक्ट ब्राइड तकः हमारा समाज, हमारा घर
Thursday 22 October 2009
लोक तत्त्वः कुछ नोट्स
बाज़ार और उत्पादन
लोकतत्त्व का इधर बाज़ार को ध्यान में रखकर पूरी दुनिया में अध्ययन हो रहा है। वह दुनियाभर के बाज़ारों के लिए ग्लैमर का विषय है। दुनिया भर के बाजार जानना चाहते हैं कि किस देश के किस प्रांत का लोकजीवन क्या है। उनके सपने और आकांक्षाएं क्या हैं क्योंकि यही तो वह है जिसकी ओर उनकी निगाह है। वहां क्या बेचा जा सकता है और वहां से सस्ता क्या उगाहा जा सकता है। कोई दूर दराज के गांव में किसी खास वनस्पति की खेती या बागवानी चाहता है ताकि उसके बूते वह अपने धंधे को सस्ते में और चोखा कर सके। कोई दूर दराज के गांव में यूकेलिप्टस उगवा देता है तो कोई सूर्यमुखी खिला देता है तो कोई गांव की बंजर ज़मीनों पर जट्रोफा की उपज चाहता है ताकि तेल की समस्या से कुछ निजात मिले। दुनिया की प्रयोगशालाएं गांवों पर प्रयोग के लिए आतुर रहती हैं और वह आतुरता बनी हुई है।
चीन के गांव में वह चीज़ें तैयार की जा रही हैं जो भारत के दूरदराज़ के गांव में इस्तेमाल की जा सकें। वहां चीन के ग्रामीणों को यह पता नहीं है कि वह जो कुछ बना रहे हैं उसका कितना घातक असर लोगों की स्वास्थ्य पर पड़ेगा। उन वस्तुओं का टिकाऊपन कितना रहेगा और यूज़ एंड थ्रो वस्तु यूज़ से अधिक थ्रो के ही काम आती है। चीन के गांव का आदमी सस्ते में चीज़े बना रहा है और भारत के गांव का आदमी वह सस्ते में इस्तेमाल कर रहा है। दोनों जगह ही गांव का इस्तेमाल बाज़ार कर रहा है।
महंगा हुआ श्रम
राष्ट्रीय ग्रामीण गारंटी रोजगार योजनाओं से गांवों का जीवन बदल रहा है और लोगों को श्रम की अच्छी कीमत मिल रही है जो पहले संभव नहीं थी। इसका नतीज़ा यह हुआ कि खेतों में काम करने के लिए जो शहर की तुलना में सस्ता श्रम था वह उपलब्ध था। हालांकि गांव से रोजगार की खोज के लिए शहर की ओर जाते लोगों की वज़ह से दिनों दिन काम करने योग्य लोगों की उपलब्धता घटती जा रही थी लेकिन अब और कठिन हो गया जो गांव में हैं उन्हें नरेगा के तयशुदा मानकों के अनुरूप पैसा मिलने के कारण अब खेतिहर श्रमिकों के भाव बढ़ गये हैं जिसके कारण खेती करना और महंगा हो गया है। अब जो खर्च खेती पर हो रहा है उसकी की़मत अनाज से निकलने की गारंटी कहां है। गांव के लोगों को आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भरता की यह जो कीमत देश को चुकानी पड़ेगा वह क्या बड़ी नहीं है। नये हालात में खाद्यानों की उपज कम हो जायेगी। खेती के कार्य में श्रम को बढ़ावा देने की आवश्यकता भी उतनी ही है जितनी ढांचागत सुविधाओं की । दोनों का सामंजस्य जरूरी है ऐसा न हो कि गांव से शहर तक आवाजाही की सुविधा तो हो जाये लेकिन गांव में कुछ ऐसा तैयार ही न हो पाये जो शहर में पहुंचे।
भोजपुरी का बाज़ार
इधर भोजपुरी बोली के भाषा बनने की तैयारियां हो रही हैं और भोजपुरी का बाज़ार उठा है। सस्ते-सुस्ते में बनी भोजपुरी फिल्म ससुरा बड़ा पैसा वाला फिल्म के बाक्स आफिस पर हिट होने का बाद भोजपुरी फिल्मों की बाढ़ आ गयी। इधर टी सीरिज ने भोजपुरी बाजार को पहले ही अश्लील भोजपुरी गीतों से पहले ही बाजार को पाट रखा था। अश्लीलता और फूहड़ता पर टिका यह भोजपुरी का संगीत व फिल्मी बाजार तब और गरम हो उठा जब महुआ जैसे टीवी चैनल भी भोजपुरी में आ गये। पारा गरम और मिर्ची लागल जैसे अश्लीलता से आतप्रोत कार्यक्रमों के बूते इस चैनल ने बता दिया कि भोजपुरी की औकात क्या है। जो लोग गांवों से काफी पहले शहर आ गये थे और भोजपुरी बोलना जिनके बच्चों के बस की बात नहीं रह गयी थी वह प्रेरित किये गये कि अपनी भाषा का टीवी चैनल देखें लेकिन जब उन्होंने भोजपुरी की शानदार अश्लील परम्परा का जायजा लिया तो शर्मसार हो उठे। द्विअर्थी गीत ही भोजपुरी गीतों की पहचान बन गयी है। अब व अन्य भाषा बोलने वालों के बीच लगा 'द तू चोलिया के हूक राजा जी' , 'लहंगा उठा देब रिमोट से', 'मिस काल मार तारू किस देबू का हो/अपनी मसीनिया में पीस देबू का हो' जैसे गीतों में अपनी संस्कृति की पहचान नहीं कराना चाहते। पते की बात यह है कि अश्लीलता की परिधि के आसपास घूमते लोग ही मंच पर यह दावा करते हैं कि भोजपुरी को भाषा बनायी जाये ऐसे में इनको कौन पढ़ा लिखा भोजपुरिया अपना प्रतिनिधित्व सौंपेगा।
लोक-परलोक
गांव से रोजगार की तलाश में शहर आना और बरसों बाद रिटायर होने पर गांव लौटना भारतीय समाज की बहुत बड़ी त्रासदी है। गांव के परिचित माहौल से बाहर शहर के माहौल से तालमेल बिठाने में समय लगता है लेकिन उससे अधिक कठिन है अपने को शहर के सांचे में ढालने के बाद गांव के लोक जीवन से तालमेल बिठा पाना। शहर में अपनी उम्र के कीमत वर्ष बिताने के बाद गांव लौटना पढ़े लिखे व्यक्ति के लिए नर्क में लौटना है। वहां का वातावरण लगातार व्यक्ति को अकेला करता है, निराश और हताश करता है। भ्रष्टाचार और चारित्रिक पतन जो शहर में परदे में है, वह गांव में अपने नग्न रूप में सामने खड़ा हाता है। उपयोगी नहीं हैं तो कुछ नहीं हैं, गांव का मूल्य बन चुका है। गांव से शहर जाकर लौटे आदमी के लिए लोक ही परलोक हो चुका होता है।